Published on Oct 05, 2023 Updated 19 Days ago

भारत में तीनों सेनाओं को थिएटर कमान में बांटने के लिए साझा मूल्यांकन पर और एकीकरण के साथ डीप एयर सपोर्ट और क्लोज़ एयर सपोर्ट पर भी ध्यान देना होगा

क्या सेनाओं को थिएटर कमान में बांटने का काम होने वाला है?

भारत ने अपनी आज़ादी की 77वीं सालगिरह इन उम्मीदों के बीच मनाई कि देश के रक्षा संगठनों और सुरक्षा नीति के बहुत बड़े और ऐतिहासिक बदलाव पर से ‘अब पर्दा उठने ही वाला है’. हाल ही में हुई कुछ घटनाएं इस बात का इशारा कर रही हैं कि अब देश के रक्षा बल एकीकृत थिएटर कमान स्थापित कने की दिशा में बहुत आगे बढ़ रहे हैं. इन क़दमों में संसद द्वारा वो विधेयक पारित करना भी शामिल है, जिसके तहत तीनों सेनाओं के कमांडर अपनी कमान में काम कर रहे किसी भी सैन्य बल के कर्मचारी के ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई कर सकेंगे, फिर चाहे वो किसी भी सेना के कर्मचारी क्यों न हों. इसके अलावा रक्षा मंत्रालय ने तीनों सेनाओं के अधिकारियों को एक दूसरे के यहां तैनात करने की इजाज़त भी दी थी. वहीं, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ ने एलान किया था कि पहली एकीकृत थिएटर कमान जयपुर में स्थापित की जाएगी.

तीनों सेनाओं को थिएटर में बांटने से कई फ़ायदे होने की अपेक्षा की जा रही है. इनमें कमान के अंतर्गत बेकार की चीज़ें कम होंगी, मिलकर युद्ध लड़ने की राह में आने वाली बाधाएं दूर होंगी, फ़ैसले लेने की प्रक्रिया आसान होगी.

ये नए क़दम संस्थागत ढांचे और महत्वपूर्ण प्रशासनिक प्रक्रिया में अपेक्षित और उल्लेखनीय बदलाव लाने वाले हैं. लेकिन, अभी इस बात को स्थिति पूरी तरह साफ़ नहीं है कि थिएटर में बांटने या एकीकृत करने के प्रमुख मक़सद को हासिल कर लिया गया है या नहीं. यानी सेना को किसी संघर्ष की शुरुआती स्थिति में क्लोज़ एयर सपोर्ट (CAS) का भरोसा देने का काम हुआ है या नहीं. भारतीय वायु सेना की संपत्तियों के बंटवारे और एयर डिफेंस कमान के विचार को ख़ारिज करने से ये संकेत मिलता है कि इस मामले में थलसेना के लिए संतोषजनक समझौता नहीं हो पाया है. इसीलिए अभी इस मामले में पूर्ण विजय की घोषणा करना जल्दबाज़ी होगी. 

क्लोज़ एयर सपोर्ट या प्रतिबंध

तीनों सेनाओं को थिएटर में बांटने से कई फ़ायदे होने की अपेक्षा की जा रही है. इनमें कमान के अंतर्गत बेकार की चीज़ें कम होंगी, मिलकर युद्ध लड़ने की राह में आने वाली बाधाएं दूर होंगी, फ़ैसले लेने की प्रक्रिया आसान होगी. हालांकि, इस बदलाव के केंद्र में थल सेना को इस बात का भरोसा देना है कि युद्ध छिड़ने पर वायुसेना ज़मीनी मोर्चे को मदद करेगी (क्लोज़ एयर सपोर्ट), जिससे सैन्य बलों को नुक़सान कम हो. युद्ध लड़ रहे सैनिकों का हौसला बढ़े और युद्ध से पहले ऑपरेशन की योजना बनाने में मदद मिले.

वायुसेना पारंपरिक रूप से ये तर्क देती रही है कि इस तरह की मांग पूरी करने से उसके पायलटों और लगातार घटते विमानों को और भी भारी क़ीमत चुकानी पड़ेगी. वायुसेना का एक तर्क ये भी है कि वायु शक्ति अपनी अनूठी ख़ूबियों की वजह से इतनी महत्वपूर्ण है कि उसे ‘सहयोगी की भूमिका’ में डाल देना नुक़सानदेह होगा. ये सबक़ अमेरिका की सेना ने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान, उत्तरी अमेरिका में बड़ी क़ीमत चुका कर सीखा था. जब उसकी सेना और वायुसेना ने मिलकर ज़मीनी युद्ध का अभियान चलाया था. वायुसेना डीप एयर सपोर्ट या इंटरडिक्शन (DAS) को प्राथमिकता देती है. इस दौरान, वो दुश्मन के विमानों, रसद और हथियारों की आपूर्ति श्रृंखला, संसाधनों वाले अड्डों और युद्धरत दुश्मन की सेना के उन अहम मूलभूत ठिकानों पर हमले करके उन्हें तबाह करती है, जो युद्ध के मोर्चे से तो दूर होते हैं, मगर उनको नुक़सान पहुंचने से मोर्चे पर लड़ाई लड़ रहे सैनिकों की ताक़त बहुत कमज़ोर हो जाती है और इस तरह युद्ध का व्यापक परिदृश्य बदल जाता है. वायुसेना को डर है कि जब तीनों सेनाओं के थिएटर कमान बनेंगे, तो अगर उसको अपने सारे संसाधन थलसेना के फ़ौरी मक़सद के लिए देने पड़ेंगे, तो उसके संसाधनों का ज़्यादा इस्तेमाल होगा. इससे वायुसेना के हवाई मोर्चे की मज़बूती कमज़ोर होगी. इससे लंबी अवधि में दो नुक़सान होते हैं. एक तो युद्ध में हार और दूसरे वायुशक्ति बेहद कमज़ोर हो जाती है.

हालांकि, थल सेना इस तरह के तर्कों से बहुत प्रभावित नहीं होती. क्योंकि थलसेना, किसी भी ज़मीनी अभियान के दौरान आसमान से सुरक्षा की छतरी बनाए रखने के लिए वायुसेना के संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करना चाहती है, जिससे सैन्य अभियान के दौरान उसे अपने संसाधनों की हिफ़ाज़त और हवाई मोर्चे की सुरक्षा को लेकर फ़िक्रमंद न होना पड़े. इसीलिए वायुसेना, थिएटर कमान के गठन में संसाधनों को साझा करने और एकीकरण की प्रक्रिया में तीनों सेनाओं  के बीच मज़बूत तालमेल वाले नज़रिए को प्राथमिकता देती है. वहीं, सेना का तर्क है कि वायुसेना की ज़िम्मेदारियों का दायरा कितना ही बड़ा क्यों न हो, उसकी प्राथमिकता तो फ़ौरी ज़मीनी युद्ध की ज़रूरतें पूरी करने में सहयोग देना है. ये इसलिए है, क्योंकि, जंग के छोटे छोटे मोर्चों पर जीत से भी युद्ध के व्यापक सामरिक लक्ष्य प्राप्त होने में उसी तरह मदद मिलती है, जिस तरह वायुसेना के सिर्फ़ ख़ुद को हवाई भूमिका तक सीमित करने से फ़ायदा होता है. किसी संघर्ष के दौरान एक केंद्रीकृत (अविभाजित) तरीक़े से वायुशक्ति की तैनाती का यही अधिकार है, जिसे लेकर वायुसेना चिंतित है कि थिएटर कमान बनने पर छिन जाएगा. एक चिंता ये भी है कि वायुशक्ति को पूरी तरह थल सेना के हवाले करने से उसका युद्ध के मोर्चे की फ़ौरी ज़रूरतें पूरी करने के लिए कुछ ज़्यादा ही इस्तेमाल होगा, जिससे हवाई मोर्चे की सामरिक ज़रूरतों की अनदेखी होगी. ये एक ऐसा ख़तरनाक जोड़ होगा, जिससे लंबी अवधि में सैन्य पराजय के साथ साथ वायु शक्ति की तबाही का नुक़सान भी उठाना पड़ सकता है.

चिंता ये भी है कि वायुशक्ति को पूरी तरह थल सेना के हवाले करने से उसका युद्ध के मोर्चे की फ़ौरी ज़रूरतें पूरी करने के लिए कुछ ज़्यादा ही इस्तेमाल होगा, जिससे हवाई मोर्चे की सामरिक ज़रूरतों की अनदेखी होगी. ये एक ऐसा ख़तरनाक जोड़ होगा, जिससे लंबी अवधि में सैन्य पराजय के साथ साथ वायु शक्ति की तबाही का नुक़सान भी उठाना पड़ सकता है.

हालांकि, थलसेना इस ज़रूरत को लेकर ज़्यादा चिंतित नहीं है, क्योंकि उसका ज़ोर ज़मीनी जंग के दौरान वायुशक्ति की उपलब्धता सुनिश्चित करने पर है, जिससे उसे ज़रूरत पड़ने पर वायुशक्ति की तैनाती के लिए किसी और के भरोसे न रहना पड़े. इसीलिए, जहां वायुसेना इस बात को तरज़ीह देती है कि तीनों सेनाओं के बीच अधिक ‘समन्वय’ को मज़बूती दी जाए, वहीं ऐसा लग रहा है कि थलसेना ‘संयुक्त’ या ‘एकीकृत’ करने पर अधिक ज़ोर दे रही है. थलसेना का तर्क है कि भले ही वायुसेना की ज़िम्मेदारियों का दायरा कुछ भी हो. फिर भी उसे फ़ौरी ज़मीनी मोर्चों की ज़रूरतें पूरी करना ही होगा. ऐसा इसलिए है, क्योंकि, सीमित क्षेत्र में छोटी छोटी जीतें भी बड़े सामरिक लक्ष्य को पूरा करने पर वैसा ही गहरा असर डालती हैं, जैसा हवाई मोर्चे के अभियानों का असर होता है.

पिछले युद्ध और संस्थागत यादें

ये बहुत पुरानी कहावत है कि जनरल हमेशा आख़िरी युद्ध लड़ने की तैयारी करते हैं. भारत में जब भी बात संयुक्त युद्ध अभियान की होती है, तो सेनाओं के बीच ज़्यादातर असहमतियां और परिचर्चाएं, पिछले युद्धों के ख़राब अनुभवों पर आधारित होती हैं.

थलसेना के हिसाब से उसने संघर्षों के दौरान या फिर राष्ट्रीय युद्धों के दौरान काफ़ी नुक़सान सिर्फ़ इसलिए उठाया, क्योंकि उसकी ज़रूरत के मुताबिक़ हवाई मोर्चे से मदद नहीं मिली थी. इसके लिए 1962 में चीन के साथ युद्ध और पाकिस्तान के साथ 1999 के कारगिल युद्धों की मिसालें दी जाती हैं. वहीं, 1971 के युद्ध की मिसाल देकर कहा जाता है कि वायुसेना अगर पूरा सहयोग दे, तो थलसेना युद्ध में शानदार विजय हासिल कर सकती है. विडम्बना ये है कि 1971 के युद्ध को लेकर वायुसेना का आकलन अलग है. उसका कहना है कि उस युद्ध में बुद्धिमानी न दिखाने और थलसेना के हिसाब से ज़रूरत से ज़्यादा वायुशक्ति की तैनाती से उसे भारी नुक़सान पहुंचा. 1971 में दुश्मन के एंटी-एयरक्राफ्ट हमलों की वजह से वायुसेना की 42 प्रतिशत संपत्तियां नष्ट हो गई थीं. उस समय के वायुसेना अध्यक्ष ने 1965 के युद्ध के अनुभवों से सबक़ 1971 में लागू करके, ज़मीनी सहयोग के अभियान को प्राथमिकता देने (1971 में वायुसेना का बेड़ा 1965 की तुलना में भी बड़ा था) की कोशिश की थी. इसके नतीजे में वायुसेना को भारी नुक़सान उठाना पड़ा था, क्योंकि दुश्मन के मोर्चे पर वायुसेना के हमलों से बचने की ताक़त ज़्यादा थी. इसी वजह से वायुसेना का तर्क है कि CAS पर इतना ध्यान केंद्रित करने का मतलब संपत्तियों की बर्बादी है.

भारत में जब भी बात संयुक्त युद्ध अभियान की होती है, तो सेनाओं के बीच ज़्यादातर असहमतियां और परिचर्चाएं, पिछले युद्धों के ख़राब अनुभवों पर आधारित होती हैं.

इसके अलावा वायुसेना क्लोज़ एयर सपोर्ट (CAS) का विरोध इसलिए भी करती है कि उसके पास सीमित संसाधन हैं. ये बात वैसे तो कुछ हद तक सही है. लेकिन, वायुसेना की असली चिंता शायद और गहरी है, जो ज़्यादा नुक़सान से बचने की है. ये चिंताएं युद्ध में वायुसेना की भूमिका, मूल्यवान संपत्तियों और पायलटों को बचाने की ज़रूरत (फिर संख्या चाहे कुछ भी हो) और सेना की वायुशक्ति को सही तरीक़े से इस्तेमाल करने की क्षमता पर अविश्वास से जुड़ी हैं.

वहीं, कारगिल युद्ध के दौरान थलसेना का क्लोज़ एयर सपोर्ट हासिल करने का तजुर्बा अच्छा नहीं रहा था. क्योंकि, युद्ध शुरू होने के क़रीब तीन हफ़्ते और बहुत विवादों के बाद जाकर वायुसेना, युद्ध में शामिल हुई थी. इसी वजह से थिएटर कमान बनने से पहले थलसेना ये चाहती है कि ज़बानी भरोसे से आगे बढ़कर, एक संस्थागत व्यवस्था बन जाए कि युद्ध की शुरुआत से ही ज़रूरत के मुताबिक़, थलसेना को वायुशक्ति उपलब्ध रहे. और, इसी वजह से वायुसेना की ये सोच और मज़बूत हुई है कि उसकी संपत्तियों की कमान थलसेना को नहीं सौंपी जानी चाहिए.

भविष्य के युद्ध और आम सहमति

दोनों सेनाओं की सोच के बीच इस बौद्धिक टकराव के समाधान के लिए असैन्य संस्था को मध्यस्थता करनी होगी. इस बात की तरफ़ पूर्व थलसेना अध्यक्ष रिटायर्ड जनरल एम एम नरवणे ने इशारा किया था, जब उन्होंने कहा था कि भविष्य में थिएटर कमान की स्थापना की रूप-रेखा क्या होगी, इसके लिए एक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति बनानी होगी.

वायुसेना का तर्क है कि CAS पर इतना ध्यान केंद्रित करने का मतलब संपत्तियों की बर्बादी है.

थलसेना और वायुसेना के बीच ये अलगाव, भारत और चीन के बीच युद्ध छिड़ने की बढ़ती आशंका के साथ बढ़ता ही जा रहा है. अगर ऐसा हुआ, तो जंग पहाड़ी इलाक़ों में होगी, जिसके लिए तोपख़ाने की ज़्यादा ज़रूरत होगी. जंग की इसी पृष्ठभूमि ने वायुसेना के क्लोज़ एयर सपोर्ट के अभियान को जोखिम भरा बना दिया है. क्योंकि, चीन के मोर्चे के उलट भारत- पाकिस्तान की सीमा पर इस स्तर का जोखिम नहीं है. वायुसेना, पारंपरिक रूप से इंटरडिक्शन के अभियान चलाने (जो उसकी नई डॉक्ट्रिन में है) को तरज़ीह देती रही है. हालांकि, चीन के मोर्चे पर ये डॉक्ट्रिन भी चुनौतियों से भरी है. क्योंकि चीन की वायुसेना आधुनिक संसाधनों से लैस है, और उसने सीमा पर अपने अड्डों का जाल बिछा रखा है. चीन के पास एयर डिफेंस की ताक़त भी ज़्यादा है. ऐसे में वायुसेना, युद्ध के शुरुआती दौर में शायद अपने अग्रणी मोर्चे के अड्डों, शहरों और अपनी परिसंपत्तियों की रक्षा को प्राथमिकता दे. ऐसी स्थिति में थलसेना को हवाई रक्षा पंक्ति और क्लोज़ एयर सपोर्ट की पर्याप्त रूप से गारंटी नहीं दी जा सकती.

शायद इसी तरह की चुनौतियों को देखते हुए, वायुसेना द्वारा संकट या युद्ध की स्थिति में ज़मीनी अभियान के दौरान ‘मदद’ को लेकर थलसेना की आशंका बढ़ती जा रही है. कारगिल युद्ध के दौरान, वायुसेना को पाकिस्तान की वायुसेना से टक्कर नहीं लेनी पड़ी थी, क्योंकि वो युद्ध में शामिल नहीं हुई थी. चीन के साथ अगर भविष्य में कोई युद्ध छिड़ता है, तो इस रियायत की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती. पीपुल्स लिबरेशन आर्मी और एयरफ़ोर्स तो मिलकर क्लोज़ एयर सपोर्ट का प्रशिक्षण लेती रही हैं. इसके अलावा चीन की एयरफोर्स के अधिकारी, युद्ध के दौरान थलसेना के अभियान का हिस्सा रहेंगे. वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर चीन की वायुसेना (PLAAF) ने अपनी तैनाती में जो बदलाव किए हैं, उससे भी यही बात साबित होती है. अगर हम रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध के कोई सबक़ लेना चाहें, तो हम ये देख रहे हैं कि स्टिंगर मिसाइलों और ज़मीन पर स्थित एयर डिफेंस सिस्टम की वजह से रूस की वायुसेना, अपनी थलसेना को क्लोज़ एयर सपोर्ट नहीं दे पा रही है. दुनिया भर की सेनाएं इस अनुभत को एक सबक़ के तौर पर ले रही हैं. ये बात भी, हवाई मदद से ज़मीनी अभियान के भविष्य के लिहाज़ से ठीक नहीं है. विडम्बना ये है कि ऐसी स्थिति में भारत में थिएटर कमान का गठन के दौरान भविष्य में साझा मूल्यांकन और एकीकरण के साथ साथ डायरेक्ट एयर सपोर्ट के साथ साथ और क्लोज़ एयर सपोर्ट पर भी ध्यान केंद्रित करना पड़ेगा.

इसीलिए, एक सेना के अधिकारी की दूसरी सेना में तैनाती और उच्च स्तर के अधिकारियों के बीच वायुशक्ति के इस्तेमाल को लेकर, युद्ध के हर स्तर पर सहमति बनाना आवश्यक है. हालांकि, थिएटर कमान बनाने की प्रक्रिया में अगर सेनाओं के बीच बौद्धिक दूरी को पाटने से ज़्यादा ज़ोर संस्थानों, प्रक्रियाओं और नियमों को एकाकार करने पर दिया गया, तो ख़तरा एक साथ दो नावों की सवारी करने से होने वाले नुक़सान का रहेगा. ऐसी स्थिति में पूरी तरह एकीकरण भी नहीं हो पाएगा और तालमेल वाली पुरानी स्थिति भी नहीं रहेगी. ऐसे में बौद्धिक समन्वय को संस्थागत बदलावों के साथ तालमेल बिठाकर चलना पड़ेगा, ताकि पूरी प्रक्रिया के दुष्परिणामों से बचा जा सके.

पिछली बार, पूर्व चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (CDS) जनरल बिपिन रावत द्वारा, थिएटर कमान के ढांचे में वायुसेना को आर्मी की ‘सहयोगी शाखा’ बताने पर छिड़े सार्वजनिक विवाद के बाद ऐसा लग रहा है कि तीनों सेनाओं ने इस विवाद को ख़ामोशी से निपटाने वाला तरीक़ा अपनाया है, ताकि भविष्य में थिएटर कमान बनाने से जुड़े तमाम पहलुओं पर बिना विवाद के वार्ता की जा सके. इस मामले में ये देखना दिलचस्प होगा कि क्या थिएटर कमान का ढांचा, युद्ध के दौरान थलसेना की क्लोज़ एयर सपोर्ट पाने की मांग का विश्वस्त तरीक़े से निपटारा किया जा सकेगा. ये मसला ज़्यादातर इस बात पर निर्भर करेगा कि क्या थिएटर कमांडरों का एयर फोर्स की संपत्तियों पर सीधा नियंत्रण होगा, या फिर ऐसा नियंत्रण वायुसेना के ‘दिशा-निर्देश’ में होगा.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.