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जैसे-जैसे भारत की खाद्य-प्रणाली डिजिटल, वैश्विक और घर-घर पहुंचने लगी है, एक संकट भी पैदा हो रहा है- जवाबदेही घटती दिख रही है, आपूर्ति शृंखला में पारदर्शिता नहीं है और विश्वसनीयता पर ख़तरा बढ़ रहा है.
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ये लेख ‘खेतों से खाने की प्लेट तक, सुरक्षित भोजन कैसे पायें’ सीरीज़ का हिस्सा है.
भारत में खाने-पाने की संस्कृति तेज़ी से बदल रही है. शहरी उपभोक्ता अब ताज़ा भोजन करने के बजाय एप-आधारित फूड सर्विस और डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ अधिक पसंद करने लगे हैं. इस वज़ह से क्लाउड किचन का जन्म हुआ है, जो एक तरह का घोस्ट या वर्चुअल रसोईघर है, जिसमें डाइनिंग (भोजन) के लिए जगह नहीं होती और जो केवल खाने का ऑनलाइन डिलीवरी करता है. यहां सिर्फ़ ऑनलाइन ऑर्डर पर ही खाना पकता है. इतना ही नहीं, हमारी सेहत को गंभीर नुकसान पहुंचाने वाले अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड (UPF) भी बाज़ार पर राज करने लगे हैं, जिसका कारोबार बढ़कर 2,500 अरब रुपये का हो चुका है. इस तरह की व्यवस्थाओं से निश्चय ही देश में खाने-पीने को लेकर विविधता और सुविधाएं बढ़ी हैं, लेकिन इसने नियमों से जुड़ी कमियों को भी उजागर किया है. हमारे नीति-निर्माता इन बदलावों के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रहे, जैसा कि सरकारी रिपोर्टों और सर्वेक्षणों से पता चलता है. इस कारण चिंताएं बढ़ रही हैं. उदाहरण के लिए, हाल के आर्थिक सर्वेक्षण से संकेत मिलता है कि UPF का अनियंत्रित विस्तार आम लोगों की सेहत और उनकी उत्पादकता पर बड़ा ख़तरा पैदा कर रहा है. इसके अलावा, फूड डिलीवरी एप के लिए काम करने वाले करोड़ों लोग, जो ‘गिग इकोनॉमी’ (अनौपचारिक अर्थव्यवस्था, जिसमें लोग छोटे-मोटे काम करते हैं) का हिस्सा होते हैं, पारंपरिक श्रम कानूनों से मिलने वाली सुरक्षाओं से वंचित हैं. यही कारण है कि भारत में ‘खाने की बदल रही प्लेट’, जो अब बड़े पैमाने पर बाज़ार से मंगवाई जा रही है और प्रसंस्कृत (प्रोसेस्ड) होती है, खाद्य सुरक्षा मानकों और जवाबदेही के सवालों पर अच्छी तस्वीर नहीं दिखाती.
क्लाउड किचन ने भारत में खाद्य सेवाओं में क्रांति ला दी है. खाने-पीने की चीज़ें उपलब्ध कराने वाली वेबसाइटों के साथ-साथ ‘डिलीवरी-ओनली किचन’ में भी तेज़ वृद्धि हुई है. भारत में क्लाउड किचन का बाज़ार 2019 में 40 करोड़ अमेरिकी डॉलर का था, जो 2023 तक दोगुना से भी अधिक बढ़कर 1.05 अरब डॉलर से ज़्यादा का हो गया. विशेषज्ञों का मानना था कि 2024 तक यह 2 अरब डॉलर तक पहुंच गया था, क्योंकि महामारी के कारण होम डिलीवरी की मांग बढ़ गई थी. इस उछाल से इसमें नई-नई क्षमताएं पैदा हुई हैं- जैसे, मालिकों ने कर्मचारियों और किराये में कमी करके एक ही किचन में कई वर्चुअल रेस्तरां चलाना शुरू कर दिया है. इससे डिलीवरी कर्मचारियों की एक बड़ी फ़ौज के लिए रोज़गार पैदा हुआ है. केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने 2024 के अंत में कहा था कि भारत में करीब 77 लाख गिग वर्कर हैं, और यह संख्या केवल बढ़ने की ही उम्मीद है. गिग वर्कर उन कर्मियों को कहते हैं, जिनके पास स्थायी कामकाज नहीं होता है. शहरी खाद्य अर्थव्यवस्था में अब ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के लिए काम करने वाले इन गिग कर्मचारियों को भी शामिल किया गया है और सरकारी थिंक-टैंक नीति आयोग का अनुमान है कि 2029-30 तक ऐसे कर्मियों की संख्या बढ़कर 2.4 करोड़ हो जाएगी.
भारत में क्लाउड किचन का बाज़ार 2019 में 40 करोड़ अमेरिकी डॉलर का था, जो 2023 तक दोगुना से भी अधिक बढ़कर 1.05 अरब डॉलर से ज़्यादा का हो गया. विशेषज्ञों का मानना था कि 2024 तक यह 2 अरब डॉलर तक पहुंच गया था, क्योंकि महामारी के कारण होम डिलीवरी की मांग बढ़ गई थी.
फिर भी, क्लाउड किचन का अपना रहस्य है. दरअसल, इस तरह के किचन आमतौर पर आउटसोर्स पर चलते हैं, यानी जहां मांग होती है, वहां भोजन नहीं पकाए जाते, बल्कि उससे कहीं दूर इस क्लाउड किचन में पकाए जाते हैं, इसलिए ग्राहक खाना पकते हुए नहीं देख पाता. इससे साफ़-सफ़ाई और नियमों के पालन को लेकर चिंताएं पैदा होती हैं. हजारों की संख्या में बिखरे इन घोस्ट किचन में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कराना काफ़ी कठिन काम है. 2018 में, भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (FSSAI) ने पाया था कि ऑनलाइन मॉडल पर काम करने वाले 30-40 प्रतिशत रेस्तरां के पास FSSAI का लाइसेंस या ज़रूरी पंजीकरण नहीं था. प्राधिकरण ने ‘फूड एग्रीगेटर्स’ (खाने-पीने की सेवा देने वाली बेवसाइटों) को बिना लाइसेंस वाले रेस्तरां को अपनी सूची से हटाने और हर रेस्तरां का लाइसेंस नंबर ग्राहकों को बताने का निर्देश दिया. इस कार्रवाई के बाद हालात में सुधार हुआ, लेकिन नए क्लाउड किचन की लगातार बढ़ती संख्या के कारण सभी पर निगरानी करना बहुत मुश्किल हो जाता है. कई छोटे रेस्तरां बहुत कम मुनाफ़े पर काम करने के कारण सुरक्षा से समझौता कर लेते हैं. फूड एग्रीगेटर्स इस समस्या को और भी जटिल बना देते हैं, क्योंकि वे 20 से 30 प्रतिशत रकम शुल्क के रूप में वसूलते हैं, जिस कारण पहले से ही कम मुनाफ़े पर काम करने वाले क्लाउड किचन का मुनाफ़ा और कम हो जाता है. इस दबाव के कारण कई छोटे किचन गुणवत्ता से समझौता कर लेते हैं, क्योंकि उनको अपनी लागत भी कम करनी होती है. सख्त नियामक तंत्र के न रहने के कारण वे निम्न गुणवत्ता की सामग्रियों का इस्तेमाल करते हैं या अपनी व्यवस्था में ज़रूरी सुधार नहीं करना चाहते.
एक और मुद्दा, जिन पर कम चर्चा होती है, वह है - डिलीवरी बॉय और खाना तैयार करने वाले श्रमिकों की बेहतरी. घर के दरवाजे तक गरमा-गरम भोजन पहुंच जाने से हमें आनंद तो मिलता है, लेकिन इसमें डिलीवरी बॉय की बेबसी और मुश्किलें छिप जाती हैं. ठेके पर काम मिलने के कारण डिलीवरी बॉय को समय का काफ़ी ध्यान रखना पड़ता है और आमतौर पर सड़कों की ख़तरनाक स्थिति से जूझना पड़ता है. अपने देश में सड़क सुरक्षा चिंता का एक बड़ा विषय है, क्योंकि बहुत कम समय में डिलीवरी करने की जल्दबाज़ी डिलीवरी बॉय पर भारी पड़ जाती है.
घोस्ट किचन बढ़ने के साथ-साथ भारत के खान-पान में UPF की खपत भी बढ़ रही है. अत्यधिक नमक, मीठा, वसायुक्त खाना, डिब्बाबंद खाना, तैयार खाद्य पदार्थ वाले पैकेट, मीठे पेय पदार्थ और सॉफ्ट ड्रिंक जैसे चीज़ें हमारे खान-पान का हिस्सा बनने लगी हैं. इस कारण इसका बाज़ार 2.5 ट्रिलियन मूल्य का हो गया है और तेज़ी से बढ़ रहा है. इसे इतना बड़ा माना जा रहा है कि ‘अनदेखा नहीं किया जा सकता’. हालांकि, जिस तेज़ी से बाज़ार बढ़ रहे हैं, उतनी तेज़ी से उपभोक्ता जागरूकता और नियमन नहीं बढ़ रहे. आर्थिक सर्वेक्षण 2024-25 में बताया गया है कि भारत में UPF की खपत बढ़ने से मोटापे, मधुमेय, हृदय संबंधी ख़तरे, यहां तक कि मानसिक बीमारियों के बढ़ने का ख़तरा होता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की एक रिपोर्ट में पाया गया है कि भारत में UPF उत्पादों की खपत सालाना 13 प्रतिशत से अधिक की दर से बढ़ रही है. 2006 में जहां इसको ख़रीदने में 90 करोड़ अमेरिकी डॉलर का ख़र्च किया जाता था, वहीं 2019 में यह बढ़कर 37.9 अरब डॉलर हो गया. जंक फूड की बिक्री में हुई इस बढ़ोतरी से गैर-संक्रामक रोगों (NCD) के प्रसार को रोकने में मुश्किलें आ रही हैं. स्थिति यह है कि दस में से चार भारतीय युवा मधुमेह से पीड़ित हैं या इसकी सीमा-रेखा पर हैं, और देश के आधे से अधिक बच्चों में हृदय रोग, टाइप 2 डायबिटीज, स्ट्रोक जैसी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं को बढ़ाने वाले मोटाबोलिक, यानी चयापचय जोखिम के शुरुआती लक्षण दिख रहे हैं. इन आंकड़ों से पता चलता है कि यह समस्या कितनी गंभीर है.
भारत में खाने-पीने वाले पैकेटों पर पोषक-तत्वों की पूरी जानकारी बताने वाली सूचनाएं नहीं होतीं और न ही बीमार करने वाले खाद्य पदार्थों पर ‘अत्यधिक कर’ लगाने का तरीका अपनाया जाता है, जैसा कि अधिकांश विशेषज्ञ सुझाव देते हैं.
इन चेतावनियों के बावजूद प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों को लेकर नियमों को मज़बूती से लागू नहीं किया जा रहा. भारत में खाने-पीने वाले पैकेटों पर पोषक-तत्वों की पूरी जानकारी बताने वाली सूचनाएं नहीं होतीं और न ही बीमार करने वाले खाद्य पदार्थों पर ‘अत्यधिक कर’ लगाने का तरीका अपनाया जाता है, जैसा कि अधिकांश विशेषज्ञ सुझाव देते हैं. आर्थिक सर्वेक्षण में UPF के पैकेट पर स्पष्ट चेतावनी लिखने की वकालत की गई है और सार्वजनिक स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए इसे ज़रूरी बताया गया है. यहां यह भ्रम पाल लेना हमारी नादानी होगी कि खाद्य उद्योग नियमों का खुद पालन करते हुए बीमार बनाने वाले खाद्य पदार्थों को बनाना बंद कर देंगे. सरकार ने रोकथाम के उपायों के रूप में UPF पर ‘स्वास्थ्य कर’ लगाने का विचार ज़रूर किया है, लेकिन यह सोच अभी शुरुआती चरण में ही है. इसलिए, ज़िम्मेदारी खुद उपभोक्ताओं को ही उठानी है, लेकिन इसमें एक परेशानी यह हो सकती है कि लोगों को यह पता ही न हो, उनके पसंदीदा स्नैक्स में कितनी ज़्यादा चीनी, ट्रांस-फैट (नकली चर्बी) या सोडियम है.
दिक्क़त यह भी है कि भारत में खाद्य सुरक्षा एजेंसियां अपनी मुश्किलों से जूझ रही हैं. मिलावट और घटिया गुणवत्ता की खबरें लगातार सुर्ख़ियों में आती रहती हैं, फिर चाहे बात मसालों में मिलावट की हो या फूड एग्रीगेटर्स व क्विक कॉमर्स वेयरहाउस में ख़राब तरीके से रखे गए डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों की. 2020-21 में खाद्य पदार्थों के 26 प्रतिशत से अधिक सैंपल मानकों के अनुरूप नहीं पाए गए थे, जबकि अगले दो वर्षों में, यानी 2023 तक सैंपल फेल होने की दर लगभग 23 से 25 प्रतिशत तक बनी रही. इसका मतलब है कि जांचे गए हर चार खाद्य नमूनों में से एक दूषित है या गुणवत्ता के लिहाज से कमज़ोर. मसाला बाज़ार की बात करें, तो इसमें घरेलू जांचकर्ता तो जांच करने में भी विफल साबित हुए हैं, जबकि विदेशी जांचकर्ताओं ने सवाल उठाए हैं. जैसे, जनवरी 2024 में हांगकांग के अधिकारियों ने भारतीय मसालों के कुछ पैकेटों (इनमें ज़्यादा बिकने वाले ब्रांड के पैकेट भी थे) की बिक्री रोक दी थी, क्योंकि उन्हें उनमें एथिलीन ऑक्साइड की काफ़ी ज़्यादा मात्रा मिली थी, जो कैंसर पैदा करने वाला एक प्रतिबंधित कीटनाशक है. सिंगापुर ने भी अपने बाज़ार से भारतीय मसालों को वापस मंगवाकर जांच करवाई. इसके बाद FSSAI ने भी उन मसाला ब्रांडों के पैकेटों की जांच-पड़ताल शुरू की. दरअसल, नियमन की कमियों के कारण ऐसे उत्पादों के बच निकलने की आशंका होती है, खासकर तब, जब नए ख़तरों (नए मिलावट या विषाक्त पदार्थ) को लेकर निगरानी न की जाती हो. अगर भारत को ‘बिग फूड’ के इस नए युग में ग्राहकों को सुरक्षित रखना है, तो मज़बूत, दूरदर्शी जांच-प्रक्रियाओं और विश्वसनीय मानकों का पालन करना ज़रूरी है.
भारतीय उप-महाद्वीप खान-पान की अपनी संस्कृति को सॉफ्ट पावर एक हथियार के रूप में बहुत पहले से इस्तेमाल करता रहा है. मसालों से लेकर आम तक खान-पान की समृद्ध परंपरा भारत की वैश्विक सांस्कृतिक कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय व्यापार के केंद्र में है. उदाहरण के लिए, 2023 को विश्व स्तर पर ‘मोटे अनाज का वर्ष’ बनाने का सरकार का फ़ैसला भारत की खाने-पीने की संस्कृति और शायद टिकाऊ व सेहतमंद भोजन को लेकर भारत की स्थिति को मज़बूत बनाता है. भारत चाय, मसाले, बासमती चावल और चुनिंदा फल टनों में बाहर भेजता है. हालांकि, ‘ब्रांड इंडिया’ की छवि यदि खाद्य सुरक्षा में चूक से बिगड़ती है, तो इस सॉफ्ट पावर हथियार पर भी संदेह उठने लगेंगे. सुरक्षा में विफलता से प्रतिष्ठा भी घटती है. अगर हमसे माल मंगवाने वाले देश हमारे उत्पादों की सुरक्षा पर बार-बार सवाल उठते देखेंगे, तो हमारी खाद्य आपूर्ति शृंखलाओं पर अविश्वास करना शुरू कर सकते हैं. दुख की बात है कि ऐसी घटनाएं बार-बार सामने आ रही हैं. यूरोपीय संघ की ‘रैपिड अलर्ट सिस्टम फॉर फूड ऐंड फीड’ ने 2023 में मसालों और जड़ी-बूटियों में सुरक्षा के 248 मामले उजागर किए थे, जो 2022 की तुलना में कुछ ज़्यादा थे. इनमें सबसे अधिक 58 मामले भारत से जुड़े थे, जिनमें से कइयों की वज़ह मसालों में कीटनाशक अवशेषों या बैक्टीरिया, कवक, वायरस अथवा यीस्ट जैसे सूक्ष्मजीवों की मौजूदगी थी. साल 2024 में ऐसे मामलों की संख्या 90 से अधिक हो गई.
खाद्य आपूर्ति शृंखला का कूटनीतिक महत्व भी है- खाद्य सुरक्षा व्यापार वार्ताओं और अंतरराष्ट्रीय सहयोग का विषय हो सकता है. जैसे-जैसे सुविधाओं को लेकर भारत की चाहत बढ़ रही है, वैसे-वैसे खाद्य सुरक्षा और गुणवत्ता सुनिश्चित करने में उसे अपनी सावधानी भी बढ़ानी चाहिए
हमारे यहां नियमों को लेकर की जाने वाली लापरवाही पर भी विदेशों में सवाल उठाए जाते हैं. जैसे, भारतीय आम जो कि पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हैं, लेकिन बड़े बाज़ार में उनको भी कड़ी जांच से गुजरना पड़ता है. अमेरिका में भारतीय आमों को निर्यात करने के लिए मक्खियों और अन्य कीटों को मारना पड़ता है, जिसके लिए फलों का इर्रेडिएटेड, यानी विकिरणित करने की ज़रूरत होती है. 2025 में, इस नियम के पालन में गड़बड़ी के कारण अमेरिकी अधिकारियों ने भारतीय प्रीमियम आमों की 15 खेप नहीं ली, जिसके कारण निर्यातकों को लगभग 5 लाख अमेरिकी डॉलर ख़र्च करके अपने शिपमेंट जलाने पड़े. हालांकि, इस मामले में दस्तावेज़ बनाने के स्तर पर गलती हुई थी, लेकिन यह इस बात का उदाहरण है कि सुरक्षा प्रक्रियाओं के साथ तालमेल बनाए रखने में कोई भी चूक की कितनी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है.
इन घटनाओं से देश की इज़्ज़त को नुकसान पहुंचता है, जो तात्कालिक कारोबारी नुकसान से कहीं अधिक गंभीर बात है. इस तरह के मामले सुरक्षित और गुणवत्तापूर्ण भोजन के निर्यातक देश के रूप में भारत की विश्वसनीयता को कम करते हैं. खाद्य आपूर्ति शृंखला का कूटनीतिक महत्व भी है- खाद्य सुरक्षा व्यापार वार्ताओं और अंतरराष्ट्रीय सहयोग का विषय हो सकता है. जैसे-जैसे सुविधाओं को लेकर भारत की चाहत बढ़ रही है, वैसे-वैसे खाद्य सुरक्षा और गुणवत्ता सुनिश्चित करने में उसे अपनी सावधानी भी बढ़ानी चाहिए. स्पष्ट है, काफ़ी कुछ दांव पर लगा है, क्योंकि उपभोक्ताओं और कर्मचारियों की सेहत से लेकर देश की प्रतिष्ठा तक, सभी ऐसी खाद्य शृंखलाओं के निर्माण पर निर्भर करते हैं, जिनको न सिर्फ़ कुशल, बल्कि सुरक्षित और भरोसेमंद भी होना चाहिए.
(के. एस. उपलब्द्ध गोपाल ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के हेल्थ इनीशिएटिव में एसोसिएट फेलो हैं)
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Dr. K. S. Uplabdh Gopal is an Associate Fellow within the Health Initiative at ORF. His focus lies in researching and advocating for policies that ...
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