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ट्रंप ने ऐतिहासिक गाज़ा शांति समझौता कराया, बंधकों को रिहा किया और स्थिरता की उम्मीदें जगाईं, लेकिन मध्य पूर्व में अमेरिका की असली ताकत पर सवाल अब भी बरक़रार हैं.
Image Source: Getty Images
13 अक्टूबर को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इज़राइल आए. ट्रंप की यात्रा का मक़सद एक यहूदी देश यानी इज़राइल हमास के बीच हुए शांति समझौते पर मुहर लगाना था. इसी समझौते के बाद 7 अक्टूबर 2023 से हमास की कैद में रहे 20 ज़िंदा इज़राइली बंधकों को रिहा किया गया, बदले में लगभग 2,000 फ़िलिस्तीनी बंदियों की भी जेल से रिहाई हुई. बंधकों और कैदियों का आदान-प्रदान सुचारू रूप से संपन्न हुआ, और इसने स्थायी युद्धविराम की राह में आ रही एक बड़ी बाधा को प्रभावी रूप से दूर कर दिया.
इज़राइल की संसद, नेसेट में दिए गए एक घंटे के भाषण में ट्रंप ने दावा किया, "ये आतंक और मौत के युग का अंत है".
बाद में तेल अवीव से कुछ ही दूर, शर्म अल-शेख शहर में ट्रंप के साथ इस्लामी देशों और दुनिया भर के नेता 'शांति शिखर सम्मेलन' के लिए इकट्ठा हुए. इज़राइल की संसद, नेसेट में दिए गए एक घंटे के भाषण में ट्रंप ने दावा किया, "ये आतंक और मौत के युग का अंत है". शर्म अल-शेख में, ट्रंप ने मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फतह अल-सीसी के साथ मिलकर क़तर और तुर्किए के नेताओं के साथ-साथ विभिन्न यूरोपीय राष्ट्राध्यक्षों के एक समूह के साथ बैठक की. ये बैठक नई शांति पहल के लिए एक संयुक्त मोर्चा पेश करने के लिए की गई.
हालांकि, इन हालिया सफलताओं ने मध्य पूर्व में अमेरिका की स्थायी शक्ति और इस क्षेत्र के देशों पर वाशिंगटन के प्रभाव का सवाल फिर खड़ा कर दिया है.
2023 में इज़राइल पर हमास के दुस्साहसिक आतंकवादी हमले के बाद से ग़ाज़ा पट्टी में दो साल से जंग चल रही थी, लेकिन बीते कुछ समय से हुई वार्ता के बाद, शांति की संभावना अब दूर की कौड़ी नहीं लगती. पिछले महीने तीन ऐसे प्रमुख राजनीतिक घटनाक्रम घटे, जिसके बाद युद्ध में शामिल सभी पक्षों को लगा कि अब शांति स्थापित करने पर विचार करना चाहिए. इसमें ग़ाज़ा पट्टी में 67 हज़ार से अधिक फ़िलिस्तीनियों की मौत भी शामिल है. हालांकि, ये आधिकारिक आंकड़ा है, लेकिन कई अनुमान बताते हैं कि वास्तविक संख्या इससे कहीं ज़्यादा हो सकती है.
क़तर का नेतृत्व ग़ाज़ा संकट को लेकर हो रही बातचीत पर अग्रणी मध्यस्थ रहा, और 2012 से ही वो हमास के राजनीतिक कार्यालय की मेजबानी कर रहा है.क़तर में हमास के कार्यालय की स्थापना अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा के अनुरोध पर की गई थी.
पहला घटनाक्रम: क़तर की राजधानी दोहा में हमास वार्ताकारों पर इज़राइल के हवाई हमले का व्यापक प्रभाव पड़ा. अमेरिका समेत कई देशों ने इसे इज़राइल की गलती माना. इसने ना सिर्फ अमेरिका को नाराज़ किया, बल्कि ट्रंप की तरफ से की जा रही शांति की पहल को सीधे चुनौती दी. इतना ही नहीं, क़तर पर हवाई हमले ने ट्रंप को व्यक्तिगत रूप से इज़राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू पर और ज़्यादा दबाव बनाने के लिए प्रेरित किया. ट्रंप को भी लगा की क़तर पर हमला करके इज़राइल ने अपने अधिकार क्षेत्र की सीमा लांघी है. क़तर का नेतृत्व ग़ाज़ा संकट को लेकर हो रही बातचीत पर अग्रणी मध्यस्थ रहा, और 2012 से ही वो हमास के राजनीतिक कार्यालय की मेजबानी कर रहा है.क़तर में हमास के कार्यालय की स्थापना अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा के अनुरोध पर की गई थी.
दूसरा घटनाक्रम: नेतन्याहू पर ट्रंप का दबाव, उनके दक्षिणपंथी गठबंधन सहयोगियों, खासकर वित्त मंत्री बेज़लेल स्मोट्रिच और राष्ट्रीय सुरक्षा मंत्री इतामार बेन-ग्वीर, से पड़ने वाले दबाव से कहीं ज़्यादा था. स्मोट्रिच और बेन-ग्वीर, दोनों ने पहले ही धमकी दी थी कि अगर हमास के साथ समझौता हो गया और ग़ाज़ा से हमास के सफाए का घोषित लक्ष्य हासिल नहीं हुआ, तो वो गठबंधन की नींव हिला देंगे. इन आंतरिक राजनीतिक टकरावों ने भी ग़ाज़ा युद्ध के दौरान उभरे दुर्लभ नागरिक-सैन्य तनाव में योगदान दिया.
तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात: हमास और इज़राइल भी ऐसी स्थिति में पहुंच गए थे, जहां से आगे युद्ध जारी रखना इन दोनों ही के लिए बहुत मुश्किल साबित हो रहा था. स्कॉलर डेनियल बायमैन के मुताबिक 7 अक्टूबर 2023 से लगातार इज़राइली हमले की वजह से हमास की क्षमताएं कमज़ोर हो गई थी. सैन्य शक्ति-जनसमर्थन और दूसरे मामलों में हमास की ताक़त कम होती जा रही थी, वहीं दूसरी तरफ दो साल से चल रहे संघर्ष के कारण इज़राइली समाज पर भी युद्ध की थकान हावी हो रही थी. अनिवार्य सैन्य सेवा, और घोषित 'सात मोर्चों पर युद्ध', सामाजिक तनाव पैदा कर रहे थे. आम जनता की तरफ से नेतन्याहू पर समझौता करने और बंधकों को वापस लाने का दबाव बढ़ रहा था. हालांकि, ट्रंप के नेसेट भाषण के दौरान नेतन्याहू को इस समझौते के लिए प्रशंसा मिली, लेकिन पिछले कुछ महीनों में इज़राइली सड़कों पर हज़ारों प्रदर्शनकारियों की बाढ़ आ गई थी. ये लोग नेतन्याहू से समझौता करने और अपने लोगों को वापस लाने की मांग की गई. आखिरकार अपनी जनता की मांग के आगे नेतन्याहू ने घुटने टेक दिए और हमास के साथ इस तरह के समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले पहले इज़राइली नेता बन गए.
युद्धविराम और मध्यपूर्व का भविष्य क्या?
अगर आगे की बात करें तो शांति समझौते और ग़ाज़ा के भविष्य की राह कठिन बनी हुई है. ग़ाज़ा पट्टी में हमास का दबदबा है, और वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्थाएं अभी तक नहीं बनी हैं. नेतन्याहू इस क्षेत्र से हमास को हमेशा के लिए ख़त्म करने के अपने लक्ष्य से पीछे हटने वाले नहीं हैं. हालांकि, अमेरिका ने इस समझौते को आगे बढ़ाने के लिए व्यक्तिगत कोशिश की है, लेकिन हमास इसे गारंटी के रूप में देख सकता है. हमास को फिलहाल निकट भविष्य में इज़राइली हमले का डर नहीं है. हमास को लगता है कि अमेरिका और शांति समझौते में शामिल इस्लामिक देश मिस्र, तुर्किये और क़तर युद्धविराम बनाए रखने की कोशिश करेंगे, लेकिन इसे लेकर अमेरिकी की स्थिति अभी भी हुकुम के इक्के की है.
ओबामा, बाइडेन और अब ट्रंप के प्रशासन के दौरान, एक 'एशिया धुरी' का अभाव लगातार बना हुआ है. इसका अर्थ ये है कि चीन के साथ प्रतिस्पर्धा को लेकर अभी तक अमेरिका को स्पष्ट नीति और रणनीतिक स्पष्टता नहीं मिली है.
ऐसे में अब मध्य पूर्व में अमेरिकी शक्ति के भविष्य को लेकर बुनियादी सवाल उठते हैं. हालांकि, कम से कम ट्रंप के कार्यकाल में, इस क्षेत्र में प्रत्यक्ष अमेरिकी सैन्य हस्तक्षेप नहीं होगा, लेकिन मध्य पूर्व की राजनीतिक प्रक्रियाओं में अमेरिकी राजनीतिक भागीदारी घटने के बजाय बढ़ी है. ये भविष्य के लिए अमेरिकी व्यापक रणनीति को नए तरीके से आकार देने की किसी भी कोशिश को प्रभावित करता है. ओबामा, बाइडेन और अब ट्रंप के प्रशासन के दौरान, एक 'एशिया धुरी' का अभाव लगातार बना हुआ है. इसका अर्थ ये है कि चीन के साथ प्रतिस्पर्धा को लेकर अभी तक अमेरिका को स्पष्ट नीति और रणनीतिक स्पष्टता नहीं मिली है.
एक तरफ जहां दुनिया भर में चल रहे संघर्षों के असंख्य बिंदुओं के बीच 'एशिया धुरी' शब्द लुप्त हो गया है, वहीं चीन से संबंधित विशिष्ट मुद्दे, जैसे कि अलगाव और ज़ोखिम कम करना, भी अब पहले की तरह प्रभावी नहीं रहे. ऐसे युग में जहां मध्य स्तर की शक्तियां बहुध्रुवीयता और रणनीतिक स्वायत्तता की भविष्यवाणी कर रही हैं, वहीं दूसरी तरफ यही देश द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से प्रचलित सत्ता और राजनीति के आधिपत्यवादी ढांचों को चुनौती दे रहे हैं. अमेरिका और चीन जैसे महाशक्तियों के लिए इन मध्य शक्तियों को नियंत्रित करना एक-दूसरे को प्रबंधित करने से भी ज़्यादा कठिन काम साबित हो सकता है.
फिलहाल, अमेरिका दुनिया भर में मुख्य भू-राजनीतिक मध्यस्थ बना हुआ है. ज़मीनी सैनिक सहायता की बजाय, राजनीतिक दबाव और आर्थिक लाभों का लालच देकर समझौते कराए जा रहे हैं. हालांकि, ये बात ध्यान में रखने वाली है कि अमेरिका के कई सहयोगी, खासकर अरब देशों में, अभी भी मज़बूत सुरक्षा गारंटी चाहते हैं. इज़राइली हमलों के बाद, क़तर ने भी यही मांग की और उसे सुरक्षा मिली भी. इस क्षेत्र में अमेरिका का प्रभाव रूस, चीन और यहां तक कि औपनिवेशिक इतिहास वाले यूरोपीय देशों सहित किसी भी अन्य देश से कहीं ज़्यादा है. सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य, लेकिन ये एक ऐसी वास्तविकता है, जिससे वॉशिंगटन को निपटना होगा क्योंकि 'पैक्स अमेरिकाना' (अमेरिकन शांति)के भविष्य को लेकर उसकी अपनी हिचकिचाहट खत्म हो रही हैं.
कबीर तनेजा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम के डिप्टी डायरेक्टर और फेलो हैं.
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Kabir Taneja is a Deputy Director and Fellow, Middle East, with the Strategic Studies programme. His research focuses on India’s relations with the Middle East ...
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