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इंटरनेट तक पहुंच सिर्फ डिजिटल समावेशन का मामला नहीं है. ये समानता के अधिकार से भी जुड़ा है. इसका काम ये सुनिश्चित करना भी है कि भारत में हो रहे बदलावों का लाभ हर वर्ग को मिले.
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ये लेख राष्ट्र, नेटवर्क और नैरेटिव: विश्व दूरसंचार और सूचना समाज दिवस 2025 श्रृंखला का हिस्सा है.
पिछले कुछ साल में विश्व दूरसंचार और सूचना समाज दिवस का महत्व बहुत ज़्यादा बढ़ गया है. ये दिखाता है कि आर्थिक और सामाजिक स्तर पर बदलाव लाने में डिजिटल तकनीकी की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण हो गई है. अपनी परिवर्तनकारी क्षमता के बावजूद अभी तक वैश्विक आबादी के एक बड़े हिस्से की इन प्रौद्योगिकियां तक पहुंच नहीं बन पाई है. 2.6 अरब से ज़्यादा लोग इससे नहीं जुड़ पाए हैं. खास बात ये है कि जो लोग डिजिटल तकनीकी से दूर हैं उनमें सबसे बड़ी आबादी महिलाओं और लड़कियों की हैं. ये भेदभाव सिर्फ संख्यात्मक अंतर नहीं है, बल्कि एक संरचनात्मक असमानता है जो समावेशन, सशक्तिकरण और समानता के अवसरों को सीमित करती है. तेजी से डिजिटल होती वैश्विक अर्थव्यवस्था में अगर अवसरों तक समान पहुंच नहीं होगी तो इससे एक बड़ी आबादी सीधे तौर पर नागरिक, शैक्षिक और आर्थिक जीवन में भागीदारी से बाहर हो जाएगा. इसलिए इस डिजिटल विभाजन को संबोधित करना ना सिर्फ बुनियादी ढांचे या सामर्थ्य का मामला है, बल्कि समावेशी विकास को बढ़ावा देने और व्यक्तियों को डिजिटल युग में अपने भविष्य को आकार देने में सक्षम बनाने की एक ज़रूरी शर्त है. भारत ने आर्थिक विकास के लिए उत्प्रेरक के रूप में इंटरनेट की क्षमता को पहचाना है और इसकी परिवर्तनकारी शक्ति का पूरा फायदा उठाने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं. इस चुनौती का सामना भारतनेट के माध्यम से महत्वाकांक्षा और पैमाने दोनों के साथ किया गया है. भारतनेट परियोजना राष्ट्रीय स्तर पर बुनियादी ढांचे की एक ऐसी पहल है, जिसका उद्देश्य हर ग्राम पंचायत तक ब्रॉडबैंड पहुंचाना है. ग्राम पंचायत को ग्रामीण स्वशासन की आधारशिला माना जाता है. हालांकि, अगर भारतनेट प्रोजेक्ट के समग्र प्रभाव की विवेचना करें तो अब तक इसका असर असमान रहा है. यही वजह हैकि इस लेख में भारतनेट परियोजना पर नए सिरे से ध्यान और रणनीतिक फोकस की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया है. इसके विकास को आगे बढ़ाने, सार्वजनिक सेवाओं और प्रौद्योगिकी-सक्षम समाधानों की डिलीवरी को बढ़ाने के लिए इसके इर्द-गिर्द चर्चा को फिर से जीवंत करना ज़रूरी है.
भारतनेट परियोजना राष्ट्रीय स्तर पर बुनियादी ढांचे की एक ऐसी पहल है, जिसका उद्देश्य हर ग्राम पंचायत तक ब्रॉडबैंड पहुंचाना है. ग्राम पंचायत को ग्रामीण स्वशासन की आधारशिला माना जाता है.
भारत सरकार ने इस क्षेत्र में एक अंतर्निहित बहुआयामी रणनीति अपनाई है. सरकार की नीति के तहत इसमें डार्क फाइबर लीजिंग, सार्वजनिक वाई-फाई एक्सेस प्वाइंट्स की तैनाती, स्कूलों और स्वास्थ्य सुविधाओं जैसे प्रमुख सार्वजनिक संस्थानों में फाइबर-टू-द-होम (एफटीटीएच) कनेक्टिविटी शामिल है. ये सहायक सुविधाएं नहीं बल्कि मूलभूत आवश्यकताएं हैं. शिक्षा, वित्त और सूचना जैसे ज़रूरी डिजिटल ग्रिड तक विश्वसनीय पहुंच के बिना, व्यक्ति और समुदाय की समाज में सार्थक भागीदारी नहीं हो सकती है.
हालांकि, इस दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में मोबाइल कनेक्टिविटी में काफ़ी वृद्धि हुई. इन्हें भारतनेट परियोजना के पूरक के रूप में देखा जा सकता है. दिसंबर 2024 तक, 625,000 से ज़्यादा गांव मोबाइल नेटवर्क से जुड़ चुके थे, जिनमें से 618,000 गांव 4G सर्विस मिल रही है. मोबाइल सेवा के इस प्रसार को विकास का महज़ एक तकनीकी पहलू नहीं समझना चाहिए. ये उससे कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है. ये डिजिटल सेवाओं और सहभागी शासन तक समान पहुच को संचालित करने के लिए आवश्यक आधारभूत ढांचा है.
अगर और अधिक व्यवस्थित स्तर पर देखें तो संस्थागत सहयोग एक मज़बूत डिजिटल इकोसिस्टम को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. डिजिटल भारत निधि (डीबीएन) और राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) के बीच साझेदारी समन्वित संस्थागत तालमेल के एक मॉडल का उदाहरण है. इससे डेटा शेयरिंग की सुविधा बढ़ती है. क्षमता निर्माण की कोशिशों को बढ़ावा मिलता है. सार्वजनिक डिजिटल सेवाओं की पहुंच को वंचित और दूरदराज के क्षेत्रों तक ले जाया जा सकता है. इससे डिजिटल सेवाओं तक लोगों की पहुंच बढ़ती है.
भारत में फिनटेक और डिजिटल वित्तीय सेवाओं के उदय के बाद इंटरनेट की अहमियत बढ़ गई है. इंटरनेट अब इन वित्तीय सेवाओं को आधार देने वाले महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे के रूप में उभरा है. भारत भौगोलिक तौर पर एक बड़ा देश है. उच्च जनसंख्या घनत्व और ऐतिहासिक रूप से वित्तीय समावेशन के निम्न स्तरों वाले भारत जैसे देश में इंटरनेट कनेक्टिविटी पहुंच और दक्षता दोनों को सक्षम बनाती है. ये भौतिक और आर्थिक विभाजन को पाटता है. इतना ही नहीं, जिससे वित्तीय नवाचार को भी बढ़ाता मिलता है. भारत की बैंकिंग प्रणाली अब भी ब्रिक-एंड-मोर्टार सिस्टम के हिसाब से चलती है. ब्रिक-एंड-मोर्टार सिस्टम का अर्थ बैंकिंग की पारंपरिक प्रणाली से हैं, जहां लोग वित्तीय सेवाओं के लिए बैंक में जाते हैं,लेकिन इंटरनेट के आने से नेट बैंकिंग को बढ़ावा मिला है.
डिजिटल चैनलों, मुख्य रूप से मोबाइल इंटरनेट, ने यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (यूपीआई) ने आम लोगों तक डिजिटल सेवाओं की पहुंच को आसान बनाया है. आधार नंबर पर आधारित ई-केवाईसी (या अपने ग्राहक को जानें) और डिजिटल लोन जैसी सेवाएं उनकी पहुंच से दूर नहीं रही. विशेषरूप से भारत के टियर-2, टियर-3 शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में इसका फायदा देखने को मिल रहा है. डिजिटल क्षेत्र में भारत की ये लंबी छलांग लागत को कम करती है, ग्राहकों को जोड़ने में सुविधा प्रदान करती है. इतना ही नहीं, उन क्षेत्रों में भी डिजिटल वित्तीय सेवाओं का विस्तार होता है, जहां पहले उन्हें व्यावसायिक रूप से अव्यवहारिक माना जाता था.
व्यवस्थित स्तर पर भी देखें तो भारत के विकसित हो रहे डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर (डीपीआई) में इंटरनेट अंतर-संचालन (इंटर-पोर्टिबिलिटी) की सुविधा प्रदान करता है. डिजिलॉकर, आधार और अकाउंट एग्रीगेटर (एए) फ्रेमवर्क जैसे प्रमुख प्लेटफ़ॉर्म सही तरीके से काम करने के लिए स्थिर और सुरक्षित इंटरनेट कनेक्टिविटी पर निर्भर करते हैं.
व्यवस्थित स्तर पर भी देखें तो भारत के विकसित हो रहे डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर (डीपीआई) में इंटरनेट अंतर-संचालन (इंटर-पोर्टिबिलिटी) की सुविधा प्रदान करता है. डिजिलॉकर, आधार और अकाउंट एग्रीगेटर (एए) फ्रेमवर्क जैसे प्रमुख प्लेटफ़ॉर्म सही तरीके से काम करने के लिए स्थिर और सुरक्षित इंटरनेट कनेक्टिविटी पर निर्भर करते हैं. ये एकीकरण फिनटेक फ़र्म्स, बैंकों और सरकारी एजेंसियों को सहजता से काम करने के लिए एक आसान, सुविधानजनक, डेटा-संचालित वित्तीय इकोसिस्टम बनाने की अनुमति देते हैं.
संक्षेप में कहें तो इंटरनेट न सिर्फ डिजिटल सेवाओं को सक्षम बनाने में भूमिका अदा करता है, बल्कि ये वो नींव है, जिस पर भारत का डिजिटल वित्तीय इमारत का निर्माण किया जा रहा है. इंटरनेट इस पूरे डिजिटल सिस्टम का अनिवार्य हिस्सा है. अगर एक नकदी-मुक्त, वित्तीय रूप से समावेशी और नवाचार-संचालित इकोसिस्टम बनाना है तो फिर उसके लिए विश्वसनीय और न्यायसंगत इंटरनेट तक सबकी पहुंच होना ज़रूरी है. इसके बिना वित्तीय समावेशन का सपना अधूरा ही रह जाएगा. उदाहरण के लिए, 2025 की शुरुआत में यूपीआई लेन-देन 16.99 अरब (23.48 लाख करोड़ रूपये) को पार कर गया, जो किसी भी महीने में दर्ज लेन-देन में सबसे ज़्यादा है. ये भारत के डिजिटल पेमेंट इकोसिस्टम में यूपीआई की मुख्य भूमिका को भी रेखांकित करता है. फिलहाल भारत में जितना खुदरा लेन-देन हो रहा है, उसका लगभग 80 प्रतिशत यूपीआई के ज़रिए किया जा रहा है. यूपीआई देश के वित्तीय बुनियादी ढांचे के एक आधारभूत घटक के रूप में उभरा है. हालांकि, इसी वृद्धि दर काफ़ी प्रभावी है, लेकिन इसके साथ ही ये इस बात को भी दिखाता है कि अभी इसकी क्षमता का पूरा इस्तेमाल नहीं हुआ है. जिन क्षेत्रों में अपर्याप्त इंटरनेट कनेक्टिविटी है, वहां ये अपनी पहुंच उस हद तक नहीं बना पाया है, जितनी उम्मीद थी. अगर इंटरनेट वंचित क्षेत्रों में विश्वसनीय डिजिटल बुनियादी ढांचे का विस्तार किया जदाए तो इससे लेन-देन की मात्रा में काफ़ी बढ़ोत्तरी हो सकती है और वित्तीय समावेशन को बढ़ावा मिल सकता है. इस संदर्भ में देखें तो डिजिटल भुगतान की परिवर्तनकारी क्षमता को सिर्फ वित्तीय सेवाओं तक ही सीमित नहीं समझना चाहिए. ये इससे कहीं आगे तक फैली हुई है. इसमें स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को औपचारिक बनाने, वित्तीय सेवाओं की पहुंच बढ़ाने और ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर पड़े समुदायों में आर्थिक मज़बूती बढ़ाने की क्षमता है.
भारत की डिजिटल महत्वाकांक्षाओं ने कई मायनों में परिवर्तनकारी बदलाव की नींव रखी है. हालांकि, डिजिटल सेवाओं की पहुंच के मामले में क्षेत्रीय असमानताएं बनी हुई हैं, खासकर ग्रामीण और दूरदराज के इलाकों में. ऐसे में ज़रूरत इस बात की है कि सरकार इन क्षेत्रों में लक्षित हस्तक्षेप करे. दूरसंचार अधिनियम, 2023 के तहत यूनिवर्सल सर्विस ऑब्लिगेशन फंड की जगह डिजिटल भारत निधि (डीबीएन) की शुरूआत एक ऐसा ही तरीका है. डिजिटल सेवाओं के दायरे को व्यापक बनाकर तथा कार्यान्वयन, निगरानी और फंडिंग के लिए स्पष्ट तंत्र की रूपरेखा तैयार की है. इससे ये संकेत मिलते हैं कि सरकार इसे लेकर ज़्यादा व्यवस्थित और समावेशी दृष्टिकोण अपना रही है. फिर भी, सिर्फ नीति बनाना ही पर्याप्त नहीं है. कार्यक्रम के लिए ईमानदार आकलन की ज़रूरत है. डेटा-आधारित निर्णय लेना ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं और सार्वजनिक सेवा वितरण के लिए दीर्घकालिक मूल्य सुनिश्चित करेगा. इसके अलावा दिशा-निर्देशों को सही करने के लिए भी ये महत्वपूर्ण होगा.
हालांकि इसके लिए सरकारी कोशिश ज़रूरी है, लेकिन ये अभी तक अपनी पूरी क्षमता तक नहीं पहुंच पाए हैं. यही वजह है कि इस अंतर को पाटने के लिए, इस विभाजन को कम करने के लिए धीरे-धीरे ही सही, निजी क्षेत्र आगे आ रहा है. उदाहरण के लिए, रिलायंस जियो अपने 4G और 5G नेटवर्क के साथ-साथ सैटेलाइट ब्रॉडबैंड के माध्यम से ग्रामीण भारत में इंटरनेट की पहुंच का विस्तार कर रहा है. भारती एयरटेल ने स्टारलिंक के सैटेलाइट इंटरनेट को भारत में लाने के लिए स्पेस एक्स के साथ साझेदारी की घोषणा की है. हालांकि इसे अभी सरकार से मंजूरी मिलनी बाकी है. इस तरह के घटनाक्रम उम्मीद जगाते हैं कि डिजिटल इंडिया का काम रफ्तार पकड़ेगा. इसके साथ ही ये इस वास्तविकता को भी दर्शाते हैं कि भारत के डिजिटल विभाजन को पाटने का कार्य अकेले सरकार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता.
आज की तेजी से डिजिटल होती वैश्विक अर्थव्यवस्था में, इंटरनेट तक समान पहुंच अब विलासिता नहीं रह गई है. ये समावेशी विकास और सामाजिक-आर्थिक भागीदारी का आधार है. डिजिटल बुनियादी ढांचे तक पहुंच में असमानता एक बड़ी आबादी को इस पूरे सिस्टम से बाहर कर देती है. वो डिजिटल बैंकिंग, ऑनलाइन शिक्षा, ई-गवर्नेंस और टेलीमेडिसिन जैसी ज़रूरी सेवाओं से वंचित हो जाते हैं. इससे ना सिर्फ व्यक्तिगत तरक्की सीमित होती है, बल्कि उत्पादकता और नवाचार भी बाधित होता है. जैसे-जैसे अर्थव्यवस्थाएं सार्वजनिक सेवाएँ प्रदान करने, वाणिज्य को बढ़ावा देने और उद्यमशीलता को प्रोत्साहित करने के लिए डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर ज़्यादा से ज़्यादा निर्भर होती जा रही हैं, इंटरनेट का इस्तेमाल मानव पूंजी के विकास और आर्थिक मज़बूती दोनों के लिए एक महत्वपूर्ण उत्प्रेरक बन गया है.
डिजिटल बुनियादी ढांचे तक पहुंच में असमानता एक बड़ी आबादी को इस पूरे सिस्टम से बाहर कर देती है. वो डिजिटल बैंकिंग, ऑनलाइन शिक्षा, ई-गवर्नेंस और टेलीमेडिसिन जैसी ज़रूरी सेवाओं से वंचित हो जाते हैं. इससे ना सिर्फ व्यक्तिगत तरक्की सीमित होती है, बल्कि उत्पादकता और नवाचार भी बाधित होता है.
भारत अपने जनसांख्यिकीय लाभांश (डेमोग्राफिक डिविडेंड) और क्षेत्रीय असमानताओं जैसी समस्याओं से जूझ रहा है. इसके समाधान के लिए सार्वभौमिक इंटरनेट कनेक्टिविटी अनिवार्य है. सरकार की तरफ से की गई भारतनेट जैसी पहल इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हैं.. फिर भी, चुनौती की जटिलता और इसकी व्यापकता को देखते हुए सहयोगात्मक मॉडल की आवश्यकता है. सार्वजनिक नीति को निजी क्षेत्र के नवाचार और निवेश द्वारा मज़बूत किया जा सकता है. जैसे-जैसे जियो और एयरटेल जैसी कंपनियां सैटेलाइट और 5G तकनीकों के ज़रिए ग्रामीण कनेक्टिविटी का विस्तार कर रही हैं, वैसे-वैसे डिजिटल रूप से समावेशी अर्थव्यवस्था की रूपरेखा उभरने लगी है. सरकार और निजी क्षेत्र, दोनों को अब आगे ये सुनिश्चित करना होगा इंटरनेट कनेक्टिविटी की प्रगति निरंतर, न्यायसंगत और प्रभावशाली हो. आखिरकार, डिजिटल विभाजन को पाटना सिर्फ केबल और कवरेज से जुड़ा मुद्दा नहीं है. ये मामला भविष्य की वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत की जगह को सुरक्षित करने को लेकर भी है.
सौरदीप बेग ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में एसोसिएट फेलो हैं.
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Sauradeep is an Associate Fellow at the Centre for Security, Strategy, and Technology at the Observer Research Foundation. His experience spans the startup ecosystem, impact ...
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