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Published on Oct 28, 2025 Updated 0 Hours ago

भारत आज दुनिया भर में दवाओं के जरिए जीवन बांट रहा है मगर इस सफलता के पीछे एक चुनौती भी छिपी है. दरअसल, पड़ोसी देश भारत पर इस कदर निर्भर हो गए हैं कि ज़रा सी आपूर्ति रुकने पर उनकी स्वास्थ्य व्यवस्था डगमगा जाती है. यही वो स्थिति है जहां भारत की यह ताकत उसकी सबसे बड़ी कूटनीतिक परीक्षा बन जाती है. 

भारत कैसे बना दुनिया की दवा फैक्ट्री!

पिछले कुछ दशकों में वैश्विक स्वास्थ्य सेवा सप्लाई चेन में सबसे महत्वपूर्ण घटनाक्रमों में से एक रहा है. भारत का "विश्व की फार्मेसी" के रूप में उभरना. भारत वैश्विक दवा उद्योग का केंद्र बनता जा रहा है. वित्त वर्ष 2025 में भारत का दवा निर्यात 30.47 अरब डॉलर तक पहुंच गया है जो साल-दर-साल 9.4 प्रतिशत की वृद्धि दर्शाता है. इसने भारत को विश्व स्तर पर मात्रा के मामले में तीसरा सबसे बड़ा दवा उत्पादक बना दिया है क्योंकि दुनिया के जेनेरिक दवा निर्यात में इसका योगदान 20 प्रतिशत और वैश्विक वैक्सीन आपूर्ति में अनुमानित हिस्सेदारी 60 प्रतिशत है. लेकिन अगर हम इस मामले को गहराई से देखें, तो ये आंकड़े सिर्फ व्यापार या मुनाफे की कहानी नहीं बताते. इनके पीछे रणनीतिक निर्भरता का एक जटिल जाल छिपा है, जो खास तौर पर भारत और उसके दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के रिश्तों को गहराई से प्रभावित करता है.

  • अमेरिका की तुलना में भारत में दवाएं बनाना लगभग 33 प्रतिशत सस्ता पड़ता है.
  • भारत अपनी सॉफ्ट पावर दिखाने और पड़ोसियों पर प्रभाव बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करता है.


दुनिया की फार्मेसी बना भारत

विकासशील देशों के हिसाब से देखें तो भारत के दवा उद्योग का आकार अभूतपूर्व है. भारत में दवाओं के उत्पादन से जुड़ी 10,500 से ज़्यादा विनिर्माण कंपनियां हैं. अमेरिका के बाहर यूएसए खाद्य एवं औषधि प्रशासन (यूएस-एफडीए) द्वारा अनुमोदित संयंत्रों की सबसे ज़्यादा संख्या भारत में ही है. ये भारत की दवा उत्पादन क्षमता को वैश्विक बाज़ारों में सबसे मज़बूत बनाता है. भारत के निर्यात पोर्टफोलियो में दवा निर्माण और जैविक उत्पादों का प्रभुत्व है जो कुल दवा निर्यात का लगभग 75.2 प्रतिशत है. इसके बाद थोक दवाएं और मध्यवर्ती उत्पाद आते हैं जिनकी मात्रा 16 प्रतिशत है. भारत के दवा उद्योग की सबसे बड़ी ताकत यह है कि यहां दवाएं बहुत कम लागत में बड़ी मात्रा में बनाई जा सकती हैं. अमेरिका की तुलना में भारत में दवाएं बनाना लगभग 33 प्रतिशत सस्ता पड़ता है. इसी वजह से अमेरिका में इस्तेमाल होने वाली करीब 40 प्रतिशत जेनेरिक दवाएं भारत से जाती हैं. भारत की दवा कूटनीति कोविड-19 महामारी के दौरान 21 जनवरी 2021 को शुरू की गई. "वैक्सीन मैत्री" पहल के माध्यम से ये कूटनीति दुनियाभर में, खासकर ग्लोबल साउथ के देशों में सबसे ज़्यादा स्पष्ट हुई. वैक्सीन मैत्री कार्यक्रम को मानवीय सहायता पहल के रूप में देखा गया. इसके तहत 98 देशों को कोरोना वैक्सीन की 162.9 मिलियन वैक्सीन डोज़ दी गईं जिनमें से 14.3 मिलियन खुराकें अनुदान के रूप में दान की गईं. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कुल वितरण का 29.44 प्रतिशत हिस्सा दक्षिण एशिया में भारत के पड़ोसी देशों को मिला.



भारत को विश्व स्तर पर मात्रा के मामले में तीसरा सबसे बड़ा दवा उत्पादक बना दिया है क्योंकि दुनिया के जेनेरिक दवा निर्यात में इसका योगदान 20 प्रतिशत और वैश्विक वैक्सीन आपूर्ति में अनुमानित हिस्सेदारी 60 प्रतिशत है.

दक्षिण एशियाई देशों की भारत पर निर्भरता

भारत के दक्षिण एशियाई पड़ोसी देशों में दवाओं पर निर्भरता साफ़ दिखाई देती है. इनमें सबसे ज़्यादा निर्भर देश नेपाल है, क्योंकि वहां दवाएं बनाने की क्षमता बहुत सीमित है और उसका कोई समुद्री रास्ता नहीं है. इसलिए नेपाल ज़्यादातर दवाएं भारत से ही मंगाता है. दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार समझौते (साफ्टा) के दिशा-निर्देशों के तहत भारत नेपाल को दवाओं पर शुल्क-मुक्त व्यापार की सुविधा देता है, जिससे नेपाल इन दवाओं का बड़ा आयातक बन गया है. भूटान का मामला भी नेपाल जैसा ही है — वह भी ज़्यादातर दवाएं भारत से ही आयात करता है.

भूटान की भौगोलिक स्थिति और सीमित उत्पादन क्षमता की वजह से वह सभी तरह की दवाएं, मेडिकल उपकरण और स्वास्थ्य सामग्री भारत से ही मंगाता है. उसका छोटा बाज़ार और कम फैक्ट्री होने के कारण घरेलू उत्पादन टिकाऊ नहीं है. इसलिए भूटान ज़रूरी दवाओं और वैक्सीन के लिए पूरी तरह भारत पर निर्भर है. नेपाल मुख्य रूप से कैंसर के इलाज के लिए भारत पर निर्भर है, जबकि भूटान न्यूरोसाइकियाट्री दवाओं के लिए.
बांग्लादेश की स्थिति थोड़ी अलग और ज़्यादा जटिल है. यहां की ज़्यादातर दवाओं की जरूरत (लगभग 98%) घरेलू उत्पादन से पूरी होती है. लेकिन इन दवाओं का सबसे अहम हिस्सा, यानी सक्रिय दवा सामग्री (एपीआई), भारत से आती है. एपीआई वह मुख्य घटक है जो दवा का असर पैदा करता है, जैसे दर्द कम करना या संक्रमण से लड़ना. बांग्लादेश अपनी दवाओं के लिए 80% से ज्यादा एपीआई भारत से मंगाता है. इसलिए, भले ही उसके फैक्ट्रियां दुनिया के 150 से ज़्यादा देशों को दवाएं देती हों, ज़रूरी दवाओं के उत्पादन में वह पूरी तरह भारत पर निर्भर है.

श्रीलंका की दवा आपूर्ति भारत पर थोड़ी बहुत लेकिन महत्वपूर्ण रूप से निर्भर है, खासकर जेनेरिक दवाओं और वैक्सीन के लिए. 2025 में एशियाई विकास बैंक के आकलन के अनुसार, श्रीलंका की दवा खरीद और वितरण प्रणाली में कई कमियां हैं जिन्हें सुधारने की ज़रूरत है. भारत से आयात की जाने वाली दवाओं में सबसे ज़्यादा हृदय संबंधी दवाएं खासकर उच्च रक्तचाप की दवाएं, शामिल हैं.

क्वालिटी कंट्रोल एक महत्वपूर्ण मुद्दा है क्योंकि कुछ भारतीय दवाओं से गंभीर स्वास्थ्य घटनाएं हुई हैं जैसे अमेरिका में आई ड्रॉप से संक्रमण और गाम्बिया में कफ सिरप से बच्चों की मौत. 

भारत पर पूरी तरह निर्भर रहने के कारण दक्षिण एशियाई देशों में स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए दो बड़ी चुनौतियां हैं. पहली, अगर आपूर्ति श्रृंखला में बाधा आए या भारत अपनी निर्यात नीति बदल दे तो इन देशों की दवाइयों की उपलब्धता पर बड़ा असर पड़ेगा. दूसरा,  क्वालिटी कंट्रोल एक महत्वपूर्ण मुद्दा है क्योंकि कुछ भारतीय दवाओं से गंभीर स्वास्थ्य घटनाएं हुई हैं जैसे अमेरिका में आई ड्रॉप से संक्रमण और गाम्बिया में कफ सिरप से बच्चों की मौत. ये उदाहरण दिखाते हैं कि पूरी तरह भारत पर निर्भर रहने में जोखिम हो सकता है.

भारत की दवा कूटनीति

भारत से दवा निर्यात सिर्फ व्यापार का मामला नहीं है. कई विशेषज्ञ मानते हैं कि इसे भारत अपनी सॉफ्ट पावर दिखाने और पड़ोसियों पर प्रभाव बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करता है. कोविड-19 के दौरान 'वैक्सीन मैत्री' पहल इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. इस पहल से भारत ने अपनी छवि एक उदार क्षेत्रीय शक्ति के रूप में बनाई और रणनीतिक फायदा भी उठाया लेकिन अप्रैल 2021 में भारत ने अचानक वैक्सीन निर्यात रोक दिया. इससे दक्षिण एशिया के पड़ोसी देशों की स्वास्थ्य सुरक्षा कमजोर हो गई.

भारत का दवा क्षेत्र में प्रभुत्व केवल व्यापार तक सीमित नहीं है बल्कि यह क्षेत्रीय स्वास्थ्य और भू-राजनीति को भी प्रभावित करता है.

वे पहले से अपने टीकाकरण अभियान में थे और अब उन्हें वैकल्पिक आपूर्तिकर्ताओं, मुख्य रूप से चीन की ओर रुख़ करना पड़ा. यह दिखाता है कि भारत का दवा क्षेत्र में प्रभुत्व केवल व्यापार तक सीमित नहीं है बल्कि यह क्षेत्रीय स्वास्थ्य और भू-राजनीति को भी प्रभावित करता है. ये घटनाएँ भारत और चीन के बढ़ते सीमा तनाव के बीच हुईं. दिसंबर 2022 तक, चीन ने 123 देशों को 1.1 अरब वैक्सीन खुराकें दी थीं जिनमें पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल शामिल थे. भारत द्वारा निर्यात रोकने के तीन नुकसान हुए. पहला, भारत की दवा कूटनीति की कमजोरी सामने आई. दूसरा, यह दिखा कि घरेलू राजनीतिक दबाव मानवीय प्रतिबद्धताओं को प्रभावित कर सकते हैं. वहीं तीसरा चीन को भरोसेमंद आपूर्तिकर्ता के रूप में स्थापित करके दक्षिण एशिया की रणनीति बदल गई.


आत्मनिर्भरता की जरूरत


इस विश्लेषण का उद्देशय भारत और उसके दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के लिए कई महत्वपूर्ण नीतिगत निहितार्थों को सामने लाना है. भारत के लिए चुनौती अपने व्यावसायिक हितों को सुरक्षित रखने की है. इसके अलावा, भारत को एक क्षेत्रीय और दवा उत्पादों के विश्वसनीय आपूर्तिकर्ता के रूप में अपनी भूमिका के बीच संतुलन बनाए रखने की कोशिश भी करनी चाहिए. भारत को वैश्विक या क्षेत्रीय संकट के दौरान दवाओं की बेरोकटोक आपूर्ति सुनिश्चित करनी होगी. अपनी विश्वसनीयता की रक्षा करने के लिए और अधिक मज़बूत तंत्र विकसित करने होंगे. भारत को कोशिश करनी चाहिए कि कोविड-19 महामारी के दौरान वैक्सीन के निर्यात पर अस्थायी रोक जैसी स्थिति दोबारा पैदा ना हो.

दवा उत्पादन में लगभग आत्मनिर्भरता हासिल करने में बांग्लादेश की सफलता दूसरे देशों के लिए एक उदाहरण बन सकती है. स्थानीय निर्माताओं के माध्यम से बांग्लादेश घरेलू मांग का करीब 98 प्रतिशत पूरा करता है.


वहीं दक्षिण एशियाई देशों के लिए भी ये ज़रूरी है कि वो दवा उत्पादों की आपूर्ति के स्रोतों में विविधता लाएं. इससे भी महत्वपूर्ण ये है कि इन देशों को अपनी रणनीतिक कमज़ोरियों को कम करने के लिए क्षेत्रीय विनिर्माण क्षमताओं का विकास करना चाहिए. दवा उत्पादन में लगभग आत्मनिर्भरता हासिल करने में बांग्लादेश की सफलता दूसरे देशों के लिए एक उदाहरण बन सकती है. स्थानीय निर्माताओं के माध्यम से बांग्लादेश घरेलू मांग का करीब 98 प्रतिशत पूरा करता है. दक्षिण एशिया के अन्य देशों को बांग्लादेश से ये बात सीखनी चाहिए. हालांकि, व्यक्तिगत प्रयास अपर्याप्त साबित हो सकते हैं. इसीलिए, ये लेख ना सिर्फ दवाओं के उत्पादन में बल्कि नीतिगत समर्थन में, नियामक ढांचों के सामंजस्य और प्रौद्योगिकी सहयोग में भी एक समन्वित क्षेत्रीय दृष्टिकोण की ज़रूरत पर ज़ोर देता है. इस तरह के सहयोग के लिए एक संस्थागत ढांचा पहले से ही मौजूद है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने 2016 में दक्षिण-पूर्व एशिया नियामक नेटवर्क (एसईएआरएन) स्थापित किया था. भारत, बांग्लादेश, भूटान, नेपाल और श्रीलंका समेत 11 सदस्य देश इस नेटवर्क में शामिल हैं. इस तरह के मंचों का लाभ उठाकर, दक्षिण एशियाई देश गुणवत्ता संबंधी समस्याओं को कम कर सकते हैं, सुरक्षित दवाओं तक पहुंच में तेजी ला सकते हैं. इतना ही नहीं, सामूहिक रूप से प्रौद्योगिकी हस्तांतरण में शामिल होकर वो दवा स्वायत्तता को बढ़ा सकते हैं.

सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि दक्षिण एशियाई देशों को दवा उत्पादन का मज़बूत तंत्र स्थापित करने के लिए अपना रवैया बदलना होगा. देने वाले और लेने वाले की मानसिकता से आगे बढ़कर ज़िम्मेदारी, स्वायत्तता और परस्पर निर्भरता के एक साझा मॉडल की ओर बढ़ना ज़रूरी है. इसके लिए ना सिर्फ संस्थागत सहयोग की आवश्यकता है, बल्कि पारदर्शिता, समानता और स्वास्थ्य संप्रभुता में दीर्घकालिक निवेश के प्रति मज़बूत प्रतिबद्धता की भी ज़रूरत है. ऐसी रणनीति के ज़रिए ही दक्षिण एशियाई देश ज़रूरी दवाओं तक अपनी निर्बाध पहुंच सुनिश्चित कर सकते हैं. इसका फायदा ये होगा कि बाहरी झटकों की स्थिति में भी ये स्वास्थ्य सुरक्षा की चुनौती का काफ़ी हद तक मुकाबला कर सकते हैं.


अनसुआ बसु रे चौधरी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.

सुभांगी मुखर्जी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में इंटर्न हैं.

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