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Published on Jan 16, 2025 Updated 0 Hours ago

सीमा पर सहमति एक छलावा है, चीन एशिया में अपना दबदबा बनाए रखने के लिए सीमा मुद्दे को जीवित रखना चाहता है.

भारत-चीन बातचीत: परदे के पीछे चीन की रणनीति यानी छलावे का लंबा खेल!

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युद्ध पर अपनी किताब में सन त्जु दुश्मन को हराने की कई रणनीतियों का ज़िक्र करते हैं. वह भ्रमित करने और धैर्य रखने पर ज़ोर देते हैं, और बताते हैं कि जो सेनापति शतरंज के खिलाड़ी की तरह ज्यादा गुणा-भाग करता है, उसके जीतने की संभावना अधिक होती है. दुर्भाग्य से, जब बात भारत-चीन रिश्तों में निरंतरता की आती है, तो इस धीरज की कमी दिखती है, विशेषकर चौबीसों घंटे मीडिया खबरों वाले इस युग में.

 

दिसंबर, 2024 में करीब पांच साल के बाद भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और चीन के विदेश मंत्री वांग यी के बीच विशेष प्रतिनिधि (एसआर) स्तर की 23वीं बैठक हुई. इस बैठक की शुरुआत 2003 में एक समझौते के तहत हुई है, जिसमें यह स्वीकार किया गया था कि सीमा विवाद से जुड़े सवालों का राजनीतिक तरीके से समाधान निकाला जाना चाहिए. भारत की तरफ से जारी बयान में कहा गया कि डोभाल और वांग यी, दोनों ने भारत-चीन के बीच द्विपक्षीय रिश्ते की समग्रता के लिए सीमा क्षेत्रों में शांति और स्थिरता बनाए रखने पर जोर दिया है. इसके अतिरिक्त यह भी कहा गया कि तिब्बत में कैलाश मानसरोवर तीर्थयात्रा, सीमावर्ती क्षेत्रों में व्यापार और एक-दूसरे की सीमा में जाने वाली नदियों पर आंकड़े साझा करने के लिए भी सहमति बनाई जा रही है.

 

उधर, चीन के विदेश मंत्रालय की विज्ञप्ति में बतौर ‘समाधान’ सीमा पर सैनिकों की वापसी से जुड़ी ‘छह सहमति’ का ज़िक्र किया गया है. इसमें कहा गया है कि सीमा विवाद को उचित ढंग से संभाला जाना चाहिए और इसका आपसी रिश्तों के विकास पर कोई असर नहीं पड़ना चाहिए. इसमें उन ‘पारस्परिक रूप से स्वीकार्य संपूर्ण समाधान’ पर पहुंचने के लिए दोनों पक्षों के प्रयासों का हवाला दिया गया है, जो सीमा मुद्दे पर 2005 में हुए विशेष प्रतिनिधियों के समझौते पर आधारित है. चीनी विज्ञप्ति में यह भी वायदा किया गया है कि दोनों देशों को एसआर, यानी विशेष प्रतिनिधि स्तर के ढांचे को मजबूत बनाना चाहिए और कूटनीति व सैन्य वार्ता में समन्वय और सहयोग को बढ़ावा देना चाहिए. इसमें अगले साल फिर से बैठक करके विशेष प्रतिनिधि (एसआर) संबंधी व्यवस्था को जारी रखने की बात भी कही गई है, जो बताती है कि एशिया में शांति के लिए चीन और भारत के रिश्तों में स्थिरता काफी अहम है. चीन का विदेश मंत्रालय इस व्यवस्था के पुनरुद्धार को ‘मुश्किल जीत’ बताता है, जिससे यह आभास होता है कि वह तनावपूर्ण सैन्य गतिरोध के बाद आपसी रिश्तों को सामान्य बनाने के प्रयासों को अहमियत देता है. फिर भी, सन त्जु की सलाह सुनने वाले जनरलों की तरह, बीजिंग के पास भी तमाम तरह के गुणा-गणित हैं. बेशक, कुछ खास अवधि में चीन की कार्रवाइयों को ग्रे-जोन युद्ध के रूप में परिभाषित किया जाता रहा है, लेकिन शिक्षाविदों में अब बीजिंग की रणनीति को समझाने के लिए ‘आईसीएडी’ शब्द के उपयोग को लेकर सहमति बनने लगी है, जो चार शब्दों- अवैध, बलपूर्वक, आक्रामक और भ्रामक व्यवहार, का संक्षिप्तीकरण है.

 

चीन, भारत और तिब्बत

 

चीन अपनी आईसीएडी नीति पर किस कदर काम कर रहा है, इसका अंदाज़ तिब्बत में यारलुंग-त्सांगपो नदी पर उसकी एक बड़ी जलविद्युत परियोजना से होता है. यह नदी भारत के अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश करने के बाद ब्रह्मपुत्र बन जाती है. नई दिल्ली ने बीजिंग को अपनी चिंताओं से अवगत कराया है और ज़ोर देकर कहा है कि बांग्लादेश जैसे निचले तटवर्ती देशों के हितों की रक्षा होनी चाहिए. इसके अलावा, झिंजियांग स्वायत्त क्षेत्र ने लद्दाख के इलाके को शामिल करते हुए होटन प्रांत में दो काउंटी बनाने की घोषणा की है. यह कार्टोग्राफिक-हमले (राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को जान-बूझकर गलत तरीके से पेश करना, ताकि क्षेत्रीय विस्तार का दावा किया जा सके) जैसा है, जिसके तहत चीन ने पहले अरुणाचल प्रदेश के उन शहरों के नाम एकतरफा बदल दिए थे, जिन पर वह दावा करता रहा है. बीजिंग ने एक आधिकारिक मानचित्र भी जारी किया है, जिसमें भारतीय हिस्से के एक बड़े क्षेत्र को चीन में शामिल किया गया है.

 

चीन ने यह आक्रामक रुख़ संभवत: इस मंशा के तहत अपनाया हो कि बीजिंग के साथ तनाव कम करने को लेकर नई दिल्ली बहुत उत्सुक है, क्योंकि नई दिल्ली और वॉशिंगटन डी.सी के रणनीतिक हितों में गहरे मतभेद आ गए हैं. शंघाई इंस्टीट्यूट्स फॉर इंटरनेशनल स्टडीज़ के दक्षिण एशिया रिसर्च सेंटर के निदेशक लियू जोंगयी का मानना है कि मुख्य तौर से वित्तीय और आर्थिक वजहों से चीन के साथ भारत संबंध सुधारने को उत्सुक है. इसके पीछे वे कुछ तर्क पेश करते हैं. पहला, पूर्वी लद्दाख में सैन्य गतिरोध के कारण भारत को हथियारों की खरीद करनी पड़ी और भौतिक बुनियादी ढांचे के विकास पर निवेश करना पड़ा, जिसके कारण नई दिल्ली का खज़ाना खाली हुआ है और उसका ध्यान हिंद महासागर की ओर से हट गया है. दूसरा, चीन के आसपास मौजूद पश्चिमी नेतृत्व वाले नियंत्रणकारी ताकतों ने वॉशिंगटन और बीजिंग के बीच सामरिक प्रतिस्पर्धा बढ़ा दी है, और भारत अपनी अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए इस अवसर का लाभ उठाना चाहता है, जिसके लिए बतौर विकास साझेदार उसे चीन की ज़रूरत है. तीसरा, यह भी मान्यता है कि भारत चीनी उद्यमों के प्रति अपने उस रवैये में नरमी बरतने लगा है, जिसके तहत नई दिल्ली ‘उपयोगिता समाप्त हो जाने पर उद्यमों से छुटकारा पाने की मानसिकता’ रखती थी. नई दिल्ली द्वारा भारत में व्यापार करने वाली चीनी कंपनियों पर रोक कथित तौर पर यही अन्याय था.

 

चीनी नज़रिया

 

एक चीनी मीडिया कंपनी के संवाददाता के रूप में भारत को कवर करने वाले युआन जिरोंग का मानना है कि अलग-अलग कूटनीतिक हितों के कारण भारत-अमेरिका रिश्तों में दरार आ रही है. उनके इस आकलन के अपने तर्क हैं. उनके मुताबिक, वॉशिंगटन की मान्यता यह है कि भारत ‘बड़ा देश’ है, जो अपने हितों को आगे बढ़ाता है, और यह कभी भी औपचारिक रूप से अमेरिका का सहयोगी नहीं बनेगा, जिस कारण अमेरिका-भारत का सहयोग सीमित हो जाएगा. वह यह भी तर्क देते हैं कि वैश्विक नेतृत्व की भारत की आकांक्षा का अर्थ यह है कि वह अमेरिका को चुनौती दे सकता है. हालांकि, उनका यह भी मानना है कि वॉशिंगटन का लक्ष्य समानांतर रूप से उभर रही दो विकासशील ताकतों के बीच प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित करना है, ताकि उसका वैश्विक दबदबा कायम रहे. मगर असलियत की ज़मीन पर भारत-अमेरिका संबंधों पर यह निराशावादी नज़रिया टिक नहीं रहा है, खासतौर पर यह देखते हुए कि अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन जनवरी, 2025 में दिल्ली आए थे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात कर तकनीक, रक्षा, अंतरिक्ष, असैन्य परमाणु, अक्षय ऊर्जा, सेमीकंडक्टर और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इटेलिजेंस-एआई) जैसे क्षेत्रों में दोनों देशों के बीच व्यापक वैश्विक रणनीतिक साझेदारी में आए महत्वपूर्ण बदलावों का सकारात्मक मूल्यांकन किया था. वॉशिंगटन ने असैन्य परमाणु के क्षेत्र में सहयोग में आने वाली रुकावटों को दूर करने की अपनी मंशा भी ज़ाहिर की है, जिसमें भारतीय वैज्ञानिक प्रतिष्ठानों पर प्रतिबंधों को हटाने की क़वायद करना भी शामिल है. इन प्रतिबंधों के तहत विशिष्ट उत्पादों और तकनीकों के आदान-प्रदान पर अमेरिका रोक लगाता है.

 

रूस में अक्टूबर, 2024 में हुए ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में भारत और चीन के शासनाध्यक्षों की मुलाकात के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ किया था कि बहुध्रुवीय एशिया और बहुध्रुवीय विश्व के निर्माण के लिए भारत और चीन के रिश्तों में स्थिरता काफी अहमियत रखती है. चीनी रणनीतिकारों को लगता है कि बहुध्रवीय विश्व की बुनियाद के रूप में बहुध्रुवीय एशिया की कल्पना करने से भारत एशिया में चीन के बराबर हो सकता है, जिससे चीन की एशिया में प्रमुख शक्ति बनने की महत्वाकांक्षा में रुकावट पैदा हो सकती है. बीजिंग का यह भी मत है कि दोनों देशों के बीच शक्ति के अंतर को देखते हुए, चीन को शह देने और संतुलन बनाने के लिए भारत को अन्य मुल्कों के साथ जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा. यही कारण है कि सीमा मुद्दे को जीवित रखने का प्रयास चीन करता रहेगा और मेल-मिलाप की उसकी मुद्रा हकीकत में ‘आईसीएडी’ नीति को ही आगे बढ़ाने का उसका एक बहाना है.


(लेखक ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में स्ट्रैटीजिक स्टडीज प्रोग्राम के फेलो हैं)

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