Author : Soumya Bhowmick

Published on Jul 25, 2022 Updated 29 Days ago

भारत को ग्रामीण क्षेत्रों के युवाओं की उद्यमशीलता की क्षमता और रोजगार पाने की योग्यता में बढ़ोतरी के लिए शिक्षा कार्यक्रमों एवं कौशल बढ़ाने वाली पहलों के माध्यम से उन्हें हुनरमंद बनाना चाहिए.

भारत के ग्रामीण युवा और सतत् विकास लक्ष्य (SDG): कंचन बेन के ‘सिलाई’ कौशल पर एक केस स्टडी

SDGs को हासिल करना और ग्रामीण युवा

भारत में ‘युवा’ की अलग-अलग परिभाषाओं के बावज़ूद, देश की ग्रामीण युवा आबादी, भारत की कुल जनसंख्या का लगभग 67 से 68 प्रतिशत है. कुल ग्रामीण युवा जनसंख्या में से पुरुष और महिला अनुपात क्रमश: 52  और 48 प्रतिशत के साथ लगभग एक बराबर है. इन आंकड़ों को देखते हुए, इसमें कोई संदेह नहीं है कि देश का वास्तविक जनसांख्यिकीय लाभांश यानी वो उत्पादक आबादी, जिसमें आर्थिक विकास की भरपूर क्षमता है, वो ग्रामीण भारत में मौजूद है. ऐसे में यह स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि ग्रामीण युवाओं की शिक्षा, कौशल और रोजगार में वृद्धि भारत को संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) के एजेंडा 2030 के निकट लाने में ना सिर्फ़ अहम भूमिका निभाने वाली, बल्कि बेहद मददगार साबित होने वाली है. विशेष रूप से एसडीजी 4 (गुणवत्तापूर्ण शिक्षा), एसडीजी 5 (लैंगिक समानता), SDG 8 (प्रतिष्ठित कार्य और आर्थिक विकास) और SDG 9 (उद्योग, इनोवेशन और इन्फ्रास्ट्रक्चर) को पूरा करने की दिशा में.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि एक कुशल और जवाबदेह प्रतिक्रिया तंत्र के माध्यम से और कम ख़र्च में मांग और आपूर्ति से जुड़े पक्षों के बीच बेहतर तालमेल स्थापित करना आवश्यक है. इस कार्य में सरकारी व निजी, दोनों ही क्षेत्रों की महत्वपूर्ण भूमिका है.

ऐसे में जो सबसे महत्वपूर्ण और ज़रूरी मुद्दा है, वह है ग्रामीण कौशल के क्षेत्र में मांग और आपूर्ति के बीच के अंतर को निरंतर कम करना. ज़ाहिर है कि कौशल कार्यक्रमों की लगातार मांग को देखते हुए, ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी बेहतर पहुंच सुनिश्चित करने और जागरूकता के प्रयासों के जरिए इसे बढ़ाने की ज़रूरत है. दूसरी तरफ, भारत में अलग-अलग समुदायों, सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों और भौगोलिक क्षेत्रों की आवश्यकताओं को पूरा करने वाले आपूर्ति पक्ष को भी बेहतर प्रोत्साहन और नए-नए कार्यक्रमों के माध्यम से आवश्यकताओं के अनुरूप बढ़ाने की ज़रूरत है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि एक कुशल और जवाबदेह प्रतिक्रिया तंत्र के माध्यम से और कम ख़र्च में मांग और आपूर्ति से जुड़े पक्षों के बीच बेहतर तालमेल स्थापित करना आवश्यक है. इस कार्य में सरकारी व निजी, दोनों ही क्षेत्रों की महत्वपूर्ण भूमिका है. भारत के ग्रामीण युवाओं को हुनरमंद बनाने और उनकी रोज़गार क्षमता बढ़ाने वाली कई सरकारी योजनाएं मौजूद हैं. लेकिन वर्ष 2014 में शुरू की गई दीन दयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना (डीडीयू-जीकेवाई), एक ऐसी प्रभावशाली योजना है, जिसका उद्देश्य “ग्रामीण क्षेत्र के ग़रीब युवाओं को आर्थिक रूप से स्वावलंबी और वैश्विक मानकों के मुताबिक कार्यबल में तब्दील करना है.” चित्र-1 पिछले कुछ वर्षों में डीडीयू-जीकेवाई के प्रदर्शन और इसके तहत हासिल की गई उपलब्धियों का ब्योरा प्रस्तुत करता है. 

चित्र-1: डीडीयू-जीकेवाई में रुझान (हजारों में)

स्रोत: लेखक स्वयं, ग्रामीण विकास मंत्रालय, भारत सरकार के आंकड़े

एक केस स्टडी: गुजरात में कंचन बेन का कौशल विकास

कंचन बेन ठाकोर, उत्तरी गुजरात के पाटन ज़िले के चलवाड़ा गांव में सात लोगों के परिवार के साथ रहती हैं. वह याद करती हैं कि किस प्रकार लगभग तीन साल पहले उनकी एक बड़ी बहन ने उन्हें डीडीयू-जीकेवाई के अंतर्गत सिलाई के लिए सरकारी कौशल योजना से जुड़ने के लिए प्रेरित किया था. कौशल कार्यक्रम को स्थानीय ग्रामीण स्वरोज़गार प्रशिक्षण संस्थान (आरएसईटीआई) में एक गैर-लाभकारी संगठन द्वारा संचालित किया गया था. इस गैर-लाभकारी संगठन को ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा देश के हर ज़िले में आवश्यक बुनियादी ढांचे से लैस केंद्र स्थापित करने के लिए अधिकृत किया गया था. इसका काम संबंधित राज्य सरकारों, बैंकों और विकास से जुड़े दूसरे संस्थानों के साथ साझेदारी करते हुए ग्रामीण युवाओं में उद्यमशीलता के विकास के लिए उन्हें प्रशिक्षित करना एवं उनके कौशल को बढ़ाना था. आज इस 21 वर्षीय युवती का कपड़ा सिलाई और कढ़ाई का अपना व्यवसाय है. उन्होंने हाल ही में तीन महिलाओं को प्रशिक्षण भी दिया है.

कंचन बेन के माता-पिता खेतिहर मज़दूर हैं और उनके कमज़ोर आर्थिक हालातों को देखते हुए परिवार के लिए यह बड़ी राहत की बात है कि वह घर के ख़र्च में काफ़ी हद तक हाथ बंटा सकती हैं. उन्होंने अपनी उच्च माध्यमिक शिक्षा को पूरा किया और फिर एक वर्ष का अंतराल लिया. यह वह समय था, जब उन्होंने दो महीने तक रोज़ाना लगभग एक घंटे के प्रशिक्षण वाला सिलाई का यह कोर्स किया.

कंचन बेन के माता-पिता खेतिहर मज़दूर हैं और उनके कमज़ोर आर्थिक हालातों को देखते हुए परिवार के लिए यह बड़ी राहत की बात है कि वह घर के ख़र्च में काफ़ी हद तक हाथ बंटा सकती हैं. उन्होंने अपनी उच्च माध्यमिक शिक्षा को पूरा किया और फिर एक वर्ष का अंतराल लिया. यह वह समय था, जब उन्होंने दो महीने तक रोज़ाना लगभग एक घंटे के प्रशिक्षण वाला सिलाई का यह कोर्स किया. वह गर्व के साथ प्रशिक्षण कार्यक्रम पूरा करने के बाद मिले सर्टिफिकेट को दिखाते हुए बताती हैं कि कैसे इसने उन्हें अपनी सिलाई मशीन की ख़रीद पर एक हजार रुपये की छूट दिलाने में मदद की है. हालांकि, वर्तमान में वह एक स्थानीय विश्वविद्यालय से पार्ट-टाइम पत्राचार के जरिए संस्कृत में स्नातक की डिग्री का कोर्स कर रही हैं. वह अपने सिलाई के व्यवसाय को लेकर वह अत्यधिक उत्साहित हैं. वह कहती हैं कि “मैं अपने पूरे गांव से आने वाले सिलाई के ऑर्डर में अब बहुत व्यस्त हो गई हूं. हालांकि घर के कामों और पढ़ाई के साथ-साथ अपने व्यवसाय को संभालना बेहद मुश्किल हो जाता है, लेकिन मैं अपने सिलाई ऑर्डर से प्रतिदिन लगभग 400 रुपये कमा लेती हूं.”

कंचन बेन का फिलहाल शादी का कोई इरादा नहीं है, उनके पास भविष्य का एजेंडा भी है. वह पूरे आत्मविश्वास और दृढ़ संकल्प के साथ कहती हैं, “अब आगे मैं अपने गांव में विशेष अवसरों जैसे नवरात्रि या विवाह समारोहों के लिए अपने हाथों से सिले हुए कपड़ों को किराए पर देना चाहती हूं. हालांकि, मेरा परिवार मुझे बड़े शहरों और कस्बों में व्यवसाय का विस्तार करने की अनुमति नहीं देगा, लेकिन मेरा इरादा शादी के बाद भी अपना व्यवसाय करते रहने का है.” उत्साह से भरी छोटी उद्यमी कंचन बेन अपना ब्यूटी पार्लर स्थापित करने के लिए एक ब्यूटीशियन कोर्स करने के लिए बेहद उत्सुक हैं. इतना ही नहीं वह पहले ही स्थानीय पंचायत में कनिष्ठ लिपिक और सचिव के पदों के लिए आवेदन भी भर चुकी हैं.

निष्कर्ष

महिलाएं, भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में हो रहे सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की धुरी हैं. यह आवश्यक है कि ग्रामीण युवाओं खासकर महिलाओं को सिलाई-कढ़ाई जैसे हुनर के माध्यम से सशक्त किया जाए, ताकि वे कम लागत और निवेश से सिलाई मशीन ख़रीदकर अपना व्यवसाय स्थापित कर आत्मनिर्भर बन सकें. कंचन बेन जैसी महिलाओं को उद्यमशीलता की गतिविधियों को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करना, ना केवल बेरोज़गारी को कम करने और वित्तीय स्वतंत्रता को बढ़ाने में मदद करता है, बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के लिए विवाह योग्य आयु बढ़ाने में भी मदद करता है.

उल्लेखनीय है कि इस तरह की अनैच्छिक यानी ना चाहते हुए भी बढ़ने वाली बेरोज़गारी, अक्सर आजीविका के लिए युवाओं को असामाजिक गतिविधियों की ओर धकेलती है और गंभीर सामाजिक समस्याओं का कारण बनती है. यह परिस्थिति एसडीजी 16 पर असर डालती है.

शिक्षा कार्यक्रमों और कौशल बढ़ाने की पहलों के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्र के युवाओं को प्रशिक्षण देना और उनकी उद्यमशीलता की योग्यता, रोज़गार क्षमता एवं वित्तीय स्वतंत्रता को सशक्त करना आज के दौर में मुख्य रूप से तीन कारणों से अत्यधिक प्रासंगिक हो गया है. पहला, कृषि से संबंधित कार्यों से आमदनी बढ़ाने की सीमित संभावनाओं को देखते हुए, रोजगार के लिए ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी इलाकों की तरफ पलायन (2001 से 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की तरफ पलायन में 51 प्रतिशत की वृद्धि हुई) की बढ़ती प्रवृत्ति से शहरों और कस्बों में नागरिक बुनियादी ढांचे पर अत्यधिक दबाव पैदा होता है. इससे लोगों को विपरीत और दोयम दर्जे की परिस्थियों में जीवन जीने के लिए मज़बूर होना पड़ता है. यह स्थिति एसडीजी 11 (सुविधा संपन्न शहरों और समुदायों) की प्रगति में सीधे तौर पर अवरोध पैदा करती है. इसलिए, पलायन के इन स्वरूपों को एक निश्चित सीमा तक उलटना बहुत अहम है. दूसरा, ग्रामीण युवाओं की एक बड़ी संख्या व्हाइट-कॉलर नौकरी यानी दफ़्तरों में अच्छे माहौल में सुकून की नौकरी पाना चाहती है. लेकिन इसके लिए ज़रूरी पेशेवर शिक्षा तक ग्रामीण युवाओं की पहुंच नहीं है. यह प्रवृत्ति भी देश की बेरोज़गारी की समस्या को बढ़ाती है, जिसे तत्काल सुधार से जुड़े उपायों के माध्यम से बदलने की आवश्यकता है. उल्लेखनीय है कि इस तरह की अनैच्छिक यानी ना चाहते हुए भी बढ़ने वाली बेरोज़गारी, अक्सर आजीविका के लिए युवाओं को असामाजिक गतिविधियों की ओर धकेलती है और गंभीर सामाजिक समस्याओं का कारण बनती है. यह परिस्थिति एसडीजी 16 (शांति, न्याय और सशक्त संस्थान) पर असर डालती है. तीसरा, ग्रामीण भारत में कृषि क्षेत्र से जुड़े कार्यों को छोड़कर, इससे अधिक जटिल वस्तु एवं सेवा क्षेत्र को अपनाने के लिए धीरे-धीरे बढ़ता रुझान, एसडीजी 8 (प्रतिष्ठित कार्य एवं आर्थिक विकास) और एसडीजी 9 (उद्योग, नवाचार एवं इन्फ्रास्ट्रक्चर) को आगे बढ़ाते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था की ‘आर्थिक प्रगतिशीलता‘ के लिए मंच तैयार कर सकता है. इस तरह के संक्रमण काल आवश्यक क्षमताओं, मानव और भौतिक पूंजी इनपुट और उत्पादन प्रक्रियाओं में ज़रूरी संस्थागत प्रणालियों द्वारा निर्धारित किए जाते हैं.


[1]गुजरात के पाटन जिले के चलवाड़ा गांव में 6 जुलाई, 2022 को कंचन बेन मेघराज भाई ठाकोर के साथ एक व्यक्तिगत साक्षात्कार पर आधारित. उन्होंने प्रकाशन के लिए लेखक को अपने मूल नाम और उम्र का इस्तेमाल करने की अनुमति दी है.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.