G7 सम्मेलन में भारत की मौजूदगी को लेकर घरेलू और वैश्विक मोर्चे पर तमाम क़िस्सेबाज़ों की ओर से सकारात्मक प्रचार और नकारात्मक अफ़सानों का शोर जारी है. हालांकि, हमें इनके परे देखने की ज़रूरत है. दरअसल, भारत को सम्मेलन में शामिल होने के लिए मिले न्योते में अपने आप में इस कुछ भी ख़ास नहीं है. G7 के अध्यक्ष जर्मनी ने भारत के अलावा अर्जेंटीना, इंडोनेशिया, सेनेगल और दक्षिण अफ़्रीका को भी बवेरिया के श्लॉस एल्मौ सम्मेलन में शिरकत करने का न्योता भेजा था. बहरहाल, अगर कुछ लोग पश्चिम के दबाव को गंभीरता से लेते हैं (हम नहीं लेते) तो सम्मेलन में रूस-यूक्रेन संघर्ष पर G7 द्वारा तय रास्ते पर नहीं चलने के कारण भारत के बैकफ़ुट पर रहने का अंदेशा जताया गया है.
दरअसल, आज मुख्य विचार यही है कि भारत को इस हरकत के लिए दंडित किया जाना ज़रूरी है. ये शोर इतना बढ़ चुका है कि वैश्विक समाचार एजेंसियां बुनियादी पत्रकारिता तक भूल चुकी हैं. वो अपनी ख़ाम-ख़याली भरी चाहतों का तथ्यों से घालमेल करने लगी हैं और इस क़वायद में अज्ञात सूत्रों को ढाल की तरह इस्तेमाल कर रही हैं. कुछ अर्सा पहले मीडिया ने ख़बर दी थी कि “यूक्रेन पर रूसी आक्रमण की आलोचना से परहेज़ करने के चलते भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जून में होने वाले ग्रुप ऑफ सेवन की बैठक में आमंत्रित किए जाने को लेकर मेज़बान जर्मनी में बहस छिड़ गई है.” हालांकि मीडिया ने अज्ञात स्रोतों या “मसले के जानकार लोगों” की आड़ लेते हुए इस ख़बर का प्रचार-प्रसार किया था. उनका मानना है कि भारत अपमानित और अलग-थलग हो रहा है और आख़िरकार दबाव में टूट जाएगा. अनेक मौक़ों पर ग़लत साबित होने के बावजूद वो अपने इस विचार और उम्मीद को हवा देने से बाज़ नहीं आते. ऐसे अफ़सानों को आगे बढ़ाने वाले बड़ी आसानी से इस बात को नज़रअंदाज़ कर जाते हैं कि चीन को लेकर चिंतित रहने वाले मौजूदा वैश्विक माहौल में भारत एक बड़ा भूराजनीतिक निवेश है. दुनिया में बढ़ते एकाधिकारवाद के बीच भारत लोकतंत्र के मज़बूत खूंटे से बंधा है.
G7 के अध्यक्ष जर्मनी ने भारत के अलावा अर्जेंटीना, इंडोनेशिया, सेनेगल और दक्षिण अफ़्रीका को भी बवेरिया के श्लॉस एल्मौ सम्मेलन में शिरकत करने का न्योता भेजा था.
G-7 सम्मेलन में भारत की मज़बूती
बहरहाल रूस-यूक्रेन संघर्ष ने एक हक़ीक़त पूरी दुनिया के सामने ला दी है. इसने जता दिया है कि पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों के ग़ैर-आधिकारिक किरदार और कुछ नहीं, बल्कि वहां की राज्यसत्ता के पिछलग्गू हैं. चाहे हम रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर ब्लादिमिरोविच पुतिन की कार्रवाइयों से सहमत हों या न हों लेकिन ये बात साफ़ है कि पश्चिमी मंचों पर एक समूचे मुल्क को प्रभावी तौर पर ख़ारिज किया जा चुका है. इससे राज्यसत्ता और ग़ैर-आधिकारिक तंत्र का नामुनासिब गठजोड़ पूरी तरह से रोशनी में आ गया है. ये मानकर चलना कि मौजूदा दौर में पटकथा तैयार करने वाली संस्थाएं (मसलन पारंपरिक और आधुनिक मीडिया या शिक्षा जगत) ‘स्वतंत्र’ हैं, ख़ुद को भुलावे में रखने जैसा है.
बेशक़ विचारधारा से संचालित होने वाली ऐसी पटकथाएं राष्ट्रों द्वारा चली जाने वाली चालों का हिस्सा हैं और ये बात हम सबको पता है. हालांकि ऐसे अफ़साने लिखने वाले आधुनिक वक़्त से एक पीढ़ी पीछे जी रहे हैं. भारत के ख़िलाफ़ भला-बुरा कहने की उनकी क़वायद लगातार ढीली पड़ती जा रही है. हालांकि, अपने पसंदीदा इको चेंबर्स में वो कमज़ोर पड़ती इस क़वायद को ज़िंदा रखेंगे. बहरहाल उनके आडंबर भरे विचारों के बाहर असल दुनिया में सरकार से सरकार के बीच के जुड़ाव, कंपनी से कंपनी के बीच के सौदे और लोगों से लोगों का संवाद गहरा होता जा रहा है. मिसाल के तौर पर यूरोपीय संघ के साथ-साथ G7 का हरेक सदस्य देश (कनाडा, फ़्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, यूनाइटेड किंगडम और अमेरिका) भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौता (FTA) करना चाहता है. ये तमाम मुल्क भारत को निवेश से जुड़े मंज़िल के तौर पर देखते हैं. इन्हीं क़वायदों के सहारे कंपनियां नए-नए सौदों पर दस्तख़त कर रही हैं और निजी तौर पर अनगिनत लोग अपने करियर को आगे बढ़ा रहे हैं.
रूस-यूक्रेन संघर्ष ने एक हक़ीक़त पूरी दुनिया के सामने ला दी है. इसने जता दिया है कि पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों के ग़ैर-आधिकारिक किरदार और कुछ नहीं, बल्कि वहां की राज्यसत्ता के पिछलग्गू हैं.
हालांकि इन हक़ीक़तों के बावजूद G7 के देश भारत से सुरक्षा के मोर्चे पर और ज़्यादा क़वायदों की उम्मीद रखेंगे. इस तरह उन्हें हथियारों, लड़ाकू विमानों और टेक्नोलॉजी बेचकर मुनाफ़ा कमाने का मौक़ा मिलेगा. वैश्विक परिदृश्य देखें तो अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी फ़ौज की वापसी हो चुकी है. पाकिस्तान के घरेलू हालात विस्फोटक बन गए हैं. रूस और यूक्रेन के मौजूदा टकराव में चीन की ओर से रूस का समर्थन किया जा रहा है. नतीजतन चीन की काट के लिए सामरिक तौर पर अमेरिका का झुकाव भारत की ओर बढ़ रहा है. यही अमेरिका G7 का सबसे रसूख़दार सदस्य भी है. इस तरह हिंदुस्तान से इन तमाम देशों की उम्मीदें और भारत को दिया जाने वाला समर्थन कम होने की बजाए और बढ़ेगा. G7 सम्मेलन से इसमें और मज़बूती आने वाली है.
हालांकि इसका ये मतलब नहीं है कि समूह के तौर पर G7 या सरकारों के प्रमुखों से भारत की बैठकों में टकराव भरे मसले सामने नहीं होंगे. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन रूस के ख़िलाफ़ कठोर बयानों के लिए ज़ोर लगाएंगे, हालांकि इस सिलसिले में वो भारत की ऊर्जा ज़रूरतों को भी ध्यान में रखेंगे. जर्मन चांसलर ओलाफ़ शॉल्त्स, इटली के प्रधानमंत्री मारियो द्राघी और ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन की ओर से भारत पर रूस से कम से कम तेल ख़रीदने का दबाव होगा. हालांकि इन देशों द्वारा रूसी तेल की ख़रीद बदस्तूर जारी रहेगी. जलवायु के मोर्चे पर कार्रवाई की बात करें तो जर्मनी द्वारा कोयले पर आधारित बिजली उत्पादन की ओर दोबारा रुख़ किए जाने से भारत के प्रति उसकी आक्रामकता में कुछ कमी आने के आसार हैं. भारत और कनाडा के रिश्तों में कूटनीतिक मरम्मती की दरकार है. हालांकि कनाडा द्वारा अपना नया प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद ही रिश्तों में सुधार की शुरुआत हो सकती है. जापान की ओर से भारत के साथ तटस्थता भरा रुख़ रहा है. प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा के मातहत जापान के भारत से रिश्ते और मज़बूत हो रहे हैं. G7 की तमाम सरकारों में भारत के लिए फ़्रांस एक भरोसेमंद साथी साबित हुआ है. दूसरी ओर अमेरिका, हितों से संचालित और लेन-देन के रिश्तों वाला साथी बना हुआ है. बहरहाल ऐसे दोस्ताना संबंध और सौदेबाज़ियां बढ़ती रहेंगी.
चीन की काट के लिए सामरिक तौर पर अमेरिका का झुकाव भारत की ओर बढ़ रहा है. यही अमेरिका G7 का सबसे रसूख़दार सदस्य भी है. इस तरह हिंदुस्तान से इन तमाम देशों की उम्मीदें और भारत को दिया जाने वाला समर्थन कम होने की बजाए और बढ़ेगा.
बहुपक्षीयवाद को लेकर भारत का रुख़
एल्मौ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मान-अपमान से परे व्यावहारिक रुख़ अपनाते नज़र आए. ख़ासतौर से रूस, जलवायु और टेक्नोलॉजी के मसलों पर ऐसे ही रुख़ की दरकार थी. उन्होंने भारत के एजेंडे को आगे बढ़ाने पर ध्यान लगाया. बाक़ी दुनिया की ओर से उनसे संसार के देशों की संप्रभुता के सामने पेश ख़तरों को लेकर आवाज़ उठाने की उम्मीद थी. इन ख़तरों में पश्चिम द्वारा वित्तीय बुनियादी ढांचे (जैसे SWIFT नेटवर्क) से देशों को बाहर किए जाने की क़वायद शामिल है. मौजूदा दौर में प्रतिबंधों या आपूर्ति श्रृंखला से काटकर अलग करने के उपायों के ज़रिए वित्तीय मोर्चे पर अलग-थलग करने की नीतियां अपनाई जा रही हैं. प्रधानमंत्री मोदी को इन तमाम क़वायदों से लोकतांत्रिक देशों की हिफ़ाज़त करने के तौर-तरीक़ों पर बहस छेड़ने की पुरज़ोर कोशिश करनी होगी. निश्चित रूप से वो G7 की मेज़ पर भारतीय पटकथा को आगे बढ़ाएंगे. साथ ही भारत के पक्ष को ग़ैर-श्वेत, ग़ैर-पश्चिमी देशों की आवाज़ के तौर पर विस्तार देने की पुरज़ोर कोशिश करेंगे. पाकिस्तान और चीन जैसे उद्दंड देशों से जुड़ी वार्ताओं और सौदेबाज़ियों में जी-तोड़ मेहनत के ज़रिए कामयाबी हासिल करने की ज़िम्मेदारी उन्हीं की रहेगी. हालांकि, इस प्रक्रिया में पीएम मोदी को ये भी सुनिश्चित करना होगा कि बहुपक्षीयवाद को लेकर भारत के परंपरागत रुख़ में किसी तरह का घालमेल न हो. मौजूदा वक़्त में वैश्विक रिश्तों में ‘या तो हमारे साथ या हमारे ख़िलाफ़’ का रुख़ प्रचलन में है. प्रधानमंत्री मोदी द्वारा इस रुख़ को ख़ारिज करते हुए परिपक्व विकल्प पेश किए जाने की उम्मीद है.
दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के नाते इन तमाम क़वायदों में भारत का थोड़ा-बहुत दख़ल ज़रूर है. हालांकि एक ग़रीब देश के रूप में ठोस नतीजे हासिल करने के लिहाज़ से ये कतई पर्याप्त नहीं है. बहरहाल अगले 25 सालों में भारत क्षेत्रीय स्तर पर एक बड़ी ताक़त बनकर उभरने वाला है. ऐसे में G7 देशों को भारत के साथ जुड़ाव के तौर-तरीक़े ढूंढने होंगे. दूसरी ओर भारत को भी इस समूह के साथ आर्थिक, सुरक्षा और सियासी वार्ताओं के लिए अवसर उपलब्ध कराने होंगे. लिहाज़ा इस दिशा में जारी तमाम संवादों के बीच G7 सम्मेलन को सतत रूप से और लगातार जारी क़वायद के तौर पर देखे जाने की ज़रूरत है.
पीएम मोदी को ये भी सुनिश्चित करना होगा कि बहुपक्षीयवाद को लेकर भारत के परंपरागत रुख़ में किसी तरह का घालमेल न हो. मौजूदा वक़्त में वैश्विक रिश्तों में ‘या तो हमारे साथ या हमारे ख़िलाफ़’ का रुख़ प्रचलन में है. प्रधानमंत्री मोदी द्वारा इस रुख़ को ख़ारिज करते हुए परिपक्व विकल्प पेश किए जाने की उम्मीद है.
अगर हम एक क़दम पीछे हटकर G7 के प्रभाव पर सवाल उठाते हैं तो हमें नैतिक मूल्यों पर दलीलों से ज़्यादा शायद ही कुछ सुनने को मिलता है. हालांकि इससे किसी को ताज्जुब नहीं होना चाहिए. जहां तक वैश्विक नतीजों का सवाल है तो अंतरराष्ट्रीय वैधता वाला केवल एक निकाय है- और वो है लगातार नाकाम और फिसड्डी साबित होता संयुक्त राष्ट्र. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समूह बनाने और गले लगाने की क़वायदों में तमाम तरह के गठजोड़ दिखाई देते हैं. इनमें G20, NAFTA और BIMSTEC से ब्रिक्स, आसियान और क्वॉड जैसे समूह शामिल हैं. ये दुनिया के नेताओं को भिन्न-भिन्न प्रकार के मंच मुहैया कराते हैं. हालांकि इनमें से ज़्यादातर को द्विपक्षीय रिश्तों के ज़रिए के तौर पर देखा जा सकता है. इन मंचों पर सबसे ज़्यादा नज़र रहती है और इन्हीं का सबसे ज़्यादा विश्लेषण भी होता रहता है. बहरहाल नेताओं को ख़ास संवादों के लिए कुछ छूट दी जानी ज़रूरी है, भले ही उन्हें मक़सद के लिए पूरी तरह से एकजुटता न मिल पाए. सतह पर देखें तो लुभावनी घोषणाओं को छोड़कर ऐसे तमाम सम्मेलनों से हिस्सेदार खाली हाथ ही लौटते रहे हैं. हालांकि, सतह के नीचे जुड़ावों को लेकर जारी वार्ताएं समय के साथ ही अपना असर दिखाती हैं. G7 सम्मेलन से भी दोनों ही मोर्चों पर ऐसे ही नतीजों की उम्मीद है.
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