Author : Soma Sarkar

Expert Speak Terra Nova
Published on Jun 10, 2025 Updated 2 Days ago
अर्बन फार्मिंग में उपचारित अपशिष्ट जल का उपयोग कई मामले में फायदेमंद हैं. इससे एक ओर स्वच्छ पानी पर निर्भरता कम होती है, वहीं इससे लचीले समुदायों यानी प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने, उनसे तालमेल बैठाने और उबरने में सक्षम समुदायों का निर्माण करने एवं जल संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल करने में कारगर प्रकृति-आधारित विकल्प उपलब्ध होते हैं.
अपशिष्ट जल से खेती: अर्बन फार्मिंग में उपचारित सीवेज वाटर का उपयोग

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ये लेख खेतों से खाने की प्लेट तक, सुरक्षित भोजन कैसे पायें’ सीरीज़ का हिस्सा है.


 

भविष्य में भोजन, पानी और ऊर्जा का संकट गहराएगा, यह बात हमेशा से कही जाती है. सच्चाई यह है कि जीवन के लिए ज़रूरी इन संसाधनों की कमी भविष्य का ख़तरा नहीं है, बल्कि शहरों में आज इस तरह के संकट देखने को मिल रहे हैं. ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि शहरों में भोजन, पानी और ऊर्जा की कमी कैसे दूर की जा सकती है और इस कमज़ोरी को ताक़त में कैसे तब्दील किया जा सकता है? विश्व के 80 प्रतिशत संसाधनों की खपत शहरों में होती है और विश्व में जितना कचरा निकलता है उसमें शहरों की हिस्सेदारी 50 प्रतिशत है. शहर आज जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को सबसे अधिक झेल रहे हैं, साथ ही भोजन, पानी और ऊर्जा जैसी बुनियादी ज़रूरतों की कमी का भी सामना कर रहे हैं. जलवायु परिवर्तन की वजह से पैदा होने वाली तमाम परेशानियों का हल निकालने, विशेष रूप से खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अर्बन फार्मिंग यानी शहरी कृषि को बढ़ावा देना एक बेहतर विकल्प है. इसके लिए अगर उपचारित अपशिष्ट जल का दोबारा इस्तेमाल किया जाता है, तो निश्चित तौर पर अर्बन फार्मिंग के लिए इससे एक बेहतर और व्यावहारिक प्रकृति-आधारित समाधान उपलब्ध हो सकता है. इससे जहां संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल सुनिश्चित होता है, स्वच्छ पेयजल पर निर्भरता कम होती है, वहीं शहरी लचीलापन मजबूत होता है यानी संकट का सामने करने के लिए शहर तैयार होते हैं. कहने का मतलब है कि अगर फसलों की खेती के लिए अपशिष्ट जल के पुन: उपयोग की ओर क़दम बढ़ाए जाते हैं, तो ऐसा करके शहर सर्कुलर और जलवायु-लचीले विकास को अपना सकते हैं.

शहरी खेती यानी प्रकृति-आधारित ख़तरा कम करने की रणनीति 

अर्बन फार्मिंग यानी शहरी कृषि का मतलब किस शहर के भीतर और उसके आसपास के क्षेत्र में खाद्य और गैर खाद्य कृषि उत्पादों का उत्पादन, वितरण और मार्केटिंग से हैं. इसमें शहरों में घरों के बैकयार्ड यानी घरों के पीछे खाड़ी पड़ी जगहों पर, घर की छत पर और खाली प्लॉट्स या फिर वर्टिकल गार्डन में की जाने वाली खेती शामिल है. आधुनिक शहरी जीवनशैली और खाने-पीने की वस्तुओं को एक उत्पाद के तौर पर बेचे जाने ने कहीं न कहीं लंबी आपूर्ति श्रृंखलाएं बनाने का काम किया है. ये आपूर्ति श्रृंखलाएं इतनी उलझी हुई होती हैं कि जिन खाने-पीने की चीज़ों का हम उपभोग करते हैं, उनके प्रारंभिक स्रोत, उनके उत्पादन की प्रक्रिया, किन लोगों ने उत्पादित किया है और किन पर्यावरणीय परिस्थितियों में उन्हें उगाया गया है, इस सबके बारे में कोई सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं होती है. कहने का मतलब है कि इन खाद्य आपूर्ति श्रृंखलाओं का, यानी खाद्य वस्तुओं के उत्पादन से लेकर उनके वितरण तक की पूरी प्रक्रिया का जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से कोई लेना-देना नहीं होता है. इससे जहां खाद्य वस्तुओं की क़ीमतों पर असर पड़ता है, वहीं फसल उगाने के लिए जलवायु अनुकूल प्रक्रिया नहीं अपनाने से खेती की ज़मीन का भी नुक़सान होता है. वहीं शहरी खेती एक ऐसा विकल्प है, जिससे शहरों में रहने वाले लोगों को खाद्य उत्पादन प्रणाली से जुड़ने का अवसर मिलता है, यानी खेती की जिस जलवायु-लचीली प्रक्रिया से शहरी क्षेत्र के लोग अलग-थलग होते जा रहे हैं, अर्बन फार्मिंग उन्हें उससे जोड़ने का अवसर देती है. 

जलवायु परिवर्तन की वजह से पैदा होने वाली तमाम परेशानियों का हल निकालने, विशेष रूप से खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अर्बन फार्मिंग यानी शहरी कृषि को बढ़ावा देना एक बेहतर विकल्प है. 

शहरी खेती देखा जाए तो प्रकृति पर आधारित है और इसमें ख़तरे की संभावना की कम से कम होती है. इससे खाद्य उत्पादन का विकेंद्रीकरण होता है और अनजाने व बाहरी खाद्य स्रोतों पर निर्भरता भी कम होती है. शहरों में ही खाद्य वस्तुओं के उत्पादन से बाहरी स्रोतों से जुड़ी खाद्य आपूर्ति श्रृंखला में रुकावट से होने वाले नुक़सान से भी मुक्ति मिलती है, साथ ही शहरवासियों के लिए खाद्य सुरक्षा भी सुनिश्चित होती है. शहरी खेती एक ऐसी रणनीति है, जो न केवल लोगों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा करती है, बल्कि लोगों में उच्च गुणवत्ता वाली खाद्य वस्तुओं को खाने की आदतों को भी बढ़ावा देती है. यानी अर्बन फार्मिंग शहरों में एक ऐसे समुदाय को विकसित करने में मदद कर सकती है, जिसे पता होता है कि वो जिन चीजों को खा रहा हैं, उनका उत्पादन और वितरण कहां और कैसे हो रहा है, साथ ही इसमें पर्यावरण की रक्षा का पूरा ध्यान रखा गया है या नहीं. 

देखा जाए तो पहले पूंजीवाद और फिर बाद में नवउदारवाद के चलते ज़मीन के उपयोग के आधार पर शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों को बांट दिया गया और उनकी जगह एक तरह से अलग-अलग कर दी गई है. इसकी वजह से व्यापक स्तर पर यह माना जाने लगा कि ग्रामीण इलाक़ों में रहने वालों के लिए कृषि ही आजीविका का मुख्य माध्यम है. ज़ाहिर है कि ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन-यापन के लिए खेती हमेशा से होती रही है, लेकिन अब अर्बन फार्मिंग इस तरह की आवधारणों को चुनौती दे रही है और दुनिया भर में शहरों के पर्यावरण अनुकूल नियोजन में शहरी कृषि तेज़ी से प्रचलित हो रही है. इक्वाडोर की राजधानी क्विटो में वर्ष 2002 में भागीदारी शहरी कृषि परियोजना (AGRUPAR) शुरू की गई थी. इस परियोजना ने शहर के निवासियों को स्वस्थ भोजन के अवसर प्रदान किए हैं, साथ ही शहरी और आसपास के इलाक़ों में अर्बन फार्मिंग के माध्यम से स्वस्थ जैविक भोजन के उत्पादन, प्रसंस्करण, विपणन और वितरण को बढ़ावा देकर कर खाद्य सुरक्षा भी सुनिश्चित की है. इस परियोजना ने पूर्व-कोलंबियाई काल से विरासत में मिले स्वदेशी और प्रचीन खेती के तौर-तरीक़ों (मुख्य रूप से आलू, मक्का, ब्रॉड बीन्स, ज़म्बो, कद्दू और बीन्स की खेती) को शहरी खेती के लिए ज़रूरी तकनीक़ों और नवाचारों के साथ जोड़ा गया है. इस परियोजना के अंतर्गत मौज़ूदा समय में शहर में 2,200 से ज़्यादा बागानों में विभिन्न फसलों की खेती की जा रही है. भारत के चेन्नई शहर में भी इसी प्रकार की चेन्नई अर्बन फार्मिंग पहल (CUFI) चलाई जा रही है. इस पहल के ज़रिए पूरे शहर में सब्जी की बागवानी को बढ़ावा दिया जा रहा है. इसके तहत घरों की छतों का और शहर में खाली पड़ी जगहों का खेती और बागवानी के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. इससे जहां शहर को हरा-भरा और ठंडा रखने में मदद मिल रही है, वहीं शहर के ऐसे इलाक़ों में रहने वाले कम आय वर्ग के लोगों की कमाई भी हो रही है.

देखा जाए तो पहले पूंजीवाद और फिर बाद में नवउदारवाद के चलते ज़मीन के उपयोग के आधार पर शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों को बांट दिया गया और उनकी जगह एक तरह से अलग-अलग कर दी गई है. इसकी वजह से व्यापक स्तर पर यह माना जाने लगा कि ग्रामीण इलाक़ों में रहने वालों के लिए कृषि ही आजीविका का मुख्य माध्यम है.

शहरी खेती के दौरान घरों की छतों का बहुत अधिक उपयोग किया जाता है और इसके कई लाभ हैं. इससे एक तरफ अत्यधिक गर्मी के निजात मिलती है, वहीं दूसरी ओर तेज़ बारिश होने पर पानी नीचे बहकर बर्बाद नहीं होता है, बल्कि खेती के काम आता है. इसके अलावा, छतों पर खेती करने से शहरों में अपशिष्ट जल और ऐसे ही बहा दिए जाने वाले पानी का बेहतर उपयोग होता है. यानी घरों की छतों पर होने वाली खेती से ग्रे वाटर, रसोई से निकलने वाले पानी और शौचालय के उपचारित अपशिष्ट जल जैसे बेकार समझे जाने वाले पानी का बेहतरीन इस्तेमाल होता है. इससे कचरे और अपशिष्ट जल के प्रबंधन से जुड़े शहर के बुनियादी ढांचे को भी राहत मिलती है.

अपशिष्ट जल को संसाधन के रूप में इस्तेमाल करने का विचार

रोज़ाना शहरों में बहुत अधिक मात्रा में सीवेज वाटर पैदा होता. इस अपशिष्ट जल के ज़्यादातर हिस्से को समुचित रूप से उपचारित नहीं किया जाता है और ऐसे ही बहा दिया जाता है. इस अपशिष्ट पानी से पर्यावरण पर बहुत बुरा असर पड़ता है, क्योंकि यह पानी नदियों, समुद्री तटों और यहां तक की समुदों को भी प्रदूषित करता है. उदाहरण के तौर पर, मुंबई में प्रतिदिन क़रीब 2,190 मिलियन लीटर (MLD) सीवेज वाटर निकलता है, जिसमें से सिर्फ़ 22.65 MLD सीवेज को ही रिसाइकिल किया जाता है, और उसका गैर-पीने योग्य कार्यों में उपयोग किया जाता है. एक सर्कुलर जलवायु लचीली शहरी प्रणाली यानी ऐसी प्रणाली जो पर्यावरण के लिहाज़ से टिकाऊ हो और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के अनुकूल हो, अपशिष्ट पानी को यू हीं बहने को रोकती है. इसके साथ ही ऐसी प्रणाली शहरों में पैदा होने वाले अपशिष्ट पानी को उपचारित करके पुन: उपयोग के लायक बनाती है. इस पानी का इस्तेमाल शहर, या पड़ोस या किसी घर में किया जा सकता है. अपशिष्ट जल में ग्रे वाटर और ब्लैक वाटर शामिल होते हैं. ग्रे वाटर यानी वो पानी जो सिंक, वाशिंग मशीन और नहाने के बाद निकलता है और ब्लैक वाटर यानी वो पानी जो शौचालय से निकलने वाला मल और मूत्र से युक्त अपशिष्ट जल होता है. देखा जाए तो ग्रे वाटर को रिसाइकिल करके इसका इस्तेमाल घरेलू स्तर पर छत पर लगे बगीचों को पानी देने, कार धोने, घर के बाहर साफ-सफाई करने और यहां तक कि सोलर पैनलों को धोने में किया जा सकता है. ऐसा करने से न केवल घरों में आपूर्ति होने वाले पेयजल के दुरुपयोग को रोका जा सकता है, बल्कि इससे स्वच्छ जल के स्रोतों पर भी दबाव कम होता है और घर पर पानी के बेहतर तरीक़े से उपयोग को भी बढ़ावा मिलता है.

नगरपालिका क्षेत्रों में जो सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट होते हैं, अक्सर उनके जरिए जो पानी उपचारित किया जाता है, उसे या तो नदियों या फिर समुद्रों में बहा दिया जाता है. अगर इन सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा निर्धारित आवश्यक गुणवत्ता मानकों के मुताबिक़ पानी को उपचारित किया जाता है, तो उसके एक हिस्से को शहरी खेतों, ग्रीन कॉरिडोर्स, शहरों की सीमा के भीतर कृषि वानिकी आदि में इस्तेमाल किया जा सकता है. इसमें सबसे अहम बात यह है कि इस पानी को निर्धारित किए गए सुरक्षा मापदंडों के अनुसार उपचारित करना बहुत ज़रूरी है. ख़ास तौर पर इसमें रोगजनक विषाणुओं, भारी धातुओं और लवणता के मानकों का पालन करना बेहद आवश्यक है. अगर अपशिष्ट जल को अच्छी तरह से उपचारित नहीं किया जाता है, तो इससे गंभीर ख़तरा पैदा हो सकता है और बीमारियां पनप सकती हैं. उदाहरण के तौर पर हैदराबाद में मुसी नदी की तलहटी में देखा गया है, जहां ज़्यादातर अपर्याप्त तरीक़े से उपचारित अपशिष्ट जल का इस्तेमाल सिंचाई के लिए क्या जाता है, जिससे नदी के किनारे उगाई जाने वाली फसलों में भारी धातु की मात्रा बहुत ज़्यादा हो गई है.

देखा जाए तो ग्रे वाटर को रिसाइकिल करके इसका इस्तेमाल घरेलू स्तर पर छत पर लगे बगीचों को पानी देने, कार धोने, घर के बाहर साफ-सफाई करने और यहां तक कि सोलर पैनलों को धोने में किया जा सकता है. ऐसा करने से न केवल घरों में आपूर्ति होने वाले पेयजल के दुरुपयोग को रोका जा सकता है, बल्कि इससे स्वच्छ जल के स्रोतों पर भी दबाव कम होता है 

दूसरी तरफ, अमेरिका और इजराइल में अपशिष्ट जल के उपचार और इस्तेमाल से जुड़े अध्ययनों के मुताबिक़ वहां पानी के उपचार और उसे फिर से इस्तेमाल योग्य बनाने वाली जो भी प्रणालियां और प्लांट हैं, वहां पानी की गुणवत्ता और अनिवार्य मानकों की गंभीरता से निगरानी की जाती है, इसमें कोई कोताही नहीं बरती जाती है. इससे वहां उपचारित अपशिष्ट जल का कृषि से जुड़े कार्यों के लिए बेहिचक उपयोग किया जाता है और उससे कोई नुक़सान नहीं होता है. इन देशों में अपशिष्ट पानी के उपचार की जो प्रणालियां हैं, वे पोटेशियम, फॉस्फोरस और नाइट्रोजन जैसे ज़रूरी पोषक तत्वों को बनाए रखती हैं, ताकि उनका दोबारा से इस्तेमाल किया जा सके. कर्नाटक में वर्ष 2004 में कर्नाटक राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (KSPCB) ने एक ज़ीरो लिक्विड डिस्चार्ज (ZLD) आदेश जारी किया था. इसके तहत सीवर वाले इलाक़ों में 20,000 वर्ग मीटर से बड़े क्षेत्र में बने आवासीय परिसरों को ऑन-साइट सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (STP) स्थापित करना और वहां उपचारित किए जाने वाले अपशिष्ट जल का दोबार इस्तेमाल किया जाना अनिवार्य किया गया था. इस आदेश के बाद शहर में 2,200 से ज़्यादा ऑन-साइट सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट स्थापित किए गए. हालांकि, इन STPs में उपचारित जल के गुणवत्ता मानकों के अनुपालन में गंभीरता नहीं थी, यानी उपचारित पानी में गुणवत्ता से जुड़ी तमाम खामियां नज़र आई थीं.

इस तरह के क़दमों के अनुपालन को अगर किसी प्रोत्साहन के साथ जोड़ दिया जाता है, तो इन पहलों की सफलता की संभावना काफ़ी हद तक बढ़ जाती है. इन प्रोत्साहनों में अपशिष्ट जल ट्रीटमेंट प्रणाली का विकेंद्रीकरण, सीवेज वाटर को रिसाइकिल और पुन:उपयोग करने वाले उद्योगों और हाउसिंग सोसाइटियों के लिए टैक्स में छूट शामिल हो सकता है. इसके अलावा शहरों में बने खेतों और हरित क्षेत्रों तक उपचारित अपशिष्ट जल की आपूर्ति के लिए जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण कराया जा सकता है और पानी बचत से जुड़े प्रदर्शन आधारित प्रोत्साहन शामिल हो सकते हैं. इस संबंध में सिंगापुर में NEWater पहल और इजराइल में जल पुनः उपयोग जैसी पहलों से काफ़ी कुछ सीखा जा सकता है.

नीतिगत क़दम

शहरी जल प्रशासन में अगर सर्कुलर इकोनॉमी के सिद्धान्तों को अपनाया जाता है, तो यह काफ़ी फायदेमंद साबित हो सकता है. इसमें पानी को दोबार से इस्तेमाल किए जाने योग्य संसाधान माना जाता है, जिससे एक परिवर्तनकारी नज़रिया विकसित होता है. ज़ाहिर है कि एक सर्कुलर जल प्रणाली यानी जल संसाधनों का कुशलता व टिकाऊ तरीक़े से उपयोग करने से शहरी कृषि और हरित बुनियादी ढांचे के लिए पानी की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित की जा सकती है. ऐसा करने से शहर भी जलवायु अनुकूल और लचीले बन सकते हैं. हालांकि, ऐसी कोई भी प्रणाली ज़मीनी स्तर पर तभी क़ामयाब हो सकती है, जब इनके लिए सशक्त नीतियां बनाई जाएं और नियम-क़ानूनों का कड़ाई से पालन करने के लिए एक मज़बूत नियामक व्यवस्था तैयार की जाए.

 देश के अलग-अलग राज्यों में वहां की सरकारों द्वारा इस दिशा में कई पहलें की गई हैं. तेलंगाना में मिशन फॉर इंटीग्रेटेड डेवलपमेंट ऑफ एग्रीकल्चर यानी कृषि के एकीकृत विकास के लिए मिशन, केरल में वेजिटेबल डेवलपमेंट प्रोग्राम, तमिलनाडु में शहरी बागवानी विकास योजना और बिहार में रूफटॉप गार्डनिंग सब्सिडी योजना जैसी पहलों ने शहरी कृषि को बढ़ावा देने का काम किया है

भारत में टिकाऊ कृषि के तरीक़ों को प्रोत्साहन देने के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (2007) और राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन (2010) बेहद कारगर साबित हुए हैं. इन पहलों से खेती में टिकाऊ तकनीक़ और हितधारकों के सहयोग की शुरुआत हुई है. इसके अलावा, स्मार्ट सिटी मिशन और अटल मिशन फॉर रिजुविनेशन एंड अर्बन ट्रांसफॉर्मेशन (अमृत) 2.0 ने भी ज़मीन के अलग-अलग तरीक़े से उपयोग करने के नियोजन, शहरों में गर्मी में कमी लाने और पारिस्थितिक संतुलन पर ध्यान केंद्रित किया है. देश के अलग-अलग राज्यों में वहां की सरकारों द्वारा इस दिशा में कई पहलें की गई हैं. तेलंगाना में मिशन फॉर इंटीग्रेटेड डेवलपमेंट ऑफ एग्रीकल्चर यानी कृषि के एकीकृत विकास के लिए मिशन, केरल में वेजिटेबल डेवलपमेंट प्रोग्राम, तमिलनाडु में शहरी बागवानी विकास योजना और बिहार में रूफटॉप गार्डनिंग सब्सिडी योजना जैसी पहलों ने शहरी कृषि को बढ़ावा देने का काम किया है. इन कार्यक्रमों के तहत छत पर खेती और क्षमता निर्माण के लिए सब्सिडी प्रदान की जाती है, साथ ही सब्जी उत्पादन के लिए ‘डू-इट-योरसेल्फ किट’ यानी खुद काम करने के लिए ज़रूरी सामानों की किट के लिए भी सब्सिडी दी जाती है.

इस सभी पहलों के बावज़ूद अक्सर देखने में आता है कि राज्यों की नीतियों में अर्बन फार्मिंग को ख़ास तवज्जो नहीं दी जाती है. शहरी कृषि से जुड़ी पहलों को व्यापक स्तर पर कार्यान्वित करने के लिए शहरों को टुकड़ों-टुकड़ों में कोशिशें करने नहीं करना चाहिए और नीतिगत ठहराव से बचना चाहिए, यानी इसके लिए एकजुटता के साथ, सशक्त नीतियां बनाकर पूरी क्षमता के साथ इन पहलों को लागू करना चाहिए. ज़ाहिर है कि अर्बन फार्मिंग में उपचारित अपशिष्ट जल का बेहतर तरीक़े से उपयोग होता है, इसलिए भविष्य के जलवायु-अनुकूल और पर्यावरण के लिहाज़ से टिकाऊ शहरों के निर्माण में शहरी कृषि को प्रमुखता दिया जाना चाहिए. इतना ही नहीं शहरी नियोजन के दौरान अर्बन फार्मिंग को ध्यान में रखकर रणनीति बनानी चाहिए, यानी हर फैसले में इसे प्राथमिकता देनी चाहिए. इसके लिए न सिर्फ़ व्यापक स्तर पर इससे जुड़े विभिन्न हितधारकों के बीच बेहतर तालमेल की ज़रूरत होगी, बल्कि अपशिष्ट जल के उपचार और उसके दोबारा उपयोग से जुड़े कड़े और स्पष्ट नियम-क़ानूनों की भी आवश्यकता होगी. उपचारित पानी में रोगजनक जीवाणुओं, भारी धातुओं और लवणता से जुड़े सुरक्षा मापदंड निर्धारित करने और उनका सख़्ती से अनुपालन करने के लिए भी कड़े नियमों और स्पष्ट दिशा-निर्देशों का होना ज़रूरी है. इसके अलावा शहरों में रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशनों (RWAs) को छत पर कृषि गतिविधियों के लिए अलग-अलग सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट  (STPs) और ग्रे वाटर रीसाइक्लिंग प्रणाली स्थापित करना चाहिए. ऐसा करके RWAs को जनभागीदारी वाले अपशिष्ट जल प्रबंधन मॉडल का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए.

निष्कर्ष

ऐसे दौर में जब शहर जलवायु परिवर्तन, तेज़ शहरी विकास, आर्थिक असमानता और सेवाओं की डिलीवरी में चुनौती जैसी समस्याओं और विपरीत हालातों से जूझ रहे हैं, तब उपचारित अपशिष्ट जल के ज़रिए अर्बन फार्मिंग का विचार शहरों को राहत प्रदान कर सकता है. शहरी कृषि के माध्यम से न केवल बेकार समझे जाने वाले पानी को एक अहम संसाधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, बल्कि टिकाऊ शहरों के निर्माण में लोगों की जनभागीदारी भी सुनिश्चित की जा सकती है. शहरी खेती का विचार शहरी विकास को लेकर हमारे दृष्टिकोण में बदलाव की शुरुआत करता है, जो संसाधनों के बेहतर उपयोग, समानता और सामाजिक-पारिस्थितिक संतुलन को महत्व देता है और एक पुनर्योजी शहरी भविष्य यानी शहरों को टिकाऊ और पर्यावरण अनुकूल बनाने का प्रयास करता है. अब समय आ गया है कि शहरी कृषि को लेकर पायलट परियोजनाओं तक ही सीमित नहीं रहा जाए, बल्कि उससे आगे बढ़कर नगर निगम व नगर पालिकाओं के मास्टर प्लान में इसे प्रमुखता से शामिल किया जाए, साथ ही राज्य स्तर पर चलाई जा रही इससे जुड़ी पहलों को गंभीरता से कार्यान्वित किया जाए. इसके अलावा, इन प्रयासों को लागू करने में बजट की कमी नहीं आने दी जाए, साथ ही इसके लिए सभी ज़रूरी नीतिगत क़दमों को उठाया जाए और मज़बूत नियामक ढांचा बनाया जाए. ऐसे करके ही भविष्य के जलवायु-लचीले, समावेशी और टिकाऊ शहरों का निर्माण किया जा सकता है.



सोमा सरकार ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के अर्बन स्टडीज़ प्रोग्राम में एसोसिएट फेलो हैं.

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