Published on Oct 17, 2019 Updated 0 Hours ago

असम के विविधतापूर्ण संस्कृति और बहुजातीय समाज में अप्रवासियों का मुद्दा हमेशा तनाव पैदा करता रहा है.

असम के लोगों पर एनआरसी का प्रभाव: एक ज़मीनी पड़ताल

असम के लोग अभी भी राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर की फ़ाइनल लिस्ट के प्रकाशन से मिले सदमे से उबर नहीं सके हैं. असम के राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर की फ़ाइनल लिस्ट 31 अगस्त को प्रकाशित हुई थी. इसमें राज्य के 3 करोड़, 11 लाख, 21 हज़ार चार बाशिंदों को भारत का नागरिक माना गया था. जबकि, असम में रह रहे 19 लाख, 96 हज़ार, 657 लोगों को एनआरसी के दायरे से बाहर रखा गया था. अब असम के लोग, जिन्हें एनआरसी में जगह नहीं मिली, वो परेशान हैं और अब ये सोच नहीं पा रहे हैं कि उनका अगला क़दम क्या होना चाहिए.

असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर का प्रकाशन सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हुआ था. इसके लिए असम के एक स्वयंसेवी संगठन असम पब्लिक वर्क्स (APW) ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाख़िल की थी. इस याचिका का मक़सद असम के मूल निवासियों के अधिकारों का संरक्षण करना था. यहां ध्यान देने की बात ये है कि जिस एपीडब्ल्यू की याचिका पर राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर बना, अब वही असम पब्लिक वर्क्स इस प्रक्रिया से असंतुष्ट है. अब एपीडब्ल्यू ने सुप्रीम कोर्ट में दोबारा याचिका दाख़िल की है कि एनआरसी में शामिल किए गए और इससे बाहर रखे गए लोगों का दोबारा 100 फ़ीसद वेरिफ़िकेशन हो.

आज की तारीख़ में असम के आम लोगों के बीच निराशा का माहौल है. आरोप है कि कई विदेशी नागरिकों को एनआरसी में शामिल कर लिया गया है. जबकि भारत के कई असल नागरिक इसके दायरे से बाहर कर दिए गए हैं. मैंने असम की बराक घाटी का दौरा किया. ताकि, मैं एनआरसी के बाद लोगों की प्रतिक्रिया और उनके बीच के माहौल को ज़मीनी स्तर पर समझ सकूं. इलाक़े में तीन दिन गुज़ारने के दौरान में मेरी समाज के हर तबक़े, हर समुदाय, जाति और मज़हब के लोगों से मेरी बात हुई.

आज की तारीख़ में असम के आम लोगों के बीच निराशा का माहौल है. आरोप है कि कई विदेशी नागरिकों को एनआरसी में शामिल कर लिया गया है. जबकि भारत के कई असल नागरिक इसके दायरे से बाहर कर दिए गए हैं.

दक्षिणी असम की बराक घाटी में तीन ज़िले हैं जहां के लोग बंगाली बोलते हैं. इन के नाम हैं-कचार, करीमगंज और हैलाकादी. असम का ये इलाक़ा सामरिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है. क्योंकि मिज़ोरम और त्रिपुरा को देश के बाक़ी हिस्से को जोड़ने का ये इकलौता रास्ता है. हैलाकादी को छोड़कर बाक़ी दोनों ही ज़िलों यानी कचार और करीमगंज की सीमाएं बांग्लादेश से मिलती हैं.

इस तथ्य से इतर, बराक घाटी में बांग्ला भाषी लोग लंबे समय से रहते आए हैं. 1947 में भारत के बंटवारे से पहले, करीमगंज, आज के बांग्लादेश के सिलहट ज़िले का हिस्सा हुआ करता था. लेकिन, तब सिलहट ज़िला, अविभाजित भारत के असम सूबे में आता था. सिलहट को 1874 में ग्रेटर बंगाल से अलग कर के असम में मिलाया गया था. ताकि, संसाधनों से समृद्ध सिलहट ज़िले की वजह से लोग असम का रुख़ करें. भारत विभाजन के बाद हुए जनमत संग्रह के बाद करीमगंज ज़िला भारत के हिस्से में आया था.

बराक घाटी में हिंदुओं को मामूली बहुमत हासिल है. इस्लाम के मानने वाले तादाद में दूसरे नंबर पर आतेह हैं. 2011 की जनगणना के मुताबिक़, करीमगंज और हैलाकादी ज़िलों में मुसलमान बहुसंख्यक हैं. एनआरसी की फ़ाइनल सूची के मुताबिक़, करीमगंज और हैलाकादी ज़िलों से सबसे ज़्यादा लोग शामिल किए गए हैं. करीमगंज के 92.33 प्रतिशत लोगों को एनआरसी में जगह मिली है. वहीं, हैलाकादी के 91.96 फ़ीसद लोग एनआरसी का हिस्सा बनने में कामयाब हुए हैं. बराक घाटी के तीनों ज़िलों में से एनआरसी से बाहर रह गए लोगों में कचार के निवासियों की संख्या सबसे ज़्यादा है. कचार के जिन लोगों ने एनआरसी में शामिल किए जाने की अर्ज़ी दी थी, उन में से 15 प्रतिशत इसके दायरे से बाहर ही रह गए.

अगर हम बराक घाटी के लोगों को एनआरसी में शामिल किए जाने का प्रतिशत देखें, तो ऐसा लगता है कि बराक घाटी के कम ही लोग एनआरसी से प्रभावित हुए हैं. लेकिन, अगर हम आंकड़ों की बारीकी से पड़ताल करें, तो दूसरी ही तस्वीर नज़र आती है. केवल कचार ज़िले में ही, हर सौ में से 15 लोग एनआरसी के दायरे से बाहर रह गए हैं. और, 2011 की जनगणना के मुताबिक़, कचार ज़िले में 17 लाख 36 हज़ार 319 लोग रहते हैं. अगर हम अंकगणित के बुनियादी सिद्धांत की नज़र से देखें, तो एनआरसी से प्रभावित लोगों की संख्या साफ़ हो जाती है. और इसका समाज पर असर भी और गहरा नज़र आता है. इसी तरह, 2011 की जनगणना के मुताबिक़, करीमगंज ज़िले की आबादी 12 लाख 17 हज़ार और दो है. वहीं हैलाकादी ज़िले की आबादी 6 लाख 59 हज़ार 260 है.

समावेशन की दर

ग्राफ़ से साफ़ होता है कि असम के तमाम ज़िलों में नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न में शामिल किए गए लोगों की संख्या कितनी है. मुस्लिम बहुल ज़िलों के लोग एनआरसी में ज़्यादा शामिल किए गए हैं. जबकि आदिवासी बहुल इलाक़ों में एनआरसी में शामिल लोगों की संख्या तुलनात्मक रूप से कम है. ये आंकड़े हमें असम के संसदीय कार्य मंत्री चंद्र मोहन पटोवारी ने उपलब्ध कराए.

जिन लोगों के नाम एनआरसी की फ़ाइनल लिस्ट में शामिल हैं, वो अपनी क़िस्मत का शुक्रिया अदा कर रहे हैं. लेकिन, इससे इन लोगों की परेशानियां ख़त्म नहीं हुई हैं. क्योंकि इन में से बहुत से लोग ऐसे हैं जिनके परिजनों, दोस्तों या रिश्तेदारों के नाम एनआरसी की फ़ाइनल लिस्ट में नहीं हैं. इसीलिए आज असम के लोग एनआरसी की निष्पक्षता पर सवाल उठा रहे हैं.

बहुत से लोगों को इस बात का डर सता रहा है कि वो अपने अज़ीज़ों से दूर कर दिए जाएंगे. ख़ास तौर से वो लोग जिनके नाम एनआरसी में शामिल नहीं हैं. उन्हें डर है कि उनके परिजन नज़रबंदी शिविरों में रखे जाएंगे, जिन्हें असम में रह रहे विदेशियों के लिए बनाया गया है. अधिकारियों ने असम के गोलपाड़ा, बरपेटा, दिमा, हसाओ, कामरूप, करीमगंज, लखीमपुर, नगांव, नलबाड़ी, शिवसागर और सोनितपुर ज़िलों में 11 नज़रबंदी शिविर बनाने का फ़ैसला किया है. ऐसी पहला नज़रबंदी शिविर गोलपाड़ा ज़िले में बनाया जा रहा है. जहां पर तीन हज़ार लोगों को रखा जाएगा. इन सभी ज़िलों के नज़रबंदी शिविरों में एक हज़ार लोगों के रहने की व्यवस्था होगी. इस वक़्त ज़िला जेलों में छह नज़रबंदी शिविर काम कर रहे हैं. जिन लोगों के परिजनों के नाम एनआरसी में शामिल नहीं हैं, वो अपनी ज़िंदगी में आई इस अनिश्चितता के लिए एनआरसी को कोस रहे हैं.

अधिकारियों ने असम के गोलपाड़ा, बरपेटा, दिमा, हसाओ, कामरूप, करीमगंज, लखीमपुर, नगांव, नलबाड़ी, शिवसागर और सोनितपुर ज़िलों में 11 नज़रबंदी शिविर बनाने का फ़ैसला किया है. ऐसी पहला नज़रबंदी शिविर गोलपाड़ा ज़िले में बनाया जा रहा है. जहां पर तीन हज़ार लोगों को रखा जाएगा.

सरकार ने वादा किया है कि जो लोग एनआरसी के दायरे से बाहर रह गए हैं, उन्हें आम नागरिकों के सभी अधिकारों का फ़ायदा मिलता रहेगा. अगर अवैध करार दिए गए लोग अपने सभी रास्ते आज़मा लेते हैं, तो, फिर सरकार उन्हें क़ानूनी मदद मुहैया कराएगी, ताकि वो अपनी चुनौती से निपट सकें. इसके लिए पहला क़दम होगा फॉरेनर्स ट्राइब्यूनल में अपील करना. अगर लोग फॉरेनर्स ट्राईब्यूनल से संतुष्ट नहीं होते हैं, तो वो फिर लोग हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक जाकर अपने लिए इंसाफ़ की मांग कर सकते हैं. इन मामलों की सुनवाई के लिए पूरे राज्य में फ़ॉरेनर्स ट्राईब्यूनल बनाए जाने की योजना है. 200 फॉरेनर्स ट्राईब्यूनल की स्थापना के लिए काम शुरू कर दिया गया है. बाक़ी के 200 ट्राईब्यूनल की स्थापना भी अगले कुछ महीनों में हो जाएगी.

हालांकि, लोगों को आशंका है कि फॉरेनर्स ट्राईब्यूनल समय पर उन्हें न्याय दे सकेगा. इस वक़्त मौजूद 100 फॉरेनर्स ट्राईब्यूनल में चार लाख से ज़्यादा मामले लंबित हैं. हाल ही में जज के ओहदे के बराबर के 221 लोगों को मामलों की सुनवाई के लिए फॉरेनर्स ट्राईब्यूनल में नियु्क्त किया गया है. लेकिन, लोगों को लगता है कि इतने बड़े पैमाने पर दाख़िल की जा रही अपीलों को सुनने के लिए जजों की इतनी कम संख्या नाकाफ़ी है. इसके अलावा फॉरेनर्स ट्राईब्यूनल में अर्ज़ी देने के लिए भी पैसों की ज़रूरत होगी. सभी याचिकाकर्ताओं के पास अपने केस की सुनवाई के लिए पैसे नहीं हैं.

एनआरसी से ये उम्मीद है कि ये बांग्लादेशी घुसपैठियों के विवाद को ख़त्म करेगा. असम में ये मसला बहुत चर्चित रहा है. असम की विविधता वाली संस्कृति और बहुजातीय समाज में ये बहुत विवादित मुद्दा रहा है. 1980 के दशक के दौरान असम ने बांग्लादेशी घुसपैठियों के मुद्दे पर ख़ूनी जातीय संघर्ष झेला था. अब असम के लोग चाहते हैं कि ये मसला स्थायी तौर पर सुलझे ताकि राज्य विकास और शांति के रास्ते पर आगे बढ़ सके.

एनआरसी के लागू होने के बाद बहुत से लोगों ने असम में जातीय, धार्मिक और सामाजिक विभाजन की आशंका जताई थी. लोगों ने ये भी आशंका जताई थी कि इस टकराव का कुछ लोग अपने स्वार्थ में इस्तेमाल कर सकते हैं. इससे असम की जाति आधारित सियासत में एक नया आयाम जुड़ सकता है. ये देखना होगा कि असम कैसे इन चुनौतियों से पार पाता है. तभी, असम का शांतिपूर्ण, समृद्ध और सब को साथ लेकर तेज़ी से तरक़्क़ी करने वाले राज्य के तौर पर पहचान बनाने का सपना पूरा होगा.

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