यों सरकार इस बात पर बड़ा गर्व करती है कि भारत दुनिया में सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में एक है और भविष्यवाणियां की जाती हैं कि भारत का आर्थिक भविष्य बड़ा चमकदार है लेकिन देश दरअसल खस्ताहाली की दशा में है. बेशक, आर्थिक बढ़वार मजबूत रही और एक दशक से ज्यादा समय तक आर्थिक बढ़वार का औसत 7 प्रतिशत सालाना से कुछ ज्यादा ही रहा लेकिन आयगत असमानता बढ़ती जा रही है और राष्ट्रीय स्तर पर ग़रीबी जिस दर से घट रही है वो सकल घरेलू उत्पाद में हुई वृद्धि से मेल नहीं खाता. इस असंगति के कारणों में एक ये है कि देश की आबादी का सबसे निर्धनतम हिस्सा देश के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि से लाभान्वित नहीं हो पा रहा क्योंकि संगठित उत्पादन-प्रक्रिया से ये तबका बाहर है. भारत में ग़रीबी का बना रहना सिर्फ इसी बात का परिचायक नहीं कि यहां पर्याप्त मात्रा में आर्थिक गतिविधियों का अभाव है बल्कि इसकी एक वजह .ये भी है कि भारत में असंगठित क्षेत्र का आकार बहुत बड़ा है.
साल 2018 में मात्र 50 प्रतिशत भारतीय आबादी की श्रम-बल में प्रतिभागिता रही. इसमें से 81 प्रतिशत को अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक क्षेत्र में रोज़गार हासिल था जिसे अक्सर असंगठित क्षेत्र या फिर अर्थव्यवस्था का छाया-क्षेत्र कहा जाता है. यों देखें तो असंगठित क्षेत्र का आकार धीरे-धीरे सिकुड़ता जा रहा है (साल 2005 में 86 प्रतिशत आबादी इस पर जीविका के लिए निर्भर थी) लेकिन संगठित क्षेत्र में अनौपचारिक क्षेत्र के कामगारों (दिहाड़ी या फिर अनुबंध आधारित कामगार) की संख्या बढ़वार पर है. इस तथ्य को ध्यान में ऱखें तो नजर आयेगा कि कुल प्रतिभागी श्रम-बल में अनौपचारिक क्षेत्र के कामगारों की संख्या 92 प्रतिशत है.
भारत के सर्वाधिक धनी 10 प्रतिशत लोगों के पास देश की 89 प्रतिशत संपदा है जबकि कम सुविधा-सम्पन्न 60 प्रतिशत लोगों के पास देश की 5 प्रतिशत से भी कम संपदा है. असमानता ग़रीबी के ख़ात्मे में बाधक है
हालांकि अनौपचारिक क्षेत्र को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि उसमें कामगारों की एक बड़ी संख्या को रोज़गार हासिल हो जाता है अन्यथा अर्थव्यवस्था के संगठित क्षेत्र में अवसरों की कमी के कारण ये कामगार बेरोज़गार रह जाते लेकिन अनौपचारिक क्षेत्र रोज़गार के मोर्चे पर राहत प्रदान करने के बावजूद देश की विकासमूलक प्रगति के लिहाज से बाधक है. अर्थव्यवस्था का अनौपचारिक क्षेत्र गैर-बराबरी की स्थिति को कायम रखने का जिम्मेदार है. दरअसल, लोगों के रहन-सहन में जो व्यापक गैर-बराबरी दिखती है उसे और ज्यादा बढ़ाने में अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक क्षेत्र का हाथ है. क्रेडिट सुइस के साल 2018 के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत के सर्वाधिक धनी 10 प्रतिशत लोगों के पास देश की 89 प्रतिशत संपदा है जबकि कम सुविधा-सम्पन्न 60 प्रतिशत लोगों के पास देश की 5 प्रतिशत से भी कम संपदा है. असमानता ग़रीबी के ख़ात्मे में बाधक है. ये सामाजिक स्तरीकरण को बढ़ावा देती है और इससे अपराधों में भी बढ़ोत्तरी होती है.
अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक क्षेत्र में श्रम-प्रधान उद्यमों की भरमार होती है. अनौपचारिक क्षेत्र की आर्थिक गतिविधियों का संचालन मुख्य रुप से कौशल की कमी वाले कामगारों के हाथ में होता है जो अपने जीवन-निर्वाह की ज़रूरतों के कारण नाम-मात्र की मजदूरी पर काम करने के लिए तैयार रहते हैं. चूंकि अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र के फर्म कॉर्पोरेट कानून के अधिकार क्षेत्र में नहीं आते इसलिए इस क्षेत्र के रोज़गार में कामगारों को को न तो नौकरी की सुरक्षा का आश्वासन होता है और ना ही किसी किस्म की सामाजिक सुरक्षा का. भारत बड़ी विशाल आबादी वाला देश है सो यहां छोटे-मोटे काम करने को तैयार लोगों की संख्या बहुतायत में है जबकि असंगठित क्षेत्र के ज्यादातर उद्यमी कामगारों के साथ न्यायसंगत बर्ताव नहीं करते सो, कामगारों की एक बड़ी संख्या के शोषण का मार्ग प्रशस्त होते जाता है.
चूंकि असंगठित क्षेत्र अपने स्वभाव से ही ऐसा है कि उसमें कामगारों को रोज़गार के बने रहने की कोई गारंटी नहीं होती सो इस क्षेत्र में मजदूरी भी स्वभाविक रुप से न्यूनतम स्तर पर बनी रहती है. कभी-कभी तो ये भी देखने को मिलता है कि असंगठित क्षेत्र के किन्हीं कामों में मजदूरी का भुगतान कानूनी तौर पर निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से भी कम है. साथ ही, एक बात ये भी है कि अंसगठित क्षेत्र के कामगार जिन सेवाओं और वस्तुओं का उत्पादन करते हैं उनके दाम अक्सर बढ़ती हुई मुद्रास्फ़ीति से मेल नहीं खाते, दामों में अपेक्षित बढ़ोत्तरी नहीं हो पाती. ये बात भी असंगठित क्षेत्र के कामगारों की बदहाली को और ज्यादा गहरा बनाती है. अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र में रोज़गार का जो सरंजाम कायम है उसके भीतर कामगार अपने काम में विशेष निपुणता हासिल नहीं कर पाते, वे करिअर के बढ़वार की संभावानाओं से वंचित होते हैं और ऐसे में आय-अर्जन तथा आय की बचत की भी उनकी क्षमता कम होती है. इस वजह से वे मुख्यधारा की अर्थव्यवस्था से और भी ज्यादा दूर हो जाते हैं क्योंकि असंगठित क्षेत्र के कामगारों के पास आय की बचत और निवेश की खास क्षमता नहीं होती. साल 2011 में भारत की अर्थव्यवस्था के संगठित क्षेत्र में वास्तविक मजदूरी 513 रुपये थी जबकि अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र में यही मजदूरी 166 रुपये थी. नीचे दी गई तालिका से बताया गया है कि साल 2019 के अक्तूबर माह में दिल्ली में न्यूनतम मजदूरी किस स्तर पर थी.
जैसा कि आलेख में ऊपर बताया जा चुका है, सस्ते श्रम की आपूर्ति बहुतायत मे होने के कारण नियोक्ताओं (एम्पलायर) के पास भरपूर अवसर होते हैं कि वे दिहाड़ी खटने वाले कामगारों पर लागू होने वाले नियमों और क़ानूनों की उपेक्षा करें. यों देखें तो असंगठित क्षेत्र के कामगारों के हक की रक्षा में अनआर्गनाइज्ड वर्कर्स सोशल सिक्युरिटी एक्ट, 2008 तथा द कोड ऑन सोशल सिक्युरिटी, 2019 जैसे प्रावधान मौजूद हैं. बेशक ये प्रावधान असंगठित क्षेत्र के कामगारों के अधिकारों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए बनाये गये हैं लेकिन ये कानून असरदार साबित नहीं हुए हैं. छोटे-मोटे काम करने वाले कामगारों में एक बड़ी तादाद आप्रवासी मज़दूरों की है. ऐसे मज़दूरों की निरंतर बढ़वार के कारण भी भारत सरीखे देश में कामगारों के अधिशेष मोल के बेजा इस्तेमाल होने की आशंकाएं प्रबल होती हैं.
जहां तक बैंकों से वित्तीय सेवा हासिल करने या फिर नयी सूचनाओं और तकनीकों के इस्तेमाल आदि का सवाल है, असंगठित क्षेत्र के फर्म अर्थव्यवस्था के संगठित क्षेत्र के फर्मों की तुलना में फिसड्डी हैं. अनौपचारिक क्षेत्र में रोज़गारशुदा कामगारों के लिए जो बात सच है वही बात इन कामगारों को बहाल करने वाले उद्यमों के लिए भी— ये उद्यम अपने स्वभाव से असंगठित होने के कारण अपना विस्तार कर पाने तथा आगे बढ़ पाने में सक्षम नहीं होते. संगठित क्षेत्र के व्यवसायों की तुलना में असंगठित क्षेत्र के व्यवसाय को किफायतशारी (लागत को तुलनात्मक रुप से कम रखना) से काम लेना होता है और इस जरुरत के कारण असंगठित क्षेत्र के उद्यमों के लिए अपने को जहां तक संभव हो अविकसित और बेतरतीब बनाये रखना होता है; ऐसा इसलिए कि असंगठित क्षेत्र के उद्यमों के लागत-खर्च में कमी बुनियादी ढांचे के विस्तार के कारण नहीं बल्कि किसी और कारण (जैसे श्रमिकों को कम भुगतान) से होती है.
भारत का कृषि क्षेत्र (अनौपचारिक क्षेत्र का सबसे बड़ा नियोक्ता) एक ऐसे उद्यम की मिसाल है जिसमें छिपी हुई बेरोज़गारी की दशाएं देखने को मिलती हैं. इसका कारण है श्रमिकों की अति-आपूर्ति; साल 2017 में भारत के कृषि-क्षेत्र में देश के श्रम-बल के 55 फीसद हिस्से को रोज़गार हासिल था लेकिन देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान 16 प्रतिशत रहा. ऐसे उद्यम बड़े लचर ढंग से चलते हैं और इन उद्यमों के बुनियादी ढांचे में बदलाव की सख्त जरुरत है. उत्पादन का श्रम-प्रधान मॉडल ज्यादा ख़र्चीला होने के कारण लंबे समय तक टिकाऊ नहीं होता. साथ ही, एक खास समय के बाद इस मॉडल में श्रम से सीमांत प्राप्ति (मार्जिलन रिटर्न) भी घटने लगती है. हाथ के सहारे होने वाले कामों को मशीनों के सहारे स्वचालित रुप दिया जा रहा है और इससे पूरे विश्व में श्रम-प्रधान उत्पादन पद्धति में क्रांतिकारी बदलाव आये हैं. ऐसे में लाखों लोगों के रोज़गार के खत्म होने का खतरा मंडराने लगा है. उत्पादन प्रक्रिया को असरदार बनाने के लिए जरुरी है कि अगर इस प्रक्रिया में कोई चीज कारगर नहीं है तो उसे खत्म किया जाये. ऐसे में, जिन कामों में ज्यादा कौशल और निपुणता की जरुरत नहीं उनके खत्म होने का खतरा ज्यादा है. विश्वबैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वचालन (ऑटोमेशन) के कारण भारत में 69 प्रतिशत रोज़गार के खत्म होने के आसार हैं.
एनएसएसओ के मुताबिक साल 2018 में बेरोज़गारी की दर 6.1 प्रतिशत थी जो पिछले 45 सालों का सबसे उच्चतम स्तर है. युवा आबादी के बीच, पांच में से एक व्यक्ति बेरोज़गार है और श्रम बल में जो बढ़वार ग्रामीण जनसांख्यिकी के कारण देखने को मिलती है, उसकी ज्यादातर खपत अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र में होती है. साल 2018 में, भारत के श्रम-बल में 51 करोड़ 20 लाख लोग शामिल थे लेकिन इनमें से केवल 46 करोड़ 50 लाख लोगों को रोज़गार हासिल था. यों रिपोर्टों में दर्ज आंकड़े संकेत कर रहे हैं कि सालाना रोज़गार-सृजन की संख्या अच्छी-खासी है लेकिन ये नौकरियां निम्न-कौशल के कामगारों के मतलब की नहीं. एक और भयावह आंकड़ा श्रमशक्ति में महिलाओं की प्रतिभागिता से संबंधित है—श्रम-बल में महिलाओं की प्रतिभागिता लगातार घट रही है, साल 2005 में श्रम-बल में महिलाओं की प्रतिभागिता 32 प्रतिशत थी जो साल 2019 में घटकर 23 प्रतिशत हो गई. अगर कार्यबल में महिलाओं की प्रतिभागिता में कमी कायम रहती है तो भारत को अपनी संभावित आर्थिक वृद्धि के मोर्चे पर धक्का लगेगा.
आज, भारत में अर्थव्यवस्था के संगठित क्षेत्र में नौकरियों में बड़े परिमाण में कटौती हो रही है: साल 2017 में इन्फोसिस ने 11,000 कामगारों को नौकरी से निकाला. आशंका है कि निकट भविष्य में संयुक्त राज्य अमेरिका से संचालित कोग्निजेंट टेक्नोलॉजी सॉल्युशल अपने कर्मचारियों में से 12,000 की छंटनी करेगा और जोमेटो ने कामकाज के ऑटोमेशन (स्वचालन) का तर्क देकर हाल में 540 कर्मचारियों को नौकरी से हटाया है. दूसरी तरफ, कई लोगों तर्क देते हैं कि ऑटोमेशन से आगे आने वाले समय में नये रोज़गार का सृजन होगा और इन नौकरियों में उच्च कौशल में निपुण कामगारों की जरुरत होगी. वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम का कहना है कि ऑटोमेशन के बाद लगभग 38 प्रतिशत कंपनियां अपने श्रम-बल में विस्तार कर सकती हैं. हाल में विप्रो में ये चलन देखने में आया जहां पहले तो लगभग 12,000 कर्माचारियों को नौकरी से हटाया गया लेकिन फिर बाद में उन्हें नये सिरे से प्रशिक्षण देकर फिर से नौकरी पर रख लिया गया.
भारत के लिए जरुरी है कि ऑटोमेशन के कारण होने वाले बदलावों के बीच अर्थव्यवस्था में जो गतिरोध पैदा होने जा रहे हैं उनके बरक्स अपने श्रम-बल की उत्तरजीविता को सुनिश्चित करे
यहां गौर करने की एक बात ये है कि अगर ऑटोमेशन (स्वचालन) को देश के मानव-संसाधन में एक निवेश के रुप में देखना है तो फिर इस बात पर विश्वास करने का एक आधार होना चाहिए कि भारत का श्रम-बल ऑटोमेशन के कारण पैदा बदलावों के अनुकूल अपने कौशल में बढ़वार कर सकने में सक्षम है. साथ ही, यह ध्यान रखना आवश्यक है कि अर्थव्यवस्था का अनौपचारिक क्षेत्र उत्पादन-जगत के व्याकरण में आये ऐसे बदलाव के बीच प्रासंगिक बने रहने के लिए जोर लगेगा और अगर वह अपने प्रयास में कामयाब रहता है तो अनौपचारिक क्षेत्र और औपचारिक क्षेत्र में बहाल कामगारों के बीच की खाई और ज्यादा चौड़ी होगी.
भारत के लिए जरुरी है कि ऑटोमेशन के कारण होने वाले बदलावों के बीच अर्थव्यवस्था में जो गतिरोध पैदा होने जा रहे हैं उनके बरक्स अपने श्रम-बल की उत्तरजीविता को सुनिश्चित करे. भारत में फिलहाल 41 प्रतिशत आबादी 18 साल से कम उम्र के दायरे में है और इस आधार पर देखें तो सर्वाधिक कम उम्र के लोगों की आबादी के मामले में भारत विश्व में अव्वल है लेकिन मौजूदा शिक्षा व्यवस्था को देखते हुए ये विश्वास नहीं जगता कि नौजवान आबादी को भविष्य की ज़रूरतों के अनुकूल कौशल सीखने को मिल रहा है.
हाल के दिनों में कौशल-विकास सरकार के लिए प्राथमिकता का विषय बन चला है. साल 2014 में कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय का गठन आबादी को कौशल-निपुण और कौशल-उन्नत बनाने की एक रुपरेखा तैयार करने के उद्देश्य से हुआ. इसके बाद 2015 में स्किल इंडिया अभियान की शुरुआत हुई जिसका उद्देश्य साल 2022 तक 40 करोड़ लोगों को जरुरी कौशल प्रदान करना था. ऐसी पहल को पूरे देश में और ज्यादा व्यापक स्तर पर फैलाने की जरुरत है जिसमें जोर नौजवानों को श्रम शक्ति में दाखिल करने पर हो. अनुमानों से पता चलता है कि ऑटोमेशन (स्वचालन) और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (मशीनीकृत बुद्धि) के व्यापक इस्तेमाल के कारण लगभग 12 करोड़ कामगारों को नये सिरे से प्रशिक्षित करने की जरुरत होगी.
गरीबों यानि सीमांत निर्धनता की स्थिति में रहने वालों और अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों के लिए जीविका का स्थिर साधन होना जरुरी है और ऐसी जीविका के लिए संगठित क्षेत्र की उत्पादन प्रणाली में उनकी भागीदारी पहला कदम है. सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह इस दिशा में पहल करे और गरीब लोगों के लिए अर्थव्यवस्था के संगठित क्षेत्र में पर्याप्त भूमिकाएं सुनिश्चित करे. आज भारतीय अर्थव्यवस्था एक दुविधा का सामना कर रही है जिसमें एक तरफ लगातार बढ़ते श्रम-बल के भविष्य को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी निभानी है तो दूसरी तरफ पूंजी-प्रधान तकनीकों को अपनाकर आर्थिक-वृद्धि का उच्च-स्तर भी बरकरार रखना है. इन दो मोर्चों पर निष्क्रियता में संकट में डाल सकती है. अगर कामगार आबादी को कौशल-निपुण नहीं बनाया जाता और युवा आबादी को आवश्यक कौशल प्रदान नहीं किये जाते तो फिर ना सिर्फ आर्थिक असमानता बढ़ेगी बल्कि सीमांत वित्तीय हैसियत वाले कामगार ग़रीबी के भारी भंवर में डूब सकते हैं. छोटे और मंझोले दर्जे के उद्योग अपना मुनाफ़ा बढ़ा सकें इसके लिए बहुत जरुरी है कि सरकार इन उद्योगों को अपना बुनियादी ढांचा बढ़ाने में मदद करे. फिलहाल की स्थिति को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भारत का अर्द्ध कुशल श्रमबल देश के समग्र विकास में एक बड़ी बाधा है और इसने कुछ ऐसी चुनौतियों को जन्म दिया है जिसके समाधान बहुत कम हैं.
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