Author : Satoru Nagao

Expert Speak Raisina Debates
Published on Mar 18, 2023 Updated 0 Hours ago

ताइवान के चीनी अधिग्रहण को रोकने में भारत की भूमिका इस क्षेत्र में ड्रैगन पर नकेल कसने की कुंजी है.

ताइवान पर चीनी कब्ज़े की योजना को दुनिया कैसे रोक सकती है? भारत से उम्मीद

ये लेख रायसीना एडिट-2023 में संलग्न है.


साल 2021 मेंसंयुक्त राज्य अमेरिका के हिंद-प्रशांत कमांड के तत्कालीन प्रमुख फिलिप डेविडसन ने कहा था कि चीन 2027 तक ताइवान पर हमला करने की कोशिश कर सकता है; और 2022 मेंसेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी के उप निदेशक, डेविड कोहेन ने कहा था कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग चाहते हैं कि पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के पास 2027 तक ताक़त के ज़ोर पर ताइवान पर नियंत्रण करने की क्षमता हो. इन आकलनों के परिप्रेक्ष्य में संयुक्त राज्य अमेरिकी (यू.एस.) सरकार ताइवान पर चीनी आक्रमण के ख़तरे को काफी गंभीरता से ले रही है लेकिन इसे हक़ीकत बनने से कैसे रोका जाए, यह बड़ी चिंता का विषय है. सवाल तो ये भी है कि भारत इस स्थिति में कैसे फिट बैठता है? वास्तव में, भारत क्या कोई बड़ी भूमिका निभा सकता है?

यूक्रेन में रूस के हाल के हमले से एक तथ्य सामने आता है - अगर व्लादिमीर पुतिन को इस बात की आशंका होती कि रूस, यूक्रेन को आसानी से नहीं हरा सकता है, तो उन्होंने यूक्रेन पर आक्रमण नहीं किया होता. यही तर्क चीन पर भी लागू होता है कि जब तक जीत सुनिश्चित नहीं हो जाती है वह ताइवान पर आक्रमण नहीं करेगा. ताइवान पर चीनी आक्रमण तभी तक रुकेगा जब तक चीन को यह अहसास होता रहेगा कि वह ताइवान को आसानी से नहीं जीत सकता है. इसे सुनिश्चित करने के लिए हम तीन चीजें कर सकते हैं.

यूक्रेन में रूस के हाल के हमले से एक तथ्य सामने आता है - अगर व्लादिमीर पुतिन को इस बात की आशंका होती कि रूस, यूक्रेन को आसानी से नहीं हरा सकता है, तो उन्होंने यूक्रेन पर आक्रमण नहीं किया होता.

चीन को कैसे नियंत्रण में रखा जा सकता है

सबसे पहले, सैन्य संतुलन बनाए रखना अहम है. दक्षिण चीन सागर में चीन का क्षेत्रीय विस्तार यह दिखाता है कि जब सैन्य संतुलन बदल गया है तब वह अपने क्षेत्रों का विस्तार करने में जुटा हुआ है. उदाहरण के लिए, 1950 के दशक में, फ्रांसीसी सैन्य बलों के इंडोचाइना प्रायद्वीप से हटने के ठीक बाद, चीन ने पैरासेल द्वीपों के आधे हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया. 1970 के दशक मेंअमेरिकी सैन्य बलों के वियतनाम से हटने के ठीक बाद, चीन ने पैरासेल द्वीप समूह के बचे हुए दूसरे हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया. 1980 के दशक में वियतनाम में सोवियत रूस द्वारा वियतनाम में अपने सैनिकों की संख्या कम करने के बाद, चीन ने स्प्रैटली द्वीपों की छह विशेषताओं को अपने साथ मिला लिया और 1990 के दशक में, अमेरिकी सैनिकों के फिलीपींस से हटने के बाद, चीन ने मिसचीफ रीफ्स पर कब्ज़ा कर लिया. सभी मामलों में, एक बदलते सैन्य संतुलन ने चीन को अपने क्षेत्रों के विस्तार करने के लिए प्रोत्साहित किया था. यही वज़ह है कि ताइवान पर चीनी आक्रमण को रोकने के लिए सैन्य संतुलन बनाए रखना महत्वपूर्ण है.

दूसरा, सप्लाई चेन (आपूर्ति श्रृंखला) की स्वतंत्रता स्थापित करना महत्वपूर्ण है. सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज की हाल की रिपोर्ट यह बताता है कि अगर अमेरिका, जापान और अन्य देश ताइवान को पर्याप्त समर्थन देते हैं तो चीन आसानी से ताइवान को जीत नहीं सकता है. हालांकि, अगर ये देश चीन की सप्लाई चेन (आपूर्ति श्रृंखला) के बाज़ार पर बहुत अधिक निर्भर रहेंगे तो उनकी अर्थव्यवस्थाओं को तब ज़्यादा नुक़सान होगा जब चीन इनके ख़िलाफ़ आर्थिक प्रतिबंध लगाएगा. इस तरह की आर्थिक निर्भरता ताइवान को समर्थन जारी ऱखने के भरोसे को लेकर संदेह पैदा कर सकती है. चीन को शायद इस बात का भरोसा न हो कि ये देश संकट में ताइवान का साथ देंगे अगर उनकी अर्थव्यवस्थाएं चीन पर इतनी आधारित हैं और चीन को यह ग़लतफ़हमी हो सकती है कि वह यह संघर्ष जीत सकता है. इस तरह के किसी भी ग़लत आकलन को रोकने के लिए अमेरिका, जापान और अन्य समान विचारधारा वाले देशों को वैकल्पिक बाज़ार और आपूर्ति श्रृंखला बनानी चाहिए.

अगर ताइवान को अंतर्राष्ट्रीय समर्थन मिलना जारी रहता है तो चीन के लिए अपने समर्थकों को उकसाना जोख़िम भरा हो सकता है. इस प्रकार, ताइवान की बढ़ती अंतर्राष्ट्रीय स्वीकार्यता चीनी आक्रमण को रोक सकती है.

तीसरा, अगर ताइवान को अंतर्राष्ट्रीय समर्थन मिलना जारी रहता है तो चीन के लिए अपने समर्थकों को उकसाना जोख़िम भरा हो सकता है. इस प्रकार, ताइवान की बढ़ती अंतर्राष्ट्रीय स्वीकार्यता चीनी आक्रमण को रोक सकती है. अमेरिका, जापान और यूरोपीय देशों के प्रतिनिधिमंडलों की हाल की यात्राओं से पता चलता है कि उच्च-स्तरीय आधिकारिक यात्राओं से ताइवान का दर्ज़ा दुनिया में बढ़ा है; और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को चीन को यह बताने की ज़रूरत है कि उसकी "एक चीन नीति" इस तथ्य को प्रतिबिंबित नहीं करती है कि ताइवान चीन के नियंत्रण में है.

इसलिएसैन्य संतुलन बनाए रखना, एक ऐसी अर्थव्यवस्था का निर्माण करना जो चीन पर ज़्यादा निर्भर ना होऔर ताइवान की अंतर्राष्ट्रीय स्वीकार्यता को आगे बढ़ाना चीन को यह मानने से रोकने के लिए उपयोगी ज़रिया साबित हो सकता है कि वह ताइवान पर आक्रमण कर उसे आसानी से जीत सकता है. इसके साथ, भारत इस पूरी रणनीति में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.

 चीन के विरुद्ध भारत की भूमिका

पहला, चीन के साथ सैन्य संतुलन बनाए रखने में भारत की भूमिका बेहद अहम है. चीन ने बहुत तेजी से अपना सैन्य बज़ट बढ़ाया है. स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट के अनुसार, चीन ने (2012-2021) के लिए अपने सैन्य ख़र्च में 72 प्रतिशत की बढ़ोतरी की है. इसके विपरीत, अमेरिका ने अपने सैन्य खर्च में 6.1 प्रतिशत की कमी की है और जापान ने 18 प्रतिशत और ताइवान ने 7.9 प्रतिशत की बढ़ोतरी की है. 2022 मेंजापान ने अपने रक्षा बज़ट में वृद्धि करने का निर्णय लियालेकिन यह पर्याप्त नहीं होगा अगर चीन अपने स्वयं के सैन्य ख़र्च को उसी दर से बढ़ाता रहे जैसा वह पहले करता आया है. इसलिएबड़े रक्षा बज़ट के साथ-साथ अमेरिका, जापान और ताइवान को चीन का मुक़ाबला करने के लिए नए तरीक़ों को तलाशने की ज़रूरत है.भारत के साथ सहयोग इसका जवाब हो सकता है.

2009 के बाद से, भारत ने अपने सार्वजनिक दस्तावेज़ों में "वन चाइना पॉलिसी" का उल्लेख नहीं किया हैऔर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने के बाद ही यह प्रवृत्ति तेज़ हुई है.

अगर अमेरिका, जापान और ताइवान संयुक्त रूप से भारत के साथ सहयोग करते हैंतो चीन ताइवान के ख़िलाफ़ अपने सैन्य ख़र्च को केंद्रित नहीं कर पाएगा क्योंकि उसे तब भारत की चुनौतियों को जवाब देना होगा. हिमालयी सीमा क्षेत्र में चीन के साथ अपने संघर्ष के संदर्भ में, तीन देशों के साथ सहयोग भारत के लिए भी फ़ायदेमंद है. इस विचार पर भरोसा बढ़ाने के लिए स्ट्राइक क्षमता बेहद अहम है. हाल ही मेंना केवल भारत और अमेरिका, बल्कि जापान, ताइवान, ऑस्ट्रेलिया, वियतनाम, फिलीपींस और दक्षिण कोरिया सभी अपनी मारक क्षमताओं को बढ़ाने में लगे हैं. चीन को अपनी रक्षा क्षमताओं और ख़र्च को बढ़ाने के लिए मज़बूर होना पड़ेगा अगर वह चारों तरह से ऐसी स्ट्राइक क्षमताओं से घिरा हुआ होगा. भारत, अमेरिका, जापान, ताइवान और दूसरे के बीच बढ़ता सहयोग ऐसी स्थिति पैदा कर सकता है जो ताइवान पर चीन के हमले को रोक सके.

दूसरा, भारत उन देशों को आर्थिक विकल्प प्रदान कर सकता है जो चीन पर बाज़ार और सप्लाई चेन के लिए निर्भर नहीं रहना चाहते हैं. ओबामा प्रशासन के दौरान अमेरिका ने चीन के बाज़ारों का मुक़ाबला करने के लिए एक रूपरेखा का प्रस्ताव रखा था. ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप(टीपीपी) इस रूपरेखा में से एक था. राष्ट्रपति ओबामा ने 2015 में अपने स्टेट ऑफ द यूनियन संबोधन में कहा था कि अमेरिका ने चीन को व्यापार नियमों को नियंत्रित करने से रोका था. हालांकि, टीपीपी में कुछ शर्तों की कमी है जो इसे चीन-विरोधी ढांचे के रूप में काम करने की अनुमति देता था. इस तरह के ढांचे के लिए तीन शर्तों की आवश्यकता होती है: चीन, अमेरिकी नेतृत्व को बाहर करना और बाज़ार के विकल्प के रूप में भारत को शामिल करना लेकिन अमेरिका ने बाद में टीपीपी के विचार को छोड़ दिया और इस समझौते में भारत शामिल नहीं था. इसके बादवर्तमान बाइडेन प्रशासन ने इंडो-पैसिफिक इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आईपीईएफ) की शुरुआत की है, जिसमें भारत शुरुआती चर्चाओं में शामिल होगा. अगर चीन-विरोधी आर्थिक ढांचे में भारत का इनपुट शामिल होता है, तो चीन के ताइवान पर आक्रमण करने की स्थिति में यह क्षेत्रीय देशों के रवैये को प्रभावित करेगाक्योंकि ये क्षेत्रीय देश चीनी बाज़ार और आपूर्ति श्रृंखलाओं पर अपनी निर्भरता कम कर देंगे.

तीसरा, भारत का राजनयिक समर्थन ताइवान की अंतर्राष्ट्रीय स्थिति को मज़बूत कर सकता है. भारत ने 1995 में ताइवान के साथ अपने संबंधों को फिर से स्थापित किया है. 2009 के बाद से, भारत ने अपने सार्वजनिक दस्तावेज़ों में "वन चाइना पॉलिसी" का उल्लेख नहीं किया हैऔर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने के बाद ही यह प्रवृत्ति तेज़ हुई है.2014 मेंतत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने स्पष्ट रूप से कहा था कि, "जब उन्होंने हमारे साथ तिब्बत और ताइवान का मुद्दा उठाया, तो हम चाहते हैं कि वे अरुणाचल प्रदेश के बारे में हमारी संवेदनशीलता को समझें और उसकी सराहना करें." इसके अलावा,जब ताइवान की राष्ट्रपति त्साई इंग-वेन ने अपने दूसरे कार्यकाल की शपथ ली तब भारतीय "राजदूत" के साथ संसद के दो भारतीय सदस्यइस आयोजन में ऑनलाइन शामिल हुए.यह एक बदलाव था क्योंकि भारत 2016 में शुरुआती चर्चा के बाद त्साई के पहले कार्यकाल के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल नहीं हुआ था. इसलिएभारत की कूटनीतिक गतिविधियों ने ताइवान की अंतर्राष्ट्रीय स्थिति को अब बढ़ा दिया है. इन कोशिशों से एक अंतर्राष्ट्रीय माहौल तैयार होगा जिससे चीन को पता चल जाएगा कि ताइवान पर आक्रमण करना आसान नहीं होगा.

पीएम मोदी ने स्पष्ट रूप से कहा है कि, 'आज का युग युद्ध का नहीं है”. सुरक्षा वातावरण के प्रति भारत की नीति विकसित हो रही हैऔर चीनी आक्रमण को रोकने में इसकी भूमिका एक महत्वपूर्ण हिस्सा होगी.

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