मालदीव के विदेश मंत्री अब्दुल्ला शाहिद ने 14 सितंबर को संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) के अध्यक्ष का कार्यभार संभाल लिया. शाहिद अनुभवी राजनयिक हैं. लिहाज़ा उन्हें ‘उम्मीदों भरी अध्यक्षता’ के अपने एक साल के कार्यकाल के दौरान आने वाली चुनौतियां का अच्छे से ज्ञान है. जून में इस पद पर अपने निर्वाचन के बाद उन्होंने ये सकारात्मक जुमला गढ़ा था. पद संभालते ही उनके सामने अपार चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं जिनपर फ़ौरन ध्यान देने की ज़रूरत है.
पद संभालते हुए शाहिद ने दोहराया कि मौजूदा वक़्त की मांग ‘उम्मीदों भरी अध्यक्षता’ को लेकर है. उन्होंने सबसे अपील करते हुए कहा कि ‘आइए हम एक नया अध्याय लिखने की ओर आगे बढ़ें.’ उन्होंने मज़बूती से कहा कि “पृथ्वी के सात अरब लोग एक साझा मानवता को लेकर एकजुट हैं.” इस सिलसिले में उन्होंने ‘उम्मीद’ शब्द पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया. महामारी की चर्चा करते हुए शाहिद ने कहा कि ये साल बेहद चुनौतीपूर्ण और त्रासदियों से भरा रहा है. हालांकि इसके बावजूद उनका भाषण सकारात्मकता और उम्मीद जगाने वाला था. विश्व बिरादरी के इस विशाल मंच पर खड़े होकर उन्होंने “सपने देखने, उम्मीद करने और सबको शामिल करने का हौसला” दिखाने की अपील की. उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि “‘उम्मीद’ कभी भी ‘वास्तविकता से अधिक मूल्य वाली या चलन से बाहर’ नहीं होती, बल्कि ये तो लोगों को कठिनाइयों से भरे हालातों में भी हार नहीं मानने का हौसला देती है.”
संयुक्त राष्ट्र महासभा के नवनिर्वाचित अध्यक्ष के नाते शाहिद ने कहा कि दुनिया के इस प्रतिष्ठित मंच को विश्व के लोगों के सामने मज़बूती से खड़ा होना होगा. संयुक्त राष्ट्र को विश्व की आबादी को दिखाना होगा कि “हमें उनकी तकलीफ़ों और चिंताओं का ज्ञान है और हम उनकी पीड़ा सुन रहे हैं.
‘उम्मीदों भरी अध्यक्षता’ का शाहिद का विचार पांच मुख्य सिद्धांतों पर आधारित है. तेज़ी से आगे बढ़ते आधुनिक तकनीक वाले इस युग में दुनिया को संकट में डालने वाली कोविड-19 महामारी इसका तात्कालिक संदर्भ है. इन सबके बीच विश्व बिरादरी के लिए चिंता बढ़ाने वाली दूसरी ख़बरें जैसे जलवायु परिवर्तन, आपदाएं, अस्थिरता और टकराव भी सामने खड़े हैं. ऐसे में शाहिद का विचार है कि एक ऐसे समय में जब ये तमाम मुद्दे वैश्विक विमर्श में छाए हुए हैं, तब तत्काल समूचे विमर्श या पटकथा को बदलने की ज़रूरत है.
शाहिद का विचार है कि संकटों में घिरे लोगों को इस बात का भरोसा दिलाया जाना चाहिए कि हालात ‘निश्चित तौर पर’ बेहतर होंगे. संयुक्त राष्ट्र महासभा को इस सिलसिले में अपनी भूमिका निभानी चाहिए. ‘उम्मीद’ को लेकर अपने विचार को और विस्तार से समझाते हुए शाहिद ने कहा कि परेशानी झेल रहे लोग इसी सकारात्मक संकेत के इंतज़ार में हैं. वो इस बात का भरोसा चाहते हैं कि आने वाला कल ‘आज से बेहतर होगा.’ शाहिद ने एलान करते हुए कहा कि संसार के अरबों लोगों के लिए संयुक्त राष्ट्र एक आदर्श, एक आकांक्षा का प्रतीक है…सुनहरे भविष्य का वादा है…हमें इसी साझा इंसानियत की भावना से आगे बढ़ना है.’’
संयुक्त राष्ट्र महासभा के नवनिर्वाचित अध्यक्ष के नाते शाहिद ने कहा कि दुनिया के इस प्रतिष्ठित मंच को विश्व के लोगों के सामने मज़बूती से खड़ा होना होगा. संयुक्त राष्ट्र को विश्व की आबादी को दिखाना होगा कि “हमें उनकी तकलीफ़ों और चिंताओं का ज्ञान है और हम उनकी पीड़ा सुन रहे हैं. हम इन समस्याओं से निजात पाने के लिए मिलकर काम करना चाहते हैं. संकट की मौजूदा घड़ी में भी संयुक्त राष्ट्र उतना ही प्रासंगिक है जितना कि आज से 76 साल पहले दूसरे विश्व युद्ध के बाद के कालखंड में था.”
मालदीव की अध्यक्षता
पदभार ग्रहण करने के मौके पर यूएन न्यूज़ को दिए एक इंटरव्यू में शाहिद ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र महासभा के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने का फ़ैसला उनके द्वारा लिया गया अबतक का सबसे अच्छा निर्णय था. उन्होंने आगे कहा कि “मुझसे बार–बार ये पूछा जाता है कि उथल–पुथल भरे मौजूदा वक़्त में आपने अपना नाम क्यों आगे बढ़ाया?’ जवाब में मैं कहता हूं कि ये मेरे द्वारा लिया गया अब तक का सबसे बढ़िया फ़ैसला है.”
संयुक्त राष्ट्र महासभा की अध्यक्षता संभालने वाले शाहिद मालदीव के पहले शख्स हैं. लिहाज़ा उनका कहना है कि “मालदीव के लोगों के लिए ये बड़े गर्व का विषय है. मालदीव के किसी भी नागरिक के लिए महासभा की अध्यक्षता संभालना बेहद ख़ास और सौभाग्य की बात है.” उन्होंने आगे कहा कि मालदीव जैसे छोटे से द्वीप देश के लिए ये दुनिया में अपनी छाप छोड़ने का बड़ा अवसर है. इस सिलसिले में उन्होंने दुनिया के छोटे द्वीप देशों की पीड़ा का भी ज़िक्र किया. बाहर की व्यापक दुनिया में अक्सर इन देशों की अनदेखी होती रहती है. शाहिद ने कहा कि ऐसे माहौल में उनको यूएनजीए की अध्यक्षता मिलने से संयुक्त राष्ट्र ने जैसे सबको साथ लेकर चलने के अपने वादे से भी एक क़दम आगे बढ़ा दिया है.
यथार्थवादी राजनीति से आगे
छोटे द्वीप देशों की समस्याएं अपनी जगह हैं. इनमें जलवायु परिवर्तन का तात्कालिक प्रभाव भी शामिल है. इन्हीं प्रभावों के चलते हर बीतते साल के साथ समुद्रतल ऊपर उठता जा रहा है. बहरहाल यूएनजीए के अध्यक्ष के नाते शाहिद दुनिया की दूसरी हक़ीक़तों और यथार्थवादी राजनीति से मुंह नहीं मोड़ सकते. दुनिया में मौजूदा विमर्श में इस वक़्त अफ़ग़ानिस्तान छाया हुआ है और यूएनजीए के अध्यक्ष के तौर पर उनके साल भर के कार्यकाल में इसी मसले का बोलबाला रहने वाला है. आसार तो कुछ ऐसे ही लग रहे हैं.
वैसे तो दुनिया को अफ़ग़ानिस्तान में इस तरह के हालात पैदा होने का अंदाज़ा था, लेकिन अमेरिकी फ़ौज के हटते ही काबुल पर इतनी जल्दी तालिबान का क़ब्ज़ा हो जाएगा ये किसी ने नहीं सोचा था. यूएनजीए के अध्यक्ष पद को लेकर जून 2021 में हुए चुनाव में मतदान करते वक़्त भी दुनिया के तमाम देशों की ज़ेहन में ये मसला था. शाहिद को कुल पड़े 191 वोटों में से 143 वोट हासिल हुए. उनके प्रतिद्वंदी अफ़ग़ानिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री ज़लमई रसूल थे. उन्हें कुल 48 वोट हासिल हुए. इस तरह शाहिद को प्राप्त हुए वोटों के मुक़ाबले रसूल को बस एक तिहाई वोट ही मिल सके.
दुनिया को ये बात पहले से ही पता थी कि यूएनजीए के 76वें अध्यक्ष (दूसरे शब्दों में अब्दुल्ला शाहिद) के कार्यकाल में अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का दबदबा देखने को मिलेगा. लिहाज़ा उसे यूएनजीए के अध्यक्ष की कुर्सी पर कोई अफ़ग़ानी नागरिक मंज़ूर नहीं था, भले ही वो अफ़ग़ानी व्यक्ति विवादों से कितना भी दूर हो.
नतीजे से दुनिया द्वारा मालदीव को दी गई वरीयता की झलक मिली. ग़ौरतलब है कि अतीत में अफ़ग़ानिस्तान को कम से कम एक बार 1966 में यूएनजीए की अध्यक्षता मिल चुकी है. शाहिद की जीत उनके समर्पित अभियान का नतीजा है. मालदीव के भीतर भी राष्ट्रपति इब्राहिम सोलिह की सरकार ने उनकी उम्मीदवारी का ज़ोरदार समर्थन किया. यहां समान रूप से महत्वपूर्ण एक और बात ये है कि शाहिद के विकल्प के तौर पर एक अफ़ग़ानी शख्स सामने था. उसकी न तो कोई सियासी पृष्ठभूमि थी और न ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई रुतबा.
दुनिया को ये बात पहले से ही पता थी कि यूएनजीए के 76वें अध्यक्ष (दूसरे शब्दों में अब्दुल्ला शाहिद) के कार्यकाल में अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का दबदबा देखने को मिलेगा. लिहाज़ा उसे यूएनजीए के अध्यक्ष की कुर्सी पर कोई अफ़ग़ानी नागरिक मंज़ूर नहीं था, भले ही वो अफ़ग़ानी व्यक्ति विवादों से कितना भी दूर हो. इस बात की अपनी वजह भी है. अगस्त के मध्य से लेकर अबतक अफ़ग़ानिस्तान के जो हालात हैं, उनके बारे में लोगों को पहले से ही अंदेशा था. हालात ये थे कि यूएनजीए का अध्यक्ष पद तो छोड़िए इसमें अफ़ग़ानिस्तान की सदस्यता को लेकर ही सवाल खड़े होने वाले थे. अंदेशा था कि महासभा के सामने और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) में अफ़ग़ानिस्तान की सदस्यता पर ही उंगली उठाई जाती.
किसी अफ़ग़ानी नागरिक के महासभा का अध्यक्ष रहते यूएनजीए में अफ़ग़ानिस्तान से जुड़े मसलों पर परिचर्चा, वाद–विवाद और फ़ैसला लेने को लेकर न सिर्फ़ असहज बल्कि असंभव हालात पैदा होते. इतना ही नहीं अगर अफ़ग़ानिस्तान की नई सत्ता उनके पद पर बने रहने को चुनौती देती तो महासभा में उनके प्रतिनिधित्व और मौजूदगी के स्वरूपों पर भी सवालिया निशान लग जाता.
बहरहाल ऊपर बताए तमाम हालातों और समस्याओं से अब यूएनजीए के अध्यक्ष के नाते शाहिद को निपटना है. उन्हें इन तमाम मामलों पर होने वाली बहसों की अध्यक्षता करनी होगी. हालांकि उनके लिए माकूल बात ये है कि ऐसे मसलों पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के अलावा पूरी महासभा मिलकर ही निर्णय करती है. उनको अध्यक्ष पद पर निर्वाचित करने के लिए जिस तरह का मतदान हुआ उसे देखते हुए आने वाले हफ़्तों और महीनों में यूएनजीए में होने वाले तमाम विमर्शों और निर्णयों के बारे में कुछ हद तक पहले से ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है.
भारत किस ओर..
यूएनजीए के अध्यक्ष के तौर पर और मालदीव के विदेश मंत्री के नाते शाहिद को अपने राष्ट्रपति द्वारा महासभा के सामने दिया जाने वाला भाषण सुनने का गौरवपूर्ण अनुभव हासिल हुआ. राष्ट्रपति सोलिह ने इससे पहले 2019 में सिर्फ़ एक बार महासभा को संबोधित किया था. जून में शाहिद के चुनाव के बाद सोलिह ने भी उसे एक ‘गौरवपूर्ण उपलब्धि’ बताकर उसे ‘विश्व मंच पर मालदीव का दर्जा ऊंचा करने की ओर आगे बढ़ा हुआ क़दम’ बताया था.
शाहिद के यूएनजीए अध्यक्ष रहते महासभा को संबोधित करने वाले दूसरे विश्व नेताओं में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल रहेंगे. एक प्रकार से शाहिद की जीत विश्व मंच पर भारत की भी जीत है. पिछले साल नवंबर में अपने दौरे के दौरान भारत के विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला ने सार्वजनिक रूप से शाहिद की उम्मीदवारी का समर्थन किया था. इसके बाद संयुक्त राष्ट्र और दूसरी जगहों पर तैनात भारतीय राजनयिकों ने उनके पक्ष में बेहद बारीकी से और तालमेल के साथ अभियान छेड़ दिया था.
शाहीद की उम्मीदवारी का समर्थन करते हुए विदेश सचिव श्रृंगला ने विदेश मंत्री एस जयशंकर द्वारा इससे पहले की गई प्रतिबद्धताओं का भी ज़िक्र किया. मालदीव के लिहाज़ से भारत का अनुमोदन बेहद ज़रूरी था. मालदीव एक छोटा द्वीप देश है. दुनिया के कई देशों की राजधानियों में उसकी कोई कूटनीतिक मौजूदगी भी नहीं है. ऐसे में उसे एक बड़े देश, ख़ासतौर से एक बड़े पड़ोसी के अनुमोदन और समर्थन की दरकार थी.
मालदीव के लिहाज़ से भारत का अनुमोदन बेहद ज़रूरी था. मालदीव एक छोटा द्वीप देश है. दुनिया के कई देशों की राजधानियों में उसकी कोई कूटनीतिक मौजूदगी भी नहीं है. ऐसे में उसे एक बड़े देश, ख़ासतौर से एक बड़े पड़ोसी के अनुमोदन और समर्थन की दरकार थी
भारत द्वारा अपना फ़ैसला सार्वजनिक कर दिए जाने के बाद अंदाज़न चीन और पाकिस्तान ने अफ़ग़ानी उम्मीदवार का समर्थन करने का दांव चला. लिहाज़ा उस स्तर पर शाहिद की उम्मीदवारी को तमाम तरह के सकारात्मक समर्थन की ज़रूरत थी. शुद्ध रूप से भारतीय दृष्टिकोण से देखें तो प्रतिद्वंदी प्रत्याशी के नाम का ख़ुलासा न होने की सूरत में प्रचार अभियान में शुरुआत से ही कमर कसकर उतरना और भी आवश्यक हो गया था. ऐसा होने पर ही यूएनजीए के दूसरे सदस्य राष्ट्र शाहिद की उम्मीदवारी के प्रति भारत के समर्थन को गंभीरता से लेते.
ऐसे समन्वित उपायों ने अपना रंग दिखाया. महासभा के अध्यक्ष पद के लिए हुए चुनाव के नतीजों से ये ज़ाहिर है. इस जद्दोजहद में शाहिद को सार्क के दूसरे सदस्य देशों का भी समर्थन हासिल हुआ. हालांकि एक संगठन के तौर पर सार्क अब बेजान हो चुका है. ये बात इसलिए भी अहम हो जाती है क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान भी सार्क का सदस्य है. ग़ौरतलब है कि महासभा में शाहिद की अध्यक्षता के साथ–साथ भारत भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के ग़ैर–स्थायी सदस्य के तौर पर अपना कार्यकाल गुज़ार रहा है. भले ही रणनीतिक तौर पर इसकी कोई ख़ास अहमियत न हो लेकिन इस बात का अपना सांकेतिक महत्व ज़रूर है. हालांकि अफ़ग़ानिस्तान के साथ–साथ किसी अन्य देश ने भी इस नज़रिए से इन तमाम बातों को नहीं देखा है.
बहरहाल शाहिद द्वारा महासभा का अध्यक्ष पद संभालने से पहले ही यूएनएससी के अध्यक्ष के तौर पर भारत ने एक महीने का कार्यकाल पूरा कर लिया. ये अध्यक्षता मासिक रूप से बदलती रहती है. अगस्त के पूरे महीने अफ़ग़ानिस्तान का ही मुद्दा यूएनएससी में छाया रहा. विदेश मंत्री जयशंकर और विदेश सचिव श्रृंगला ने अलग–अलग मुद्दों पर अलग–अलग सत्रों में अपना संबोधन पेश किया.
पहले के कार्यकाल
शाहिद के लिए अपने देश के बेहद महत्वपूर्ण विदेश मंत्री का कामकाज संभालने के साथ–साथ विश्व मंच की कार्यवाही का संचालन करना समान रूप से चुनौतीपूर्ण है. महामारी से उबरते हुए आर्थिक गतिविधियों को पटरी पर लाना और सामाजिक तौर पर दोबारा सामान्य हालात की बहाली कर पाना चुनौती भरा है. बहरहाल अब्दुल्ला शाहिद के बारे में ये माना जाता है कि उन्होंने अपने अबतक के जीवन में तमाम तरह की चुनौतियों को कामयाबी के साथ पार किया है. राष्ट्रपति मैमून अब्दुल गयूम के 30 साल लंबे कार्यकाल (1978-2008) में राजनयिक के तौर पर अपने करियर की शुरुआत करने वाले शाहिद आज देश के विदेश मंत्री हैं.
बाद के दिनों की बात करें तो 2008-09 के बहुदलीय लोकतांत्रिक चुनावों के बाद अब्दुल्ला शाहिद ने संसद के स्पीकर का कामकाज संभाला. वो ज़िम्मेदारी तो और भी ज़्यादा चुनौतीपूर्ण थी. वो उस समय गयूम के नेतृत्व वाले विपक्ष का हिस्सा थे और राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद की अगुवाई वाली मालदीवियन डेमोक्रेटिक पार्टी (एमडीपी) उस समय संसद में ‘अल्पमत’ में थी.
दुनिया बेहद बारीकी से ये देख रही थी कि लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनाकर मालदीव कैसे आगे बढ़ता है. ऐसे में लगता है कि यूएनजीए के अध्यक्ष के तौर पर उनका निर्वाचन राजनयिक, मंत्री और संसद के स्पीकर के तौर पर उनके सियासी और राजनीतिक-प्रशासनिक किरदारों का अनुमोदन है.
स्पीकर के तौर पर शाहिद को कई पक्षों में संतुलन बिठाना पड़ा. इस पूरी क़वायद में उन्हें अपने बर्ताव से ख़ुद को निष्पक्ष और आज़ाद भी दिखाना था. ग़ौरतलब है कि उस वक़्त पूरी दुनिया की निगाहें मालदीव पर लगी हुई थी. दुनिया बेहद बारीकी से ये देख रही थी कि लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनाकर मालदीव कैसे आगे बढ़ता है. ऐसे में लगता है कि यूएनजीए के अध्यक्ष के तौर पर उनका निर्वाचन राजनयिक, मंत्री और संसद के स्पीकर के तौर पर उनके सियासी और राजनीतिक–प्रशासनिक किरदारों का अनुमोदन है. ख़ासतौर से पश्चिमी जगत को उनके पूरे करियर और क्रियाकलापों की जानकारी है, लिहाज़ा ऐसा लगता है जैसे शाहिद को उनकी विशिष्ट उपलब्धियों के लिए ही पुरस्कृत किया गया है.
अब्दुल्ला शाहिद आज राष्ट्रपति सोलिह के सत्तारूढ़ एमडीपी का प्रतिनिधित्व करते हैं. एमडीपी के अध्यक्ष नशीद हैं. नशीद फ़िलहाल संसद के स्पीकर भी हैं. सोलिह और नशीद के बीच नीतिगत और सियासी मुद्दों पर अक्सर टकराव देखने को मिलता है. इन हालातों में ऐसा लगता है जैसे शाहिद ने दोनों के बीच एक ग़ज़ब का संतुलन बना रखा है. राष्ट्रपति के तौर पर सोलिह का कार्यकाल 2018 के आख़िर में शुरू हुआ था. तब से लेकर अब तक उनका कार्यकाल उतार–चढ़ावों से भरा रहा है. आज मालदीव कोविड से निपटने के उपाय करने और घरेलू राजनीतिक गहमागहमियों में व्यस्त है. इसके बावजूद मालदीव और मालदीव के लोगों का ध्यान हज़ारों मील दूर संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय में यूएनजीए के अध्यक्ष के तौर पर शाहिद के कामकाज पर रहेगा. मालदीव की जनता इस क़वायद के ज़रिए 59 वर्षीय वैश्विक राजनयिक के प्रदर्शन का आकलन करेगी ताकि समय आने पर या एक साल बाद संयुक्त राष्ट्र महासभा के अध्यक्ष के तौर पर उनका कार्यकाल ख़त्म होने पर उन्हें घर पर और भी बड़ी ज़िम्मेदारी सौंपी जा सके.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.