यह लेख निबंध श्रृंखला ‘ये दुनिया का अंत नहीं है: विश्व पर्यावरण दिवस 2024’ का एक हिस्सा है.
वैश्विक तापमान में हो रही लगातार बढ़ोतरी और बढ़ती मानव आबादी की वजह से धरती का बड़ा हिस्सा बंजर ज़मीन और मरुस्थल में तब्दील होता जा रहा है, यानी उपजाऊ भूमि का तेज़ी से क्षरण हो रहा है और वो रेगिस्तान में बदलती जा रही है. नेशनल जियोग्राफिक के मुताबिक़ दुनिया में 200 करोड़ से अधिक लोग मरुस्थल बनने की संभावना वाली ड्राईलैंड यानी पानी की कमी वाली जगहों पर रहते हैं. जिस प्रकार से इस तरह की भूमि का तेज़ी से क्षरण हो रहा है, ऐसे में संभावना है कि वर्ष 2030 तक ड्राईलैंड पर रहने वाले 5 करोड़ लोग विस्थापित हो सकते हैं.
जिस गति के साथ भूमि का क्षरण बढ़ता जा रहा है, उसने विशेषज्ञों को चिंता में डाल दिया है. यूएन कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन यानी मरुस्थलीकरण को रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCCD) द्वारा हाल ही में जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2015-19 की अवधि के दौरान दुनिया में क़रीब 402 मिलियन हेक्टेयर भूमि मरुस्थल में बदली है. यानी प्रतिवर्ष औसतन 100 मिलियन हेक्टेयर भूमि का क्षरण हुआ है और यह ज़मीन रेगिस्तान में तब्दील हुई है. भूमि के मरुस्थल में बदलने का असर 1.3 बिलियन लोगों पर पड़ा है. इन आंकड़ों से साबित होता है कि हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं. UNCCD का मानना है कि दुनिया में भूमि क्षरण तटस्थता के लक्ष्य को हासिल करने के लिए वर्ष 2030 तक 1.5 बिलियन हेक्टेयर भूमि को उपजाऊ या हरा-भरा बनाना ज़रूरी है.
इन आंकड़ों से साबित होता है कि हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं. UNCCD का मानना है कि दुनिया में भूमि क्षरण तटस्थता के लक्ष्य को हासिल करने के लिए वर्ष 2030 तक 1.5 बिलियन हेक्टेयर भूमि को उपजाऊ या हरा-भरा बनाना ज़रूरी है.
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता मरुस्थलीकरण को थामने की प्रक्रिया में बेहद कारगर साबित हो रही है. विश्व पर्यावरण दिवस 2024 की थीम ‘भूमि बहाली, मरुस्थलीकरण और सूखे को लेकर लचीलापन’ है. मौज़ूदा हालातों में यह समझना बेहद अहम हो जाता है कि AI इस समस्या से निजात दिलाने में क्या भूमिका निभा रही है, साथ ही इसके लिए एआई-आधारित समाधान विकसित करने में वो क्या चुनौतियां है, जिनसे हमें निपटना होगा.
परिवर्तन लाने वाले कुछ AI समाधान
तेज़ी से बढ़ती मरुस्थलीकरण की समस्या के समाधान के लिए जो भी कोशिशें की जा रही हैं, उनमें AI का अलग-अलग प्रकार से इस्तेमाल किया जा रहा है. उदाहरण के तौर पर, अगस्त 2023 में सऊदी अरब ने मरुस्थलीकरण को रोकने के लिए व्यापक स्तर पर कार्यक्रम की शुरुआत की थी. इस कार्यक्रम के अंतर्गत भूमि के उपयोग, पेड़-पौधों और मिट्टी की नमी में होने वाले बदलावों की निगरानी के लिए AI एल्गोरिदम द्वारा सैटेलाइट से प्राप्त इमेज का गहन विश्लेषण किया जा रहा है. एआई तकनीक़ का उपयोग करने से न केवल संवेदनशील इलाक़ों में भूमि के क्षरण यानी उसके मरुस्थल में बदलने की वजहों का पता लगाने और उसका आकलन करने में काफ़ी मदद मिल रही है, बल्कि यह टेक्नोलॉजी जल प्रबंधन में सुधार करने, पेड़-पौधों को लगाने एवं टिकाऊ कृषि को प्रोत्साहन देने के लिए विभिन्न क़दम उठाने की दिशा में भी मददगार साबित हो रही है.
AI तकनीक़ वाले सेंसर्स से लैस ड्रोन एक तरफ दूर-दराज़ के इलाक़ों या फिर दुर्गम क्षेत्रों से हाई-रिज़ॉल्यूशन डेटा जुटाने में सहायता करते, मिट्टी और वहां उगने वाले पेड़-पौधों के बारे में जानकारी उपलब्ध कराते हैं, वहीं दूसरी ओर भूमि के मरुस्थल बनने पर लगाम लगाने की रणनीतियों को तैयार करने का भी मार्ग प्रशस्त करते हैं. यूके, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में, AI से संचालित होने वाले ड्रोन का उपयोग ऊसर या बंजर इलाक़ों में पेड़ लगाने या वनीकरण से जुड़ी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए किया जा रहा है. इस प्रक्रिया को "एरियल ड्रोन सीडिंग" कहा जाता है. यह प्रक्रिया न सिर्फ़ बेहतर तरीक़े से पौधारोपण करने में, बल्कि समय-समय पर पेड़ों की वृद्धि की निगारीनी में बेहद कारगर है.
यह पहल पर्यावरण संरक्षण में तेज़ी लाने के लिए AI तकनीक़ के व्यापक उपयोग को बढ़ावा देती है, साथ ही मरुस्थलीकरण को रोकने के प्रयासों को भी बदल देती है.
पूर्वानुमानित मॉडलिंग यानी आंकड़ों के पैटर्न का विश्लेषण करके भविष्य में होने वाली घटनाओं का पूर्वानुमान लगाने की प्रक्रिया में भी AI का व्यापक स्तर पर इस्तेमाल हुआ है. AI मॉडल भविष्य में जलवायु में होने वाले ऐसे बदलावों और चरम मौसमी घटनाओं का पूर्वानुमान लगाते हैं, जो भूमि के मरुस्थल में तब्दील होने की वजह बन सकते हैं. पुराने आंकड़ों, भूमि उपयोग को तरीक़ों और पर्यावरणीय कारणों का विश्लेषण करके ये AI मॉडल यह भी अनुमान लगाते हैं कि कौन से इलाक़े भूमि क्षरण के लिहाज़ से अधिक संवेदनशील हैं, यानी जहां ज़मीन के रेगिस्तान में बदलने की संभावना सबसे ज़्यादा है. उदाहरण के तौर पर माइक्रोसॉफ्ट की “एआई फॉर अर्थ” पहल इस दिशा में काफ़ी उपयोगी है. यह पहल पर्यावरण संरक्षण में तेज़ी लाने के लिए AI तकनीक़ के व्यापक उपयोग को बढ़ावा देती है, साथ ही मरुस्थलीकरण को रोकने के प्रयासों को भी बदल देती है. दक्षिण-पूर्व स्पेन में विभिन्न हितधारक “एआई फॉर अर्थ” पहल को अपना रहे हैं और इसके ज़रिए अलग-अलग इलाक़ों में कृषि के लिए पानी की मांग और ज़रूरत का एक पूर्वानुमानित मॉडल बना रहे हैं. इसके लिए जहां भू-स्थानिक आंकड़ों का विस्तृत विश्लेषण किया जा रहा है, वहीं मशीन विज़न तकनीक़ों के साथ मशीन लर्निंग टूल को भी जोड़ा जा रहा है.
AI तकनीक़ के उपयोग में आने वाली चुनौतियां
निसंदेह तौर पर बढ़ती मरुस्थलीकरण की समस्या से निपटने के लिए AI बेहद कारगर भी है और यह तकनीक़ उम्मीदों से भी भरी है, लेकिन कई ऐसी चीज़ें हैं, जो इसके उपयोग में रुकावटें पैदा करती हैं. ज़ाहिर है कि उपजाऊ भूमि का क्षरण ज़्यादातर दूर-दराज़ के दुर्गम और कम विकसित क्षेत्रों में ही देखने को मिलता है. अमूमन यह ऐसे इलाक़े होते हैं, जहां इससे जुड़े आंकड़े नहीं जुटाए जाते हैं, या फिर इन इलाक़ों को लेकर कोई डेटा मौज़ूद नहीं होता है. कहीं न कहीं इसे ग्लोबल साउथ और ग्लोबल नॉर्थ के देशों के बीच आंकड़े जुटाने के महत्व को लेकर समझबूझ में भारी अंतर के रूप में भी देखा जा सकता है. ज़ाहिर है कि ग्लोबल साउथ के कुछ देश ऐसे हैं, जिनकी "बुनियादी डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर तक पहुंच सीमित है और जिसकी वजह से उनके लिए लाभप्रद आंकड़ों को जुटाना बहुत मुश्किल हो जाता है." इतना ही नहीं विशेषज्ञता की कमी भी अक्सर इन देशों के आड़े आती है, क्योंकि कौशल की कमी होने से आंकड़े जुटाने, जिनमें सेटेलाइट से प्राप्त फोटोग्राफी से जुड़े आंकड़े भी शामिल हैं और इसके लिए एआई तकनीक़ पर आधारित समाधान तैयार करने में काफी दिक़्क़तें आती हैं. कहने का मतलब यह है कि ऐसे देशों में जहां मरुस्थलीकरण से प्रभावित होने वाले क्षेत्र सबसे ज़्यादा हैं, उनके पास एआई से जुड़ी तकनीक़ी विशेषज्ञता नहीं होती है, जो कि इस टेक्नोलॉजी के बेहतर इस्तेमाल में सबसे बड़ी बाधा है.
यूरोप और मध्य एशिया में पर्यावरण डेटा मूल्य श्रृंखलाओं को लेकर हुए अध्ययनों के मुताबिक़ साझा पर्यावरण सूचना प्रणाली आवश्यक आंकड़ों तक देशों की पहुंच को आसान तो बनाती है, लेकिन इसमें तमाम झोल भी हैं.
इसके अलावा, लंबे समय तक चलने वाली AI परियोजनाओं के लिए पैसों और निवेश की बहुत ज़रूरत होती है, लेकिन इन देशों के लिए फंड हासिल करना बेहद मुश्किल हो सकता है. इसके साथ ही मरुस्थलीकरण को रोकने के लिए एआई समाधानों को विकसित करने और उन्हें ज़मीनी स्तर पर लागू करने में बहुत अधिक ख़र्च होता है, जो कि आर्थिक रूप से कमज़ोर देशों के लिए दिक़्क़त वाली बात हो सकती है. इसके अतिरिक्त, पर्यावरण में होने वाला उतार-चढ़ाव भी AI तकनीक़ के उपयोग में रुकावट बन सकता है. ज़ाहिर है कि मरुस्थलीकरण के लिए कई सारे कारण ज़िम्मेदार हो सकते हैं और कभी-कभी एआई के ज़रिए इन कारणों का सही-सही पता लगाना भी कठिन हो सकता है. इसके अलावा, मौसम में अचानक होने वाला परिवर्तन भी हालातों को बदल सकता है, जिससे AI के ज़रिए सटीक पूर्वानुमान लगाने और उचित उपाय तलाशने में मुश्किल पैदा हो सकती है.
आख़िर में, ऐसे देशों में जहां AI तकनीक़ के उपयोग लेकर सख़्त क़ानून बने हुए हैं, वहां मरुस्थलीकरण को रोकने वाली एआई प्रौद्योगिकियों को लागू करने में तमाम क़ानूनी अड़चनें सामने आ सकती हैं. इसके अलावा, पर्यावरण से जुड़े आंकड़ों को संभालना अपने आप में एक बड़ी चुनौती है. यूरोप और मध्य एशिया में पर्यावरण डेटा मूल्य श्रृंखलाओं को लेकर हुए अध्ययनों के मुताबिक़ साझा पर्यावरण सूचना प्रणाली आवश्यक आंकड़ों तक देशों की पहुंच को आसान तो बनाती है, लेकिन इसमें तमाम झोल भी हैं. जैसे कि आंकड़े जुटाने के तौर-तरीक़ों, आंकड़ों के प्रकार एवं उनकी प्रकृति और डेटा साझा करने से जुड़ी क़ानूनी पेचीदगियों के चलते आंकड़ों की एकरूपता और इनके आदान-प्रदान में कई तरह की दिक़्क़तें हैं.
हरी-भरी और लचीली धरती की ओर बढ़ते क़दम
बढ़ते मरुस्थलीकरण को रोकने के लिए की जा रही कोशिशें देखा जाए तो आज एक अहम मोड़ पर पहुंच चुकी हैं. वर्ष 2030 तक भूमि क्षरण तटस्थता के लक्ष्य को हासिल करना बेहद मुश्किल नज़र आता है, लेकिन AI तकनीक़ इस दिशा में एक उम्मीद की किरण बनकर उभरी है. ज़ाहिर है कि AI अपनी अभूतपूर्व विश्लेषण क्षमता और विशेषज्ञता की वजह से मरुस्थलीकरण के दुष्प्रभावों को समझने, भूमि क्षरण की गति को कम करने और सटीक पूर्वानुमान के मामले में हमारी क्षमता को बढ़ाने का काम कर रही है. उत्तरी अमेरिका हो या चीन, घाना हो या इजरायल हर जगह पर एआई संचालित मशीनें और AI आधारित विश्लेषण भूमि क्षरण पर रियल टाइम नज़र रखने, वनीकरण परियोजनाओं को आगे बढ़ाने और टिकाऊ भूमि प्रबंधन के उपाय तलाशने में मदद कर रहे हैं.
कुल मिलाकर विश्व पर्यावरण दिवस का यह विशेष अवसर तमाम दूसरे मुद्दों के अलावा हमारे महत्वपूर्ण प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र को दोबारा से जीवित करने में एआई की परिवर्तनकारी ताक़त को याद करने का भी अवसर है.
आंकड़ों की कमी, क्षमताओं का अभाव, सीमित फंडिंग और क़ानूनी उलझनों जैसी तमाम चुनौतियों के बावज़ूद मरुस्थलीकरण को रोकने में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की भूमिका दिनों दिन बढ़ने वाली है. हालांकि, वर्तमान में सबसे बड़ी ज़रूरत पर्यावरण और जलवायु से जुड़े व्यापक और महत्वपूर्ण आंकड़ों की उपलब्धता के लिए ख़ास तौर पर प्रयास करने की है. एरियल इमेज डेटासेट (AID) जैसे सार्वजनिक डाटासेट्स AI तकनीक़ विकसित करने वालों के लिए बहुत अहम हैं, क्यों कि ये डाटासेट्स अलग-अलग देशों और क्षेत्रों से विभिन्न इमेजों को एक स्थान पर लाने का काम करते हैं. ऐसे में पारस्परिक सहयोग से इस तरह के और ज़्यादा डेटासेट बनाए जाने चाहिए. इसके अलावा, देशों के बीच आंकड़ों को साझा करना एक बेहद जटिल मुद्दा बना हुआ है, ऐसे में जी20 जैसे अंतर्राष्ट्रीय समूहों को आगे आना चाहिए और विकास के लिए महत्वपूर्ण कुछ विशेष प्रकार के आंकड़े साझा करने की प्रक्रिया में आने वाली रुकावटों को दूर करना चाहिए. यानि कि देशों के बीच ऐसे आंकड़ों के आदान-प्रदान को सहज बनाना चाहिए, जो क्षेत्रीय स्तर पर नीतियां बनाने के लिए अहम है और जिनकी गैरमौज़ूदगी से अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों का समाधान करने के लिए टेक्नोलॉजी आधारित समाधानों का विकास प्रभावित होता है. तमाम दूसरी चुनौतियों की तरह ही तेज़ी से होता मरुस्थलीकरण भी एक बड़ी वैश्विक चुनौती है और इसका मुक़ाबला करने के लिए विभिन्न देशों के पर्यावरण से जुड़े आंकड़ों का एक जगह पर इकट्ठा करना बेहद उपयोग साबित हो सकता है.
कुल मिलाकर विश्व पर्यावरण दिवस का यह विशेष अवसर तमाम दूसरे मुद्दों के अलावा हमारे महत्वपूर्ण प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र को दोबारा से जीवित करने में एआई की परिवर्तनकारी ताक़त को याद करने का भी अवसर है. इसके साथ ही यह मौक़ा इस बात पर भी विचार करने का है कि हरी-भरी और लचीली धरती के निर्माण में टेक्नोलॉजी का किस प्रकार से अच्छे से अच्छा इस्तेमाल किया जा सकता है.
अनिर्बान सरमा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में डिप्टी डायरेक्टर और सीनियर फेलो हैं.
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