Image Source: Getty
हाल ही में लेबनान में हिज़्बुल्लाह के ख़िलाफ़ हैक किए गए पेजर्स और वाकी टाकी के ज़रिए किए गए हमलों— जिनके पीछे शायद इज़राइल का हाथ था- ने उस संघर्ष का एक नया मोर्चा खोल दिया है, जो पिछले साल अक्टूबर में शुरु हुआ था और अब इस संघर्ष के पूरे मध्य पूर्व को अपनी चपेट में लेने का ख़तरा मंडरा रहा है. वैसे तो इन हमलों के पीछे के दुस्साहस ने ज़्यादा सुर्ख़ियां बटोरीं. लेकिन इस इलाक़े की भू-राजनीति और यहां के देशों द्वारा पिछले कई दशकों से पारंपरिक तौर पर अपनाए जाने वाले रुख़ में बदलाव तो ग़ज़ा और अब लेबनान के मौजूदा संघर्ष से बहुत पहले आने लगे थे.
संयुक्त अरब अमीरात (UAE) के प्रभावशाली राष्ट्रपति मुहम्मद बिन ज़ायद अल नहयान ने वॉशिंगटन डीसी में व्हाइट हाउस का अपना पहला दौरा हाल ही में पूरा किया है. इस दौरान, अमेरिका ने संयुक्त अरब अमीरात को ‘प्रमुख रक्षा साझीदार’ का दर्जा दिया, जो भारत के बाद किसी दूसरे देश को मिला है.
संयुक्त अरब अमीरात (UAE) के प्रभावशाली राष्ट्रपति मुहम्मद बिन ज़ायद अल नहयान ने वॉशिंगटन डीसी में व्हाइट हाउस का अपना पहला दौरा हाल ही में पूरा किया है. इस दौरान, अमेरिका ने संयुक्त अरब अमीरात को ‘प्रमुख रक्षा साझीदार’ का दर्जा दिया, जो भारत के बाद किसी दूसरे देश को मिला है. ऊपरी तौर पर तो ये बात हैरान करती है कि पिछले कई बरसों से अमेरिका के नज़दीकी सहयोगी संयुक्त अरब अमीरात के नए नेता ने अब जाकर अमेरिका का दौरा किया, जबकि राष्ट्रपति का पद तो उन्होंने 2022 में ही संभाल लिया था. हालांकि, इस ऊपरी तस्वीर के नीचे मध्य पूर्व के देशों के सामरिक नज़रिए में पिछले कई सालों से जो बदलाव आ रहे हैं, वो सबको दिखाई दे रहे हैं. रूस के साथ संबंध बरक़रार रखने के साथ साथ, तालिबान से संवाद करने वाला UAE ने अपनी नीतियों से इस इलाक़े में एक ऐसे देश की छवि बनाई है, जिन्हें आदर्श स्थिति में अमेरिका भी अपनाना चाहेगा, पर वो कर नहीं सकता और इसी वजह से वो संयुक्त अरब अमीरात के साथ अपने रिश्तों की वजह से उसके हाथ में इन नीतियों की नक़ल ही आ सकी है. संयुक्त अरब अमीरात के एक वरिष्ठ राजनयिक अनवर गरगाश ने कहा कि, ‘हम ऐसे दौर में हैं जहां भू-सामरिक से ज़्यादा भू-आर्थिक नीतियों पर ज़ोर दिया जा रहा है.’
रक्षा रणनीति को नए सिरे से ढालने की कोशिशें
इस क्षेत्र और विशेष रूप से अरब देशों के सामरिक रुख़ में आई जो सबसे स्पष्ट तब्दीली है, वो हथियारों के बाज़ार में बढ़ती होड़ और रक्षा क्षेत्र पर अमेरिका केंद्रित नियंत्रण की साफ़ तौर पर ढीली होती पकड़ है. पांच अरब देश दुनिया के सबसे बड़े हथियारों के ख़रीदार देश हैं (2019 से 2023 के बीच), और इनमें से सऊदी अरब दूसरे नंबर पर है. वहीं, संयुक्त अरब अमीरात, क़तर, कुवैत और मिस्र भी इस सूची में शामिल हैं. वैसे तो अभी भी अरब देशों में पश्चिम के हथियारों का दबदबा है और आने वाले वक़्त में उनके हथियार ख़रीदने की ख़्वाहिश वाली सूची का भी यही हाल दिखता है. लेकिन, दो बड़े कारणों की वजह से इन ख़रीदारियों और आने वाले समय में होने वाले सौदों में बदलाव के आसार दिखते हैं. पहला कारण तो आधुनिक दौर में युद्ध लड़ने के तौर तरीक़ों में आई तब्दीली है, जहां पर युद्ध क्षेत्र में पारंपरिक हथियारों के बजाए नए नए तकनीकी आविष्कार ज़्यादा कारगर साबित हो रहे हैं. इसका सबूत हमें यूक्रेन और आर्मेनिया और अज़रबैजान के बीच नगोर्नो कराबाख़ में हुए संघर्ष में दिखा था. वैसे तो ज़्यादा तवज्जो इस बात को दी जा रही है कि तकनीकी तरक़्क़ी कितनी असरदार साबित हो रही है और सामरिक तौर पर असमान बढ़त दिला रही है. लेकिन, आख़िर में जो बात सबसे अहम और निर्णायक साबित होती है, वो हथियारों की बहुत कम (और अक्सर न के बराबर) लागत है, जो सबसे ज़्यादा ध्यान खींच रही है.
ग़ैर पारंपरिक, असमान और कम लागत वाले संघर्षों के लिए असरदार तकनीक के सवाल से इतर, रणनीति पर विचार और भू-राजनीति ने भी इस इलाक़े के देशों की ज़रूरतों में और ज़्यादा बदलाव लाने का काम किया है. इन परिवर्तनों के केंद्र में भविष्य के लिहाज से ज़रूरी राजनीतिक नफ़ा-नुक़सान का हिसाब लगाना है.
ग़ैर पारंपरिक, असमान और कम लागत वाले संघर्षों के लिए असरदार तकनीक के सवाल से इतर, रणनीति पर विचार और भू-राजनीति ने भी इस इलाक़े के देशों की ज़रूरतों में और ज़्यादा बदलाव लाने का काम किया है. इन परिवर्तनों के केंद्र में भविष्य के लिहाज से ज़रूरी राजनीतिक नफ़ा-नुक़सान का हिसाब लगाना है. इनकी वजह मौजूदा दौर की कुछ तल्ख़ हक़ीक़तें हैं. जैसे कि अमेरिका इस इलाक़े के सकल सुरक्षा प्रदाता के तौर पर अपनी क्षमता में कटौती करना चाहता है. हालांकि, इसका ये मतलब बिल्कुल नहीं है कि अमेरिका इस इलाक़े से अपने सैनिक हटा लेगा. लेकिन, आने वाले समय में अमेरिका की मौजूदगी और संकेतों में कमी आनी तय है. राजनीतिक रूप से अमेरिका इस इलाक़े के विवादों में कूदने का जोख़िम लेने से पहले से ही क़तराने लगा है.
2019 में सऊदी अरब ने भारी क़ीमत चुकाकर ये सबक़ सीखा था, जब यमन के हूती उग्रवादियों ने सऊदी अरब के तेल के प्रमुख ठिकानों पर ड्रोन से हमले किए थे. तेल ही लगभग पूरी तरह से सऊदी अरब की राजनीति और उसकी सुरक्षा का ख़र्च उठाता है. इस हमले पर अमेरिका ने बड़ी बेदिली से प्रतिक्रिया दी थी. हालांकि, सऊदी अरब समेत कुछ लोगों ने ये माना था कि इसकी वजह पूर्व रिपब्लिकन अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप का प्रशासन संरक्षण देने में ज़्यादा मज़बूत इरादों का प्रदर्शन करेगा. लेकिन, ऐसा हुआ नहीं और डॉनल्ड ट्रंप ने कोई ठोस क़दम उठाने के बजाय हवाई बयानबाज़ी से ही काम चला लिया था. पिछले पांच वर्षों के दौरान कूटनीतिक स्तर पर ऐसी घटनाओं को लेकर इस क्षेत्र में प्रतिक्रियाएं साफ़ तौर पर देखने को मिली हैं. सऊदी अरब ने ईरान के साथ अपने रिश्ते सामान्य कर लिए और यमन के हूतियों के साथ बातचीत के दरवाज़े खोले. संयुक्त अरब अमीरात ने ग़ज़ा की घटनाओं के बावजूद अब्राहम समझौते की बुनियादी शर्तों से मुंह नहीं फेरा. बहरीन जैसे छोटे मुल्क भी ईरान के साथ लंबे समय से चली आ रही दरारों को पाटने के मौक़े तलाश रहे हैं.
रक्षा क्षेत्र में नए खिलाड़ियों की आमद
इन भू-राजनीतिक कारणों की वजह से तमाम क्षेत्रों में जोखिम कम करने के लिए विविधता लाने की कोशिशें शुरू की गईं. ‘सामरिक स्वायत्तता’ का विचार जो निश्चित रूप से भारत से इस क्षेत्र में पहुंचा, वो अब अरब देशों को ख़ूब पसंद आ रहा है. इस तरह की स्वायत्तता की मांग का मतलब था कि रक्षा क्षेत्र के छोटे निर्माता अब कई क्षेत्रों में पश्चिम के दबदबे का सीधा मुक़ाबला कर सकते हैं.
चीन, तुर्की, दक्षिण कोरिया जैसे कई देश इस क्षेत्र में अपने ग्राहकों के साथ कई उदारवादी शर्तों का लाभ उठा रहे हैं और अपने रक्षा उपकरणों के लिए गुंजाइश निकालने में सफल हो रहे हैं. मिसाल के तौर पर संयुक्त अरब अमीरात, अमेरिका से MQ-9 रीपर ड्रोन ख़रीदना चाहता था. लेकिन, अमेरिका ने शर्तें लगा दीं कि UAE इनको कैसे और कब तैनात कर सकेगा. इन शर्तों से बचने के लिए UAE ने चीन से इसी ड्रोन की नक़ल विंग लूंग II ख़रीद लिया, जिनको बेचने के दौरान चीन ने कम से कम सार्वजनिक तौर पर तो कोई बड़ी शर्त नहीं लगाई थी.
इस बीच, तुर्की ने मानवरहित विमानों (UAV) के मामले में ज़बरदस्त कामयाबी हासिल की है. तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैयप अर्दोआन ने मध्य पूर्व में अपने पड़ोसी देशों के साथ मतभेद निपटाने के लिए रक्षा क्षेत्र में सहयोग को बहुत उपयोगी रास्ते के तौर पर पाया है. इसके ज़रिए वो तुर्की की बीमार अर्थव्यवस्था के लिए पैसे जुटाने में भी सफल रहे हैं, जिसकी उनके देश को सख़्त ज़रूरत है. 2023 में सऊदी अरब ने तुर्की की बयकर टेक्नोलॉजी से ड्रोन ख़रीदे थे. ये कंपनी मशहूर बयरक्तार TB2 ड्रोन बनाती है, जिन्हें तुर्की ने दर्जन भर से ज़्यादा देशों को बेचा है. संयुक्त अरब अमीरात (संभवत:), क़तर, पाकिस्तान, अज़रबैजान और लीबिया जैसे देश भी बयकर टेक्नोलॉजी द्वारा बनाए गए UAV इस्तेमाल कर रहे हैं. जनवरी में UAE की मशहूर रक्षा कंपनी एज ग्रुप ने अपने डेज़र्ट स्टिंग गाइडेड बमों को TB2 ड्रोन से जोड़ने के सौदे पर अंतिम मुहर लगाई थी, जिससे तुर्की और संयुक्त अरब अमीरात के बीच सहयोग के नए युग की शुरुआत का संकेत मिला था.
रक्षा उपकरणों का एक और निर्माता दक्षिण कोरिया भी मध्य पूर्व में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है. दक्षिण कोरिया के एयर डिफेंस सिस्टम में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात दोनों ने दिलचस्पी दिखाई है.
रक्षा उपकरणों का एक और निर्माता दक्षिण कोरिया भी मध्य पूर्व में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है. दक्षिण कोरिया के एयर डिफेंस सिस्टम में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात दोनों ने दिलचस्पी दिखाई है. UAE तो दक्षिण कोरिया के रक्षा निर्माण के लक्ष्यों और विशेष रूप से हवाई क्षेत्र में अपनी काफ़ी राजनीतिक और आर्थिक ताक़त लगाने के मौक़े तलाश रहा है. मिस्र ने भी स्वचालित तोपों की आपूर्ति श्रृंखला स्थापित करने के लिए दक्षिण कोरिया को ही चुना और निकट भविष्य में वो दक्षिण कोरिया से 100 T-50 ट्रेनी जहाज़ ख़रीदने का सौदा कर सकता है. दक्षिण कोरिया ने चूंकि पश्चिमी देशों और ख़ास तौर से अमेरिका की तकनीकों के आधार पर अपने देश में रक्षा उद्योग खड़ा किया है, इससे अरब देशों के लिए उसका चुनाव करना और भी आसान हो गया है.
इज़राइल और ईरान की पहेली
2020 में हुए अब्राहम समझौतों का एक प्रमुख आकर्षण अरब देशों द्वारा इज़राइल की रक्षा तकनीकें हासिल करने की संभावना था. ग़ज़ा में चल रहे युद्ध ने इन अदला बदलियों की संभावनाओं को जटिल कर दिया है. यही नहीं, इस क्षेत्र में UAE को एक बड़ी हवाई ताक़त बनने देने को लेकर इज़राइल की आशंका ने इन पेचीदगियों को और मुश्किल बना दिया है. क्योंकि UAE, अमेरिका से अत्याधुनिक और रडार से बचने में सक्षम F-35 लाइटनिंग-II लड़ाकू विमान ख़रीदना चाहता था.
इस बीच चीन जैसे देशों के लिए ईरान और अरब देशों, दोनों को हथियार बेचना उनकी संतुलन बनाने की नीति का हिस्सा है. जहां तक ईरान की बात है, तो उसके लिए चीन सबसे अहम साझीदार है; पर, चीन के लिए शायद ये बात सही नहीं है, क्योंकि वो सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात दोनों से रक्षा और आर्थिक संबंध और मज़बूत बनाना चाहता है. इसके बावजूद, चीन और ईरान के बीच हथियारों की ख़रीद फ़रोख़्त का एक लंबा और मज़बूत इतिहास रहा है. इस आदान-प्रदान की निरंतरता को बड़े बड़े ख़रीद के सौदों और पश्चिम विरोधी नीति की बुनियाद पर तैयार सहयोग के ऊपर तरज़ीह दी जाती है. ग़ज़ा के युद्ध के बावजूद चीन ने अरब देशों के पक्ष में इज़राइल के साथ अपने रिश्ते क़ुर्बान कर दिए हैं और वो इज़राइल की तुलना में ईरान के ज़्यादा क़रीब है. इससे ये तथ्य उजागर होता है कि चीन उस बड़ी आर्थिक तस्वीर को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ रहा है, जिसका ज़िक्र अनवर गरगेश ने किया था.
निष्कर्ष
आज मध्य पूर्व का रक्षा बाज़ार भारत जैसे आकांक्षी देशों के लिए खुल गया है. वैसे तो रक्षा उद्योगों को भारत की आर्थिक आकांक्षाओं का इंजन बताया जा रहा है. लेकिन मुक़ाबला बेहद कड़ा और तेज़ है. भारत ने मिस्र जैसे देशों में जिस तरह अपने स्वदेशी हल्के लड़ाकू विमान तेजस को बेचने की कोशिश की, उसका तरीक़ा बहुत ग़लत था और उसमें इस बात की समझ नहीं दिखी थी कि मिस्र अपने हथियार किस तरह ख़रीदता है. असरदार तरीक़े से होड़ लगाने के लिए भारत को तकनीकी और उत्पादन की क्षमताओं के बीच की खाई के साथ साथ, कंपनियों और रक्षा प्रतिनिधियों को दी गई ज़िम्मेदारियों के बीच के फ़ासले को पाटना होगा.
अगर भारत चतुराई से अपनी औद्योगिक क्षमताओं के आधार पर इन अवसरों को भुनाने की कोशिश करे, तो राजनीतिज्ञ अपने उद्योगों से जो लक्ष्य हासिल करने की ख़्वाहिश रखते हैं, उन्हें इस इलाक़े के देशों के साथ भारत के अच्छे राजनीतिक संबंधों का लाभ उठाकर वास्तविकता में परिवर्तित किया जा सकता है.
काग़ज़ों पर तो भारत न केवल अपने रक्षा उत्पादों को मध्य पूर्व में बेचने बल्कि उनका मिलकर उत्पादन करने, विशेष रूप से जहाज़रानी और हवाई उद्योग में अच्छी स्थिति में है. व्यवहारिक बात करें, तो अगर भारत चतुराई से अपनी औद्योगिक क्षमताओं के आधार पर इन अवसरों को भुनाने की कोशिश करे, तो राजनीतिज्ञ अपने उद्योगों से जो लक्ष्य हासिल करने की ख़्वाहिश रखते हैं, उन्हें इस इलाक़े के देशों के साथ भारत के अच्छे राजनीतिक संबंधों का लाभ उठाकर वास्तविकता में परिवर्तित किया जा सकता है.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.