Expert Speak Raisina Debates
Published on May 01, 2025 Updated 0 Hours ago

सिंधु जल समझौते को स्थगित करके भारत ने तनाव बढ़ने का संकेत दिया है- क्या अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन किए बिना इस संधि का इस्तेमाल रणनीतिक दबाव बनाने के लिए किया जा सकता है? 

सिंधु जल संधि पर अस्थायी विराम: रणनीति के तहत लिया गया निर्णय

Image Source: Getty

पहलगाम में आम नागरिकों पर पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकी हमले के बाद, भारत सरकार ने घोषणा की कि 1960 के सिंधु नदी जल समझौते (IWT) को तुरंत ‘स्थगित’ किया जा रहा है. जल-बंटवारे की यह महत्वपूर्ण संधि तब तक स्थगित रहेगी, ‘जब तक पाकिस्तान विश्वसनीय और अनिवार्य रूप से सीमा पार आतंकवाद को अपना समर्थन देना बंद नहीं कर देता’.

सिंधु नदी जल समझौता भारत और पाकिस्तान के बीच सबसे लचीले राजनीतिक समझौतों में से एक रहा है, जो कई युद्धों और तनाव के लंबे दौर में भी चलता रहा है. हालांकि, इसे ‘स्थगित’ करने का भारत का कदम तनाव के गंभीर होने का संकेत है, क्योंकि ऐसा करने से लंबे समय से चली आ रही वह परंपरा टूटती है, जिसमें जल-बंटवारे के मसले को राजनीतिक और सैन्य तनावों से अलग रखने पर सहमति बनाई गई थी. फिर भी, भारत की यह घोषणा अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन नहीं है, बल्कि इसे एक कूटनीतिक कदम कहा जाएगा. ‘स्थगित’ जानबूझकर इस्तेमाल की गई भाषा है. ऐसा कहकर भारत न तो समझौते से पीछे हट रहा है और न ही नदी की धारा बदल रहा है, बल्कि उसने आपसी सहयोग की बनी-बनाई व्यवस्था को अब बंद कर दिया है. नई दिल्ली ने अपने हित के लिए पानी का नहीं, बल्कि कानून का उपयोग किया है. यह एक कानूनी कूटनीति है, जहां सख़्त रुख़ दिखाना वास्तव में अपना प्रभाव बढ़ाना है.

भारत के इस अभूतपूर्व कदम ने कई जटिल कानूनी सवालों को जन्म दिया है. इसलिए, इस लेख में मुख्य रूप से दो बड़े मुद्दों की चर्चा की जाएगी- पहला, क्या किसी समझौते को ‘स्थगित’ करना अंतरराष्ट्रीय कानूनों में मान्य है, और दूसरा- क्या किसी गलत काम के ख़िलाफ़ जवाबी कार्रवाई के रूप में ‘स्थगन’ को उचित ठहराया जा सकता है? यह लेख इन्हीं दो सवालों का विश्लेषण करता है.

अंतरराष्ट्रीय कानून में ‘स्थगन’

‘स्थगन’ शब्द का अर्थ अस्थायी रूप से उपयोग न किए जाने या निलंबन की स्थिति है, लेकिन समझौतों को लेकर बने अंतरराष्ट्रीय कानून में इसे कानूनी रूप से माना नहीं गया है. न तो सिंधु नदी जल समझौता और न ही 1969 में बने संधियों के कानून पर वियना कन्वेंशन (VCLT) में समझौते के दायित्वों को रोकने या निलंबित करने के अधिकार के रूप में ‘स्थगन’ की चर्चा की गई है.

क्या किसी समझौते को ‘स्थगित’ करना अंतरराष्ट्रीय कानूनों में मान्य है, और दूसरा- क्या किसी गलत काम के ख़िलाफ़ जवाबी कार्रवाई के रूप में ‘स्थगन’ को उचित ठहराया जा सकता है? यह लेख इन्हीं दो सवालों का विश्लेषण करता है.

सिंधु नदी जल समझौता को एकतरफ़ा रद्द करने का कोई प्रावधान नहीं है. इसके बजाय, समझौते के अनुच्छेद XII (4) में बताया गया है कि यह संधि ‘तब तक जारी रहेगी, जब तक इसे ख़त्म करने को लेकर कोई विधिवत समझौता नहीं कर लिया जाता’. इसी तरह, VCLT में कहा गया है कि किसी समझौते को केवल कुछ ख़ास कारणों से ही स्थगित या ख़त्म किया जा सकता है, जो हैं- तय प्रावधानों को पूरा करने में नाकाम रहना (अनुच्छेद 60), ज़िम्मेदारी निभाना असंभव होना (अनुच्छेद 61) और मौलिक बदलाव (अनुच्छेद 62). हालांकि, इसके लिए भी सभी पक्षों की आपसी सहमति (अनुच्छेद 57) की ज़रूरत होती है. यानी, अनुच्छेद 60 से 62 तक बताए गए किसी भी कारण को साबित किए बिना VCLT किसी समझौते को एकतरफ़ा रोके रखने (या स्थगित करने) की अनुमति नहीं देता है.

VCLT में यह भी बताया नहीं गया है कि समझौते के नियमों पर सशस्त्र संघर्ष, युद्ध या दुश्मनी का कितना और कैसा असर पड़ना चाहिए? अंतरराष्ट्रीय विधि आयोग ने जान-बूझकर ऐसी वज़हों को VCLT के दायरे से बाहर रखा है, ताकि उनका समाधान मौजूदा अंतरराष्ट्रीय कानूनों द्वारा किया जा सके. VCLT का अनुच्छेद 73 इस ओर इशारा करता है, जिसमें कहा गया है, ‘राष्ट्रों के बीच दुश्मनी की भावना बढ़ने के बाद समझौते के बारे में उठने वाले सवालों पर कन्वेंशन पहले से कोई विचार नहीं करेगा’. इसी कारण, VCLT इस बारे में कोई दिशा-निर्देश नहीं देता कि संघर्ष या राजनीतिक तनाव के बढ़ने पर किसी समझौते को स्थगित या संशोधित किया जा सकता है या नहीं? 

भारत का रवैया

भारत ने भले ही VCLT पर दस्तख़त नहीं किए हैं, लेकिन वह इसके सिद्धांतों को मानने से इनकार भी नहीं करता है. व्यवहार में भारत ने इसके कई नियमों का लगातार पालन किया है, जो या तो अंतरराष्ट्रीय कानूनों के रूप में किए गए या फिर VCLT के सुविधाजनक दिशा-निर्देशों को मानकर. उदाहरण के लिए, भारत ने बंगाल की खाड़ी समुद्री सीमा मध्यस्थता में VCLT के सिद्धांतों पर हामी भरी और भारतीय अदालतों ने भी इसका सम्मान किया.

भारत भले ही औपचारिक रूप से VCLT के नियमों को मानने के लिए बाध्य नहीं है, लेकिन नई दिल्ली ने इसके मानक ढांचे का साफ़-साफ़ समर्थन किया है. हमने ‘pacta sunt servanda’ पर सहमति जताई है, जिसका अर्थ है, समझौतों का सद्भावनापूर्वक सम्मान किया जाना चाहिए. हालांकि, ये नियम अपने आप में पर्याप्त नहीं हैं, बल्कि जवाबी कार्रवाई, आवश्यकता और राज्य संप्रभुता के सिद्धांतों के साथ जुड़े हुए हैं, जिनमें विशेष परिस्थितियों में समझौते से कुछ समय के लिए पीछे हटने को सही माना गया है. यह व्यवस्था भारत को अधिकार देता है कि वह समझौते को लेकर लचीला रुख़ अपनाए, ख़ास तौर से स्थगन या रद्द करने के मामलों में, जो सिंधु जल समझौते पर उसके हालिया फ़ैसले में देखा भी जा सकता है.

स्थगन’ पर कानूनी पेच

इस बात पर ज़ोर देने वाली टिप्पणियों की कोई कमी नहीं है कि सिंधु जल समझौते या वियना कन्वेंशन में ‘स्थगन’ की कोई औपचारिक व्यवस्था नहीं है. आलोचक सही बताते हैं कि दोनों में से किसी में भी समझौते को स्थगित रखने के लिए कोई स्पष्ट व्यवस्था नहीं बनाई गई है. हालांकि, इस तरह की बहसों में अक्सर गहरी बातों को अनदेखा कर दिया जाता है, जैसे- शीत-युद्ध के कई समझौतों की तरह सिंधु जल समझौता विशेष रूप से भू-राजनीति को देखकर तैयार किया गया था और इसमें आज के ख़तरों, विशेष रूप से सीमा-पार आतंकवाद को लगातार दिए जा रहे बढ़ावे पर उतना ध्यान नहीं दिया गया है, जो आपसी जुड़ाव की नींव कमज़ोर करता है.

हमने ‘pacta sunt servanda’ पर सहमति जताई है, जिसका अर्थ है, समझौतों का सद्भावनापूर्वक सम्मान किया जाना चाहिए.

इसी तरह, सिंधु जल समझौता इस बात पर भी चुप है कि सहयोग की तय व्यवस्था को रोकने के एक साधन के रूप में जब इसका इस्तेमाल किया जाएगा या जब एक पक्ष दूसरे पक्ष द्वारा कानून के अनुसार किए जा रहे विकास के कामों को रोकने के लिए समझौते के ढांचे में हेरफेर करता है, तो देशों को किस तरह आगे बढ़ना चाहिए? इस अनिश्चितता को देखते हुए, समझौते को ‘स्थगित’ करने के भारत के फ़ैसले को कानूनी उल्लंघन नहीं मानना चाहिए, बल्कि यह अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अनुसार एक तर्कसंगत कानूनी रुख़ और देश की ज़िम्मेदारी से जुड़े नियमों के अनुसार व्यवहार करने जैसा है.

भारत की कानूनी रणनीति

भारत ने समझौता से पीछे हटने का फ़ैसला नहीं किया है, न ही उसने पानी की धारा मोड़ी है या आवंटन कोटा का उल्लंघन किया है. वास्तव में, उसके पास ऐसा कोई ज़रूरी बुनियादी ढांचा नहीं है, जो नीचे उतरते पानी को रोक सके. इसके बजाय, भारत ने सहयोग की बनी-बनाई व्यवस्था को कुछ समय के लिए टाल दिया है, यानी विवाद समाधान के मंचों, साझा तंत्रों और समझौते के तहत होने वाली राजनयिकों की नियमित बैठकों से उसने खुद को हटा लिया है. यह समझौते को ख़त्म करना नहीं है. यह एक तरह से कानूनी सख़्ती दिखाना है, जो लंबे समय से चले आ रहे, अनसुलझे और गलत तरीके से किए जा रहे राज्य-प्रायोजित आतंकवाद के ख़िलाफ़ उठाया गया है. यह समझना होगा कि आतंकवाद उस विश्वास के बुनियाद पर चोट करता है, जिस पर सिंधु जल समझौता आधारित था.

इसी तरह, ‘स्थगन’ जहां समझौते का शब्द नहीं है और आज के संदर्भ में इसका इस्तेमाल नया लग रहा है, वहीं इसका उपयोग गैर-कानूनी भी नहीं है और यह जवाबी कार्रवाई व आवश्यकता जैसे पारंपरिक सिद्धांतों के अनुसार उठाया गया है. ये सिद्धांत किसी भी देश को यह अधिकार देते हैं कि यदि दूसरा पक्ष इनका गंभीर उल्लंघन करता है, तो समझौते के दायित्वों को कुछ समय के लिए रोका जा सकता है, बशर्ते ऐसी कार्रवाई को हालात सामान्य होने पर ख़त्म किया जा सके और नियमों के अनुसार आपसी सहयोग की ओर फिर से बढ़ने की उम्मीद हो.

जवाबी कार्रवाई के रूप में ‘स्थगन’

सिंधु जल समझौते में जहां इसको रद्द करने को लेकर काई स्पष्ट नियम नहीं है, वहीं VCLT का अनुच्छेद 62 बताता है कि यदि परिस्थितियों में कोई मौलिक बदलाव होता है, तो समझौते को समाप्त या वापस लिया जा सकता है, जैसा कि भारत के पूर्व सिंधु जल आयुक्त ने कहा भी है. भारत ने पाकिस्तान के जल संसाधन मंत्रालय को भेजे अपने संदेश में इस नियम का हवाला देते हुए ‘लगातार सीमा पार आतंकवाद’ को एक मौलिक बदलाव बताया है, जिसने ‘सुरक्षा अनिश्चितताओं’ को जन्म दिया है, इसलिए वह बुनियाद कमज़ोर हो रहा है, जिस पर यह समझौता टिका था. इस तरह देखें, तो सिंधु जल समझौते को ‘स्थगित’ करना उचित ही किसी कानून का उल्लंघन नहीं है, बल्कि कानूनी तरीके से जवाब देना है.

भारत ने सहयोग की बनी-बनाई व्यवस्था को कुछ समय के लिए टाल दिया है, यानी विवाद समाधान के मंचों, साझा तंत्रों और समझौते के तहत होने वाली राजनयिकों की नियमित बैठकों से उसने खुद को हटा लिया है.

अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक, जवाबी कार्रवाई का मतलब वे कदम होते हैं, जो किसी देश द्वारा किए गए अंतरराष्ट्रीय कानून के उल्लंघन के बाद पीड़ित राष्ट्र एकतरफ़ा और बिना फौज का इस्तेमाल किए उठाते हैं. इसका मक़सद कानून का पालन सुनिश्चित करना या गलत काम का मुआवजा तय करना है. जवाबी कार्रवाई विशेष परिस्थितियों में ज़रूर की जानी चाहिए और इसका लक्ष्य कानूनी व्यवहार को बहाल करना, गलत काम के अनुरूप और हालात बदलने पर ख़त्म करने वाला होना चाहिए.

भारत ने नदी की धारा को बनाए रखते हुए सहयोग की व्यवस्था रोक दी है, इसलिए उसकी कार्रवाई इन मानदंडों का पालन कर रही है. यह गलत काम के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जांचा-परखा और अस्थायी कदम है, जो कानूनी रूप से सख़्ती दिखाने की तय व्यवस्था के अनुसार उठाया गया है. इस प्रकार, ‘स्थगन’ सही जवाबी कार्रवाई है, जो देश की ज़िम्मेदारी और ज़रूरी सिद्धांतों पर आधारित है. यह भारत द्वारा समझौते को ख़त्म करना नहीं है.

स्थगन’ के उदाहरण

असाधारण परिस्थितियों में जवाबी कार्रवाई करते हुए समझौतों को स्थगित करने के भले ही गिने-चुने उदाहरण हैं, लेकिन वे उल्लेखनीय हैं. उदाहरण के लिए, 1986 में अमेरिका 1951 के ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड-अमेरिका सुरक्षा समझौते के सुरक्षा नियमों से पीछे हट गया था, क्योंकि न्यूजीलैंड ने परमाणु-मुक्त क्षेत्र घोषित करते हुए अमेरिकी परमाणु जहाजों पर प्रतिबंध लगाने का फ़ैसला किया था. अगर अपने क्षेत्र की बात करें, तो 1970 के दशक में, भारत ने बांग्लादेश के साथ जल-बंटवारे की व्यवस्था को एकतरफ़ा स्थगित कर दिया था और 1977 के फरक्का समझौते पर बातचीत होने तक सीमा पार पानी की धारा को प्रभावी रूप से रोक दिया था. हाल-फिलहाल की घटना 2023 की है, जब नए START के तहत अमेरिका ने ‘कानूनी जवाबी कार्रवाई’ के रूप में डेटा को साझा करने की व्यवस्था रोक दी, लेकिन तय सीमा तक परमाणु हथियार तैनात रखे, जो समझौते का आंशिक स्थगन था, ताकि रूस पर नियमों के पालन का दबाव बनाया जा सके. इस कार्रवाई में भी हालात सामान्य होने पर कार्रवाई ख़त्म करने की बात कही गई थी. भारत का सिंधु जल समझौते पर अभी जो रुख़ है, वह भी लगभग ऐसा ही है.

संक्षेप में कहें, तो ‘स्थगन’ का यह कदम उठाकर भारत अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों से भाग नहीं रहा है, बल्कि एक रणनीतिक कानूनी संकेत और चेतावनी दे रहा है कि भू-राजनीतिक हक़ीक़तों से यह समझौता अछूता नहीं है और इसके टिकाऊ होने के लिए भरोसा पैदा करना और एक-दूसरे का सम्मान करना ज़रूरी है.

समझौतों के ‘स्थगित’ रखने के ये उदाहरण दुर्लभ और संदर्भ के अनुसार हैं. राष्ट्रों ने कभी-कभी ही राजनीतिक दवाब के रूप में समझौतों के दायित्वों को स्थगित किया है. सिंधु जल समझौते के मामले में, भारत एक नई राह पर आगे बढ़ रहा है. व्यापार और यात्रा पर रोक जैसे नियमित कूटनीतिक उपायों के उलट, इस बार जल-बंटवारे समझौते को स्थगित करना असाधारण है. इसमें यह उम्मीद की गई है कि यदि परिस्थितियां बदलती हैं, तो समझौते को फिर से आगे बढ़ाया जा सकता है.

निष्कर्ष

साफ़ है, भारत ने कानूनी अनिश्चितता का फायदा उठाकर कार्रवाई की है, जिसका उल्लेख कागज पर भले न किया गया है, पर अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत यह व्यवहार में इस्तेमाल किया जाता रहा है. यह कानूनी साधनों का जांचा-परखा उपयोग है और समझौते की व्यवस्थाओं को अस्थिर नहीं करता, बल्कि समझौते की एक बुनियादी अपेक्षा पर फिर से खरा उतरने पर ज़ोर देता है, जो है- एक-दूसरे के प्रति सद्भावना का परिचय देना.

अंतरराष्ट्रीय कानून को कमज़ोर करने के बजाय, भारत इस कदम से अपने अधिकारों का इस्तेमाल कर रहा है और समझौते के सुस्त पालन के बजाय सक्रियता से इसका प्रबंधन करना चाहता है. संक्षेप में कहें, तो ‘स्थगन’ का यह कदम उठाकर भारत अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों से भाग नहीं रहा है, बल्कि एक रणनीतिक कानूनी संकेत और चेतावनी दे रहा है कि भू-राजनीतिक हक़ीक़तों से यह समझौता अछूता नहीं है और इसके टिकाऊ होने के लिए भरोसा पैदा करना और एक-दूसरे का सम्मान करना ज़रूरी है.


(निशांत सिरोही ट्रांज़िशन रिसर्च में लॉ एंड सोसाइटी फेलो हैं)

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.