इस्लामिक स्टेट जब अपनी कारगुज़ारियों के शिखर पर था, तब उसने किसी अन्य हिंसक संगठन (जिहादी या अन्य संगठन) की तुलना में लोकल (स्थानीय) और ग्लोबल (वैश्विक) की खाई को कहीं असरदार ढंग से पाटने में सफलता हासिल की थी. आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने के लिए अलग-अलग जगहों पर अकेले आतंकवादियों (लोन वुल्फ) को लगाने के बजाय उसने उन्हें यक़ीन दिलाया था कि वे अकेले नहीं हैं.
वे एक ग्लोबल कम्युनिटी का हिस्सा थे, जो इस्लामिक स्टेट के खलीफ़ा राज पर केंद्रित था. हालांकि, जिन क्षेत्रों में यह समानांनतर सरकार चला रहा था, वहां इसका वजूद सिर्फ़ खलीफा तक सीमित नहीं था. [1] इस्लामिक स्टेट जिन इलाकों में राजकाज चला रहा था यानी जहां वह सामान की आपूर्ति करने के साथ लोगों को सेवाएं दे रहा था, उस पर नियंत्रण के साथ उसने जिस तरह से सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया, वैसा आज तक किसी अन्य जिहादी ग्रुप ने नहीं किया था. इस मामले में इस्लामिक स्टेट अलग तरह का आतंकवादी संगठन साबित हुआ.
उग्रवादी और हिंसक चरमपंथी संगठन जमाने से प्रोपगेंडा का इस्तेमाल करते आए हैं. ऐसे कई संगठनों ने, जहां भी संभव हुआ वहां ख़ास क्षेत्रों पर राजकाज भी चलाया यानी वे वहां विद्रोही गवर्नेंस का हिस्सा रहे. यह मानने की भी कोई वजह नहीं है कि अन्य नॉन-स्टेट एक्टर्स इस क्षेत्र में इस्लामिक स्टेट की सफलता को नहीं दोहरा सकते या कम से कम वे ऐसा करने की कोशिश नहीं करेंगे. इस लेख में जिहादी ग्रुप की वैकल्पिक गवर्नेंस को आगे बढ़ाने की कोशिश और किस तरह से ऐसे संगठन स्थानीय और वैश्विक स्तर पर समर्थन जुटाने के लिए नई तकनीक का फायदा उठा रहे हैं, इन मुद्दों की पड़ताल की गई है.
जिहादी गवर्नेंस
साल 2011 जिहादी आंदोलन के लिए कुछ ज्यादा बुरा साबित हुआ. ड्रोन हमलों के कारण पाकिस्तान में अल-क़ायदा कमज़ोर हो रहा था. जो आतंकवादी इन हमलों में अब तक नहीं मारे गए थे, उन्हें तय करना था कि वे अपनी जान बचाएं या बेधड़क बाहर निकलें, दूसरे आतंकवादियों के साथ संवाद करें या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आतंकवादी हमलों को अंजाम दें. [2] जब तक अमेरिकी जासूस पाकिस्तान के एबटाबाद शहर की एक इमारत में ओसामा बिन लादेन के छिपे होने का पता लगा पाते, तब तक आतंकी संगठन अल क़ायदा बहुत कमजोर हो चुका था. लादेन के ठिकाने का पता लगने के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उसे मारने के लिए एबटाबाद की उस इमारत में यूएस नेवी सील की टीम भेजने का जोख़िम भरा फैसला लिया और 2 मई 2011 को उन्होंने अल क़ायदा के मुखिया को आधी रात के बाद 1 बजे मार डाला. लादेन जहां छिपा था, वहां से जो जानकारियां मिलीं, उनसे अमेरिका को बाद में अल क़ायदा के दूसरे बड़े आतंकवादियों को ड्रोन हमलों में मारने में मदद मिली. [3]
इस बीच, ट्यूनिशिया, मिस्र और यमन में आम लोगों के विरोध से जिस तरह सत्ता बदली, उससे जिहादियों का यह प्रोपगेंडा कमजोर पड़ गया कि क्रांति के लिए हिंसा ज़रूरी है या अमेरिका हमेशा तानाशाहों का समर्थन करता है. नाटो के नेतृत्व में लीबिया में पश्चिमी देशों ने दख़ल देकर यह संदेश दिया कि वह मुस्लिम नागरिकों को बचाने के लिए पहल करने को तैयार है. हालांकि, इससे अरब देशों में आतंकवादी संगठनों का वजूद नहीं मिटा बल्कि इस क्षेत्र में हुई क्रांति से जिहादियों में एक नई जान लौटी और उनकी गतिविधियां अप्रत्याशित स्तर तक बढ़ गईं. [4] अरब देशों में कई तानाशाहों के हटाए जाने से आतंकवादियों के लिए उन देशों में भी गुंजाईश बनी, जहां उनके लिए पहले बिल्कुल जगह नहीं थी.
अरब देशों में जब जनता तानाशाहों के खिलाफ सड़क पर उतरी तो शुरू में एक्सपर्ट्स का ध्यान इस पर था कि इससे जिहादियों के प्रोपगेंडा पर क्या असर होगा. हालांकि, जिहादी नेता तब इन क्रांति से बनने वाले मौक़ों की पहचान में जुटे थे. अमेरिका सैनिकों की तरफ से मारे जाने से एक हफ्ते पहले लादेन ने अरब देशों में होने वाले विद्रोह को ‘ग्रेट और ग्लोरियस इवेंट’ बताया था. उसने तब सक्रियता से नए समर्थक जुटाने पर जोर दिया था. [5] अरब प्रायद्वीप (AQAP) में अल क़ायदा के डिप्टी अमीर ने जिहादियों से इन मौक़ों का फायदा उठाकर अपने विचारों को बढ़ावा देने की अपील की थी. [6] आतंकवादियों ने ऐसा ही किया भी. मिस्र और ट्यूनिशिया में जिहादियों ने कामकाज में आजादी मिलने का इस्तेमाल ख़ुद को संगठित करने और नए समर्थक जुटाने में किया. यमन में तो उनके लिए स्थिति और बेहतर थी, जो पुलिस स्टेट नहीं था. लोगों का विद्रोह शुरू होने पर तब लीबिया और सीरिया के तानाशाहों ने अपने यहां जानबूझकर जिहादियों की गतिविधियां तेज होने दीं, ताकि वे यह कह सकें कि वे आतंकवाद के खिलाफ ज़ंग लड़ रहे हैं. उन्होंने विरोधी समूहों के बीच फूट डालने की भी कोशिश की. [7] इससे लीबिया में ग़द्दाफ़ी के हटने और सीरिया में बढ़ते संघर्ष के बीच जिहादियों को सबसे संगठित ताकत बनकर उभरने का मौका मिला.
ट्यूनिशिया से लंबे समय तक आतंकवादी लड़ाके उन जगहों पर जाते रहे हैं, जहां संघर्ष जारी था. मिस्र में सेना ने चुने हुए प्रधानमंत्री को हटा दिया और वहां फिर से तानाशाही बहाल हो गई. हालांकि, वहां सेना के समर्थन से चलने वाली नई सरकार को जल्द ही जिहादियों की तरफ से तेज विरोध का सामना करना पड़ा.
तानाशाहों के हटने के बाद और गवर्नेंस में सुधार के बावजूद अरब क्षेत्र में पुलिस तंत्र कमजोर नहीं पड़ा. अरब देशों में ट्यूनिशिया एकमात्र सुन्नी बहुल देश था, जहां आंदोलन के बाद लोकतांत्रिक सरकार चुनी गई. [8] हालांकि, वहां भी सुरक्षा के लिहाज से स्थिति बदतर हुई. ट्यूनिशिया से लंबे समय तक आतंकवादी लड़ाके उन जगहों पर जाते रहे हैं, जहां संघर्ष जारी था. [9] मिस्र में सेना ने चुने हुए प्रधानमंत्री को हटा दिया और वहां फिर से तानाशाही बहाल हो गई. हालांकि, वहां सेना के समर्थन से चलने वाली नई सरकार को जल्द ही जिहादियों की तरफ से तेज विरोध का सामना करना पड़ा. लीबिया, माली, सीरिया और यमन गृह युद्ध की चपेट में आ गए. [10] अल क़ायदा से अलग होकर वजूद में आने वाले इस्लामिक स्टेट ने जून 2014 में इराक में एक बड़ा सैन्य अभियान शुरू किया और उसने देश के दूसरे सबसे बड़े शहर मोसुल पर क़ब्ज़ा कर लिया. इसके बाद इस्लामिक स्टेट के नेता अबू बकर अल-बगदादी ने खलीफा राज की स्थापना की घोषणा की और ख़ुद को खलीफा घोषित कर दिया. [11] उस वक्त कई आतंकवादी संगठनों ने बगदादी के समर्थन की घोषणा की, जिनमें से कुछ पहले अल क़ायदा के वफ़ादार थे.
जिहादियों को अरब देशों में जनता का शासकों के खिलाफ विरोध शुरू होने से पहले गवर्नेंस का सीमित तजुर्बा था. मिसाल के लिए, मिस्र में इस्लामिक ग्रुप ने 1980 के दशक में ऊपरी मिस्र और 1990 की शुरुआत में ग्रेटर काहिरा को आज़ादकराया था. उस वक्त उसका मिस्र की सरकार से संघर्ष चल रहा था. यह ग्रुप लोगों को वैसी सेवाएं देता था, जो वहां की सरकार नहीं दे पाती रही थी. इसके साथ उसने लोगों की ‘मोरल पुलिसिंग’ भी शुरू कर दी थी. [12] अमेरिका में 9/11 आतंकवादी हमलों के बाद के दशक में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के संघीय सरकार के नियंत्रण वाले आदिवासी क्षेत्रों और नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस के उन इलाकों में शरिया अदालतें चला रहा था, जहां उसकी हुक़ूमतचलती थी. [13] सोमालिया में इस्लामिक कोर्ट्स यूनियन से अलग होने के बाद अल-शबाब बड़ा आतंकवादी संगठन बना और उसने बड़े भू-भाग पर क़ब्ज़ा कर लिया. वह उन क्षेत्रों में शरीयत के मुताबिक़ अपनी तरह का इंसाफ करता था. अल-शबाब भी अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों में लोगों को कुछ सोशल सर्विसेज ऑफर कर रहा था. [14] उधर, इराक में अल क़ायदा ने अपने नियंत्रण वाले इलाकों में सख्त इस्लामिक कानून लागू कर रखा था, लेकिन बाद में सुन्नियों के चुनौती देने और अमेरिकी सेना का दख़ल बढ़ने से उसके हाथ से ये इलाके निकल गए.
गवर्नेंस के इन सीमित तजुर्बों से आतंकवादियों ने महत्वपूर्ण सबक सीखे, लेकिन 2011 के बाद अपने नियंत्रण में आने वाले क्षेत्रों में शासन के लिए जिहादियों ने अबू बकर नाजी के सिद्धांतों से भी मदद ली. अरब विद्रोह से करीब एक दशक पहले प्रकाशित हुए मैनेजमेंट ऑफ सेवेजरी में नाजी ने खलीफा राज स्थापित करने के लिए तीन चरणों वाली प्रक्रिया का जिक्र किया है. [15] पहला, नाजी का कहना है कि मुस्लिम देशों के कुछ क्षेत्रों से सुरक्षा बलों को निकालने के लिए ज़बरदस्त हमले की जरूरत है ताकि उस खाली जगह को जिहादी भर सकें. दूसरा, जिहादी जब एक बार वहां अराजकता की स्थिति उत्पन्न कर दें तो उसके बाद वे इस्लामिक कानून के अपने वर्ज़न के जरिये फिर से सामान्य व्यवस्था बहाल कर सकते हैं. [16] हालांकि, इसके लिए उन क्षेत्रों में जिहादियों की तरफ से अंदरूनी सुरक्षा और सोशल सर्विसेज मुहैया कराना ज़रूरी होगी ताकि शरीयत कानून (इसमें इन पर अमल न करने वाले मुसलमानों पर सख़्ती का भी सुझाव दिया गया है) लागू किया जा सके. नाजी ने लिखा है कि जिहादियों को इसके साथ वहां इस्लामिक कानून को लेकर जागरूकता भी बढ़ानी होगी. इसका मकसद समान सोच वाले इस्लामिक अमीरात या मिनी-स्टेट का नेटवर्क तैयार करना है, जो किसी छोटे शहर या बड़े देश के बराबर हो सकते हैं. ये अमीरात एक दूसरे से संवाद करेंगे और राजनीतिक, वित्तीय और सैन्य मामलों पर जहां तक संभव हो, तालमेल बनाएंगे. आख़िर में, जब सबको स्वीकार्य एक खलीफा चुन लिया जाए, तब ये अमीरात छोटे-छोटे देशों के नेटवर्क से कैलिफेट में बदल जाएंगे. तानाशाहों को हटाए जाने और अरब विद्रोह के बाद गृह युद्ध शुरू होने पर नाजी ने जिस स्थिति की कल्पना की थी, उस पर तेजी से अमल शुरू हुआ. इससे जिहादी आंदोलन में दो महत्वपूर्ण ट्रेंड सामने आए. इनमें से पहले तो अरब देशों में स्थानीय स्तर पर केंद्रित जिहादी हिंसा की वापसी हुई. 9/11 के आतंकवादी हमलों के बाद सबसे ज़बरदस्त जिहाद पाकिस्तान, यमन और सऊदी अरब जैसे देशों के खिलाफ शुरू हुआ. ये ऐसे देश हैं, जिन्होंने पहले जिहादी संगठनों की मदद की थी या उन्हें समर्थन दिया था. 9/11 से पहले जिन अरब देशों ने विद्रोहियों की अनदेखी की थी या जिन्होंने विद्रोह को कुचला था, उन्हें अरब विद्रोह के बाद ऐसी चुनौतियों को स्वीकार करना पड़ा. अलगाववादी या जिहादी एजेंडा के बढ़ते प्रभाव के कारण स्थानीय स्तर पर इस तरह का जोर बढ़ रहा था. उधर, इस्लामिक स्टेट ने शिया-सुन्नी के बीच खूनी टकराव को बढ़ावा दिया और इसके साथ उसे इस क्षेत्र में होने वाले अन्य संघर्षों का फायदा मिला. दूसरी बात यह है कि जिहादी संगठनों ने ख़ुद को युद्ध करने वाली निजी सेना में बदल लिया था, जो बेहद बारीक तरीके से अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रों में सरकारी मशीनरी बनाने में जुटे हुए थे.
बगदादी ने कहा कि वह सभी मुसलमानों का नेता है और जल्द ही उसका ग्रुप दूसरे देशों में इराक और सीरिया के उन क्षेत्रों की तरह शासन स्थापित करेगा. इसी दौरान अल क़ायदा से जुड़े कुछ संगठन माली और यमन में मिनी-अमीरात की घोषणा कर रहे थे.
ख़ास क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा करके उस पर शासन करने के लिहाज से इस्लामिक स्टेट सबसे सफल समूह साबित हुआ. इराक और सीरिया में इसके नियंत्रण वाला क्षेत्र खलीफा राज का केंद्र बना. बगदादी ने कहा कि वह सभी मुसलमानों का नेता है और जल्द ही उसका ग्रुप दूसरे देशों में इराक और सीरिया के उन क्षेत्रों की तरह शासन स्थापित करेगा. इसी दौरान अल क़ायदा से जुड़े कुछ संगठन माली और यमन में मिनी-अमीरात की घोषणा कर रहे थे. अरब विद्रोह के बाद अंसार अल-शरिया की शाखाएं जिहादी गतिविधियों का स्थानीय चेहरा थीं, लेकिन आतंकवाद उसका एक हिस्सा भर था. इस तरह के नए आंदोलन (वे ख़ुद को अंसार अल-शरिया कहते थे) कई जगहों पर समर्थक जोड़ने का जरिया भी बन थे. अंसार अल-शरिया का मतलब ‘इस्लामिक कानून के समर्थक’ है. नाम से जाहिर है कि उसका मकसद इस्लामिक शासन की स्थापना करना था. अंसार अल-शरिया की शाखाएं स्थानीय एजेंडा पर काम कर रही थीं. उसने अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए हिंसा का सहारा लिया, सोशल सर्विसेज का इस्तेमाल किया. उसने अपने मकसद को पूरा करने के लिए धार्मिक उपदेशों की भी मदद ली. ये शाखाएं मोटे तौर पर अपने क्षेत्र में शासन स्थापित करने की कोशिश कर रही थीं. AQAP ने 2009 में यमन में अंसार अल-शरिया का पहला चैप्टर शुरू किया था. इसका मकसद वहां ख़ास क्षेत्र पर क़ब्ज़ा कर लोगों को सामाजिक सेवाएं देना था. [17] इसके बाद लीबिया, ट्यूनिशिया और मिस्र में भी अरब विद्रोह के दौरान ऐसी शाखाएं खोली गईं. [18] ये सभी स्वतंत्र स्थानीय इकाइयां थीं, जिनका एक दूसरे अगर संपर्क था भी तो बेहद मामूली. जिहादी आंदोलन को लेकर इस्लामिक स्टेट और अल क़ायदा के बीच होड़ शुरू हो चुकी थी. इन दोनों की सोच में काफी अंतर भी था. दोनों नाजी की जीत के सिद्धांत को लेकर भी अलग-अलग राय रखते थे. पहला, नाजी के मुताबिक़ कैलिफेट की स्थापना धीरे-धीरे कई अमीरात के साथ आने से होती है. अल क़ायदा के नेता इस सोच से इत्तेफ़ाकरखते थे. उनका मानना था कि इसके लिए लोकप्रिय समर्थन ज़रूरी है और इस्लामिक शासन की स्थापना तभी की जा सकती है, जब उसके लिए माकूल माहौल हो. [19] हालांकि, इस्लामिक स्टेट के लोग ऐसा नहीं मानते थे. उन्होंने इराक में बड़े भू-भाग पर क़ब्ज़ा करने के बाद खलीफा राज की घोषणा में जरा भी वक्त जाया नहीं किया.
दूसरी, इराक में बड़ी संख्या में मुसलमानों के मारे जाने और इसके बाद सुन्नियों के उभार से अल क़ायदा की छवि को गंभीर नुकसान पहुंचा था. इसलिए उसके नेताओं ने स्थानीय स्तर पर जन-समर्थन जुटाने के लिए लोगों को केंद्र में रखकर नीतियां बनाईं. [20] इसलिए, अल क़ायदा के सहयोगी संगठनों ने बेगुनाह मुसलमानों की हत्या से बचने की कोशिश की. जिन क्षेत्रों पर उसने क़ब्ज़ा किया था, वहां रहने वाले लोगों के साथ उसने सख़्ती नहीं की और उसके बजाय स्थानीय लोगों का दिल जीतने के लिए सामाजिक सेवाओं पर जोर दिया. [21] हालांकि, इस्लामिक स्टेट ने अलग रास्ता पकड़ा. उसने अलग-अलग समुदाय के बीच तनाव को हवा दी ताकि अराजकता की स्थिति बने और उसके बाद उसने डर दिखाकर शासन किया. सामाजिक सेवाएं वह भी दे रहा था, लेकिन उसने स्थानीय लोगों पर बेतहाशा ज़ुल्म किए ताकि उनमें दहशत पैदा हो. इस्लामिक स्टेट इसके जरिये ख़ुद के ताक़तवर होने की छवि बनाना चाहता था. इतना ही नहीं, शरिया के सख्त वर्ज़न को लागू करने से उसने कभी भी समझौता नहीं किया. [22]
नाजी को पता था कि इस्लामिक शासन स्थापित करने के लिए बड़ी संख्या में लोगों की जरूरत पड़ेगी. इसलिए उसने गैर-मुस्लिम देशों में रहने वाले मुसलमानों के इस्लामिक शासन वाले क्षेत्रों में आने की वकालत की. उसका कहना था कि अपने देश में रहकर उनके आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देने से बेहतर यही होगा. सोशल मीडिया के इस्तेमाल और खलीफा राज की घोषणा से इस्लामिक स्टेट को हजारों की संख्या में विदेशी लड़ाके मिले. इराक और सीरिया में उसके बैनर तले इन लोगों ने लड़ाइयां लड़ीं. [23] यह एक बड़े ट्रेंड का हिस्सा था, जिसमें जिहादी तकनीक की मदद से दुनिया के कोने-कोने तक पहुंच रहे थे और पहले उन्हें इसमें इस कदर सफलता कभी नहीं मिली थी.
संचार की नई तकनीक के आने से जिहादियों के लिए गैर-मुस्लिम देशों में लोगों को न सिर्फ़ प्रेरित करने में मदद मिल रही है बल्कि कुछ मामलों में वे आतंकवादी हमलों के लिए सीधे निर्देश भी दे रहे हैं. तकनीक ने ग्लोबल और लोकल का अंतर मिटा दिया है और इससे अल-सूरी के सिद्धांत को वास्तविकता में बदलने में जिहादियों को मदद मिल रही है.
तकनीक के इस्तेमाल में आतंकवादी वैश्विक स्तर पर इस्लामिक प्रतिरोध का आह्वान करते हुए अबू मुसाब अल-सूरी (असली नाम मुस्तफ़ा बिन अब्द-अल-कादिर सेतमरियम नासर) ने कहा था कि साथी जिहादियों को कुछ मुस्लिम देशों तक ही बड़े स्तर पर विद्रोह को सीमित रखना चाहिए और गैर-मुस्लिम देशों में उन्हें नेतृत्वविहीन जिहाद को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. [24] उसका मानना था कि अधिकतर जिहादी संगठन इतने मजबूत नहीं हैं कि वे गंभीर जवाबी कार्रवाई का सामना कर पाएं. ऐसे में गैर-मुस्लिम देशों में आतंकवादी हमलों की प्रेरणा देकर जिहादी आंदोलन को तेजी से आगे बढ़ाया जा सकता है. जिहादी नेता ख़ास आतंकवादी गतिविधियों के लिए सीधे निर्देश नहीं दे सकते, इसलिए अल सूरी ने जिहादी विचारधारा के प्रचार पर काफी जोर दिया था. उसका मानना था कि इससे गैर-मुस्लिम देशों में जिहादियों को अपना प्रभाव बढ़ाने में मदद मिलेगी. संचार की नई तकनीक के आने से जिहादियों के लिए गैर-मुस्लिम देशों में लोगों को न सिर्फ़ प्रेरित करने में मदद मिल रही है बल्कि कुछ मामलों में वे आतंकवादी हमलों के लिए सीधे निर्देश भी दे रहे हैं. तकनीक ने ग्लोबल और लोकल का अंतर मिटा दिया है और इससे अल-सूरी के सिद्धांत को वास्तविकता में बदलने में जिहादियों को मदद मिल रही है.
ऑनलाइन माध्यमों के इस्तेमाल से किसी को उसी तरह से चरमपंथी बनाया जाता है, जैसे कैंपों या ख़ास जगह पर लाकर. हालांकि, नई तकनीक से जिहादी ऐसे वर्ग तक तेजी से पहुंच रहे हैं और उनका दायरा काफी बढ़ गया है. ट्विटर, इंस्टाग्राम, फेसबुक और यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म जिहादियों समेत हर किसी को दुनिया भर में फैले संभावित कार्यकर्ता तक पहुंचने का मंच देते हैं. जिहादी वेबसाइटों और चैट रूम की तुलना में इनका इस्तेमाल आसानी से और किसी झूठे नाम के जरिये किया जा सकता है. इनकी मदद से बड़ी संख्या में लोगों तक पहुंचा जा सकता है. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म जिस एल्गोरिद्म का इस्तेमाल करते हैं, वह यूजर्स को समान सोच वाले कंटेंट वाले लोगों से कनेक्ट करता है. इसका मतलब यह है कि संभावित रिक्रूट और समर्थकों को तलाशने में भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म मदद कर रहे हैं. इतना ही नहीं, सोशल मीडिया की मदद से वे धर्म गुरुओं या संघर्ष प्रभावित क्षेत्र के लड़ाकों से सीधे संपर्क कर सकते हैं. [25]
ऐतिहासिक तौर पर आतंकवादी या उग्रवादी समूहों के समर्थन को सक्रिय या निष्क्रिय वर्ग में बांटा जाता रहा है. सक्रिय समर्थक निजी जोखिम उठाने को तैयार रहते हैं या विद्रोही समूह या आंदोलन को जॉइन करके वे दूसरी तरह की कुर्बानियां देते हैं. वे आर्थिक मदद, आश्रय, हथियार या अन्य सामान देकर, मुखबिरी और इलाज में मदद करके भी सहयोग देते हैं. निष्क्रिय समर्थक भी समूह की सोच से सहमत होते हैं, लेकिन वे उससे जुड़ते नहीं. वे उन्हें रुपये-पैसों की मदद देते हैं या संबंधित समूह की तरफ से काम करते हैं. [26]
अफगानिस्तान, भारत और केन्या जैसे देशों में ऑनलाइन चरमपंथ बढ़ रहा है, जबकि इन जगहों पर जिहादी संगठन पारंपरिक जरियों से समर्थक जुटाते आए हैं. इन लोगों पर सोशल मीडिया कंपनियों की सख़्ती के बाद जिहादियों ने एनक्रिप्टेड मैसेजिंग प्लेटफ़ॉर्मप्लेटफ़ॉर्म का इस्तेमाल बढ़ा दिया है.
इस विरोधाभास से जहां हिंसक विद्रोह जारी हो, वहां जमीनी स्तर पर समर्थकों में फर्क करने में मदद मिलती है, लेकिन सोशल मीडिया के उभार से आतंकवादी हमलों में शामिल हुए या उनका समर्थन किए बगैर भी लोगों के सामने ऐसे संगठनों की मदद के रास्ते खुल गए हैं. सोशल मीडिया यूजर्स ग्रुप के संदेश को अधिक लोगों तक पहुंचाने और इस तरह से लोगों को प्रभावित करने में भूमिका निभा सकते हैं. वे संबंधित संगठन को फंड जुटाने, अतिवाद बढ़ाने और इंटरनेट पर कंटेंट अपलोड करके या सिर्फ़ री-ट्वीट करके नए समर्थक जुटाने में मदद कर सकते हैं. [27] इसके अलावा, इंटरनेट के जरिये किसी को चरमपंथी बनाने का काम वास्तविक संघर्ष क्षेत्र से हजारों मील दूर या ऐन संघर्ष क्षेत्र में किया जा सकता है. इधर, पश्चिमी देशों में ऑनलाइन माध्यमों के जरिये काफी लोगों को चरमपंथी बनाया गया है और इस पर सरकारों की नजर है. उनका इससे चिंतित होना स्वाभाविक है. एक नई परिघटना भी दिख रही है. अफगानिस्तान, भारत और केन्या जैसे देशों में ऑनलाइन चरमपंथ बढ़ रहा है, जबकि इन जगहों पर जिहादी संगठन पारंपरिक जरियों से समर्थक जुटाते आए हैं. इन लोगों पर सोशल मीडिया कंपनियों की सख़्ती के बाद जिहादियों ने एनक्रिप्टेड मैसेजिंग प्लेटफ़ॉर्मप्लेटफ़ॉर्म का इस्तेमाल बढ़ा दिया है. नए आतंकवादी की तलाश लोकप्रिय सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर की जाती है. एक बार चुने जाने के बाद जिहादी उसे एंड टू एंड एनक्रिप्शन वाले प्लेटफॉर्म पर ले जाते हैं, जिसे ट्रैक करना अक्सर सरकारों के लिए भी मुश्किल होता है. FBI डायरेक्टर क्रिस्टोफ़र रे के मुताबिक़, अमेरिकी जांच एजेंसी वित्त वर्ष 2017 में 7,775 डिवाइस के कंटेंट एक्सेस करने में असमर्थ रही, उस साल एजेंसी ने जितने डिवाइस के कंटेंट हासिल करने की कोशिश की थी, यह संख्या उसके आधे से अधिक थी. [28] डिजिटल काउंटर-टेररिज्म पर बायपार्टिसन पॉलिसी सेंटर ने एक रिपोर्ट में कहा था, “लोकप्रिय सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और एनक्रिप्टेड मैसेजिंग एप्लिकेशंस के बीच आतंकवादियों को रिक्रूट करने वाले अपना संदेश आसानी से दुनिया भर के लोगों के साथ साझा कर सकते हैं. इसके बाद वे अपनी विचारधारा से प्रभावित लोगों को संवाद के लिए सुरक्षित मैसेजिंग प्लेटफॉर्म पर ले जा सकते हैं.” [29]
नए समर्थक जुटाने और उन्हें चरमपंथी बनाने में मदद के अलावा एंड टू एंड एनक्रिप्शन वाले माध्यमों की मदद आतंकवादी हमलों की योजना बनाने में भी लेते हैं. इस्लामिक स्टेट ने एंड टू एंड एनक्रिप्शन का इस्तेमाल ‘वर्चुअल प्लानर मॉडल’ के लिए भी किया. इसमें वे आतंकवादी मोहम्मद यजदानी जैसे समर्थकों को बताते थे कि वे हजारों मील दूर किस तरह से आतंकवादी हमलों को अंजाम दे सकते हैं. इस मॉडल में वे टारगेट चुनने के प्लॉट से लेकर बम बनाने तक के तरीके की जानकारी देते थे. इसी मामले में वर्चुअल प्लानर्स ने यह भी सुनिश्चित किया कि आतंकवादी हमला करने से पहले पीछे न हटे. [30]
सारे आतंकवादी संगठन समान तरीके से सोशल मीडिया का इस्तेमाल नहीं करते. इस मामले में अल क़ायदा के मुख्य संगठन को उसके ही सहयोगी निगल गए. अल-शबाब सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वाले शुरुआती संगठनों में शामिल था. ख़ासतौर पर उसने ट्विटर का काफी इस्तेमाल किया. इस आतंकवादी संगठन ने नए समर्थक भर्ती करने से लेकर ग्रुप के बारे में गलत खबर दिए जाने पर फैक्ट चेकिंग तक के लिए इस सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल किया. [31] AQAP भी अल क़ायदा के मुख्य संगठन की तुलना में सोशल मीडिया और इंटरनेट यूज करने में काफी आगे था. हालांकि, इस मामले में इस्लामिक स्टेट अव्वल निकला. उसने प्रोपगेंडा फैलाने के लिए वीडियो प्रोडक्शन तकनीक का भी प्रयोग किया. इतना ही नहीं, सोशल मीडिया की मदद से उसने हजारों विदेशी लड़ाके भी हासिल किए. [32]
इसी के साथ, इस्लामिक स्टेट ने अल सूरी की कुछ रणनीतियों को भी अपनाया था. इसी के मद्देनज़र उसने अपने समर्थकों से कहा था कि जो लोग इस्लामिक स्टेट के नियंत्रण वाले इलाके में नहीं आ सकते, वे अपने देश में आतंकवादी हमलों को अंजाम दें. उसने कहा था, “अगर काफिर आपको सीरिया और इराक नहीं आने दे रहे हैं तो उनके ही देश में जिहाद का दरवाजा खोलें. अपने संकल्प को उनके पछतावे का जरिया बनाइए. आप अपने देश में अगर किसी छोटी घटना को भी अंजाम देते हैं तो वह हमारे लिए सीरिया आकर आपके किसी बड़ी गतिविधि करने से मुकाबले अधिक प्रिय होगी. यह हमारे लिए अधिक फ़ायदेमंद और उनके लिए ज्यादा नुकसानदायक होगा. अगर आपमें से कोई इस्लामिक स्टेट की धरती तक पहुंचने की ख़्वाहिश रखता है तो हममें से हरेक क्रूसेडरों को सबक सिखाने के लिए आपकी जगह लेने को तैयार है. हम उन्हें दिन रात डराना और आतंकित करना चाहते हैं, जब तक कि वहां एक पड़ोसी, दूसरे से डरने न लगे.” [33]
इस रणनीति की वजह से जून 2014 के बाद इस्लामिक स्टेट पश्चिमी देशों में कई आतंकवादी हमले करने में सफल रहा. अपने यहां अधिक क्षेत्र पर क़ब्ज़ा करने की नाजी की रणनीति के साथ विदेश में आतंकवादी हमलों के लिए अल-सूरी के सिद्धांत अपनाने वाला यह पहला संगठन नहीं था. AQAP पहले ऐसा कर चुका था. उसने अनवार अल-अवलाकी और इंस्पायर मैगज़ीन के जरिये यह काम किया था. हालांकि, इस मामले में भी इस्लामिक स्टेट सबसे आगे रहा. इसी साल किम क्रैगिन ने टेक्सस नेशनल सिक्योरिटी रिव्यू में इस ओर ध्यान दिलाया था कि इस्लामिक स्टेट ने 2015 से 2017 के बीच सीरिया और इराक या अपने नियंत्रण वाले कथित 25 सूबों से बाहर कहीं अधिक हमले किए. 2008 से 2010 के बीच अल क़ायदा ने जितने आतंकवादी हमले किए थे, उसकी तुलना में इस्लामिक स्टेट ने कहीं अधिक ऐसी गतिविधियों को अंजाम दिया. किम ने इस रिपोर्ट में यह भी बताया था कि इस्लामिक स्टेट से प्रेरित हमलों की संख्या कुल हमलों में काफी ज्यादा थी. [34]
आगे का रास्ता
ट्यूनिशिया के एक स्ट्रीट वेंडर के आत्मदाह की आग समूचे अरब क्षेत्र में पहुंच जाएगी, इसकी भविष्यवाणी कोई नहीं कर सकता था. [35] न ही कोई इसका अंदाजा लगा सकता था कि इराक का एक फुटबॉल प्रेमी, जिसने अमेरिकी देखरेख वाले जेल में वक्त गुजारा था, वह दुनिया के सबसे ताक़तवर आतंकवादी संगठन का मुखिया बन जाएगा और ख़ुद को खलीफा घोषित करेगा. [36] जानकार तो सिर्फ़ ट्रेंड की पहचान कर सकते हैं. विद्रोहियों ने हमेशा से समर्थकों और सहानुभूति रखने वालों को गवर्नेंस और प्रोपगेंडा के जरिये प्रभावित करने की कोशिश की है. जिहादी संगठनों ने जिस तरह से नई तकनीक को अपनाया है और इस मामले में अपनी क्षमता साबित की है, उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती. फिर क्या करना चाहिए? अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इस्लामिक स्टेट के खिलाफ बड़ी जीत मिली. वह अल क़ायदा के मुख्य संगठन को कमजोर करने में सफल रहा. उसने AQAP को ख़ास क्षेत्र तक सीमित रखने में सफलता हासिल की और दुनिया के अन्य हिस्सों में दूसरे आतंकवादी संगठनों को कमजोर करने में सफलता हासिल की. अमेरिका के करीब दो दशक के आतंकवादी विरोधी अभियान के बावजूद सेंटर फॉर स्ट्रैटिजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज ने हाल में पाया कि 9/11 में जितने आतंकवादी संगठन थे, उनकी तुलना में 2018 में सक्रिय आतंकवादी संगठनों की संख्या चार गुना अधिक थी. [37]
इसका क्या मतलब निकाला जाए? इसमें कोई शक नहीं है कि पिछले कई वर्षों के दौरान आतंकवादी संगठन कमजोर हुए हैं, लेकिन यह भी सच है कि इस बीच व्यापक जिहादी आंदोलन मजबूत बना हुआ है. हम इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं कर सकते कि जिहादी संगठन उन देशों में ही मजबूत हैं, जहां की सरकारें कमजोर हैं. दक्षिण और मध्य एशिया, पश्चिम एशिया, हॉर्न ऑफ अफ्रीका और साहेल जैसे क्षेत्रों में सरकारों को वैधता हासिल नहीं है और वे अपने नागरिकों की सुरक्षा करने या उन्हें बुनियादी सामाजिक सेवाएं देने में असमर्थ हैं. इनमें से कई सरकारों ख़राब ढंग से चलाई जा रही हैं और वे भ्रष्ट हैं. उनका नेतृत्व वहां के अभिजात्य वर्ग के हाथ में है, जो जनता का शोषण करता है और कई बार उसका झुकाव तानाशाही व्यवस्था की तरफ होता है. अक्सर इन देशों में कानून व्यवस्था बहुत कमजोर होती है. कई वर्षों तक अंतरराष्ट्रीय समुदाय कई नीतियों और कार्यक्रमों के जरिये इन ज़ोखिमों को कम करने की कोशिश करता रहा, लेकिन यह काम अक्सर आतंकवाद विरोधी नज़रिये से किया गया.
इसी बात को ऐसे भी कहा जा सकता है कि इन कार्यक्रमों का मकसद उन ख़ामियों को दूर करना था, जिसकी वजह से आतंकवाद को बढ़ावा मिलता है. इन पहल का मकसद आतंकवाद को रोकना था, इसलिए ऐसे अस्थायी उपायों पर जोर दिया गया, जिनमें ताकत का इस्तेमाल केंद्र में था. कम से कम अमेरिका के साथ तो ऐसा ही था. इस समस्या को काबू में करने का एक और तरीका था, जिसकी वकालत यूरोपीय देश कर रहे थे. उनका मानना था कि जिन देशों में सरकारें बेहद कमजोर हैं, वहां की कई समस्याओं में से एक आतंकवाद भी है. यूरोपीय देशों के मुताबिक़, इसलिए सरकार के स्तर पर चुनौतियों को सुलझाने से इस पर काबू पाया जा सकता है. आतंकवाद की समस्या को नियंत्रित करने के लिए इस नज़रिये पर गौर करना चाहिए. यह बात भी गौर करने लायक है कि यूएस इंस्टीट्यूट ऑफ पीस टास्क फ़ोर्स ऑन एक्स्ट्रीमिज्म इन फ्रैजिल स्टेट्स ने इनमें से कुछ सुझावों को अपनाया था. [38]
अंतरराष्ट्रीय समुदाय और ख़ासतौर पर अमेरिका को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसे मामलों में ताकत का इस्तेमाल सोच-समझकर किया जाए. इस मामले में अमेरिका की जवाबदेही इसलिए बनती है क्योंकि सहयोगी देशों की सुरक्षा क्षमता के निर्माण में वह अगुवा की भूमिका में रहा है.
इस अप्रोच भी ताकत के इस्तेमाल का पहलू जुड़ा हुआ है. और हो भी क्यों न, विकास और सुधार के लिए सुरक्षा बेहद ज़रूरी है. साथ ही, किसी देश से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह आतंकवाद के ख़तरों को बढ़ने देगा और उसे रोकने के लिए कुछ नहीं करेगा. हालांकि, अंतरराष्ट्रीय समुदाय और ख़ासतौर पर अमेरिका को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसे मामलों में ताकत का इस्तेमाल सोच-समझकर किया जाए. इस मामले में अमेरिका की जवाबदेही इसलिए बनती है क्योंकि सहयोगी देशों की सुरक्षा क्षमता के निर्माण में वह अगुवा की भूमिका में रहा है. आतंकवादी ख़तरों की पहचान और उनसे निपटने के लिए बाहरी ताकतों को साझी रणनीति बनानी चाहिए. इन देशों को इसमें अपनी भूमिका निभानी चाहिए. उन्हें कमजोर देशों की स्थिति सुधारने के लिए अमल में लाए जाने लायक उपाय करने चाहिए. इस तरह से वे पश्चिम एशिया, अफ्रीका, दक्षिण और मध्य एशिया में आतंकवाद की चुनौतियों का सामना कर सकते हैं. इसके लिए बाहरी देशों को उन ढांचागत (स्ट्रक्चरल) या राजनीतिक अड़चनों की पहचान करनी होगी, जो आतंकवाद का सामना करने में उन्हें भूमिका अदा करने से रोक रहा हो. उसके बाद इन अड़चनों को दूर किया जाना चाहिए. इसके साथ जिन बाधाओं को पार किया जा सकता है, उन्हें पार करने की कोशिश की जानी चाहिए. इसके लिए सरकारी अधिकारियों और बाहरी एक्सपर्ट्स की एक कम्युनिटी बनाई जाए, जो आतंकवाद से निपटने में अलग-अलग देशों की भूमिका और उसका बोझ उठाने को लेकर सुझाव दे. वह बताए कि इस मामले में स्थिति में किस तरह से सुधार किया जा सकता है. यह व्यवस्था यूरोपीय संघ, नाटो और विश्व बैंक के तहत बनाई जा सकती है.
ऑनलाइन चरमपंथ और एनक्रिप्टेड कम्युनिकेशन माध्यमों के दुरुपयोग को रोकने के लिए भी ऐसी साझी पहल की जरूरत है. आतंकवादियों के तकनीक के इस्तेमाल को रोकने का कोई एक आदर्श तरीका नहीं हो सकता. हमें इस बारे में उसी तरह से सोचना होगा, जैसे हम एयरपोर्ट या अंदरूनी सुरक्षा को लेकर सोचते हैं. इस मामले में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप और अंतरराष्ट्रीय सहयोग की काफी गुंजाईश है. सरकारों, बहुराष्ट्रीय संस्थानों और गठजोड़ों के साथ प्राइवेट सेक्टर मिलकर इसकी ख़ातिर नियम बना सकता है. इसके लिए ऐसे राष्ट्रीय और वैश्विक नियमों को बढ़ावा देना होगा, जिनसे व्यक्तिगत स्तर पर निजता की रक्षा और अभिव्यक्ति की आजादी बरकरार रखने के साथ आतंकवादी दुष्प्रचार का सामना किया जा सके. कुल मिलाकर, जिहादियों से स्थानीय और वैश्विक स्तर पर निपटने के लिए ज़मीन और ऑनलाइन फोरम में बेहतर गवर्नेंस ज़रूरी है.
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