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जब दक्षिण एशिया पर युद्ध के बादल मंडरा रहे थे तो उस समय अमेरिका नहीं बल्कि ईरान और सऊदी अरब के नेता थे जो चुपचाप कूटनीतिक प्रयास के लिए दिल्ली पहुंचे.
Image Source: Getty
यह लेख "ऑपरेशन सिंदूर - अनावृत" नामक सीरीज़ का हिस्सा है.
अप्रैल 2025 में जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान के भीतर आतंकी ठिकानों के ख़िलाफ़ भारत के सैन्य अभियान- जिसे ऑपरेशन सिंदूर नाम दिया गया - उसने परमाणु शक्ति से संपन्न दो देशों को एक बार फिर युद्ध के कगार पर ला खड़़ा किया. अंतरराष्ट्रीय समुदाय, विशेष रूप से पश्चिमी देश जो लंबे समय से अपने ही संकट से जूझ रहे हैं, तनाव कम करने के लिए दोनों पक्षों पर दबाव बनाने में असमर्थ था.
ऑपरेशन सिंदूर की शुरुआत के तीन दिन के बाद जब भारत और पाकिस्तान दोनों एक-दूसरे के सैन्य ठिकानों पर निशाना साध रहे थे तो अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया कि युद्धविराम के लिए समझौता हो गया है. लेकिन अमेरिका की भूमिका से पहले दो देशों के नेता- जो आम तौर पर भारत-पाकिस्तान के संबंधों में भागीदारी के लिए नहीं जाने जाते हैं- इस मुद्दे पर बात करने के लिए दिल्ली पहुंचे. ये दो देश हैं सऊदी अरब और ईरान जो क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वी भी हैं. दोनों देशों के नेताओं की यात्रा इस मायने में दिलचस्प थी कि पाकिस्तान इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) के ज़रिए एकजुटता के बयान को आगे बढ़ाने की कोशिश करता रहा है.
भारत और पाकिस्तान के बीच तेज़ होते रणनीतिक अभियान के बीच सऊदी अरब और ईरान की तरफ से कूटनीतिक आवाजाही ने मध्य पूर्व की क्रमश: सुन्नी और शिया इस्लाम की सत्ता के लिए एक दिलचस्प आयाम जोड़ा कि वो सीधी भागीदारी और शटल कूटनीति के माध्यम से क्या हासिल करना चाहते हैं.
भारत लंबे समय से अपनी इस नीति पर कायम है कि वो कश्मीर जैसे गंभीर द्विपक्षीय मुद्दे पर किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता की न तो मांग करता है और न ही इसकी अनुमति देगा. लेकिन भारत और पाकिस्तान के बीच तेज़ होते रणनीतिक अभियान के बीच सऊदी अरब और ईरान की तरफ से कूटनीतिक आवाजाही ने मध्य पूर्व की क्रमश: सुन्नी और शिया इस्लाम की सत्ता के लिए एक दिलचस्प आयाम जोड़ा कि वो सीधी भागीदारी और शटल कूटनीति (जब दो देश सीधी बातचीत नहीं करते तो किसी तीसरे देश के द्वारा यात्रा के ज़रिए कराई जाने वाली मध्यस्थता) के माध्यम से क्या हासिल करना चाहते हैं.
ईरान के विदेश मंत्री अब्बास अरागची एक दिन के दौरे पर पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद पहुंचे और उन्होंने भारत और पाकिस्तान- दोनों देशों से तनाव कम करने का अनुरोध किया. वैसे तो उनकी यात्रा को ये कहकर प्रचारित नहीं किया गया कि वो विशेष रूप से मध्यस्थता की पेशकश के उद्देश्य से गए हैं और इस दौरे की योजना कई सप्ताह पहले बनाई गई थी लेकिन उनके एजेंडे में भारत-पाकिस्तान के बीच उभरता संकट सबसे ऊपर था. पाकिस्तान का दौरा ख़त्म करने के कुछ घंटे बाद ईरान के विदेश मंत्री भारत पहुंचे.
दोनों देशों का अरागची का दौरा सावधानीपूर्वक इस तरह तैयार किया गया कि कूटनीतिक आदान-प्रदान के लिए कश्मीर मुद्दे को एकमात्र कारण मानने की संभावना को कम किया जा सके. कम-से-कम भारत में ईरानी विदेश मंत्री की यात्रा 20वें भारत-ईरान साझा आयोग की बैठक के इर्द-गिर्द केंद्रित थी जहां व्यापार से कृषि तक हर विषय पर चर्चा की गई. आधिकारिक बयान में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि ईरानी प्रतिनिधिमंडल को पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले के “सीमा पार संबंधों” के बारे में बताया गया और दोनों पक्षों ने “हर रूप में आतंकवाद की कड़ी निंदा” की. भारत के लिए ये पाकिस्तान के पड़ोसी देश से समर्थन जुटाने का अच्छा अवसर था.
भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत में संभावित मदद में ईरान की दिलचस्पी के कारणों को लेकर अटकलें ही लगाई जा सकती हैं क्योंकि पाकिस्तान के साथ ईरान के संबंध उतार-चढ़ाव भरे रहे हैं. महज़ साल भर पहले दोनों देशों ने एक-दूसरे के ख़िलाफ़ मिसाइल दागी थी.
भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत में संभावित मदद में ईरान की दिलचस्पी के कारणों को लेकर अटकलें ही लगाई जा सकती हैं क्योंकि पाकिस्तान के साथ ईरान के संबंध उतार-चढ़ाव भरे रहे हैं. महज़ साल भर पहले दोनों देशों ने एक-दूसरे के ख़िलाफ़ मिसाइल दागी थी. इससे पहले 1999 के कारगिल युद्ध में सैन्य तनाव के दौरान ईरान अपेक्षाकृत तटस्थ था. हालांकि कुछ पहलुओं का विश्लेषण सतही तौर पर किया जा सकता है. 2021 में अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका के चले जाने के बाद से पुराने क्षेत्रीय मुद्दों, जिनका निपटारा करने में वो सक्षम है, उनको छोड़कर ईरान के पूर्वी हिस्से में अपेक्षाकृत शांति है. ‘आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई’ के युग में अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान में अमेरिका और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (NATO) की तैनाती के कारण ईरान की सीमाओं पर भारी हथियारबंदी की गई. इस क्षेत्र में व्यापक संघर्ष की वापसी से मध्य पूर्व में ईरान के सामरिक उद्देश्यों और इज़रायल के साथ उसके विवाद से महत्वपूर्ण राजनीतिक और सैन्य संसाधन दूर चले जाएंगे. दूसरा, ईरान ये मौका भी तलाश रहा होगा कि वो ख़ुद को शांति के लिए एक रेफरी की भूमिका में आगे बढ़ा सके क्योंकि सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) जैसे उसके कई अरब प्रतिद्वंद्वी इसी तरह की कवायद कर रहे हैं. ये देखते हुए कि चीन ने सऊदी अरब और ईरान के बीच कूटनीतिक संबंधों को बेहतर बनाने में मध्यस्थता की थी, ऐसे में चीन से ईरान की नज़दीकी यकीनन लामबंदी का एक कारण हो सकता है क्योंकि इसकी वजह से उसकी पहुंच पाकिस्तान और चीन तक हो जाती है. हालांकि, ये अनुमान इस तथ्य से कमज़ोर हो जाता है कि भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) अजित डोभाल ने पूरे घटनाक्रम को लेकर चीन के विदेश मंत्री वांग यी से सीधी बातचीत की.
सऊदी अरब के विदेश मामलों के राज्य मंत्री अदेल अल-जुबैर उसी समय भारत पहुंचे जब ईरान का प्रतिनिधिमंडल यहां मौजूद था. सऊदी अरब के मंत्री का दौरा अचानक हुआ. भारत-पाकिस्तान संकट को लेकर सऊदी अरब की भूमिका काफी हद तक पर्दे के पीछे की कूटनीति और पीछे से संपर्क साधने जैसी थी. इसका कारण ये है कि पाकिस्तान की राजनीति और सेना में उसकी अच्छी पैठ है. भारतीय प्रधानमंत्री के कार्यालय (PMO) (वैसे ये स्पष्ट नहीं है कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भेंट की) में अल-जुबैर की बैठक से ये इशारा मिला कि अगर उनकी मदद मांगी गई तो वो तैयार हैं. वैसे तो सार्वजनिक रूप से कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है लेकिन भारत और पाकिस्तान के बीच सऊदी अरब की शटल डिप्लोमैसी के पीछे अमेरिका का हाथ होने की संभावना है. हो सकता है कि इसके ज़रिए दोनों पक्षों तक संदेश भी पहुंचाया गया होगा.
2023 में आर्थिक संकट से जूझ रहे पाकिस्तान को सऊदी अरब से 2 अरब अमेरिकी डॉलर का वित्तीय समर्थन मिला था. इसके एक साल बाद जब पाकिस्तान सऊदी अरब को कर्ज़ चुकाने में नाकाम रहा तो उसने 3 अरब अमेरिकी डॉलर का कर्ज़ भुगतान करने की अवधि बढ़ा दी. इसका ये मतलब है कि सऊदी अरब के पास पाकिस्तान का वित्तीय लगाम है जिसका इस्तेमाल वो नागरिक सरकार और उससे भी महत्वपूर्ण सेना पर दबाव बनाने के लिए कर सकता है. अगर सेना को पैसे के संकट का सामना करना पड़ता है तो उसकी तैयारी और कर्मियों को वेतन देने पर गंभीर असर पड़ सकता है. इसके विपरीत, भारत के साथ संघर्ष के बीच में पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) से हासिल 1 अरब अमेरिकी डॉलर की सहायता के अलावा अरब की शक्तियां पाकिस्तान को बचाने के लिए और अधिक आर्थिक प्रोत्साहन दे सकती हैं.
सऊदी अरब के पास पाकिस्तान का वित्तीय लगाम है जिसका इस्तेमाल वो नागरिक सरकार और उससे भी महत्वपूर्ण सेना पर दबाव बनाने के लिए कर सकता है. अगर सेना को पैसे के संकट का सामना करना पड़ता है तो उसकी तैयारी और कर्मियों को वेतन देने पर गंभीर असर पड़ सकता है.
ऊपर बताई गई आर्थिक सहायता अतीत में सऊदी अरब की रक्षा आवश्यकताओं के साथ जुड़ी हुई थी. 1979 की ईरानी क्रांति, जो अयातुल्लाह खुमैनी को सत्ता में लेकर आई, के बाद सऊदी अरब और पाकिस्तान ने सऊदी अरब में सुरक्षा और प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए पाकिस्तानी सैन्य कर्मियों की तैनाती के उद्देश्य से 1982 में प्रोटोकॉल समझौते पर हस्ताक्षर किए. इसके ज़रिए हर साल पाकिस्तानी सेना के 15,000 (या ज़्यादा) कर्मियों की तैनाती ने दोनों देशों के बीच सहयोग और विश्वास का एक अनूठा माहौल तैयार किया. ये व्यवस्था पाकिस्तान के पूर्व सैन्य तानाशाह जनरल मोहम्मद ज़िया उल हक़ के शासन के दौरान बनाई गई जिन्होंने आक्रामक ढंग से इस्लाम, और विशेष रूप से एक सुन्नी पहचान, को बढ़ावा दिया ताकि पाकिस्तान की पहचान को मज़बूत बनाया जा सके.
1999 में कारगिल युद्ध के दौरान सऊदी के तत्कालीन रक्षा मंत्री प्रिंस सुल्तान बिन अब्देलअज़ीज़ अल-सऊद ने इस्लामाबाद के नज़दीक पाकिस्तान के मिसाइल और परमाणु केंद्रों का दौरा किया था. पाकिस्तानी इकोसिस्टम से उत्पन्न होने वाले परमाणु प्रसार के बारे में दुनिया को वर्षों से पता है और सऊदी अरब के बारे में माना जाता है कि अगर ज़रूरत पड़े तो वो परमाणु हथियार हासिल करने के लिए पाकिस्तान पर सबसे ज़्यादा दांव लगा सकता है. सऊदी साम्राज्य के साथ पाकिस्तानी सेना की नज़दीकी को और उजागर करें तो 2017 में पाकिस्तान के पूर्व सेना प्रमुख जनरल राहील शरीफ को सऊदी अरब के नेतृत्व वाले 39 देशों के सैन्य गठबंधन का नेतृत्व करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी जिसका उद्देश्य सुरक्षा सहयोग को बढ़ावा देना और आतंकवाद से लड़ना था. हालांकि दोनों देशों के बीच कई मुद्दों पर तनाव की स्थिति भी बनी हुई है. पाकिस्तान ने नवाज़ शरीफ के प्रधानमंत्री कार्यकाल के दौरान यमन में हूतियों के ख़िलाफ़ सऊदी अरब के अभियान में शामिल होने के लिए सेना भेजने से इनकार कर दिया था. ऐसा करके वो अपने पड़ोसी देश ईरान को नाराज़ नहीं करना चाहता था.
अंत में, ईरान और सऊदी अरब के मंत्रियों का दिल्ली दौरा केवल द्विपक्षीय संबंधों के हिसाब से देखें तो अजीब समय पर हुआ. भारत ने लंबे समय से ये रुख़ बनाए रखा है कि वो पाकिस्तान के साथ अपने मुद्दों को सुलझाने में तीसरे पक्ष की मध्यस्थता की मांग या समर्थन नहीं करता है. दूसरी तरफ, पाकिस्तान की नीति है कि वो लंबे समय से चले आ रहे कश्मीर मुद्दे को लेकर जितना संभव हो सके उतना अंतरराष्ट्रीय शोरगुल मचाए. लगता है कि इस मोर्चे पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय से हस्तक्षेप के लिए पाकिस्तान की अपील ने काम किया है. ये अलग बात है कि पाकिस्तान को सीधा समर्थन सिर्फ़ चीन, तुर्किए और अज़रबैजान से मिला है.
एक सीमा के आगे इस्लामिक दुनिया, विशेष रूप से खाड़ी, के भीतर पाकिस्तान की स्थिति तेज़ी से कमज़ोर होती जा रही है. दूसरे देशों के अलावा सऊदी अरब और UAE जैसी खाड़ी की शक्तियों ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ एक स्पष्ट और कड़ा रवैया अख्तियार किया है.
एक सीमा के आगे इस्लामिक दुनिया, विशेष रूप से खाड़ी, के भीतर पाकिस्तान की स्थिति तेज़ी से कमज़ोर होती जा रही है. दूसरे देशों के अलावा सऊदी अरब और UAE जैसी खाड़ी की शक्तियों ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ एक स्पष्ट और कड़ा रवैया अख्तियार किया है. ये इस्लामिक सहयोग संगठन जैसे महत्वपूर्ण संस्थानों के भीतर इस मुद्दे को लेकर तेज़ी से बढ़ती स्पष्टता से और उजागर होता है.
कबीर तनेजा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में डिप्टी डायरेक्टर और स्ट्रैटजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में फेलो हैं.
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Kabir Taneja is a Deputy Director and Fellow, Middle East, with the Strategic Studies programme. His research focuses on India’s relations with the Middle East ...
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