भरी तिजोरी और फटाफट फैसले लेने की क्षमता की वजह से चीन ने दुनिया के कई इलाकों में अपना प्रभाव जमा लिया है और वहां कई क्षमताएं भी तैयार की हैं. उसके इस बढ़ते दख़ल को लेकर जहां कई देश आशंकित हैं, वहीं कई अन्य सीमित संसाधनों की वजह से उससे वित्तीय मदद लेने को मजबूर हैं. चीन उन देशों के विकास का वादा कर रहा है, जिसे वे हाथोंहाथ ले रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में वित्तीय मदद कोई नई चीज नहीं है, लेकिन चीन जिन शर्तों पर यह मदद दे रहा है, उसे लेकर बेचैनी देखी जा रही है. मसलन, वह किसी प्रोजेक्ट के लिए एक देश को कर्ज़ देता है और आगे चलकर उसके लिए इसे चुकाना मुश्किल हो जाता है तो बदले में वह उस प्रोजेक्ट पर पूरी तरह नियंत्रण कर लेता है. इतना ही नहीं, प्रोजेक्ट के लिए चीन के पास जो ज़मीन गिरवी रखी गई होती है, वह उस पर भी कंट्रोल कर लेता है.
कई ऐसे देश भी हैं, जो अमेरिका और चीन के बीच संतुलन बनाकर चल रहे हैं क्योंकि चीन की बढ़ती आर्थिक ताकत की अनदेखी करना संभव नहीं है और वे उससे खुद को अलग-थलग नहीं कर सकते.
कुछ साल पहले चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) शुरू किया था. इसमें कोई शक नहीं है कि यह किसी भी देश की तरफ से शुरू किया गया अब तक का सबसे बड़ा कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट है. इसके तहत एशिया से लेकर यूरोप तक वह सड़क और समुद्र मार्गों का एक नेटवर्क तैयार कर रहा है, जिसका मकसद अपने व्यापार और आर्थिक विकास को बढ़ाना है. इस योजना का मूल मकसद जहां भी संभव हो, रणनीतिक ठिकानों का नियंत्रण हासिल करना और ज़रूरी संसाधनों की सप्लाई सुनिश्चित करना है. चीन जोर देकर कहता आया है कि BRI का मकसद कनेक्टिविटी का फायदा उठाकर इससे जुड़े सभी देशों को आर्थिक फायदा पहुंचाना है. हालांकि, इधर उसके इस दावे की पोल खुलने लगी है और उसे आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है. उस पर प्रोजेक्ट के बहाने दूसरे देशों को कर्ज़ के जाल में फंसाकर अपने राजनयिक हित साधने के आरोप लग रहे हैं. इस मामले में जिबूती बंदरगाह परियोजना की मिसाल दी जा सकती है. BRI के तहत जिन शुरुआती परियोजनाओं की फंडिंग की गई थी, उनमें यह भी शामिल था. चीन ने बाद में इस बंदरगाह पर कब्ज़ा कर लिया और यहां विदेशी धरती पर उसने अपना पहला सैन्य ठिकाना बनाया. यह और बात है कि शुरू में वह इसके सैन्य ठिकाना होने से इनकार किया था. ऐसे में जिन देशों में BRI के तहत प्रोजेक्ट्स चल रहे हैं, उनकी संप्रभुता को लेकर आशंकाएं जाहिर की जा रही हैं और यह स्वाभाविक भी है.
चीन जिस तरह से विस्तार योजना पर काम कर रहा है और जिस तरह से उसका प्रभाव बढ़ रहा है, उसे देखते हुए आने वाले समय में वैश्विक व्यवस्था के संतुलन से जुड़े सवाल भी खड़े हो रहे हैं. क्या दुनिया के ज्यादातर देश अमेरिका के नेतृत्व वाली वैश्विक व्यवस्था के पक्ष में बने रहेंगे, जैसा कि कई दशकों से चलता आया है या इस मामले में उनका झुकाव चीन की तरफ बढ़ेगा या तीसरी संभावना यह है कि वे दोनों देशों के बीच संतुलन बनाकर चलें? अभी इस मामले में मिली-जुली तस्वीर दिख रही है. आज दुनिया के कई देश अमेरिका के साथ हैं. वे हिंद-प्रशांत क्षेत्र को सबके लिए खुला रखने और नियमों पर आधारित वैश्विक व्यवस्था का समर्थ करते हैं. कई ऐसे देश भी हैं, जो अमेरिका और चीन के बीच संतुलन बनाकर चल रहे हैं क्योंकि चीन की बढ़ती आर्थिक ताकत की अनदेखी करना संभव नहीं है और वे उससे खुद को अलग-थलग नहीं कर सकते.
मलेशिया में भी ईस्ट कोस्ट रेल लिंक (ECRL) प्रोजेक्ट की लागत भी शुरू से दो तिहाई घटा दी गई है. प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद के सत्ता में आने के बाद उसने यह कदम उठाया है.
दिलचस्प बात यह है कि जो देश अमेरिका और चीन के साथ रिश्तों में संतुलन बनाकर चल रहे हैं, उन्हें इसका भी अहसास है कि सावधानी बरतनी होगी. इसकी एक वजह यह है कि चीन जो भी कह रहा है, उसके पीछे की सोच और इरादे स्पष्ट नहीं हैं. इस वजह से पिछले कुछ वर्षों में कुछ देशों ने चीन के साथ रिश्तों की बुनियाद बदली है. इस संदर्भ में श्रीलंका की मिसाल दी जा सकती है. श्रीलंका में राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे की सरकार ने नवंबर के आख़िर में ऐलान किया था कि उनकी सरकार पूर्व प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे की 2017 की उस डील को पलटना चाहती है, जिसमें उन्होंने हंबनटोटा बंदरगाह को चीन को 99 साल की लीज पर देने की बात कही थी. राजपक्षे सरकार का कहना है कि वह प्रोजेक्ट का कर्ज़ चुकाने में अमसर्थ है. इसलिए सौदे से पीछे हटना चाहती है. श्रीलंका ने चीन के साथ जब इस परियोजना के लिए समझौता किया था, तब महिंदा राजपक्षे देश के राष्ट्रपति थे. पूर्व प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे के इस कदम से श्रीलंका को एक अरब डॉलर के कर्ज़ को बट्टे खाते में डालने में मदद मिली, जबकि चीन का बंदरगाह और वहां की ज़मीन पर पूरा नियंत्रण हो गया. चीन शायद ही इस प्रोजेक्ट से पीछे हटने को राजी होगा. पहली बात तो यह है कि यह बंदरगाह पूर्वी-पश्चिमी शिपिंग रूट के काफी करीब है. इसलिए इसकी खास अहमियत है. दूसरी, हंबनटोटा बंदरगाह हिंद महासागर के सिरे पर स्थित है. इसलिए चीन की ख़ातिर इसका विशेष सामरिक महत्व भी है. खैर, गोटाबाया सरकार के इससे पीछे हटने की मांग से इतना तो स्पष्ट है कि चीन की नीयत पर श्रीलंका जैसे देशों का संदेह बढ़ रहा है. राष्ट्रहित में चीन से ऐसे सवाल करने वाला श्रीलंका अकेला देश नहीं है. सिर्फ वही उसके साथ किसी डील को बदलवाने की कोशिश नहीं कर रहा है. 2018 में म्यांमार ने भी क्यायूकफ्यू बंदरगाह प्रोजेक्ट का आकार घटा दिया. इस बंदरगाह को चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव प्रोजेक्ट के तहत बनाया जाना था. इसके लिए दोनों देशों के बीच 2015 में समझौता हुआ था और चीन को इस बंदरगाह का प्रायरिटी बेसिस पर एक्सेस मिलता. रखाइन क्षेत्र में बनने वाले इस बंदरगाह और स्पेशल इकॉनमिक जोन की शुरुआती लागत के 7.3 अरब डॉलर रहने का अनुमान था, लेकिन म्यांमार ने बाद में इसका आकार और लागत घटाई. अब यह सिर्फ 1.3 अरब डॉलर रह गई है. म्यांमार को पहले से ही सांप्रदायिक संघर्षों को लेकर काफी आलोचना झेलनी पड़ रही है. वह चीन पर अपनी हद से अधिक निर्भरता को घटाना चाहता है. उसे यह भी डर है कि कहीं इस प्रोजेक्ट को लेकर उसकी हालत भी श्रीलंका जैसी न हो जाए और इसकी ख़ातिर लिए गए कर्ज़ की किस्तें चुकानी मुश्किल हो जाएं. म्यांमार इस बंदरगाह परियोजना के पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को लेकर भी फ़िक्रमंद है.
मलेशिया में भी ईस्ट कोस्ट रेल लिंक (ECRL) प्रोजेक्ट की लागत भी शुरू से दो तिहाई घटा दी गई है. प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद के सत्ता में आने के बाद उसने यह कदम उठाया है. मलेशिया में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में विविधता लाने का काफी घरेलू दबाव था, इसलिए ECRL प्रोजेक्ट का आकार घटाने का फैसला लिया गया. इस परियोजना के तहत पश्चिम के क्लांग बंदरगाह को पूर्व के कुआनतान बंदरगाह से जोड़ा जाना है और यह भी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के BRI का हिस्सा है. वैसे ECRL को तो महातिर करीब-करीब रद्द ही कर चुके थे, लेकिन ऐसा करने से मलेशिया को काफी नुकसान होता. उसे बड़ी कैंसलेशन फ़ीस चुकानी पड़ती. इसलिए उन्होंने परियोजना की शर्तों में बदलाव करवाया. महातिर सरकार ने चीन की आर्थिक मदद से बन रहे दो पाइपलाइन प्रोजेक्ट्स भी रद्द कर दिए.
इन सबके बीच जापान ने कहा कि वह तब तक रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकॉनमिक पार्टनरशिप (आसियान के 10 देशों और उसके पांच मुक्त व्यापार समझौते वाले सहयोगी देशों के बीच का व्यापार समझौता) का हिस्सा नहीं बनेगा, जब तक कि भारत इसमें शामिल नहीं हो जाता. भारत RCEP से नवंबर में अलग हो गया था. चीन 2012 के बाद से RCEP के लिए दबाव डालता आया है. ऐसे में जापान के फैसले से चीन के खिलाफ़ क्षेत्रीय गोलबंदी का संकेत मिलता है, जहां भले ही देश अपने स्तर पर उसका विरोध न कर रहे हों, लेकिन वे मिलकर उसके खिलाफ़ खड़े हो रहे हैं. इन घटनाओं का यह मतलब नहीं है कि ये देश चीन से अपने ताल्लुकात ख़त्म करने जा रहे हैं. एशिया और आसपास के साथ दुनिया के अन्य देशों के साथ चीन का जो आर्थिक संपर्क है, उसकी दुनिया अनदेखी नहीं कर सकती. हालांकि, इससे इतना तो साफ है कि चीन के लिए आने वाले वर्षों में अपनी धाक जमाना आसान नहीं होगा.
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