Author : Parjanya Bhatt

Published on Aug 01, 2018 Updated 0 Hours ago

सोशल मीडिया पर आतंकवादी दुष्प्रचार के प्रति सामान्य दृष्टिकोण अपनाने से काम नहीं चलेगा। कहानी के दूसरे सिरे को बयान करने वाली सामरिक दास्तान घाटी के समक्ष प्रस्तुत करने की जरूरत है।

साइबर जिहाद: कश्मीर की सबसे बड़ी चुनौती

हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने के दो साल बाद उसके समर्थकों द्वारा प्रचारित ‘ बुरहानवाली आज़ादी’ की भावना ने कश्मीर में स्थानीय आतंकवाद को और भी ज्यादा हवा दे दी है। स्थानीय स्तर पर उभरी आतंकवादियों की नई पौध अपने आदर्श पर मोहित है और बन्दूकों के किस्से बढ़ा⎯चढ़ा के ऑनलाइन सुनाने से हिचकिचा नहीं रही है। उन्हें बरगला कर साहस और दिलेरी का प्रदर्शन करने वाले ऐसे गुमराह लोगों में तब्दील किया गया है, जो सोशल मीडिया पर प्रचार करने, अपने ‘मकसद’ के लिए सहानुभूति बटोरने, घाटी के कट्टर युवाओं के साथ नियमित संवाद कर उनकी संवेदनाओं को नियंत्रित करने के लिए हर उपलब्ध डिजिटल टूल का इस्तेमाल करते हैं, ताकि वे संभवित रंगरूटों की तलाश कर सकें। सोशल मीडिया को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हुए वे कश्मीर के लोगों के मानस पर जिहाद का संदेश उकेरने, असहाय नौजवानों को सड़कों की हिंसा में भाग लेने को उकसाने, उनका बन्दूक से परिचय कराने और आखिरकार उन्हें आतंकी वारदातों को अंजाम दिलाने में कामयाब होते दिखाई दे रहे हैं।

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मस का अंधाधुंध इस्तेमाल कट्टरता से भरपूर सामग्री की घातक खुराक उपलब्ध करा रहा है, जिसने कश्मीर में 30 बरस से जारी उग्रवाद को व्यवस्थित गति दे दी है, जहां कट्टर विचारधारा, आतंकवादी गुट और उनके आका परजीवियों की तरह कश्मीर की घायल मानसिकता और उसकी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक असहायताओं पर फलते⎯फूलते हैं। फेसबुक, यूट्यूब, व्हाट्स एप्प, ट्विटर, वाइबर, स्काइप, टेलीग्राम आदि जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉमर्स के घातक प्रभाव का इस्तेमाल पहले बुरहान ने किया, अब हिजबुल मुजाहिदीन और लश्कर ए तैयबा जैसे आतंकवादी संगठनों द्वारा किया जा रहा है। उनके भारत⎯विरोधी दुष्प्रचार में आतंकवादियों के ट्रेनिंग सत्रों और सुरक्षा बलों द्वारा कथित तौर पर स्थानीय लोगों को प्रताड़ित किए जाने के वीडियो शामिल हैं, जो असहाय युवाओं को भड़का रहे हैं। ‘साइबर जिहाद’ घाटी में गहरी जड़े जमा चुका है और वह आतंकवाद बरकार रखने के लिए नई पीढ़ी के आंतकवादी तैयार कर रहा है।

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मस का अंधाधुंध इस्तेमाल कट्टरता से भरपूर सामग्री की घातक खुराक उपलब्ध करा रहा हैजिसने कश्मीर में 30 बरस से जारी उग्रवाद को व्यवस्थित गति दे दी है।

2017 में कश्मीर में गड़बड़ी की घटनाओं की 6 माह तक जांच करने के बाद राष्ट्रीय जांच एजेंसी — एनआईए ने 79 व्हाट्स एप्प ग्रुप्स की पहचान की, जिनमें 6,386 फोन नम्बर थे, जिनका इस्तेमाल पथराव करने के लिए लड़कों को जुटाने के लिए किया जाता था। उनमें से लगभग 1,000 नम्बर पाकिस्तान तथा खाड़ी देशों  में एक्टिव पाए गए। शेष  5,386 नम्बर घाटी के विभिन्न हिस्सों और पड़ोसी राज्यों में सक्रिए पाए गए।  इनमें से अनेक ग्रुप्स के एडमिनिस्ट्रेटर्स पाकिस्तान में हैं। मीडिया  रिपोर्ट के अनुसार, 300 से ज्यादा व्हाट्स एप्प ग्रुप्स 2017 में आतंकवाद निरोधी अभियानों को बाधित करने के लिए भीड़ जुटाने के लिए चलाए गए।

कश्मीर में सोशल मीडिया तक निर्बाध पहुंच वाले युवाओं की संख्या 2010 के 25 प्रतिशत से बढ़कर 2015 में 70 प्रतिशत हो गई। तभी से, आसानी से माना जा सकता है कि इस संख्या में और बढ़ोत्तरी हुई है।  बुरहान वानी की मुठभेड़ के बाद फैले ई — जिहाद को नियंत्रित करने के लिए सरकार ने जवाबी कार्रवाई करते हुए 2016 में पांच महीने तक इंटरनेट के सिग्नलों को ब्लॉक रखा। आमतौर पर, इंटरनेट संबंधी पाबंदियों में 3जी और 4जी नेटवर्कस और सोशल मीडिया एप्प तक पहुंच रोकी जाती है, लेकिन मुख्यत: प्रशासन और सुरक्षा बलों द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले सरकारी स्वामित्व वाले बीएसएनल नेटवर्क को चालू रखा गया।  किसी भी सूरत में इस तरह के ई कर्फ्यू के कुछ खास मायने नहीं थे, क्योंकि आतंकी नेटवर्क और व्यक्ति इस तरह की सुरक्षा से सम्बंधित निगरानी से निपटने के लिए वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क्स (वीपीएन) का इस्तेमाल करते हैं।

नफरत फैलाने के लिए इंटरनेट पर  लगातार चलाए जा रहे दुष्प्रचार ने कट्टरपंथ की प्रक्रिया और रंगरूटों की भर्ती को भी सुचारू बनाया है। जमीनी हकीकत और ऑनलाइन प्रचार इस हद तक आपस में गुत्थ गये हैं कि उन्हें शायद ही अलग करके जा सकता है। राष्ट्र विरोधी गतिविधियां और आतंक का दुष्प्रचार वैध दिखाई देता है, क्योंकि नए रंगरूटों को भारत सरकार द्वारा प्रताड़ित और कश्मीर के रक्षक के तौर पर दर्शाया जाता है। उक्त उद्देश्य के लिए, आतंक के आकाओं को अवैध तरीकें अपनाने की जरूरत नहीं, सोशल मीडिया उन्हें आड़, जगह और युवाओं को प्रभावित करने की तेजी उपलब्ध कराता है।

जमीनी हकीकत और ऑनलाइन प्रचार इस हद तक आपस में गुत्थ गये हैं कि  उन्हें शायद ही अलग करके जा सकता है। राष्ट्र विरोधी गतिविधियां और आतंक का दुष्प्रचार वैध दिखाई देता हैक्योंकि नए रंगरूटों को भारत सरकार द्वारा प्रताड़ित और कश्मीर के रक्षक के तौर पर दर्शाया जाता है।

ऑनलाइन  दुष्प्रचार से प्रभावित होकर  नौजवान लड़के धीरे⎯धीरे बड़ी भीड़ में तब्दील हो जाते हैं, जो पथराव करने, स्कूलों को जलाने और आतंकवदियों को मुठभेड़ वाली जगहों से बच निकलने में मदद करने के लिए मानव ढाल बन जाते हैं। 2014 से आतंक की राह चुनने वाले स्थानीय लड़कों की तादाद में इजाफा हुआ है। 2012-13 के दौरान यह आंकड़ा 54, 23, 21 और 6 रहा। वर्ष 2014 में, यह आंकड़ा बढ़कर 53 हो गया, जबकि 2015 में 66 लड़के आतंकवाद में शामिल हो गए। बुरहान वानी की मुठभेड़ के फौरन बाद यह आंकड़ा 55 फीसदी बढ़ गया और चंद हफ्तों में ही लगभग 90 लड़के आतंक की राह पर निकल पड़े। 2017 में लगभग 120 नए लड़कों ने आतंकवाद से नाता जोड़ लिया, जबकि 200 से ज्यादा मारे गए। वर्तमान वर्ष में,  लगभग 90 लड़कों ने हथियार उठा लिए हैं। जहां एक ओर ऑनलाइन कट्टरपंथ उनकी आपराधिकता, उग्रवादी विचारधारा और भारत विरोधी दुष्प्रचार को साबित नहीं करता, सत्तारूढ़ अभिजात्य वर्ग के कुशासन और भाईभतीजावाद के कारण पनपे आक्रोश ने उन्हें धकेलकर महत्वपूर्ण बदलाव की कगार पर ला खड़ा किया है। क्लाशनिकोव राइफलें लहराते हुए अपनी तस्वीरें ऑनलाइन अपलोड करना उनके इरादे को जाहिर कर रहा है। “हम बनाम वे” की कहानी स्पष्ट रूप से समझाई जा चुकी है, जिसके कारण आतंकवाद के समर्थन के लिए पुख्ता आधार तैयार हो गया है।

कट्टरवाद और भर्ती के कुचक्र को नियंत्रित करने के प्रयास के कारण घाटी में और ज्यादा हिंसा हो रही है, 2008 और 2017 के दौरान हुई पथराव की घटनाओं में शामिल रहे लगभग 10,000 लड़कों को माफी दे दी गई है। हालांकि कश्मीर के घायल मानस को इतने भर से सुकून नहीं मिल सकता।

सोशल मीडिया पर आतंकवादी दुष्प्रचार के प्रति सामान्य दृष्टिकोण अपनाने से काम नहीं चलेगा। घाटी में कहानी के दूसरे सिरे को बयान करने वाली सामरिक दास्तान प्रस्तुत करने की जरूरत है। ​’डिजिटल होमलैंड’ की हिफाजत करने के लिए एक समर्पित ‘साइबर डिफेंस कॉम्प्लेक्स’ (सीडीसी) की स्थापना किए जाने की जरूरत है और उसे अनिवार्य रूप से कश्मीर नीति का अखंड भाग होना चाहिए। इससे पहले कहानियों की जंग मस्जिदों और मोहल्लों से लड़ी जाती थीं। लेकिन आज यह काम साइबर प्लेटफॉर्मस द्वारा किया जा रहा है, क्योंकि वे भारत विरोधी प्रत्येक गतिविधि का इस्तेमाल कश्मीर में देश की छवि को धूमिल करने में करते हैं। जहां एक ओर इस प्रकार की व्यवस्था में अर्धसैनिक बल, पुलिस और सेना की भूमिका अहम होनी चाहिए, वहीं स्थानीय समुदायों को साथ जोड़ने के परम्परागत साधनों को भी प्रमुखता मिलनी चाहिए।

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