Author : Ramanath Jha

Expert Speak Raisina Debates
Published on Jul 04, 2025 Updated 0 Hours ago

आज दुनिया भर में—चाहे विकसित पश्चिम हो, जापान हो या चीन—बड़े परिवार को राष्ट्रीय हित से जोड़ने की कोशिशें नाकाम रही हैं.

भारत और चीन की जनसंख्या नीतियाँ: अनुभव और सबक

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1950 के दशक में भारत और चीन—दोनों देशों में जनसंख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई. दोनों सरकारों ने इस बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या को राष्ट्रीय आर्थिक विकास और सामाजिक कल्याण के लिए एक गंभीर चुनौती के रूप में देखा. इसी कारण, जनसंख्या नियंत्रण के उद्देश्य से जनसांख्यिकी ढांचे में बदलाव लाने की नीतियां अपनाई गईं. इन नीतियों के प्रभाव आज भी कई देशों, विशेषकर भारत के लिए, उपयोगी सबक प्रस्तुत करते हैं.

1951 में चीन की जनसंख्या 553.75 मिलियन और भारत की 361.08 मिलियन थी. हालांकि, संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रकाशित विश्व जनसंख्या अनुमान 2022 के अनुसार, भारत की जनसंख्या अप्रैल 2023 के अंत तक 1.42 बिलियन तक पहुँच गई और इस प्रकार भारत, चीन को पीछे छोड़ते हुए दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन गया.

चीन की जनसंख्या 2022 में 1.42 बिलियन के शिखर पर पहुँची, जिसके बाद वहाँ जनसंख्या में गिरावट शुरू हो गई. इसके उलट, भारत में जनसंख्या वृद्धि की प्रवृत्ति जारी रहने की संभावना है, और अनुमान है कि यह 2063 तक बढ़ते हुए 1.67 बिलियन तक पहुँच जाएगी. इसके बाद भारत की जनसंख्या में भी धीरे-धीरे गिरावट आने लगेगी.

1950 के दशक में, चीन के नेतृत्व ने अपनी जनसंख्या को एक शक्ति के रूप में देखा और कहा कि “मनुष्य सभी संसाधनों में सबसे बहुमूल्य हैं.” 1953 में शुरू की गई प्रभावी मातृ और शिशु स्वास्थ्य सेवाओं के चलते मृत्यु दर में उल्लेखनीय कमी आई, जिससे 1970 तक चीन की जनसंख्या में 25 करोड़ की वृद्धि हो गई.
लेकिन इस तेज़ जनसंख्या वृद्धि ने सार्वजनिक सेवाओं पर भारी दबाव डाला, जिससे सरकार चिंतित हो उठी. 1970 के दशक में जनसंख्या वृद्धि दर को नियंत्रित करने के लिए लक्ष्य तय किए गए. हालांकि ‘बाद में, लंबा अंतराल, और कम संतान’ नामक अभियान चलाया गया, पर वह अपेक्षित परिणाम नहीं दे सका. 1982 तक चीन की जनसंख्या 1 अरब के पार पहुँच गई.

2013 से चीन ने ‘एक बच्चे की नीति’ को धीरे-धीरे वापस लेना शुरू किया और 2017 में इसे पूरी तरह समाप्त कर दिया. 2022 के बाद ‘तीन बच्चे की नीति’ लागू की गई और परिवार बढ़ाने के लिए भारी प्रोत्साहन की पेशकश की गई.

इसके बाद 1982 में ‘एक बच्चे की नीति’ लागू की गई, जिसमें दंपतियों को सिर्फ एक बच्चा पैदा करने का निर्देश दिया गया. इस नीति के अंतर्गत ऐसे दंपतियों को प्रोत्साहन दिए गए, जबकि एक से अधिक बच्चों वाले परिवारों पर आर्थिक दंड लगाए गए, जबरन गर्भपात और नसबंदी कराई गई, और सामाजिक दबाव भी डाला गया.

इस कठोर नीति के कारण कई अनचाहे और गंभीर परिणाम सामने आए. चीन की प्रजनन दर 1970 में 6.1 से घटकर 2020 में 1.28 रह गई, जो प्रतिस्थापन दर से काफी कम है. लड़कों के प्रति सांस्कृतिक झुकाव ने भारी लैंगिक असंतुलन पैदा कर दिया. वृद्धों की संख्या तेज़ी से बढ़ी, जबकि युवा आबादी में गिरावट आई, जिससे श्रम शक्ति और उपभोक्ता बाजार सिकुड़ गया. कामकाजी उम्र की जनसंख्या में तेज़ गिरावट, वृद्धजन देखभाल की बढ़ती लागत और दीर्घकालिक आर्थिक नुकसान ने चीनी नेतृत्व को चिंता में डाल दिया.

2013 से चीन ने ‘एक बच्चे की नीति’ को धीरे-धीरे वापस लेना शुरू किया और 2017 में इसे पूरी तरह समाप्त कर दिया. 2022 के बाद ‘तीन बच्चे की नीति’ लागू की गई और परिवार बढ़ाने के लिए भारी प्रोत्साहन की पेशकश की गई.

फिर भी, यह प्रयास सफल नहीं हो सका. मकानों की ऊँची कीमतें और जीवन यापन की लागत ने लोगों को बड़े परिवार से रोक दिया. कोविड-19 महामारी और चीन की ज़ीरो कोविड नीति ने हालात और बिगाड़ दिए.

अब अनुमानों के अनुसार, 2050 तक चीन की जनसंख्या में करीब 10 करोड़ की गिरावट होगी और यह घटकर 1.3 अरब तक आ जाएगी. सदी के अंत तक यह संख्या 771 मिलियन तक गिर सकती है — जो कि 2100 में भारत की अनुमानित जनसंख्या का लगभग आधा होगा.

भारत की जनसंख्या 1951 में 361.08 मिलियन थी और इसमें तेज़ी से वृद्धि हो रही थी. सरकार ने इसे आर्थिक विकास में एक गंभीर बाधा के रूप में देखा और 1952 में राष्ट्रीय परिवार नियोजन कार्यक्रम की शुरुआत की. इस कार्यक्रम के अंतर्गत प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार किया गया और 1960 के दशक में प्रयासों को दोगुना किया गया. लक्ष्य था कि 1974 तक जन्म दर को 3.9 प्रतिशत तक घटा दिया जाए.

सरकार को जनसंख्या नियंत्रण के पुराने ढांचे पर पुनर्विचार करना चाहिए. इसके बजाय परिवार और विवाह जैसे संस्थानों को बढ़ावा देना, तीन बच्चों वाले परिवारों को समर्थन देना और मातृत्व को बोझ नहीं, बल्कि संपत्ति मानने वाली नीति अपनाना समय की माँग है.

हालांकि इन प्रयासों के बावजूद 1971 तक भारत की जनसंख्या 547.94 मिलियन तक पहुँच गई. 1970 के मध्य में सरकार ने जबरन नसबंदी जैसे उपायों के ज़रिए परिवार नियोजन को लागू करने का प्रयास किया, लेकिन इससे भारी राजनीतिक विरोध हुआ और नीति को जल्द ही वापस लेना पड़ा.

इसके बाद, सरकार ने एक नया परिवार कल्याण विभाग स्थापित किया और वर्ष 2000 में राष्ट्रीय जनसंख्या नीति को अपनाया, जिसका उद्देश्य था—गर्भनिरोधक सुविधाओं की पहुँच बढ़ाना और 2045 तक एक स्थिर जनसंख्या स्तर प्राप्त करना.

हालाँकि भारत की जनसंख्या नीति ने प्रभाव डाला, लेकिन इसका असर उतना व्यापक नहीं रहा जितना चीन में देखा गया. भारत की कुल प्रजनन दर 5.73 जन्म प्रति महिला से घटकर 2024 तक 1.96 हो गई. चीन के विपरीत, भारत में जबरन जन्म नियंत्रण केवल सीमित अवधि तक रहा. लिंगानुपात असंतुलित नहीं हुआ और युवा आबादी का अनुपात अपेक्षाकृत बना रहा.

फिर भी, अनुमान है कि भारत की जनसंख्या में वृद्धि 2063 तक जारी रहेगी, उसके बाद इसमें गिरावट आएगी. लेकिन उससे पहले ही बुजुर्गों की संख्या में तेज़ वृद्धि शुरू हो जाएगी, जिससे कार्यबल में कमी और वृद्ध देखभाल की ज़रूरतों में इज़ाफा होगा.

इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि प्रजनन संबंधी सामाजिक इंजीनियरिंग हमेशा इच्छित परिणाम नहीं देती, और कई बार इसके विपरीत प्रभाव भी हो सकते हैं. एक बार जब ऐसी नीतियाँ प्रभाव में आ जाती हैं, तो उन्हें पलटना भी आसान नहीं होता, क्योंकि तब तक ज़मीनी परिस्थितियाँ काफी बदल चुकी होती हैं.

आर्थिक विकास, महिला सशक्तिकरण का सहायक होता है और महिलाओं को बड़ी संतान संख्या का बोझ उठाने से बचने की स्वतंत्रता देता है—जो प्रायः अनजाने में उन पर लाद दिया जाता है.

आज दुनिया भर में—चाहे विकसित पश्चिम हो, जापान हो या चीन—बड़े परिवार को राष्ट्रीय हित से जोड़ने की कोशिशें नाकाम रही हैं. भारत के लिए भी, प्रतिस्थापन दर से नीचे आ चुकी प्रजनन दर के साथ, भविष्य में जनसंख्या गिरावट को पलटना बेहद चुनौतीपूर्ण होगा. इतिहास में कोई भी देश अब तक यह कर पाने में सफल नहीं हुआ है.

इसलिए सरकार को जनसंख्या नियंत्रण के पुराने ढांचे पर पुनर्विचार करना चाहिए. इसके बजाय परिवार और विवाह जैसे संस्थानों को बढ़ावा देना, तीन बच्चों वाले परिवारों को समर्थन देना और मातृत्व को बोझ नहीं, बल्कि संपत्ति मानने वाली नीति अपनाना समय की माँग है.
कोई भी देश अपनी जनसांख्यिकी को नज़रअंदाज़ केवल अपने ही जोखिम पर कर सकता है.


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