आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा से जुड़ चुके 20 वर्षीय फुटबॉल खिलाड़ी माजिद खान ने बीते दिनों आत्मसमर्पण कर दिया था। इसके बाद पुलिस ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में अनंतनाग के रहने वाले इस युवा की परेड कराते हुए कहा था कि सोशल मीडिया पर लगातार प्रयासों के चलते माजिद की ‘घर वापसी’ कराई जा सकी। सोशल मीडिया का यह कैंपेन माजिद की मां की अपील के बाद चलाया गया था, जिसके चलते आखिर में उसका मन बदला और उसने आतंकी संगठन छोड़ने का फैसला लिया। माजिद के आत्मसमर्पण के साथ ही सेना ने यह भी ऐलान किया कि उस पर कोई केस नहीं चलेगा। यही नहीं आगे की शिक्षा के लिए भी उसकी मदद की जाएगी। माजिद के आत्मसमर्पण के बाद अब चर्चा इस बात की है कि हथियार उठा लेने वाले एक युवा ने हिंसा का रास्ता छोड़ दिया है। युवाओं को आतंकवाद के रास्ते से वापस लाने के लिए पुलिस और सेना अब घाटी में और अधिक आत्मसमर्पण कराने की योजना पर काम कर रही हैं।
यह पहला मौका नहीं है, जब आतंकवाद से प्रभावित इलाके में आत्मसमर्पण हुए हैं। असम और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों समेत जम्मू-कश्मीर में ही पहले भी ऐसा हो चुका है। आत्मसमर्पण को लेकर जम्मू-कश्मीर की सरकार की कई नीतियां रही हैं, जिनमें समय-समय पर बदलाव किए जाते रहे हैं। एक बार 1990 की शुरुआत में और फिर 1997 में ऐसी नीति शुरू की गई थी। इसके बाद ऐसी ही दो और योजनाओं की घोषणा की गई। पहली 2004 में घोषित की गई, जो सूबे के उन लोगों के लिए थी जो आतंकवाद से जुड़ गए थे। इसके बाद 2010 में उन युवाओं के लिए ‘घर वापसी’ की नीति लाई गई, जो आतंकवाद से जुड़ने के बाद पाकिस्तान में जाकर बस गए थे। इन सभी के कुछ परिणाम आए थे। वहीं, सूबे में आत्मसमर्पण करने वाले ऐसे भी तमाम आतंकी थे, जो वापस आतंकवाद के रास्ते पर चले गए। हालांकि असम और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में ऐसा नहीं था। आखिर अंतर कहां था?
असल में यह अंतर आतंकवाद की प्रकृति का था। पूर्वोत्तर भारत में हथियार उठाने वाले लोग स्थानीय युवा थे और घुसपैठ करके आया कोई शख्स उनका मुखिया नहीं था। हालांकि भारत के हित न चाहने वाली ताकतों का समर्थन उन्हें हासिल था। इसी वजह से यहां आत्मसमर्पण करने वाले लोगों के मारे जाने के भी खतरे कम थे। आत्मसमर्पण करने वाले हर आतंकी को राज्य सरकार मदद की उम्मीद थी, इसके अलावा आईडी कार्ड्स के जरिए एक पहचान की भी उम्मीद थी। यहां तक कि आत्मसमर्पण करने वाले आतंकियों ने असम में अपने स्तर पर कॉन्फ्रेंस के भी आयोजन किए। ऐसा ही एक सम्मेलन (कॉन्फ्रेंस ऑफ फॉर्मर उल्फा काडर्स) इस साल असम के डिगबोई में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में कॉन्फ्रेंस के सचिव बिजॉय हजारिका ने साफ किया कि 1998 से लेकर 2005 तक आत्मसमर्पण करने वाले 10,000 कैडर, 7500 से ज्यादा उग्रवादी, अब भी सरकार की ओर से किसी मदद के इंतजार में हैं। इसके अलावा सरकार ने उनके खिलाफ दर्ज केस भी वापस नहीं लिए हैं।
सूबे में आत्मसमर्पण करने वाले ऐसे भी तमाम आतंकी थे, जो वापस आतंकवाद के रास्ते पर चले गए। हालांकि असम और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में ऐसा नहीं था। आखिर अंतर कहां था?
मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बिरेन सिंह आत्मसमर्पण करने वाले आतंकियों को लेकर इसी साल मई में दिल्ली में कहा था कि इससे जुड़ी नीतियां पूरी तरह असफल साबित हुई हैं। उन्होंने कहा, ‘यह दुखद है कि मुख्यधारा से जुड़ने वाले उग्रपंथी संगठनों की निगरानी की सही व्यवस्था नहीं है। इसके चलते आत्मसमर्पण की नीति पूरी तरह व्यर्थ साबित हुई है।’
जम्मू-कश्मीर में बीते दौर में बड़ी संख्या में आत्मसमर्पण हुए थे। क्रूर हत्याओं के चलते 1995 में बड़े पैमाने पर स्थानीय युवाओं ने हिज्बुल मुजाहिदीन जैसे आतंकी संगठनों को छोड़ दिया था। राज्य और केंद्र सरकार की ओर से पूर्व आतंकियों को पुनर्वास के आकर्षक पैकेजों का वादा किया गया था। आत्मसमर्पण करने वाले आतंकियों को साथ लेकर केंद्र ने सरकार समर्थक एक सैन्य बल इखवान फोर्स का भी गठन किया। इन्हें भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की ओर से भुगतान और मदद मिलती थी। 1994-98 के दौरान आतंकविरोधी अभियानों में सरकार समर्थक ये सशस्त्र बल बेहद उपयोगी साबित हुए थे। इसके चलते सुरक्षा बलों को वॉन्टेड आतंकियों की पहचान करने में मदद मिली थी और उनके खिलाफ अदालतों में केस चले। कई पर तो अब भी मामले चल रहे हैं। कई आतंकियों ने 1996 में चुनाव प्रक्रिया में भी हिस्सा लिया।
हालांकि इखवान फोर्स से जुड़े लोगों की अपनी सुरक्षा ही खतरे में रही। पाकिस्तान समर्थन आतंकवादियों ने उनके घरों और परिवार के लोगों को निशाना बनाया। नवंबर, 2000 में सरकार की ओर से पाकिस्तान के साथ संघर्ष विराम घोषित किए जाने के बाद आतंकवादी एक बार फिर से हावी हो गए। यह अफवाह उड़ी कि इखवान फोर्स के तकरीबन 150 सदस्यों और पुलिस के मुखबिरों को संघर्षविराम यानी सीज़फायर के दौरान मार डाला गया। पुलिस सूत्रों के मुताबिक इसके बाद इखवान फोर्स के साथ काम करने वाले 500 लोग फिर से आतंकवादी संगठनों से जुड़ गए। सरकार समर्थक सैन्य संगठन के नेता पापा किश्तवाड़ी ने भी कहा था कि ‘अच्छी नौकरी और सुरक्षा का वादा देने पर वापस लौटे उनके आधे लड़कों ने दोबारा आतंकवाद की राह पकड़ ली है।’ सरकार अपने वादे पूरे करने में असफल रही। इखवान फोर्स के संस्थापक मोहम्मद युसूफ को भी सितंबर 2003 में मार डाला गया।
दिसंबर 2007 में एक अखबार में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक घाटी में आतंकवाद की शुरुआत से उस वक्त तक 4,000 आतंकी आत्मसमर्पण कर चुके थे। इन आतंकियों को मुख्यधारा में लाने की नीति पर गंभारता से प्रयास नहीं किए गए। 1990 के दशक की शुरुआत में यह नीति बनाई गई कि आत्मसमर्पण करने वाले हर उग्रवादी को 1.5 लाख रुपये मिलेंगे और रोजगार का अवसर दिया जाएगा। हालांकि जमीनी परिस्थितियों के आधार पर बाद में इस नीति को बदल दिया गया। आतंकियों को पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण करना था, संयुक्त पूछताछ केंद्र में दो महीने गुजारने थे और सप्ताह में एक बार नियमित पुलिस थाने में रिपोर्ट देनी थी। इन शर्तों पर आत्मसमर्पण करने पर बहुत से आतंकी यह कहते हुए राजी नहीं थी कि इसके तहत उनका उत्पीड़न होगा।
इसके बाद राज्य कैबिनेट ने 24 अप्रैल, 1997 को अपने फैसले 96/10 में आत्मसमर्पण करने वाले आतंकियों को रोजगार के अवसर मुहैया कराने की योजनाओं पर मुहर लगाई। इस स्कीम के तहत बैंकों को आदेश दिया गया कि वे आत्मसमर्पण करने वाले आतंकियों को औद्योगिक और निजी सेक्टर में माइक्रो और स्मॉल यूनिट्स की स्थापना करने के लिए वित्तीय सहायता मुहैया कराएं। बैंकों ने घाटे के डर से इस योजना को लागू करने से इनकार कर दिया और यह स्कीम भी फेल हो गई। इससे आत्मसमर्पण करने वाले आतंकियों का गुस्सा और बढ़ गया।
हालांकि आत्मसमर्पण करने वाले इन आतंकियों को मुख्यधारा में लाने की नीति पर गंभारता से प्रयास नहीं किए गए। 1990 के दशक की शुरुआत में यह नीति बनाई गई कि आत्मसमर्पण करने वाले हर उग्रवादी को 1.5 लाख रुपये मिलेंगे और रोजगार का अवसर दिया जाएगा।
24 फरवरी, 2009 को केंद्रीय गृह राज्य मंत्री ने लोकसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए कहा था कि आत्मसमर्पण करने वाले उग्रवादियों को तीन साल के लिए 2,000 रुपये महीने की राशि दी जा रही है। इसके अलावा फिक्स्ड डिपॉजिट के तौर पर शुरुआत में उनके नाम 1.5 लाख रुपये जमा कराए गए हैं, जिन्हें 3 साल बाद ही निकाला जा सकता है। आत्मसमर्पण करने वाले आतंकवादी के अच्छे व्यवहार पर ही यह राशि उसे मिलती। हालांकि सरकार की ओर से अपने वादे पूरे करने में असफल रहने के चलते आत्मसमर्पण करने वाले आतंकियों का गुस्सा बढ़ता चला गया। कश्मीर लाइफ में अक्टूबर, 2013 में प्रकाशित आलेख के मुताबिक पाकिस्तान से लौटने वाले आतंकियों का कहना है कि उन्हें राशन कार्ड और पहचान पत्र जैसी मूलभूत सुविधाएं भी नहीं दी जा रही हैं। इसके चलते बहुत से लोग दोबारा आतंकी संगठनों में चले गए।
सरकार के आदेशों के आधार पर सुरक्षा बलों ने एक बार फिर स्थानीय आतंकियों के आत्मसमर्पण के प्रयास किए हैं। इसके कुछ नतीजे दिखने शुरू हुए हैं, लेकिन एक बार फिर वही सवाल है कि आखिर सरकार और उसकी एजेंसियां आत्मसमर्पण और पुनर्वास की नीतियों को लागू करने के लिए कितनी तैयार हैं। अदालती केसों के बिना उन्हें छोड़ देना ही समाधान नहीं है। आतंकी समूहों की ओर से उन पर वापस लौटने का दबाव रहेगा और उन्हें धमकियां दी जाती रहेंगी। ऐसे में सुरक्षा बलों के लिए सबसे जरूरी यह है कि आत्मसमर्पण करने वाले आतंकियों और उनके परिवार वालों की सुरक्षा सुनिश्चित की जाए। ऐसे न होने पर आतंकी संगठनों की ओर से बदला लेने के डर से वे वापस उनसे जुड़ सकते हैं। आतंकी संगठनों के लिए इस तरहं के आत्मसमर्पण पकड़ कमजोर होने जैसा है और सुरक्षा बलों के लिए यह सफलता है। ऐसे में दोनों ही पक्ष अपनी बढ़त कायम करने का प्रयास करेंगे।
हालांकि सरकार की ओर से अपने वादे पूरे करने में असफल रहने के चलते आत्मसमर्पण करने वाले आतंकियों का गुस्सा बढ़ता चला गया।
फिलहाल जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बल आतंकियों पर भारी पड़ रहे हैं और उन्हें भागना पड़ रहा है। यह अपने आप में एक अच्छी खबर है। हर दिन मुठभेड़ की खबरों और आतंकियों के मारे जाने से स्थानीय युवाओं के आतंकी संगठनों से जुड़ने की संभावनाएं कम हुई हैं। लेकिन, ऐसी स्थिति में आतंकी सरेंडर करने वाले पूर्व दहशतगर्दों को आसान निशाना बना सकते हैं।
पढ़े: कश्मीर में वार्ताकार से तेजी से कदम बढ़ाने की दरकरार
इसलिए सरकार को यह ध्यान रखना होगा कि आत्मसमर्पण करने वाले आतंकियों की सुरक्षा के लिए कुछ कदम उठाए जाएं ताकि उन्हें दहशतगर्द संगठन वापस अपने घेरे में न ले सकें। सबसे पहले उन्हें अपने जिले या फिर क्षेत्र से ही बाहर कहीं बसाना होगा, जिससे उन्हें नया माहौल मिल सके।
दूसरा, सरकार को अपने आर्थिक पैकेज के ऐलानों को जल्द से जल्द लागू करना होगा क्योंकि बहुत से युवा आर्थिक लाभ के लिए ही आतंकी संगठनों का हिस्सा बन जाते हैं।
तीसरा, ऐसे लोगों की गतिविधियों पर निगरानी के दौरान सुरक्षा बलों की ओर से उत्पीड़न नहीं होना चाहिए। उत्पीड़न की स्थिति वे दोबारा आतंकी संगठनों की ओर मुखातिब हो सकते हैं। चौथा, मीडिया में ऐसे लोगों को तवज्जो दी जानी चाहिए ताकि वे अन्य लोगों को प्रेरणा दे सकें।
अंतत: शुरुआती दौर में एक अच्छे रोजगार से वह आतंकवाद की ओर नहीं जाएंगे। इसके अलावा अन्य लोग भी आत्मसमर्पण के लिए प्रेरित होंगे। इन नीतियों की आधिकारिक तौर पर घोषणा की जानी चाहिए और केंद्र की ओर से सख्ती से इसकी निगरानी होनी चाहिए। यह नीति जम्मू-कश्मीर ही नहीं बल्कि अन्य राज्यों के लिए भी होनी चाहिए।
सरकार और सुरक्षा बलों की ओर से किए गए गंभीर प्रयास यदि नजर आते हैं तो इससे आतंकवादी संगठनों में होने वाली नई भर्ती कम होगी। हथियार उठाने वाले युवाओं की संख्या में कमी आएगी और आतंकी आत्मसमर्पण के लिए प्रोत्साहित होंगे। यदि सरकार की कार्रवाई धीमी रहती है तो सुरक्षा बलों की ओर से भरोसा कायम करने के बाद भी आत्मसमर्पण करने वाले लोगों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं होगी।
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.