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इंडोनेशिया की निकेल रणनीति दिखाती है कि खनिज संसाधनों की प्रोसेसिंग (डाउनस्ट्रीमिंग) सिर्फ़ औद्योगिक नीति नहीं है बल्कि यह विकास और कूटनीति का साधन भी बन सकती है. इससे संसाधन वाले देश अपने यहां ज्यादा मूल्य पैदा कर सकते हैं और बंटे हुए वैश्विक आर्थिक माहौल में सहयोग को बढ़ावा दे सकते हैं.
वर्ष 2023-2024 में तमाम निर्यात प्रतिबंधों और लाइसेंसिंग यानी बढ़ते सरकारी नियंत्रण ने महत्वपूर्ण कच्चे माल (CRMs) को हासिल करने को लेकर देशों के बीच न सिर्फ़ आपसी होड़ बढ़ा दी, बल्कि इनका महत्व भी काफ़ी बढ़ा दिया है. ज़ाहिर है कि क्रिटिकल रॉ मैटेरियल्स पहले से ही गहन चिंता का मुद्दा बने हुए थे, लेकिन वर्तमान हालातों ने इन्हें देशों की आर्थिक और सुरक्षा नीति का सबसे अहम हिस्सा बना दिया है. इतना ही नहीं, सरकारों की ओर से क्रिटिकल रॉ मैटेरियल्स की आपूर्ति में किसी एक देश पर निर्भरता को कम करने, आपूर्ति में विविधता लाने और जोख़िम कम करने की भी तैयारी की जा रही है. यूरोप ने इस मामले में पहले ही अपने क़दम आगे बढ़ा दिए हैं और 23 मई, 2024 को यूरोपीय संघ क्रिटिकल रॉ मैटेरियल्स एक्ट (CRMA) लागू कर दिया है. इस अधिनियम ने परियोजनाओं को फाइलों से बाहर निकाल कर उन्हें ज़मीनी स्तर पर लागू करने और उन्हें उत्पादन तक पहुंचाने के लिए स्पष्ट लक्ष्य और अनुपालन की दिशा तय की है. इस एक्ट के तहत वर्ष 2030 तक जो लक्ष्य तय किए गए हैं, उनमें यूरोपीय देशों को महत्वपूर्ण कच्चे माल की अपनी मांग के 10 प्रतिशत हिस्से का खनन करने, 40 प्रतिशत हिस्से का प्रसंस्करण करने, 25 प्रतिशत हिस्से का रिसाइकिल करने और किसी भी तीसरे आपूर्तिकर्ता देश की हिस्सेदारी को 65 प्रतिशत पर सीमित करना शामिल है. इस अधिनियम ने यह भी सुनिश्चित किया है कि महत्वपूर्ण क्रिटिकल रॉ मैटेरियल्स से जुड़े प्रोजेक्ट की मंजूरी की बाधाएं दूर हों, साथ ही इनके लिए एकल संपर्क बिंदु स्थापित हो. इससे जहां जोख़िम कम होगा, वहीं लंबित परियोजनाएं ज़ल्द से ज़ल्द शुरू हो सकेगी.
एक और अहम बात यह है कि साल 2024 में वैश्विक स्तर पर बैटरी की मांग क़रीब 1 टेरावाट-घंटा तक बढ़ गई. इससे यह साबित होता है कि विभिन्न उद्योगों और क्षेत्रों में निकेल जैसे दुर्लभ खनिज इतने अहम क्यों हैं. बावज़ूद इसके ख़ास तौर पर निकेल, लिथियम और कोबाल्ट जैसे दुर्लभ खनिजों का शोधन कुछ ही देशों तक सीमित बना हुआ है. ज़ाहिर है कि यह जहां जोख़िम बढ़ाने का काम करता है, वहीं यह भी बताता है कि इसका विकेंद्रीकरण कितना ज़रूरी है. यानी अन्य जगहों पर इन खनिजों के शोधन की व्यवस्था होनी कितनी आवश्यक है. देखा जाए तो साल 2024 में चीन ने मिडस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम में इलेक्ट्रिक गाड़ियों (ईवी) और बैटरी आपूर्ति श्रृंखलाओं पर अपना दबदबा बनाए रखा है. इतना ही नहीं, चीन ने इस साल पूरे विश्व में लिथियम, कोबाल्ट, फॉस्फेट और ग्रेफाइट का 70 से 95 प्रतिशत तक प्रसंस्करण किया. इसके अलावा, चीन ने 98 फीसदी एलएफपी कैथोड मैटेरियल, दो-तिहाई निकेल-आधारित कैथोड सामग्री, 90 प्रतिशत से अधिक एनोड सामग्री और 80 प्रतिशत वैश्विक बैटरी सेल का भी उत्पादन किया.
एक और अहम बात यह है कि साल 2024 में वैश्विक स्तर पर बैटरी की मांग क़रीब 1 टेरावाट-घंटा तक बढ़ गई. इससे यह साबित होता है कि विभिन्न उद्योगों और क्षेत्रों में निकेल जैसे दुर्लभ खनिज इतने अहम क्यों हैं.
इंडोनेशिया की बात की जाए, तो उसने 2024 में क्रिटिकल मिनरल्स के क्षेत्र में निर्णायक क़दम बढ़ाए हैं. इंडोनेशिया के इन प्रयासों का मकसद कच्चे अयस्क के निर्यात तक ही सीमित रहने के बजाय देश के भीतर क्रिटिकल मिनरल्स के प्रसंस्करण और बैटरी उत्पादन क्षमता में निवेश करके स्थानीय स्तर पर ज़्यादा आय के साधन बनाना है. यही वजह है कि इंडोनेशिया जैसे प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध राष्ट्र अपने देश में ही महत्वपूर्ण खनिजों के उत्पादन और प्रसंस्करण पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. यानी इंडोनेशिया जैसे देशों में जहां क्रिटिकल मिनरल्स का अकूत भंडार है, वहां उसी के मुताबिक़ प्रसंस्करण क्षमता को बढ़ाया जा रहा है. ज़ाहिर है कि भविष्य में ज़रूरत पड़ने पर इन्हें बैंक योग्य ऑफटेक समझौतों में बदला जा सकता है, यानी बैंकों की तरफ से इनके लिए आसानी से वित्तपोषण हासिल किया जा सकता है और उत्पादों की बिक्री की जा सकती है. इस तरह के क़दमों का लक्ष्य "चीन की जगह लेना" नहीं है, बल्कि खुद को दुर्लभ खनिजों के क्षेत्र में एक विश्वसनीय केंद्र बनाना है और जहां खनिजों के भंडार हैं उसी के आसपास प्रसंस्करण एवं उत्पादन क्षमताओं का निर्माण करना है. ज़ाहिर है कि इससे जहां बड़े स्तर पर रोज़गारों का सृजन होगा, वहीं खनिजों के परिवहन में सुगमता आएगी और इससे जुड़े जोख़िम भी कम होंगे. इसके अलावा, पहले से निर्धारित नियमों व नीतियों के तहत शुरू की गईं इस तरह की पहलों से भू-राजनीतिक तनाव कम होगा और इन पर साझेदार देशों का विश्वास भी बढ़ेगा.
कुल मिलाकर इस सारी बातों का निचोड़ यह है कि इंडोनेशिया के निकेल को लेकर जो भी कोशिश की है, वो कहीं न कहीं भू-राजनीति के उथल-पुथल के बावज़ूद संतुलित विकास और घरेलू उद्योग को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न क्षेत्रों के बीच सहयोग को मज़बूत करने का एक व्यावहारिक रास्ता प्रशस्त करती हैं. देखा जाए तो इसमें एक पक्ष की जीत और दूसरे की हार नहीं है, बल्कि यह मूल्य साझा करने, साझा मापदंड स्थापित करने और खींचतान से भरी दुनिया में टकराव को कम करने का एक बेहतरीन मौक़ा है.
इंडोनेशिया दुनिया के उन चुनिंदा देशों में शामिल है, जहां निकेल का सबसे बड़ा भंडार है. इसके अलावा इंडोनेशिया आज खनन के ज़रिए निकाले गए निकेल का शीर्ष उत्पादक भी है. इंडोनेशिया में वर्ष 2014 में सबसे पहले देश के भीतर निकेल के प्रसंस्करण को बढ़ावा देने के लिए कच्चे अयस्क के निर्यात पर प्रतिबंध लगाया था. इसके बाद इंडोनेशिया ने निकेल के उत्पादन में निवेश और व्यापक स्तर पर इसका उत्पादन सुनिश्चित करने के लिए साल 2020 में निर्यात प्रतिबंधों को और सख़्त कर दिया था. इन उपायों की वजह से ही 2024 तक इंडोनेशिया में निकेल का उत्पादन बहुत बढ़ गया और वहां के औद्योगिक पार्कों में स्टेनलेस स्टील और इलेक्ट्रिक गाड़ियों की बैटरी आपूर्ति श्रृंखलाओं के लिए कच्चे निकेल से फेरोनिकेल, निकेल पिग आयरन (NPI), मैट और मिश्रित हाइड्रॉक्साइड प्रेसिपिटेट (MHP) का व्यापक स्तर पर उत्पादन होने लगा. शुरुआती दौर में इंडोनेशिया में निकेल इंडस्ट्री में ज़्यदातार निवेश चीन से आया, लेकिन इसमें कोरिया और जापान जैसे अन्य एशियाई भागीदार देशों की ओर से किया गया निवेश भी शामिल था. पिछले एक दशक के दौरान इंडोनेशिया में निकेल के उत्पादन में तेज़ वृद्धि दर्ज़ की गई है और इस दौरान वह विश्व का सबसे बड़ा निकेल उत्पाद भी बन गया है.
इंडोनेशिया निकेल का कितना बड़ा उत्पादक बन चुका है, यह उसकी वैश्विक निकेल बाज़ार में हिस्सेदारी के आंकड़ों से समझा जा सकता है. वर्तमान में इंडोनेशिया दुनिया के लगभग 60 प्रतिशत खनन किए गए निकेल की आपूर्ति करता है और क़रीब 45 प्रतिशत प्राइमरी निकेल का परिशोधन करता है. चीन दुनिया में निकेल परिशोधन के मामले में दूसरा सबसे बड़ा देश है, लेकिन इंडोनेशिया इसमें उससे काफ़ी आगे निकल चुका है. इंडोनेशिया आज चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा निकेल रिफाइनिंग हब बन गया है, इसके अलावा वह इस मामले में सबसे तेज़ी से आगे बढ़ने वाला राष्ट्र भी बन गया है. जिस प्रकार से इंडोनेशिया में निकेल का उत्पादन बढ़ रहा है, उससे अनुमान है कि साल 2030 तक उसके प्रसंस्कृत निकेल निर्यात में अभूतपूर्व वृद्धि के साथ उसका बाज़ार मूल्य लगभग दोगुना हो जाएगा.
वर्तमान में इंडोनेशिया दुनिया के लगभग 60 प्रतिशत खनन किए गए निकेल की आपूर्ति करता है और क़रीब 45 प्रतिशत प्राइमरी निकेल का परिशोधन करता है. चीन दुनिया में निकेल परिशोधन के मामले में दूसरा सबसे बड़ा देश है, लेकिन इंडोनेशिया इसमें उससे काफ़ी आगे निकल चुका है.
इंडोनेशिया की यह विकास यात्रा निकेल और दूसरी दुर्लभ धातुओं तक ही सीमित नहीं रह गई है, बल्कि अब बैटरियों के उत्पादन में भी वह तेज़ गति के साथ आगे बढ़ रहा है. हुंडई और एलजी ने जुलाई 2024 में इंडोनेशिया का अपना पहला ईवी बैटरी सेल प्लांट खोला था. यह एक ऐसी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट है, जहां एक ही जगह पर खनिज को निकालने और बैटरी कंपोनेंट के निर्माण की सुविधा विकसित की गई है. इस यूनिट के ज़रिए इंडोनेशिया में रिकॉर्ड विदेशी निवेश हुआ है. बैटरी निर्माण के क्षेत्र में वर्ष 2024 में इंडोनेशिया में निवेश क़रीब 1,714 ट्रिलियन आईडीआर यानी इंडोनेशियाई रुपिया तक पहुंच गया, जिसमें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की हिस्सेदारी लगभग 52.5 प्रतिशत थी. इस परियोजना की वजह से इंडोनेशिया में लाखों की संख्या में रोज़गार का सृजन हुआ है. इनमें जावा के बाहर भी रोज़गार के अवसर बने हैं, जिससे इस उद्योग का विस्तार अब नए क्षत्रों और लोगों के बीच हो रहा है. इसकी वजह से वहां औद्योगिक पार्कों के आसपास के क्षेत्रों में रहने वालों के कौशल में वृद्धि हुई है, वहीं आपूर्तिकर्ता नेटवर्क और सेवाओं का भी अभूतपूर्व गति से विस्तार हुआ है. नीतिगत बदलावों के साथ शुरू हुआ यह परिवर्तन आज जहां घरेलू स्तर पर उद्योगों को बढ़ावा दे रहा है, वहीं पूरी दुनिया में विकास के मामले में इंडोनेशिया की एक नई पहचान भी स्थापित कर रहा है. यह सब इंडोनेशिया को साझा मापदंड़ों, परीक्षण प्रयोगशालाओं और बैंक-योग्य ऑफटेक समझौतों के लिहाज़ से एक अनुकूल स्थान के रुप में स्थापित करता है.
इतना सब होने के बावज़ूद निकेल उत्पादन और प्रसंस्करण के क्षेत्र से जुड़ी कंपनियों में इंडोनेशियाई कंपनियों की हिस्सेदारी बहुत कम है. कहने का मतलब है कि इंडोनेशिया में निकेल का अकूत भंडार मौज़ूद है, पर इसकी तुलना में निकेल से जुड़े उद्योगों में उसका नियंत्रण बहुत कम है. इंडोनेशिया में निकेल के विशाल भंडार है और वैश्विक स्तर पर निकेल प्रसंस्करण में उसकी हिस्सेदारी लगभग 45 प्रतिशत है, बावज़ूद इसके परिष्कृत निकेल क्षमता में इंडोनेशियाई कंपनियों की हिस्सेदारी केवल 10 प्रतिशत के आसपास ही है. इंडोनेशिया में परिष्कृत निकेल उद्योग में चीनी कंपनियों का दबदबा है और त्सिंगशान ग्रुप व जियांगसू डेलोंग निकेल जैसी प्रमुख चीनी कंपनियों का इंडोनेशिया की क़रीब 65 प्रतिशत शोधन क्षमता पर कब्ज़ा है. इन चीनी कंपनियों के पास मोरोवाली औद्योगिक पार्क (IMIP) और वेडा बे (Weda Bay) जैसे बड़े औद्योगिक पार्क हैं.
हालांकि, इंडोनेशिया ने देश में निकेल प्रसंस्करण उद्योग स्थापित करने वाली कंपनियों को प्रोत्साहन देने, उनके खनन अधिकारों की योग्यता को बढ़ाने और महत्वपूर्ण खनिजों के कच्चे माल के रूप में निर्यात की तुलना में उनके घरेलू स्तर पर उपयोग को प्राथमिकता देने के लिए साल 2025 में अपने खनन क़ानून में संशोधन का प्रस्ताव पेश किया है. इतना ही नहीं, वहां की सरकार ने मार्च 2025 में एक समान दर वाली रॉयल्टी प्रणाली से प्रगतिशील प्रणाली में बदलाव की योजना का भी ऐलान किया है. इससे निकेल धातु के लिए जो वर्तमान रॉयल्टी 10 प्रतिशत है, वो बढ़कर 14 से 19 प्रतिशत हो जाएगी. यानी रॉयल्टी की दर सरकार की ओर से तय की गई मानक क़ीमतों पर निर्भर करेगी. इसके अलावा, इंडोनेशिया ने फरवरी 2025 में एक आदेश भी जारी किया है, जिसमें यह अनिवार्य किया गया कि खनिजों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों से होने वाली विदेशी मुद्रा की आय को पूरे एक साल तक देश की बैंकों में ही जमा रखना होगा.
घरेलू स्तर पर निकेल के उत्पादन और प्रसंस्करण को बढ़ावा देना इंडोनेशिया की सिर्फ़ एक औद्योगिक नीति ही नहीं है, बल्कि यह उसकी एक कूटनीतिक रणनीति भी है. एक ऐसी उथल-पुथल वाली विभाजित वैश्विक अर्थव्यवस्था में, जहां अमेरिका और चीन आपूर्ति श्रृंखलाओं को अपनी-अपनी तरफ खींचने में जुटे हुए हैं, वहां जकार्ता ने दिखाया है कि जिन देशों के पास प्राकृतिक खनिज संपदा का भंडार है, उनके सामने इन महाशक्तियों के पीछे जाने की कोई मज़बूरी नहीं है. ज़ाहिर है कि वर्तमान दौर में इंडोनेशिया अपनी खनिज संपदा का इस्तेमाल करके न केवल एशियाई और पश्चिमी देशों से निवेश को आकर्षित कर रहा है, बल्कि खुद को एक ऐसे तटस्थ भागीदार राष्ट्र के रूप में भी स्थापित कर रहा है, जहां इस क्षेत्र में व्यावहारिक सहयोग की असीम संभावनाएं मौज़ूद हैं.
वर्तमान दौर में इंडोनेशिया अपनी खनिज संपदा का इस्तेमाल करके न केवल एशियाई और पश्चिमी देशों से निवेश को आकर्षित कर रहा है, बल्कि खुद को एक ऐसे तटस्थ भागीदार राष्ट्र के रूप में भी स्थापित कर रहा है, जहां इस क्षेत्र में व्यावहारिक सहयोग की असीम संभावनाएं मौज़ूद हैं.
इंडोनेशिया के यह प्रयास कहीं न कहीं दक्षिण-दक्षिण सहयोग के लिए भी मार्ग प्रशस्त करते हैं. उदाहरण के तौर पर इंडोनेशिया और भारत दोनों ही देश स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन के लिए ज़रुरी चीज़ों के उत्पादन में आगे बढ़ना चाहते हैं और इसके लिए किसी एक आपूर्तिकर्ता देश पर अत्यधिक निर्भरता को कम करना चाहते हैं. ज़ाहिर है कि अगर भारत और इंडोनेशिया के बीच "क्लीनर निकेल" के लिए साझा मानक बनाए जाते हैं, क्षेत्रीय टेस्टिंग लैब्स स्थापित की जाती हैं और सह-वित्तपोषित औद्योगिक पार्क बनाए जाते हैं, तो इससे दोनों देश परंपरागत उत्तर-दक्षिण सहयोग से अलग हटकर बाज़ार तक अपनी पहुंच का विस्तार करने में क़ामयाब हो सकते हैं. अगर ऐसा होता है, तो इससे ग्लोबल साउथ में ही इस सेक्टर में संभावनाओं के द्वार खुल सकते हैं. यह एक ऐसी पहल है, जो जी20 के विविधतापूर्ण और टिकाऊ आपूर्ति श्रृंखलाओं का निर्माण करने के प्रस्ताव के मुताबिक़ है. इसके अलावा, यह क़दम सीधे ईयू के यूरोपीय संघ क्रिटिकल रॉ मैटेरियल्स एक्ट से भी जुड़ सकता है, जो कि विश्वसनीय थर्ड कंट्री हब के लिए अवसर पैदा करता है.
लेकिन विश्वसनीयता केवल अच्छे इरादों पर आधारित नहीं होती, बल्कि स्थापित मानकों का पालन करके और नतीज़े हासिल करके हासिल की जाती है. अगर इंडोनेशिया वैश्विक ख़रीदारों के साथ आयाम, रिपोर्टिंग और सत्यापन को लेकर सामंजस्य स्थापित करता है, सरकारी और निजी वित्तपोषण एवं नवीकरणीय ऊर्जा के ज़रिए औद्योगिक पार्कों में कार्बन उत्सर्जन में कमी लाता है, साथ ही पारदर्शी ऑडिट यानी नियमों के मुताबिक़ पूरी पारदर्शिता के साथ वित्तीय स्थिति की सटीक जांच-पड़ताल प्रस्तुत करता है, तो वह संघर्ष और प्रतिस्पर्धा की जगह की बजाय सहयोग और साझेदारी का बेहतर स्थान बन सकता है. जकार्ता अगर चीनी निवेश के साथ-साथ अन्य देशों के साथ भी व्यापक साझेदारियां करता है और निवेश में एक संतुलन बनाता है, तो वह अपनी खनिज संपदा भंडार की ताक़त को वैश्विक स्तर पर एक भू-राजनीतिक शक्ति में बदल सकता है. इतना ही नहीं, ऐसा करके इंडोनेशिया यह भी साबित कर सकता है कि रिसोर्स डिप्लोमेसी यानी संसाधन कूटनीति दुनिया का ध्रुवीकरण करने के बजाय स्थिरता लाने का माध्यम भी बन सकती है.
आने वाले सालों में इंडोनेशिया के पास अपने क्रिटिकल मिनरल्स के भंडार से सही मायने में लाभ हासिल करने और खनिजों से मूल्यवर्धित उत्पादों के निर्माण की ओर अग्रसर होने की अपार संभावनाएं मौज़ूद होंगी.
ज़ाहिर है कि आने वाले सालों में इंडोनेशिया के पास अपने क्रिटिकल मिनरल्स के भंडार से सही मायने में लाभ हासिल करने और खनिजों से मूल्यवर्धित उत्पादों के निर्माण की ओर अग्रसर होने की अपार संभावनाएं मौज़ूद होंगी. ऐसे में उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती इन संभावनाओं और लाभों को व्यापक, स्वच्छ व टिकाऊ बनाना है. कहने का मतलब है कि उसे इसके लिए जहां सरल मानक बनाने होंगे, स्थानीय स्तर पर कुशल कामगारों को तैयार करना होगा, वहीं व्यापार से जुड़े ऐसे नियम-क़ानून बनाने होंगे, जो बाज़ारों को खुला रखने में मददगार हों. अनुमान है कि साल 2025 से 27 के बीच इंडोनेशियाई अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 4.8 प्रतिशत रहेगी. ऐसे में अगर निकेल उत्पादन और प्रसंस्करण सेक्टर के लिए बनाई गई नीतियां कारगर साबित होती हैं, तो निश्चित रूप से विकास की रफ्तार भी बहुत तेज़ होगी और बेशुमार अवसर भी उपलब्ध होंगे. कुल मिलाकर, स्वच्छ ऊर्जा, खनिजों की खदानों के आसपास के क्षेत्रों के अलावा दूसरे क्षेत्रों में लाभ का विस्तार करने के लिए मज़बूत स्थानीय संपर्क एवं भरोसेमंद व ठोस नियम जैसे क़दम इंडोनेशिया में निकेल उत्पादन व शोधन में आई इस फौरी तेज़ी को एक टिकाऊ विकास में तब्दील सकते हैं.
मानिनी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर इकोनॉमी एंड ग्रोथ में रिसर्च असिस्टेंट हैं.
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Manini is a Research Assistant at the Centre for Economy and Growth, ORF New Delhi. Her research focuses on the intersection of geopolitics with international ...
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