Author : Harsh V. Pant

Originally Published हिंदुस्तान अखबार Published on Jun 21, 2024 Commentaries 1 Hours ago

हिंद-प्रशांत का एक बड़ा खिलाड़ी भारत है, इसलिए नई दिल्ली के साथ लंदन ने अपने सामरिक और आर्थिक, दोनों संबंध बेहतर किए. उम्मीद है, यह रिश्ता ब्रिटेन में संभावित सत्ता परिवर्तन के बाद भी कायम रहेगा.

ब्रिटिश चुनाव में फिर भारतवंशी बयार

अगले महीने की 4 तारीख को ब्रिटेन में आम चुनाव होने जा रहे हैं. अगर वे अपने तय कार्यक्रम के मुताबिक होते, तो साल के आखिरी महीनों में मतदान होता . मगर भारतवंशी प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने समय पूर्व चुनाव में उतरने का फैसला किया, जिसकी वाजिब वजह भी थी. दरअसल, सत्तारूढ़ कंजर्वेटिव पार्टी की लोकप्रियता तेजी से गिर रही थी. मतभेद पार्टी के अंदर भी थे. 14 साल से भले ही यह सत्ता में है, लेकिन नेतृत्व के मोर्चे पर पिछले कुछ वर्षों में पार्टी में उथल- पुथल की स्थिति बनी हुई है. लिहाजा, प्रधानमंत्री सुनक का मानना था कि पार्टी के अंदरूनी मतभेद को खत्म करने और जनता का भरोसा फिर से जीतने के लिए चुनाव में उतरना सही होगा. आर्थिक मोर्चे पर देश को मिले फायदे से उन्हें अपनी इस योजना को साकार करने में मदद मिली.

प्रधानमंत्री सुनक का मानना था कि पार्टी के अंदरूनी मतभेद को खत्म करने और जनता का भरोसा फिर से जीतने के लिए चुनाव में उतरना सही होगा. आर्थिक मोर्चे पर देश को मिले फायदे से उन्हें अपनी इस योजना को साकार करने में मदद मिली.

बहरहाल, ऋषि सुनक भले ही सत्ता में वापसी के सपने देख रहे हैं, पर चुनावी रुझान विपरीत हैं. ये बता रहे हैं कि ये चुनाव न सिर्फ ब्रिटिश राजनीति पर दूरगामी असर डाल सकते हैं, बल्कि इसे बुनियादी रूप से बदल भी सकते हैं. कई आंकड़ों में तो विरोधी लेबर पार्टी की बड़ी जीत की संभावना जताई जा रही है. समर्थकों की नजर में यह दूसरे विश्व युद्ध बाद पार्टी की सबसे बड़ी जीत हो सकती है. असल में, साल 1997 में टोनी ब्लेयर ने लेबर पार्टी को मध्यमार्गी बनाकर और 'न्यू 'लेबर' की वकालत करके कंजर्वेटिव पार्टी से सत्ता छिनी थी. मगर 2010 में डेविड कैमरन के नेतृत्व में कंजर्वेटिव सांसद फिर से सरकार बनाने में सफल रहे. यहां तक कि 'ब्रेग्जिट' के बाद भी उन्हें सफलता मिली और कंजर्वेटिव को 'पार्टी ऑफ गवर्नेस' कहा जाने लगा. अब लेबर पार्टी भी मध्यमार्ग पर चल पड़ी है.

वैसे, इस चुनाव में कुछ छोटी पार्टियां की भी अहम भूमिका हो सकती है. मसलन, ब्रेग्जिट के एक महत्वपूर्ण किरदार नाइजले फराज की रिफॉर्म यूके पार्टी कंजर्वेटिव के वोट काटती दिख रही है. बेशक, यह बहुत ज्यादा सीटें न जीत सके, लेकिन नई पार्टी के तौर पर अपनी धमक जरूर दिखा रही है. यह संकेत है कि कंजर्वेटिव के प्रति बेरुखी के कारण लोगों का भरोसा दूसरी पार्टियों में बढ़ा है.

सत्तारूढ़ दल के प्रति यह नाराजगी यूं ही नहीं पनपी है. विशेषकर, कोविड महामारी के बाद से लोगों की आर्थिकी बहुत नहीं संभल सकी है. यहां रहने का खर्च बढ़ गया है और महंगाई भी ज्यादा है. लिहाजा, यह धारणा बन चली है कि 'शासन के लिए' बनी पार्टी अब देश संभालने में सक्षम नहीं रही. इसी तरह, आप्रवासन भी एक बड़ा चुनावी मुद्दा है. कहा गया था कि ब्रेग्जिट के बाद ब्रिटेन को इस मामले में स्वायत्तता मिल जाएगी, लेकिन अब तक ऐसा नहीं हो सका है. नेशनल हेल्थ सर्विस जैसे सामाजिक कार्यक्रमों में फंड की कमी, टैक्स का बढ़ना आदि मुद्दे भी कंजर्वेटिव की सियासी जमीन ढीली कर रहे हैं.

 

कंजर्वेटिव की तरफ भारतवंशियों रुझान

 

'चुनाव ब्रिटेन में रहने वाले करीब 20 लाख भारतवंशियों के लिए भी अहमियत रखते हैं. इनकी भूमिका चुनावों में लगातार बढ़ रही है. वहां हिंदू- मुस्लिम-सिख संबंधी मुद्दे भी उठ रहे हैं. 'हिंदू फॉर 'डेमोक्रेसी' नाम के समूह ने हिंदू घोषणापत्र तक जारी कर दिया है. पहले भारतवंशियों का वोट लेबर पार्टी को जाता था, लेकिन जैसे-जैसे यह आबादी समृद्ध होती गई, कंजर्वेटिव की तरफ इसका रुझान बढ़ता गया है. साल 2019 के चुनाव में 10 से अधिक भारतवंशियों का चुना जाना इसी की तस्दीक कर रहा था, जिनमें ऋषि सुनक एक बड़ा नाम थे. वहां भारतवंशियों की पहचान बदल रही है और वे नेतृत्व की भूमिका में आने लगे हैं. नतीजतन, भारत से जुड़े मुद्दे चुनावों में प्रभावी दिखने लगे हैं. इसकी झलक पिछले चुनाव में भी दिखी थी, जब भारतीय उच्चायोग के सामने खालिस्तानियों के हिंसक प्रदर्शन का समर्थन लेबर पार्टी के कुछ नेताओं ने किया था, जिसके विरोध में भारतवंशियों ने कंजर्वेटिव का साथ देकर उनको सत्ता दिला दी. भारतवंशियों पर कंजर्वेटिव की पकड़ अब भी मजबूत है, क्योंकि उसकी नीति भारत के हित में रही है. इतना ही नहीं, यहां भारतवंशियों की एक बड़ी आबादी कारोबार में लिप्त है और कंजर्वेटिव को बिजनेस समर्थक पार्टी माना जाता है.

पहले भारतवंशियों का वोट लेबर पार्टी को जाता था, लेकिन जैसे-जैसे यह आबादी समृद्ध होती गई, कंजर्वेटिव की तरफ इसका रुझान बढ़ता गया है.

भारत से जुड़े मुद्दे यहां के चुनावों में किस कदर हावी रहते हैं, इसका एक ताजा उदाहरण है, कंजर्वेटिव पार्टी के उम्मीदवार द्वारा कश्मीर मुद्दे को उठाना. चूंकि ब्रिटेन के कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में पाकिस्तान से आए प्रवासियों का प्रभुत्व है, इसलिए यहां भारत- विरोधी नैरेटिव भी खूब चलाए जाते हैं. इस बार भी टोरी उम्मीदवार मार्को लोंगी ने एक पत्र लिखकर मतदाताओं से अपील की कि कश्मीर के मुद्दे को यदि संसद में उठाना है, तो लेबर पार्टी के बजाय उनको वोट दिया जाए. हालांकि, इसकी काफी तेज प्रतिक्रिया हुई है. खुद कंजर्वेटिव पार्टी के अंदर इस पत्र को लेकर तीखा विरोध देखा गया है. वास्तव में, यहां भारतवंशियों की भूमिका जिस तेजी से बदली है, दोनों बड़ी पार्टियां खुद को भारत समर्थक बताने की कोशिशों में है. इसी कारण पिछले कुछ वर्षों में ब्रिटेन ने भारत के प्रति अपनी कूटनीति भी बदली है.

ज्यादा पुरानी बात नहीं है, जब ब्रिटेन भारत की तुलना में पाकिस्तान और चीन के साथ खड़ा दिखता था, क्योंकि अंदरूनी राजनीति उसे इस्लामाबाद के खिलाफ जाने नहीं देती और बीजिंग के साथ उसके अहम आर्थिक रिश्ते थे मगर डेविड कैमरन के कार्यकाल में यह स्थिति बदली और द्विपक्षीय रिश्ते में लगातार सुधार किया गया. खासतौर से ब्रेग्जिट के बाद ब्रिटेन को नए बाजार और नई विदेश नीति की जरूरत थी, जिस कारण ब्रिटिश शासकों ने हिंद- प्रशांत पर जोर देना शुरू किया. यहां उन्होंने नए सहयोगी ढूंढ़े और सत्ता का संतुलन साधने का प्रयास किया. चूंकि हिंद-प्रशांत का एक बड़ा खिलाड़ी भारत है, इसलिए नई दिल्ली के साथ लंदन ने अपने सामरिक और आर्थिक, दोनों संबंध बेहतर किए. उम्मीद है, यह रिश्ता ब्रिटेन में संभावित सत्ता परिवर्तन के बाद भी कायम रहेगा, क्योंकि भारत तेजी से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था है. भरोसा यह भी है कि उस मुक्त व्यापार समझौता पर भी अब आखिरी सहमति बन जाएगी, जिसके बारे में कहा जा रहा है कि समय-पूर्व चुनाव के कारण इसे टाल दिया गया है. अगर यह समझौता साकार हुआ, तो दोनों देशों के रिश्ते एक नई ऊंचाई पर पहुंच जाएंगे.

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