जैसे-जैसे कोविड-19 ने दुनिया भर के देशों को अपनी चपेट में लेना शुरू किया, सरकारें उसके जवाब के तौर पर लॉकडाउन का सहारा लेने लगीं. लॉकडाउन के चलते लगी बंदिशों ने जनता को डिजिटल बाज़ारों की ओर मुख़ातिब कर दिया. वैश्विक तौर पर डिजिटल माध्यमों को अपनाने की दर में 2020 के सिर्फ़ दो महीनों में पांच वर्षों के बराबर का उछाल आ गया. भारत ने 2025 तक 1 खरब अमेरिकी डॉलर की डिजिटल अर्थव्यवस्था बनने का लक्ष्य रखा है. 2017-18 के 20 करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर के मुक़ाबले ये महत्वाकांक्षी लक्ष्य एक विशाल बढ़त होगी.
कोविड-19 के प्रभावों के चलते टेली-हेल्थ कंसल्टेशंस में 500 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई. ऑनलाइन शॉपिंग की ओर लोगों के बढ़ते रुझान से बड़ा ढांचागत बदलाव सामने आया. इसी का नतीजा है कि ई-रिटेल अब भारत के 95 प्रतिशत ज़िलों तक पहुंच गया है. इतना ही नहीं आज डिजिटल पेमेंट का आकार प्रतिदिन 10 करोड़ दैनिक लेन-देन के स्तर के पार चला गया है. हालांकि, इस सिलसिले में सिक्के का दूसरा पहलू भी है. दरअसल इस बदलाव ने एक और रुझान को काफ़ी बड़ा बना दिया है: वो है डिजिटल विभाजन का लैंगिक स्वरूप.
भारतीय पुरुषों के मुक़ाबले भारतीय महिलाओं के पास मोबाइल फ़ोन होने की संभावना 15 फ़ीसदी कम है. जबकि पुरुषों की अपेक्षा 33 प्रतिशत कम महिलाओं द्वारा मोबाइल इंटरनेट सेवाओं के इस्तेमाल किए जाने की संभावना है. 2020 में कुल वयस्क महिला आबादी में से 25 प्रतिशत के पास स्मार्ट फ़ोन थे जबकि पुरुषों में ये आंकड़ा 41 प्रतिशत था.
भारतीय पुरुषों के मुक़ाबले भारतीय महिलाओं के पास मोबाइल फ़ोन होने की संभावना 15 फ़ीसदी कम है. जबकि पुरुषों की अपेक्षा 33 प्रतिशत कम महिलाओं द्वारा मोबाइल इंटरनेट सेवाओं के इस्तेमाल किए जाने की संभावना है. 2020 में कुल वयस्क महिला आबादी में से 25 प्रतिशत के पास स्मार्ट फ़ोन थे जबकि पुरुषों में ये आंकड़ा 41 प्रतिशत था. भारत की तुलना बांग्लादेश से करें तो वहां मोबाइल पर मालिक़ाना हक़ के मामले में महिलाओं और पुरुषों के बीच का लैंगिक अंतर 24 प्रतिशत और मोबाइल के इस्तेमाल के मामले में 41 प्रतिशत है. पाकिस्तान में ये लैंगिक अंतर और भी ऊंचा था. वहां मोबाइल पर मालिक़ाना हक़ में लैंगिक तौर पर 34 प्रतिशत और मोबाइल इस्तेमाल में 43 प्रतिशत का अंतर था. अगर समूचे दक्षिण एशिया की बात करें तो मोबाइल पर स्वामित्व के मामले में लैंगिक अंतर 26 प्रतिशत से घटकर 19 प्रतिशत हो गया. दूसरी ओर मोबाइल इंटरनेट के इस्तेमाल के मामले में महिलाओं और पुरुषों के बीच का 67 प्रतिशत से 36 प्रतिशत रह गया. हालांकि, इन सकारात्मक बदलावों के बावजूद 2017 से 2020 के बीच के आंकड़े ये बताते हैं कि दक्षिण एशिया में मोबाइल के मामले में लैंगिक असमानता दुनिया में सबसे ज़्यादा है.
हाल के वर्षों में एशिया-प्रशांत क्षेत्र में इंटरनेट के इस्तेमाल को लेकर भारत का लैंगिक अंतर सबसे ज़्यादा था. एक ओर 25 फ़ीसदी पुरुषों तक मोबाइल इंटरनेट की पहुंच थी तो वहीं सिर्फ़ 15 प्रतिशत महिलाओं को ही इंटरनेट की सुविधा हासिल थी. इस तरह मोबाइल इंटरनेट तक पहुंच के मामले में लैंगिक विषमता 40.4 प्रतिशत के स्तर पर थी. एशिया के दूसरे देशों के साथ तुलना करने पर हम पाते हैं कि पाकिस्तान में लैंगिक अंतर 39.4 प्रतिशत, इंडोनेशिया में 11.1 प्रतिशत और चीन में 2.3 प्रतिशत थी.
भारत में महिलाओं को अक्सर तीन मोर्चों पर नुकसानदेह हालातों का सामना करना पड़ता है. डिजिटल विषमताओं का ये लैंगिक स्वरूप इन्ही परिस्थितियों का परिणाम है. इस सिलसिले में सबसे पहले शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच की खाई की बात सामने आती है. ग्रामीण क्षेत्रों में ब्रॉडबैंड का प्रसार सिर्फ़ 29 प्रतिशत है जबकि राष्ट्रीय औसत 51 प्रतिशत है. देश के राज्यों में ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं के पास मोबाइल फ़ोन होने की संभावना शहरी क्षेत्रों की महिलाओं के मुक़ाबले कम है. गोवा, केरल और पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के बीच की ये खाई दूसरे राज्यों की अपेक्षा कम चौड़ी है. दूसरी ओर पश्चिम बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में ये विभाजन सबसे ज़्यादा है. दूसरे, परिवारों के बीच आय पर आधारित डिजिटल विभाजन का भी सवाल है. भारत में मोबाइल डेटा की औसत क़ीमत प्रति जीबी 0.68 अमेरिकी डॉलर है. ऐसे में हमारे आकलन दर्शाते हैं कि हर एक जीबी डेटा के लिए निम्न-आय वाले परिवारों (2 डॉलर प्रतिदिन से कम कमाने वाले) को अपनी मासिक आय का 3 प्रतिशत ख़र्च करना होता है जबकि मध्यम आय वाले परिवारों (10 से 20 डॉलर प्रति दिन कमाने वाले) को इसके लिए अपनी मासिक आय का सिर्फ़ 0.2 प्रतिशत ही व्यय करना होता है. इसके अलावा परिवारों के भीतर बरते जाने वाले भेदभावों के चलते घर की चारदीवारी के भीतर के हालात महिलाओं को डिजिटल उपकरणों तक पहुंच बनाने से रोकते हैं. नतीजतन लिंग-आधारित डिजिटल विभाजन की समस्या और बड़ी हो जाती है.
अगर महिलाओं को मोबाइल फ़ोन पर मालिक़ाना हक़ रखने या परिवार के स्तर पर मोबाइल उपकरण के इस्तेमाल की इजाज़त मिल भी जाए तो भी उनकी ऑनलाइन गतिविधियों पर अक्सर पुरुष रिश्तेदारों की नज़र रहती है. दूसरे शब्दों में उनकी ऑनलाइन गतिविधियां पुरुषों की निगरानी में ही संचालित होती हैं
समाज में व्याप्त स्टीरियोटाइप
बहरहाल, अगर महिलाओं को मोबाइल फ़ोन पर मालिक़ाना हक़ रखने या परिवार के स्तर पर मोबाइल उपकरण के इस्तेमाल की इजाज़त मिल भी जाए तो भी उनकी ऑनलाइन गतिविधियों पर अक्सर पुरुष रिश्तेदारों की नज़र रहती है. दूसरे शब्दों में उनकी ऑनलाइन गतिविधियां पुरुषों की निगरानी में ही संचालित होती हैं. मोबाइल फ़ोन को शादी से पहले महिलाओं की इज़्ज़त के लिए जोख़िम के तौर पर देखा जाता है. वहीं शादी के बाद एक महिला द्वारा फ़ोन के इस्तेमाल को परिवार के सदस्यों की देखभाल से जुड़ी ज़िम्मेदारियों के रास्ते की बाधा समझा जाता है. आम तौर पर महिलाएं सार्वजनिक स्थानों पर अपने फ़ोन पर बात करने से परहेज़ करती हैं. मौजूदा सामाजिक चलनों और अपने बारे में नकारात्मक धारणा बन जाने के डर के चलते महिलाएं फ़ोन पर किसी भी तरह की बातचीत अपने घर के भीतर ही करना पसंद करती हैं. कोविड-19 के प्रसार के चलते बढ़ती डिजिटल अर्थव्यवस्था के बावजूद मौजूदा सामाजिक ढांचे के बरकरार रहते महिलाएं खुद को इस नई व्यवस्था से अलग-थलग महसूस कर रही हैं. ख़ासतौर से ऑनलाइन स्कूलिंग, कौशल प्रशिक्षण, उद्यमिता और रोज़गार से जुड़े मौकों के सिलसिले में ये विभाजन स्पष्ट तौर पर महसूस किया जा सकता है.
मार्च 2020 से फ़रवरी 2021 के बीच भारतीय स्कूल 62 प्रतिशत शिक्षण-दिवसों में पूरी तरह से बंद रहे जबकि 38 प्रतिशत दिनों में उनकी गतिविधियां आंशिक तौर पर ही संचालित की जा सकीं. स्कूलों की इस बंदी ने 32 करोड़ छात्रों के लिए स्कूली शिक्षा बीच में ही छोड़कर बाहर निकल जाने का जोखिम खड़ा कर दिया. इनमें 15.8 करोड़ लड़कियां शामिल हैं. इन छात्रों के ड्रॉप आउट होने का ख़तरा है. ऐसे में शिक्षा ग्रहण करने के लिहाज़ से दूसरों के मुक़ाबले इन छात्रों के काफी पीछे छूट जाने की आशंका है. इस कालखंड में सरकारी और निजी स्कूलों से जुड़े तक़रीबन तीन चौथाई ग्रामीण छात्रों ने व्हाट्सऐप के ज़रिए शिक्षण सामग्री हासिल की. इसके साथ ही 10 में से क़रीब-क़रीब एक अभिभावक ने ऑनलाइन पठन-पाठन के लिए स्मार्टफ़ोन ख़रीद लिए. बहरहाल, निकोरे एसोसिएट्स में हमारी टीम के साथ परामर्श सत्रों के दौरान इन मसलों से जुड़े कई लोगों ने इस बात को रेखांकित किया कि कोविड-19 के कालखंड में परिवारों ने पुरुष सदस्यों के प्रति अपनी पसंदगी का ख़ासतौर से इज़हार किया. दूसरे शब्दों में परिवार की महिला सदस्यों की अपेक्षा पुरुष सदस्यों को वरीयता दी गई. परिवारों ने ये सुनिश्चित किया कि आय से जुड़ी मुश्किलों के बावजूद ख़ासतौर से उनके बेटों को डिजिटल साजोसामान और डेटा पैक हासिल हो जाएं. हालांकि उन्हीं परिवारों ने अपनी बेटियों के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की.
लैंगिक स्तर पर इस तरह के डिजिटल विभाजन के चलते महिलाएं और बच्चियां सरकारों की सामाजिक सुरक्षा लाभ वाली योजनाओं तक भी अपनी पहुंच नहीं बना पातीं. इतना ही नहीं वो अपने लिए कोविड-19 वैक्सीन के स्लॉट तक बुक कर पाने में सक्षम नहीं हो पा रही हैं.
डिजिटल निरक्षरता और डिजिटल प्लैटफ़ॉर्मों को लेकर अज्ञानता ने कोविड-19 के बाद के कालखंड में महिला उद्यमियों को ऑनलाइन बाज़ार में प्रवेश करने के रास्ते में रोड़े अटकाए. निकोरे एसोसिएट्स द्वारा किए गए स्टेकहोल्डर्स कंसल्टेशंस में हमने पाया कि कोविड-19 के चलते भौतिक रूप से मेलों और प्रदर्शनियों के रद्द हो जाने के बावजूद पश्चिम बंगाल के झुड़ी-निर्माता (बांस कारीगर) ऑनलाइन प्लैटफ़ॉर्मों का रुख़ करने से हिचक रहे थे. इसके पीछे की वजह सोशल मीडिया और डिजिटल मार्केटिंग माध्यमों के बारे में उनकी सीमित जानकारी थी. इतना ही नहीं डेटा की ऊंची लागतों ने भी उनका रास्ता रोक रखा था. महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों की महिला स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) के सदस्यों ने बताया कि उनके समुदाय की महिलाएं निजी ज़रूरतों के लिए तो मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल करती हैं लेकिन वो ऑनलाइन वित्तीय लेन-देन कर पाने में सक्षम नहीं हैं. दूसरे शब्दों में उन्होंने अपने कारोबार के लिए मोबाइल फ़ोन का प्रयोग नहीं किया.
लैंगिक स्तर पर इस तरह के डिजिटल विभाजन के चलते महिलाएं और बच्चियां सरकारों की सामाजिक सुरक्षा लाभ वाली योजनाओं तक भी अपनी पहुंच नहीं बना पातीं. इतना ही नहीं वो अपने लिए कोविड-19 वैक्सीन के स्लॉट तक बुक कर पाने में सक्षम नहीं हो पा रही हैं. इस सिलसिले में महाराष्ट्र के समुदाय आधारित संगठनों (सीबीओ) द्वारा हमें दी गई जानकारी की मिसाल ले सकते हैं. दरअसल कोविड-19 की दूसरी लहर के आर्थिक कुप्रभावों से निपटने के मकसद से महाराष्ट्र सरकार ने अप्रैल 2021 में घरेलू कामगारों के लिए नकद सहायता योजना की घोषणा की थी. बहरहाल सीबीओ ने हमें बताया कि कई महिलाएं इस सहायता से वंचित रह गईं क्योंकि एक तो वो सरकारी पोर्टलों पर रजिस्टर्ड नहीं थीं और दूसरे उन्हें ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया के बारे में कुछ अता-पता नहीं था. अगर हम कोविड-19 टीकाकरण की बात करें तो जैसे ही इस अभियान को व्यापक जनसमूह के लिए खोला गया, इसमें भी लैंगिक विषमता की खाई और चौड़ी हो गई. पुरुषों के मुक़ाबले टीका लगा चुकी महिलाओं का अनुपात मार्च 2021 के अंत में 0.96 था जो जून 2021 के अंत में गिरकर 0.9 हो गया. यहां ग़ौरतलब है कि जून 2021 तक कोविड-19 टीके के लिए ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन अनिवार्य था. लैंगिक तौर पर हम जो अंतर देख रहे हैं उसके पीछे की एक बड़ी वजह यही रही है.
महिलाओं को ऑनलाइन प्लैटफ़ॉर्मों और डिजिटल बाज़ार से रुबरु कराकर उनका इस्तेमाल सिखाने के लिए कई “डिजिटल दीदियों” को प्रशिक्षित कर उनकी मदद ली गई. ऐसे हाईब्रिड ट्रेनिंग कार्यक्रमों और लक्ष्य बनाकर संचालित गतिविधियों की वजह से महिला उद्यमियों ने व्हॉट्सऐप आधारित ऑनलाइन बाज़ार में प्रवेश किया.
समुदाय आधारित वित्तीय मदद योजना
बहरहाल, यहां एक सकारात्मक और उत्साह बढ़ाने वाली चर्चा भी ज़रूरी है. दरअसल, सामुदायिक स्तर पर डिजिटल साक्षरता बढ़ाने और डिजिटल उपकरणों तक पहुंच बनाने के मकसद से वित्तीय मदद दिए जाने को लेकर सतत प्रयास किए जाने से महिलाओं की आजीविका से जुड़े हालातों में सुधार आते हैं. इस बात के कई उदाहरण भी मिलते हैं. महाराष्ट्र में समुदाय-आधारित वित्तीय सेवा से जुड़े उद्यम मन देशी फ़ाउंडेशन ने महिलाओं को स्मार्टफ़ोन ख़रीदने में मदद पहुंचाने के लिए कम लागत वाली ईएमआई योजना शुरू की. इसका परिणाम ये हुआ कि समुदाय की तक़रीबन 80 फ़ीसदी महिलाओं ने इस योजना का लाभ उठाकर स्मार्टफ़ोन ख़रीदे. महिलाओं को ऑनलाइन प्लैटफ़ॉर्मों और डिजिटल बाज़ार से रुबरु कराकर उनका इस्तेमाल सिखाने के लिए कई “डिजिटल दीदियों” को प्रशिक्षित कर उनकी मदद ली गई. ऐसे हाईब्रिड ट्रेनिंग कार्यक्रमों और लक्ष्य बनाकर संचालित गतिविधियों की वजह से महिला उद्यमियों ने व्हॉट्सऐप आधारित ऑनलाइन बाज़ार में प्रवेश किया. कोविड-19 के दौरान मास्क, प्रॉसेस्ड फ़ूड और कपड़ों समेत तमाम दूसरे उत्पादों की बिक्री के लिए महिलाओं ने ये तौर-तरीक़ा अपनाया. गुजरात स्थित ह्युमन डेवलपमेंट एंड रिसर्च सेंटर ने निम्न-आय वर्गों के परिवारों की महिलाओं को उधार पर मोबाइल फ़ोन देने के लिए एक “मोबाइल लाइब्रेरी” की शुरुआत की. ग़रीब महिलाएं ऑनलाइन प्रशिक्षण सत्रों में हिस्सा लेने के लिए यहां से मोबाइल उधार ले सकती हैं. महाराष्ट्र राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन ने महिला स्वयं सहायता समूहों के लिए मास्क उत्पादन और डिजिटल मार्केटिंग वेबसाइट्स पर उनके कारोबार के बारे में प्रशिक्षण को लेकर ऑनलाइन कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन किया. इतना ही नहीं इस प्रयास के तहत अमेज़न के साथ भागीदारी की सुविधा भी बनाई गई ताकि महिला उद्यमी महामारी की आर्थिक मार झेल सकें और उससे उबरकर बाहर आ सकें.
समुदाय आधारित संगठनों यानी सीबीओ के साथ स्टेकहोल्डर्स कंसल्टेशंस से ये बात भी सामने आई कि फ़ोन तक पहुंच बढ़ने से ख़ासतौर से ग्रामीण इलाक़ों में आजीविका में होने वाली मदद के अलावा कई और तरह के भी फ़ायदे मिलते हैं. मोबाइल फ़ोन पर मालिक़ाना हक़ होने से ग्रामीण महिलाओं के लिए महामारी के दौरान परामर्श और स्वास्थ्य संसाधन हासिल करने को लेकर सीबीओ के साथ संपर्क करना आसान हो गया. अगर ग्रामीण महिलाओं के पास स्मार्टफ़ोन की सुविधा हो तो उसके द्वारा कोविड-19 के लक्षणों और इलाजों के बारे में इंटरनेट पर सर्च कर अतिरिक्त जानकारी जुटाए जाने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं. इतना ही नहीं वो ज़रूरी जानकारियां जुटाने के लिए अनेक स्रोतों को खंगाल सकती हैं. स्मार्टफ़ोन होने पर उनके लिए इंटरनेट का असीमित संसार खुल जाता है.
बहरहाल अगर भविष्य की बात करें तो सरकारों और निजी क्षेत्र से जुड़े संगठनों को समुदाय आधारित इन संस्थाओं की मदद करनी चाहिए. लैंगिक आधार पर डिजिटल विषमताओं से निपटने के लिए समुदायों की अगुवाई में डिजिटल साक्षरता और डिजिटल माध्यमों पर वित्तीय समावेशी कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने और उनका स्तर ऊंचा उठाने के लिए इस तरह की मदद निहायत ज़रूरी है. इस सिलसिले में तीन प्रमुख कार्ययोजनाओं पर आधारित कार्यक्रमों और पहलों को वरीयता दिए जाने की आवश्यकता है:
- मोबाइल उपकरणों तक आसानी से पहुंच की सुविधा बनाना. इसके लिए मिसाल के तौर पर स्कूल जाने वाली लड़कियों, महिला स्वास्थ्य कर्मियों (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और ऑक्ज़िलियरी नर्स मिडवाइफ़्स समेत), महिला शिक्षकों और महिला सामुदायिक नेताओं, ग्रामीण/शहरी ग़रीबों को मुफ़्त में मोबाइल/टैबलेट्स मुहैया करवाई जा सकती है. या फिर महिलाओं को स्मार्टफ़ोन की ख़रीद के लिए सस्ते दरों पर लोन उपलब्ध करवाए जा सकते हैं. इस सिलसिले में कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी और सरकारी योजनाओं का सहारा लिया जा सकता है.
- महिलाओं और लड़कियों के लिए डिजिटल साक्षरता से जुड़े कार्यक्रम. इसके तहत प्रधानमंत्री ग्रामीण डिजिटल साक्षरता अभियान योजना में सार्वजनिक निवेश को मौजूदा 300 करोड़ रु (वित्त वर्ष 2021-22) से बढ़ाने की ज़रूरत है. इसमें महिलाओं और लड़कियों के लिए 40 प्रतिशत रकम रखी जाती है. इसके अलावा ख़ासतौर से महिला उद्यमियों की ज़रूरतों के हिसाब से डिजिटल मार्केटिंग और डिजिटल पेमेंट्स के लिए तैयार किए गए डिजिटल ट्रेनिंग कोर्स और स्कूली पाठ्यक्रमों में डिजिटल साक्षरता को जोड़ना शामिल है.
- भारतनेट कार्यक्रम पर तेज़ी से अमल के ज़रिए ग्रामीण इलाक़ों में डिजिटल कनेक्टिवटी में निवेश करना. ग्रामीण क्षेत्रों में ब्रॉडबैंड कनेक्टिविटी मुहैया करवाकर गांवों के स्तर पर हाई स्पीड इंटरनेट कनेक्टिविटी के हब या अड्डों की स्थापना करना.
हालांकि, इसमें कोई शक़ नहीं है कि भारत में बड़ी तेज़ी से डिजिटाइज़ेशन हो रहा है. ऐसे में देश की महिलाओं को इन वर्चुअल संवादों में पिछड़ने नहीं दिया जा सकता. राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में प्रभावी रूप से योगदान देने के लिए इन महिलाओं तक स्मार्टफ़ोन और इंटरनेट तक समान रूप से पहुंच मुहैया कराना ज़रूरी है. ऐसे में न सिर्फ़ महिलाओं तक स्मार्टफ़ोन के मालिक़ाना हक़ का विस्तार करना बेहद आवश्यक है बल्कि डिजिटल साक्षरता कार्यक्रमों में तेज़ी लाने की भी ज़रूरत है. इससे उन्हें इंटरनेट के इस्तेमाल से जुड़े तौर-तरीक़े अपनाने में सहायता मिलेगी. साथ ही समाज में प्रचलित लैंगिक मानकों के चलते मौजूद डिजिटल भेदभावों को ख़त्म करने में भी मदद मिलेगी.
रिसर्च सहायता: श्रुति झा, उन्मुक्तमान सिंह, इशिता महाजन
नोट: सभी लेखक युवाओं की अगुवाई वाले आर्थिक शोध और नीति थिंक टैंक निकोरे एसोसिएट्स से जुड़े हुए हैं. इस लेख के कई निष्कर्ष सीबीओ, शैक्षणिक संस्थानों, सरकारी एजेंसियों, महिलाओं की अगुवाई वाले स्वयं सहायता समूहों और कॉरपोरेट सेक्टर से जुड़े संगठनों के 60 से ज़्यादा स्टेकहोल्डर्स के साथ विचार-विमर्शों से प्राप्त जानकारियों पर आधारित हैं. निकोरे एसोसिएट्स ने महिलाओं के जीवन और आजीविका पर कोविड-19 के प्रभावों को समझने के लिए सितंबर 2020 से मई 2021 के बीच किए गए अध्ययनों के ज़रिए ये तमाम जानकारियां जुटाई हैं.
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