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दवा बनाने की दुनिया अब एक नए दौर में है. पुराने तरीके बहुत वक़्त लेते हैं, लेकिन आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस नई दवाओं की तलाश को तेज़ और मुफ़ीद बना रहा है. चीन और अमेरिका इस मुक़ाबले में आगे हैं और भारत के पास भी अपनी ताक़त दिखाने का मौका है. सही इस्तेमाल से AI भारत को दुनिया की फार्मेसी से नवाचार की ताक़त में बदल सकता है.
Image Source: Getty Images
वैश्विक दवा उद्योग इस वक्त एक महत्वपूर्ण मोड़ पर है. दवाइयों की खोज करने के पारंपरिक तरीकों में लगने वाले लंबे समय, उच्च लागत और अनिश्चित परिणामों के कारण इसे बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है. अनुमान बताते हैं कि एक दवा के विकास में 10-15 साल लगते हैं, और एक नए उत्पाद के लिए अनुसंधान और विकास (आरएंडडी) पर कम से कम 2.5 अरब डॉलर खर्च होंगे. ऐसे में दवाओं के विकास में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के इस्तेमाल को इस प्रक्रिया को तेज़ करने के एक तरीके के रूप में पहचाना गया है. दवा के गुणों का पूर्वानुमान लगाने, क्लिनिकल ट्रायल के प्रभाव का सबसे प्रभावी उपयोग और व्यक्तिगत दवाएं तैयार में एआई काफ़ी मदद कर सकता है. चूंकि चीन इस क्षेत्र में तेज़ी से तरक्की कर रहा है और अमेरिका भी संरचनात्मक बदलावों से गुजर रहा है. ऐसे में दवा उद्योग का मौजूदा परिदृश्य भारत के लिए चुनौती और अवसर दोनों पेश करता है. भारत के पास भी ये मौका है कि वो अपने टैलेंट पूल, रोगियों के डेटासेट और जैव प्रौद्योगिकी नीतियों का फायदा उठाकर एआई की मदद से दवा की खोज को आगे बढ़ाए. ऐसा करके भारत 'दुनिया की फार्मेसी' से नवाचार-आधारित दवा प्रणाली में बदलाव ला सकता है.
दवाओं की खोज ज़रूरी है, क्योंकि नई उभरती बीमारियां और दवा प्रतिरोध मौजूदा उपचारों को चुनौती दे रहे हैं. रोग तंत्र और स्वास्थ्य सेवाओं की ज़रूरतों को लेकर समझ बढ़ रही है, और किफायती इलाज की मांग हो रही है. किसी भी शोध संगठन या कंपनी के लिए, किसी दवा को क्लिनिकल ट्रायल के पहले चरण तक पहुंचाना भी एक बड़ी उपलब्धि है. हालांकि, 90 प्रतिशत दवाएं क्लिनिकल ट्रायल के पहले, दूसरे या तीसरा चरण में नाकाम हो जाते हैं. इनमें से ज़्यादातर विफलताएं विषाक्तता और प्रभावकारिता संबंधी समस्याओं की वजह से पहले ही चरण में सामने आ जाती हैं. ये दिखाता है कि एक आदर्श दवा की पहचान के लिए कितने कठोर परीक्षण की ज़रूरत होती है.
भारत के पास भी ये मौका है कि वो अपने टैलेंट पूल, रोगियों के डेटासेट और जैव प्रौद्योगिकी नीतियों का फायदा उठाकर एआई की मदद से दवा की खोज को आगे बढ़ाए. ऐसा करके भारत 'दुनिया की फार्मेसी' से नवाचार-आधारित दवा प्रणाली में बदलाव ला सकता है.
बढ़ती उम्र और उभरती बीमारियों के कारण, 2027 तक दवाओं पर वैश्विक खर्च 1.9 ट्रिलियन डॉलर से ज़्यादा होने की संभावना है, इसलिए दवाओं की खोज में नवाचार की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है. नई दवाओं के विकास की प्रक्रिया बेहद जटिल और श्रमसाध्य है, कई बार तो इस काम में दशकों लग जाते हैं. ये प्रक्रिया ट्रायल-एंड-ऐरर यानी परीक्षण-और-त्रुटि प्रयोगों पर बहुत ज़्यादा निर्भर करती है. ऐसे में एआई-आधारित प्रौद्योगिकी बड़े डेटासेट के सटीक और कुशल विश्लेषण को सक्षम करके इसमें मददगार साबित हो सकती हैं. नई दवा के विशेषताओं और कार्यों की भविष्यवाणी करके, बेहतर परीक्षण डिज़ाइन के माध्यम से एआई क्लिनिकल ट्रायल की प्रभावकारिता को बढ़ाकर दवाओं की खोज के परिदृश्य को बदलने की काफ़ी क्षमता रखता है.
एआई-जीवन विज्ञान में सफलता तब मिली जब डीपमाइंड के अल्फाफोल्ड ने 2018 में अमीनो एसिड सीक्वेंस से प्रोटीन संरचनाओं की भविष्यवाणी की. इसके बाद कोविड-19 महामारी के दौरान mRNA वैक्सीन अनुसंधान में एआई का इस्तेमाल किया गया. 2023 में मल्टी-ओमिक्स डेटा के साथ एआई को एकीकृत करके व्यक्तिगत चिकित्सा का विकास किया गया. इसने जीवन विज्ञान नवाचार में एक नए चरण को उत्प्रेरित किया. अब दवा कंपनियां स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्र में समाधानों का लाभ उठाने के लिए एआई तकनीकी से जुड़ी फर्मों के साथ साझेदारी कर रही हैं. उदाहरण के लिए, एली लिली और नोवार्टिस ने गूगल डीप माइंड की अल्फाफोल्ड तकनीक को आगे बढ़ाने के लिए आइसोमॉर्फिक लैब्स के साथ साझेदारी की है. लाइफ बायोलॉजी पर केंद्रित एआई स्टार्टअप कंपनी इवोल्यूशनरीस्केल ने 2024 में 142 मिलियन डॉलर का वित्तीय फंड जुटाया है. अब वो दवाइयों की खोज के अनुसंधान के लिए अमेज़न वेब सर्विसेज और एनवीआईडीआईए (NVIDIA) के साथ साझेदारी कर रही है. इसी तरह सनोफी कंपनी भी बेंचसाइ के जेनरेटिव एआई प्लेटफॉर्म, एसेंड - को लागू करेगी. सनोफी की ग्लोबल साइट्स पर ऐसे रोग जीव विज्ञान के लिए इस विशिष्ट बताया गया है.
एआई-जीवन विज्ञान में सफलता तब मिली जब डीपमाइंड के अल्फाफोल्ड ने 2018 में अमीनो एसिड सीक्वेंस से प्रोटीन संरचनाओं की भविष्यवाणी की. इसके बाद कोविड-19 महामारी के दौरान mRNA वैक्सीन अनुसंधान में एआई का इस्तेमाल किया गया.
दुनिया की पहली पूरी तरह से जनरेटिव एआई-आधारित दवा, रेंटोसर्टिब, इंसिलिको मेडिसिन द्वारा विकसित की गई थी. ये कंपनी दवाइयों की स्क्रीनिंग के लिए पूरी तरह से एआई-संचालित दवा खोज प्लेटफ़ॉर्म का इस्तेमाल करती है. एस्ट्राज़ेनेका भी, बेनेवोलेंट एआई की मदद से अपनी दवा खोज की समय-सीमा को कम करने में कामयाब रही. इसके अलावा, रोश ने दवा की विषाक्तता को समझने के लिए ऑर्गेनॉइड-ऑन-चिप का उपयोग किया. एआई का इस्तेमाल कर उसने गैर-पशु मॉडल-आधारित परीक्षण के लिए खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) आधुनिकीकरण अधिनियम 2.0 का फायदा उठाया. 2024 में, भारत की ऑरिजीन कंपनी ने दवा विकास की समय-सीमा को 35 प्रतिशत तक कम करने के लिए एक एआई/मशीन लर्निंग (एमएल)-सक्षम दवा खोज प्लेटफ़ॉर्म पेश किया. ये एक बड़ी सफलता है.
चैटजीपीटी जैसे ज्यादातर लार्ज लर्निंग मॉडल (एलएलएम) शोधकर्ताओं को मेडिकल सेक्टर से जुड़ी जानकारियां, बायोइंफोर्मेटिक्स, सांख्यिकी और अक्सर प्रयोगशाला सहायक के रूप में मदद मुहैया कराते रहे हैं. हालांकि, चैन ज़करबर्ग का आरबायो एक ऐसा एलएलएम है, जो उपयोगकर्ताओं को जटिल चुनौतियां पेश करने में सक्षम बनाता है. एआई-आधारित सेलुलर मॉडल कोशिका व्यवहार का डिजिटल मॉडल प्रदान करते हैं, जिससे संभावित रूप से ये जानकारी मिलती है कि दवाएं, कोशिका व्यवहार को कैसे प्रभावित करती हैं. हाल ही में, गूगल का C2S-स्केल 27B फाउंडेशन मॉडल विकसित किया गया है. ये जेम्मा एआई तकनीकी पर आधारित है और येल विश्वविद्यालय के साथ मिलकर बनाया गया है. ये मॉडल कैंसर कोशिका व्यवहार पर महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है, जिससे कैंसर की दवा चिकित्सा के लिए नए रास्ते खोजने में मदद मिल सकती है.
चीन जीवन विज्ञान में एक वैश्विक प्रतिस्पर्धी के रूप में उभर रहा है और तेज़ी से 'डीपसीक मूमेंट' का उदाहरण बन रहा है. वर्तमान में, चीन एआई-संचालित दवा खोज पेटेंट में अग्रणी है. वैश्विक दवा कंपनियों—सनोफी, फाइज़र, एस्ट्राजेनेका और एली लिली—और चीनी एआई बायोटेक फर्मों के बीच अरबों डॉलर के सौदों ने चीन की दवा खोज क्षमताओं को बढ़ावा दिया है. इससे जेनेरिक निर्माण से लेकर नवीन दवा विकास की ओर बदलाव का संकेत मिलता है. चीन की तरक्की को जीवन विज्ञान के अनुसंधान और विकास में उल्लेखनीय सरकारी और निजी निवेश से भी मदद मिल रही है. चीन में विनिर्माण क्षमता का विस्तार करने के लिए समर्पित नीतियां, 2025 की पंचवर्षीय योजना में एआई को प्राथमिकता, एआई प्रशिक्षण के लिए विशाल रोगी डेटासेट तक पहुंच और 'K- वीज़ा' जैसी बौद्धिक नीतियों फायदा मिल रहा है. चीन में अब अलग-अलग विषयों में टैलेंट पूल को बढ़ावा मिल रहा है. क्रांतिकारी प्रौद्योगिकियों के लिए समर्पित राष्ट्रीय उद्यम पूंजी मार्गदर्शन निधि ने चीन को इस क्षेत्र का बड़ा खिलाड़ी बना दिया है. एक जीवंत स्टार्ट-अप इकोसिस्टम ने चीन को एआई की मदद से दवा खोज में अग्रणी देश के रूप में स्थापित किया है.
दूसरी ओर, जीवन विज्ञान में वैश्विक स्तर पर अग्रणी देश माने जाने वाला अमेरिका ऐसे संरचनात्मक परिवर्तनों से गुज़र रहा है, जो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) और दवा खोज में नवाचार के गठजोड़ को बाधित करने का ख़तरा पैदा कर रहे हैं. राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान और राष्ट्रीय विज्ञान फ़ाउंडेशन को मिलने वाले अनुदान में कटौती, सख़्त वीज़ा नियम, और दवा कंपनियों के पेटेंट ख़त्म होने से राजस्व को हो रहा नुकसान इस क्षेत्र में नवाचार में मंदी के कुछ उदाहरण मात्र हैं.
भारत के लिए, ये घटनाक्रम एक चुनौती और अवसर दोनों ही पेश करते हैं. जैसे-जैसे चीन अपनी एआई-संचालित दवा खोज क्षमताओं को मज़बूत कर रहा है,वैसे-वैसे वैश्विक तकनीकी फर्म और फार्मा कंपनियां निवेश के अवसरों की तलाश कर रही हैं. भारत को एआई-सहायता से होने वाली दवाओं के खोज के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए रणनीतिक रूप से अपने टैलेंट पूल, रोगी डेटासेट और जीवन विज्ञान नीति, जैसे कि BioE3, का फायदा उठाना होगा.
भारत ने अगस्त 2025 में भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) में जीनोमिक्स इंडिया सम्मेलन के दौरान पहली एआई-बायोलॉजी संगोष्ठी की शुरुआत के साथ ही जीवन विज्ञान के साथ एआई को एकीकृत करने की क्षमता को पहचाना.
भारत ने अगस्त 2025 में भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) में जीनोमिक्स इंडिया सम्मेलन के दौरान पहली एआई-बायोलॉजी संगोष्ठी की शुरुआत के साथ ही जीवन विज्ञान के साथ एआई को एकीकृत करने की क्षमता को पहचाना. वहीं तेलंगाना में आयोजित दुनिया के अग्रणी जीवन विज्ञान कार्यक्रम, बायो एशिया 2025, में एआई को प्रमुखता से दिखाया गया. जैव प्रौद्योगिकी विभाग और बायोटेक्नोलॉजी इंडस्ट्री रिसर्च असिस्टेंट काउंसिल (बीआईआरएसी) ने भारत की BioE3 नीति को आगे बढ़ाने के लिए बायो-एआई पर एक कार्यशाला का आयोजन किया. भारत में वैश्विक क्षमता केंद्र (जीसीसी) दवा विकास के लिए एआई को अपनाएंगे, जबकि विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईज़ेड) और जैव प्रौद्योगिकी पार्क के लिए बुनियादी ढांचा स्थापित करने में मदद मुहैया कराएंगे. इसके अलावा, कर्नाटक और तेलंगाना में जीवन विज्ञान के लिए जीसीसी के केंद्र बनने के लिए तैयार हैं. यहां की राज्य सरकारें अनुसंधान एवं विकास के लिए उत्कृष्टता केंद्रों (सेंटर ऑफ एक्सिलेंस) की स्थापना में सहयोग दे रही हैं. गौरतलब बात ये है कि हैदराबाद स्थित नोवार्टिस बायोम ने फार्मा अनुसंधान एवं विकास में एआई को एकीकृत करने पर ध्यान केंद्रित किया है. इसके अलावा, ब्रिस्टल मायर्स स्क्विब ने दवा खोज में एआई के लिए एक जीसीसी शुरू करने के लिए 100 मिलियन डॉलर का निवेश किया है. हाल ही में, गूगल की मूल कंपनी, अल्फाबेट ने भारत भर में एआई नवाचार को बढ़ावा देने के लिए विशाखापत्तनम में एक एआई हब में 15 अरब डॉलर के निवेश की घोषणा की. इसके अलावा, भारत के पास दूसरा सबसे बड़ा जेन-एआई स्टार्टअप हब होने के कारण, जीवन विज्ञान में एआई एप्लीकेशंस का विस्तार होने की संभावना है. फरवरी 2026 में एआई इम्पैक्ट समिट की मेज़बानी की तैयारी के साथ, ये कदम इस बात का संकेत देते हैं कि भारत दवा खोज सहित एआई एप्लीकेशन को बढ़ाने और अपनी वैश्विक स्थिति को मज़बूत करने के लिए अच्छी स्थिति में है.
दवाओं ती खोज में एआई की कई चुनौतियों और सीमाओं पर विचार करने की ज़रूरत है. प्रशिक्षण उद्देश्यों, प्रयोगात्मक परिणामों की सटीकता और विश्वसनीयता सुनिश्चित करने के लिए बड़ी संख्या में उच्च-गुणवत्ता और सुसंगत डेटा की ज़रूरत है. अगर कुछ जनसांख्यिकीय समूहों का प्रतिनिधित्व कम है, तो डेटासेट में पूर्वाग्रह आने से ये स्वास्थ्य सेवा असमानताओं को बढ़ा सकता है. इससे इन समूहों में दवाओं की खराब प्रभावकारिता या सुरक्षा संबंधी समस्याएं पैदा हो सकती हैं. अलग-थलग डेटा साझाकरण और सहयोग में बाधा आ सकती है. असंगत डेटा से 'मतिभ्रम' या भ्रामक परिणाम सामने आ सकते हैं. मशीन लर्निंग की 'ब्लैकबॉक्स समस्या' एआई-संचालित निर्णयों की निष्पक्षता और विश्वसनीयता पर सवाल उठाती है. ब्लैकबॉक्स समस्या का अर्थ ये समझने में असमर्थता है कि डीप लर्निंग अपने फैसले कैसे लेती है.
कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि स्वास्थ्य सेवा में एआई का इस्तेमाल अद्वितीय नैतिक, कानूनी और सामाजिक विचार पेश करता है. सामूहिक रूप से, ये चुनौतियां दिखाती हैं कि एआई-संचालित दवा खोज के लिए नियामक और जवाबदेही ढांचे की ज़रूरत है.
इसके अलावा, प्रतिकूल हमलों का ज़ोखिम स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए एक बड़ा ख़तरा पैदा करता है. प्रतिकूल हमलों में प्रशिक्षण सेटों में भ्रामक डेटा डालकर एआई मॉडल में हेरफेर किया जाता है. कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि स्वास्थ्य सेवा में एआई का इस्तेमाल अद्वितीय नैतिक, कानूनी और सामाजिक विचार पेश करता है. सामूहिक रूप से, ये चुनौतियां दिखाती हैं कि एआई-संचालित दवा खोज के लिए नियामक और जवाबदेही ढांचे की ज़रूरत है. ऐसा होने पर ही ये सुनिश्चित हो सकता है कि इसका इस्तेमाल व्यापक, मज़बूत हो और सुरक्षित, नैतिक और कुशल तरीके से रोगी परिणामों में सुधार के व्यापक लक्ष्य को हासिल कर सके.
वैश्विक स्तर पर एआई के लिए नियामक ढांचे विकसित किए जा रहे हैं. हालांकि, एआई और जीवन विज्ञान के तालमेल के लिए व्यापक ढांचे अभी सीमित ही बने हुए हैं. जहां यूरोपीय संघ और जापान में एआई के विकास और उपयोग को नियंत्रित करने वाले कानून हैं, वहीं अमेरिकी एफडीए ने एआई-संचालित चिकित्सा उपकरणों और दवाओं समेत जैविक उत्पादों के लिए एआई के इस्तेमाल पर दिशानिर्देश जारी किए हैं.
भारत ने भी सभी के लिए एआई की राष्ट्रीय रणनीति, डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम, 2023 और आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन के माध्यम से इस क्षेत्र में प्रगति की है. फिर भी, एआई और जीवन विज्ञान इस्तेमाल के लिए अभी भी कुछ और रूपरेखाएं तैयार करने की ज़रूरत है. इन नियामक ढांचों की स्थापना भारत को बढ़ते वैश्विक मानकों के साथ सही तरीके से जोड़ने के लिए अनिवार्य है. तभी ये सुनिश्चित हो सकेगा कि एआई-संचालित दवा खोज पहल प्रतिस्पर्धी, नवाचार वाली और नैतिक रूप से मज़बूत बनी रहें.
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और दवाओं की खोज का मिश्रण भारत को अपने फार्मास्युटिकल क्षेत्र को पुनर्परिभाषित करने का एक मौका मुहैया करा रहा है. एक तरफ चीन, सरकारी और निजी निवेश केंद्रित नीतियों के साथ तेज़ी से आगे बढ़ रहा है, वहीं दूसरी तरफ अमेरिका संरचनात्मक बाधाओं से जूझ रहा है. इस परिस्थिति में भारत की ताक़त उसके बढ़ते टैलेंट इकोसिस्टम, जैव प्रौद्योगिकी नीतियों और अंतर्राष्ट्रीय साझेदारियों में निहित है. भारत को एआई के पारदर्शी, सुरक्षित और निष्पक्ष इस्तेमाल को सुनिश्चित करने के लिए बढ़ते वैश्विक मानकों के अनुरूप मज़बूत नियामक ढांचे स्थापित करने होंगे. नवाचार को शासन के साथ जोड़कर, भारत दवा खोज में तेज़ी ला सकता है, समान स्वास्थ्य सेवा समाधानों को बढ़ावा दे सकता है. इतना ही नहीं मज़बूत इकोसिस्टम के दम पर भारत वैश्विक जीवन विज्ञान परिदृश्य में एक प्रतिस्पर्धी बढ़त हासिल कर सकता है.
लक्ष्मी रामाकृष्णन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक डिप्लोमेसी में एसोसिएट फेलो हैं.
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Lakshmy is an Associate Fellow with ORF’s Centre for New Economic Diplomacy. Her work focuses on the intersection of biotechnology, health, and international relations, with a ...
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