Author : Manoj Joshi

Published on Jul 30, 2022 Updated 27 Days ago

वैसे तो अमेरिका की स्थिति बिगड़ने जैसी राय बनाना जल्दबाज़ी और बढ़ा-चढ़ाकर कहना है लेकिन समस्याएं वास्तविक हैं जिनका समाधान करने की ज़रूरत है.

अंतरराष्ट्रीय: दुनिया के बदलते समीकरणों के बीच क्या अमेरिका अपनी प्रतिष्ठा हमेशा के लिये गंवा चुका है?

अमेरिका उस दौर में पहुंच गया है जिसे रूस और चीन के ख़िलाफ़ नया शीत युद्ध कहा जा सकता है. वैसे तो इसे लोकतंत्र और तानाशाही के बीच मुक़ाबले के तौर पर पेश किया जा रहा है लेकिन लोगों को इस सोच पर विश्वास नहीं है. अमेरिका के इस क़दम के पीछे स्पष्ट तौर पर ये इच्छा लग रही है कि वो चीन की चुनौती के ख़िलाफ़ अपना वैश्विक वर्चस्व बरकरार रखना चाहता है.

इसके जवाब में ये दलील दी जा सकती है कि अमेरिका की हैसियत में गिरावट का विचार जल्दबाज़ी है. अमेरिका अभी भी एक जीवंत अर्थव्यवस्था है जिसको मज़बूत वित्तीय समर्थन हासिल है एवं रिसर्च एंड डेवलपमेंट (आरएंडडी) में आगे है. साथ ही जनसांख्यिकीय तौर पर भी अच्छी स्थिति में है. अमेरिका विश्व में अग्रणी सैन्य ताक़त भी बना हुआ है. लेकिन घरेलू घटनाक्रमों और वैश्विक स्तर पर अनुचित व्यवहार के कारण अमेरिका की सॉफ्ट पावर को धक्का लगा है. 

अमेरिका की हैसियत में गिरावट का विचार जल्दबाज़ी है. अमेरिका अभी भी एक जीवंत अर्थव्यवस्था है जिसको मज़बूत वित्तीय समर्थन हासिल है एवं रिसर्च एंड डेवलपमेंट (आरएंडडी) में आगे है. साथ ही जनसांख्यिकीय तौर पर भी अच्छी स्थिति में है. अमेरिका विश्व में अग्रणी सैन्य ताक़त भी बना हुआ है.

ख़ुशहाली मापने के मानक तरीक़ों जैसे कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) दिखाते हैं कि पिछले 40 वर्षों में वैश्विक स्तर पर अमेरिका के हिस्से में बदलाव नहीं आया है क्योंकि अमेरिका की जीडीपी अभी भी विश्व की जीडीपी का लगभग 25 प्रतिशत हिस्सा बनी हुई है. 1980 में अमेरिका की जीडीपी का विश्व की जीडीपी में 25.16 प्रतिशत हिस्सा था; आज 40 साल के बाद भी अमेरिका का हिस्सा 24.2 प्रतिशत के साथ लगभग उतना ही है. अमेरिका दुनिया भर में आरएंडडी पर होने वाले खर्च का लगभग 27.3 प्रतिशत खर्च करके दुनिया की जीडीपी में अपने हिस्से के क़रीब-क़रीब बराबर खर्च करता है जबकि चीन आरएंडडी पर 21.9 प्रतिशत खर्च करता है. रिसर्च और शिक्षा के लिए सबसे अच्छे अंतरराष्ट्रीय  ठिकाने के तौर पर अमेरिका का आकर्षण अभी भी बना हुआ है. इससे अमेरिका को पूरी दुनिया के प्रतिभाशाली लोगों को अपने साथ जोड़ने की मज़बूती मिलती है. 

इसके बावजूद दुनिया की नज़रों में अमेरिका को लगे झटके- जिसकी शुरुआत वियतनाम युद्ध के साथ हुई थी और इसके बाद इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में विनाशकारी हस्तक्षेप- ने उसके प्रतिद्वंदियों को आगे बढ़ने का मौक़ा मुहैया कराया है. 

घरेलू घटनाक्रम 

अमेरिका को असली झटका उसकी सॉफ्ट पावर में लगा है और ये अलग-अलग रूपों में व्यक्त हुआ है. इसके आकलन का एक तरीक़ा अमेरिका की घरेलू राजनीति में मौजूद गहरा राजनीतिक बंटवारा है जहां सर्वे लगातार दिखाते हैं कि रिपब्लिकन पार्टी को वोट देने वाले 70 प्रतिशत मतदाता बाइडेन को 2020 के राष्ट्रपति चुनाव का वैध विजेता नहीं मानते हैं. अमेरिका का फाइनेंशियल सेक्टर भी 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान लगभग ध्वस्त हो गया था. इसका नतीजा ये हुआ कि अमेरिका के परिवारों को पैसे का जो नुक़सान हुआ, उसकी भरपाई अभी तक नहीं हो पाई है. अमेरिका में आमदनी की असमानता में 1980 से बढ़ोतरी हुई है और ये बराबर के दूसरे देशों के मुक़ाबले ज़्यादा है. समय बीतने के साथ अमेरिका ने ये मान लिया है कि उसका बेहतर लोकतंत्र और शासन व्यवस्था की प्रणाली किसी भी मुक़ाबले का सामना कर लेगी. लेकिन अब लगता है कि ये प्रणाली निराशाजनक ढंग से फंसी हुई है. अमेरिका की राजनीतिक प्रणाली के द्विदलीय तरीक़े से काम करने की क्षमता अब मौजूद नहीं है. 

अमेरिका के द्वारा बनाई गई वैश्विक व्यापार प्रणाली का चीन ने कुशलतापूर्वक इस्तेमाल करके पहले ख़ुद को ‘दुनिया की फैक्ट्री’ के रूप में स्थापित किया और बाद में लगातार आगे बढ़ती सैन्य ताक़त के तौर पर.

इस स्थिति को देखते हुए लगता है कि अमेरिका अपनी कड़वाहट से भरी सामाजिक समस्याओं से निपटने में सक्षम नहीं है. इन सामाजिक समस्याओं में सामूहिक शूटिंग और बंदूक़ से जुड़ी हिंसा से लेकर स्थायी ग़रीबी, लोगों के पास घर नहीं होना और नशीले पदार्थों का सेवन शामिल हैं. इन सामाजिक समस्याओं ने ज़रूरी रूप से इस सोच को बढ़ावा दिया है कि अमेरिका की हैसियत गिरकर ऐसी हो गई है जहां से वापसी नहीं की जा सकती.

वैश्वीकरण

इन घरेलू समस्याओं के साथ वैश्वीकरण को लेकर अमेरिका का लड़खड़ाहट वाला रुख़ जुड़ा हुआ है. दूसरे विश्व युद्ध से काफ़ी हद तक सही-सलामत रहने वाले अमेरिका ने उदारवादी अंतरराष्ट्रीय  व्यवस्था को आकार देने में मदद की. ये व्यवस्था तीन बुनियादों पर आधारित है- अंतरराष्ट्रीय  व्यवस्था बरकरार रखने के लिए यूएन की प्रणाली, स्वास्थ्य एवं श्रम मानक को बढ़ावा देने के लिए सहयोगी एजेंसियां और आख़िर में वैश्विक आर्थिक प्रणाली के नियमन के लिए विश्व व्यापार संगठन, अंतरराष्ट्रीय  मुद्रा कोष और विश्व बैंक जैसी एजेंसियां. पूर्व के सोवियत संघ की चुनौती से निपटने के लिए अमेरिका ने सैन्य गठबंधन की एक विश्वव्यापी श्रृंखला- नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन (नेटो), सेंट्रल ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन, साउथ-ईस्ट एशिया ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन- का गठन भी किया. हालांकि अब इनमें से सिर्फ़ पहले संगठन का वजूद बना हुआ है. 

अमेरिका के द्वारा बनाई गई वैश्विक व्यापार प्रणाली का चीन ने कुशलतापूर्वक इस्तेमाल करके पहले ख़ुद को ‘दुनिया की फैक्ट्री’ के रूप में स्थापित किया और बाद में लगातार आगे बढ़ती सैन्य ताक़त के तौर पर. दूसरी तरफ़ इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध और उसमें मिली असफलता पर ध्यान देकर अमेरिका ने दुनिया के बड़े हिस्सों को नज़रअंदाज़ करना शुरू कर दिया. अमेरिका के भीतर भी ऐसे राजनीतिक रुझान सामने आने लगे जिनके तहत अमेरिका की विश्वव्यापी भूमिका और उदारवादी अंतरराष्ट्रीयता  की बुनियाद पर सवाल उठाए जाने लगे. इन सवालों के आधार पर वैश्विक सुरक्षा और संयुक्त राष्ट्र की प्रणाली समेत हर चीज़ के लिए अमेरिका के द्वारा अपने हिस्से से ज़्यादा के भुगतान पर प्रश्न उठाए जाने लगे. 

जहां 50 और 60 के दशक में अमेरिका की मदद से यूरोप का निर्माण हुआ और भारत तथा दूसरे देशों में शैक्षणिक एवं कृषि क्षेत्र में बदलाव आया वहीं अब चीन पूरी दुनिया में बुनियादी ढांचा मुहैया कराने के लिए बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव लेकर आया है. 

इन बातों की वजह से 2016 में डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति के रूप में चुने गए और इसके साथ ही ऐसे कई मुद्दे जिनको लेकर लोग नाराज़ थे, खुलकर सामने आ गए. ट्रंप प्रशासन ने चीन के साथ व्यापार युद्ध पर ध्यान दिया, अंतरराष्ट्रीय  संगठनों की अवहेलना की और ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) से बाहर निकल गया. इससे भी ख़राब बात ये थी कि राष्ट्रपति ट्रंप अमेरिका के सैन्य सहयोगियों और साझेदारों को लेकर उपेक्षापूर्ण रवैया रखते थे. ट्रंप ने ये मांग भी रखी कि अमेरिका के सहयोगी देश अपनी सुरक्षा के लिए उचित हिस्से का भुगतान करें. इसके बाद जब दुनिया पर कोविड-19 महामारी का हमला हुआ तो अमेरिका ने इससे मुक़ाबले के लिए विश्व का नेतृत्व करने से इनकार कर दिया. 

चीन

चीन से अगर तुलना की जाए तो अमेरिका में गिरावट आई है. क्रय शक्ति समता (परचेज़िंग पावर पैरिटी) के मामले में वैश्विक जीडीपी में अमेरिका का हिस्सा 1950 के 50 प्रतिशत के मुक़ाबले 2018 में गिरकर 14 प्रतिशत पर पहुंच गया जबकि चीन अमेरिका से आगे बढ़कर 18 प्रतिशत पर है. चीन की जनसंख्या अमेरिका की जनसंख्या का चार गुना है और चीन की अर्थव्यवस्था तीन गुना तेज़ी से बढ़ रही है. दूसरे क्षेत्रों जैसे कि आरएंडडी और स्टेम (साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग एंड मैथमैटिक्स) शिक्षा के मामले में भी चीन तेज़ी से आगे बढ़ रहा है. अगर मौजूदा रुझान के मुताबिक़ 20 साल बाद का अनुमान लगाया जाए तो भविष्य में चीन के वर्चस्व के बारे में समझा जा सकता है. 

रूस और चीन के बीच ‘असीमित’ गठबंधन के साथ यूक्रेन युद्ध अपनी अलग चुनौतियां पेश करता है. एक समय अमेरिका के लिए रूस कम महत्व वाला देश बन गया था लेकिन आज वो अमेरिका का ध्यान फिर से अपनी तरफ़ खींच रहा है. इसकी वजह से इंडो-पैसिफिक में चीन को चुनौती देने की अमेरिका की योजना खटाई में पड़ सकती है.

जहां 50 और 60 के दशक में अमेरिका की मदद से यूरोप का निर्माण हुआ और भारत तथा दूसरे देशों में शैक्षणिक एवं कृषि क्षेत्र में बदलाव आया वहीं अब चीन पूरी दुनिया में बुनियादी ढांचा मुहैया कराने के लिए बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव लेकर आया है. वैसे तो इस बात को लेकर काफ़ी चर्चा होती है कि किस तरह अलग-अलग देश चीन की परियोजनाओं के ज़रिए कर्ज़ के जाल में फंस चुके हैं लेकिन वास्तविकता ये है कि चीन कर्ज़ मुहैया कराने वाला अकेला देश है. 2001 से 2018 के बीच चीन ने अफ्रीका के देशों को 126 अरब अमेरिकी डॉलर का कर्ज़ मुहैया कराया और 41 अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश किया. वैसे तो अमेरिका  चीन की बराबरी करने की कोशिश कर रहा है लेकिन फिलहाल उसके पास दिखाने के लिए कुछ ख़ास नहीं है. जी7 की तरफ़ से 600 अरब अमेरिकी डॉलर मुहैया कराने का ताज़ा प्रस्ताव सिर्फ़ कागज़ों पर बना हुआ है.   

वर्चस्व बनाए रखना: नया शीत युद्ध 

अब जब नये शीत युद्ध का ख़तरा मंडरा रहा है तो ये विचार हावी है कि अमेरिका की तरफ़ से उचित जवाब नहीं दिया जा रहा है. ट्रंप प्रशासन ने आर्थिक मोर्चे पर चीन की पीछे छोड़ने के लिए ओबामा के द्वारा घरेलू सुधारों जैसे कि अफोर्डेबल केयर एक्ट और टीपीपी पर ज़ोर देने की नीति की अवहेलना की. ट्रंप प्रशासन ने चीन को मात देने के लिए अलग-अलग तरीक़ों जैसे कि टैरिफ, निर्यात नियंत्रण नियमन और चीन के छात्रों की एक श्रेणी पर रोक का इस्तेमाल किया. लेकिन ट्रंप प्रशासन ने इंडो-पैसिफिक में अमेरिका के वर्चस्व के ख़िलाफ़ चीन को साफ़ तौर पर सबसे बड़ा ख़तरा भी माना. 

दूसरी तरफ़ बाइडेन प्रशासन ने अभी तक अपनी चीन नीति को आधिकारिक रूप से जारी नहीं किया है. लेकिन सामाजिक, बुनियादी और पर्यावरण से जुड़े कार्यक्रमों पर भारी-भरकम सरकारी खर्च करने की बाइडेन प्रशासन की कोशिशें अमेरिकी संसद के राजनीतिक गतिरोध से बाहर निकलने में नाकाम रही हैं. 

यूक्रेन युद्ध और भविष्य

इस विश्लेषण का ज़्यादातर हिस्सा यूक्रेन युद्ध के साथ बदल रहे घटनाक्रमों से जुड़ा हुआ है. लेकिन ये अमेरिका में बदल रहे राजनीतिक घटनाक्रम पर भी महत्वपूर्ण और समान रूप से निर्भर करता है. जहां तक युद्ध की बात है तो इसने निश्चित रूप से यूरोप में अमेरिका की गठबंधन प्रणाली में ऊर्जा भरी है, उसे मज़बूत किया है. लेकिन दो साल के बाद अमेरिका में ट्रंप या ट्रंप जैसी विचारधारा वाले शख़्स की वापसी की संभावना एक बार फिर गठबंधन के उपयोग पर सवाल खड़े कर सकती है और अमेरिका की वैश्विक नीति में अनिश्चितता और अलग-अलग रवैया ला सकती है.

रूस और चीन के बीच ‘असीमित’ गठबंधन के साथ यूक्रेन युद्ध अपनी अलग चुनौतियां पेश करता है. एक समय अमेरिका के लिए रूस कम महत्व वाला देश बन गया था लेकिन आज वो अमेरिका का ध्यान फिर से अपनी तरफ़ खींच रहा है. इसकी वजह से इंडो-पैसिफिक में चीन को चुनौती देने की अमेरिका की योजना खटाई में पड़ सकती है. अमेरिका को भ्रमित करने वाले संरचनात्मक मुद्दे भी स्पष्ट हैं. एक तरफ़ तो वो दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य ताक़त बना हुआ है और वित्तीय प्रणाली पर उसका दबदबा, जो पहले से कम हुआ है, अभी भी बहुत ज़्यादा है लेकिन शायद अब समय आ गया है कि अमेरिका दुनिया को लेकर अपने नज़रिए को बदले. वो ख़ुद को दुनिया के लिए उम्मीद नहीं समझे या फिर इस सोच से दूर रहे कि दुनिया का नेतृत्व करना उसकी क़िस्मत में लिखा है. 

अमेरिका को जितना सुरक्षा और व्यापार से जुड़े मुद्दों में नेतृत्व करना होगा उतना ही महिलाओं के अधिकार, पर्यावरण को बचाने, लोकतंत्र के लिए लड़ाई और नस्लीय समानता के मुद्दों पर भी ध्यान देना होगा. अमेरिका के पास पहले से ही अपनी गठबंधन प्रणाली में दबदबे का फॉर्मूला है लेकिन उसे ये फॉर्मूला और पारदर्शी एवं व्यावहारिक बनाने की ज़रूरत है.

अमेरिका ने 1945 में दुनिया का जो नेतृत्व हासिल किया वो उसके वैश्विक दृष्टिकोण का प्रमुख हिस्सा है. जब तक आर्थिक और सैन्य क्षेत्रों में अमेरिका का दबदबा था, तब तक तो ये तर्कसंगत लगता था. लेकिन अब हम ऐसी स्थिति में हैं जहां चीन अर्थव्यवस्था के मामले में पहले ही अमेरिका से आगे निकल चुका है और अगले 20 वर्षों में चीन की अर्थव्यवस्था अमेरिका की तुलना में कई गुना बड़ी हो जाएगी. इसकी वजह से सैन्य खर्च के मामले में भी चीन अमेरिकी की बराबरी कर पाएगा. चीन का भी अपना ये नज़रिया है जिसके मुताबिक़ उसका एक साम्राज्य है. ये सोच  इतिहास को लेकर चीन की अपनी समझ के मुताबिक़ है. 

अमेरिका अपना मौजूदा प्रभुत्व बरकरार रख पाएगा या नहीं ये बहस का मुद्दा है. लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि अमेरिका भविष्य में भी एक बड़ी ताक़त बना रहेगा. लेकिन इस स्थिति को बनाए रखने और चीन के साथ सफलतापूर्वक मुक़ाबला करने के लिए अमेरिका को अपनी सॉफ्ट पावर को फिर से ज़िंदा करने की ज़रूरत है. इसके लिए अमेरिका को अपनी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रणाली को आकर्षित करना होगा. अमेरिका को जितना सुरक्षा और व्यापार से जुड़े मुद्दों में नेतृत्व करना होगा उतना ही महिलाओं के अधिकार, पर्यावरण को बचाने, लोकतंत्र के लिए लड़ाई और नस्लीय समानता के मुद्दों पर भी ध्यान देना होगा. अमेरिका के पास पहले से ही अपनी गठबंधन प्रणाली में दबदबे का फॉर्मूला है लेकिन उसे ये फॉर्मूला और पारदर्शी एवं व्यावहारिक बनाने की ज़रूरत है. इससे भी बढ़कर, अमेरिका को चीन जैसे दूसरे ताक़त के केंद्रों के साथ चलने के लिए रास्ता तलाशना होगा. ये एक ऐसा रास्ता है जो ज़रूरी नहीं है कि उसके वैश्विक प्रभाव पर निर्भर हो. दुनिया यूक्रेन युद्ध के वैश्विक परिणामों के बारे में कठिन ढंग से सीख रही है. ऐसे में शायद ताइवान को लेकर अमेरिका और चीन के बीच संघर्ष का इससे भी ज़्यादा गंभीर नतीजा हो सकता है. 

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