Image Source: Getty
कम क़ीमत वाली जेनेरिक दवाओं और टीकों के आपूर्तिकर्ता के तौर पर कई दशकों से पूरी दुनिया में भारत की पहचान ‘दुनिया के दवाखाने’ के तौर पर रही है. हालांकि, देश में नई दवा के विकास की संभावनाएं आम तौर पर नहीं तलाशी गई हैं. इस मामले में नैफिथ्रोमाइसिन नाम की नई एंटीबायोटिक दवा, एक बड़ा बदलाव ला सकती है. इसे 2025 में मिक़नैफ के नाम से बाज़ार में उतारे जाने की उम्मीद है. ये दवा वोकहार्ट कंपनी ने स्वदेश में विकसित की है, जिसमें बायोटेक्नोलॉजी इंडस्ट्री रिसर्च असिस्टेंस काउंसिल (BIRAC) का बहुत अहम सहयोग रहा है. नेफिथ्रोमाइसिन भारत में विकसित की गई पहली नई स्वदेशी एंटीबायोटिक है, जिसका इस्तेमाल उन बीमारियों के इलाज में किया जाएगा, जिन पर दवाओं का असर ख़त्म हो चुका है. इससे दवाओं से बेअसर रहने वाले कीटाणुओं से होने वाली बीमारियों के वैश्विक स्वास्थ्य आपातकाल से निपटने में भी मदद मिलेगी. इस एंटीबायोटिक दवा का विकास कम्युनिटी एक्वायर्ड बैक्टीरियल न्यूमोनिया (CABP) के इलाज के लिए किया गया है, जिस पर मौजूदा दवाएं बेअसर साबित हो रही हैं. ये मेडिकल क्षेत्र की ऐसी कामयाबी है, जो दवाओं के आविष्कार के मामले में भारत की अपार संभावनाओं का संकेत देती है.
नेफिथ्रोमाइसिन का विकास बेहद अहम मकाम पर हुआ है. दुनिया में बीमारियों से होने वाली मौतों में न्यूमोनिया अभी भी एक बड़ा कारण है और इसका एक बड़ा कारण ये है कि इसके कीटाणु पर मौजूदा एंटीबायोटिक दवाएं बेअसर हो चुकी हैं, जिसकी वजह से इसका इलाज अप्रभावी हो चुका है. चूंकि 1980 के दशक से ही दुनिया भर में नई एंटीबायोटिक दवाओं का विकास नहीं हो रहा है. ऐसे में इस आविष्कार के ज़रिए भारत, देश के भीतर और बाक़ी दुनिया में स्वास्थ्य के मामले में नई उम्मीदें जगा सकता है.
नई एंटीबायोटिक दवाओं की ज़रूरत क्यों है?
AMR यानी कीटाणुओं से होने वाली वो बीमारियां जिन पर मौजूदा दवाओं का प्रभाव नहीं होता है, उन्हें ‘ख़ामोश महामारी’ कहा जाता है. कीटाणुओं पर दवाएं बेअसर होने की वजह से, आधुनिक इलाज के क्षेत्र में पिछले कई दशकों में हासिल हुई उपलब्धियां छिन जाने का डर है. अंदाज़ा लगाया गया है कि दवा प्रतिरोधी बीमारियों की वजह से 2050 तक दुनिया में हर साल एक करोड़ लोगों की जान जा सकती है. इनमें न्यूमोनिया एक बड़ा कारण होगा, जिसका निम्न और मध्यम आमदनी वाले देशों पर कुछ ज़्यादा ही बुरा असर होगा. दुनिया भर में न्यूमोनिया से होने वाली मौतों में से 23 फ़ीसद अकेले भारत में ही होती हैं. भारत में हर साल कम्युनिटी एक्वायर्ड बैक्टीरियल न्यूमोनिया (CABP) के लगभग चालीस लाख मामले सामने आते हैं.
फार्मास्यूटिकल उद्योग द्वारा नई एंटीबायोटिक के विकास से अपने क़दम पीछे खींचने ने इन हालात को और भी गंभीर बना दिया है. चूंकि एंटीबायोटिक दवाओं का आर्थिक मॉडल अलग होता है. इनसे इलाज का चक्र छोटा होता है और प्रतिरोधक क्षमता बनाए रखने के लिए सीमित इस्तेमाल किया जाता है और इनकी क़ीमत भी ज़्यादा नहीं होती. इन वजहों ने भी एंटीबायोटिक के विकास में निवेश को हतोत्साहित किया है. इसी वजह से एंटीबायोटिक पर रिसर्च और इनमें जोखिम वाले पूंजी निवेश घटते गए हैं और इन दवाओं के मामले में आविष्कार मोटे तौर पर बंद ही हो गया है. हमारी स्वास्थ्य व्यवस्थाएं पुरानी और बेअसर हो चुकी दवाओं के भरोसे चल रही हैं, जिन पर कीटाणुओं ने जीत हासिल कर ली है. नैफिथ्रोमाइसिन का विकास ये दिखाता है कि निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के बीच अगर लक्ष्य आधारित सहयोग हो, तो अहम क्षेत्रों में बाज़ार की ताक़तों की नाकामी से उबरा जा सकता है.
नैफिथ्रोमाइसिन का विकास ये दिखाता है कि निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के बीच अगर लक्ष्य आधारित सहयोग हो, तो अहम क्षेत्रों में बाज़ार की ताक़तों की नाकामी से उबरा जा सकता है.
एंटीबायोटिक के विकास की वैश्विक योजनाओं में प्राथमिकता तय करने की कमी से ये संकट और भी गहरा हो गया है. क्योंकि दुनिया में कैंसर और डायबिटीज़ जैसी बीमारियों की दवाओं के विकास के लिए रिसर्च में तो सालाना अरबों डॉलर के निवेश हो रहे हैं. लेकिन, इलाज की कम समय अवधि और सीमित समय के लिए इस्तेमाल होने की वजह से एंटीबायोटिक के क्षेत्र में निवेश नहीं हो रहा है. क्योंकि ये क्षेत्र कम मुनाफ़े वाला हो गया है. बाज़ार की नाकामी की समस्या ने नई एंटीबायोटिक के विकास का बोझ छोटी कंपनियों और अकादमिक संस्थानों पर डाल दिया है, जिनके पास पर्याप्त संसाधन नहीं होते; इनमें से बहुत सी संस्थाएं और कंपनियां तो ऐसी होती हैं, जो क्लिनिकल ट्रायल के स्तर तक ही उम्मीद जगाने वाली खोज कर सकती हैं. यही नहीं, जो नई एंटीबायोटिक बाज़ार में पहुंच जाती हैं, उनमें से ज़्यादातर एंटीबायोटिक के मौजूदा वर्ग के ही नए प्रतिरूप होती हैं, जिनका व्यापक संक्रमण फैलाने वाले ‘सुपरबग्स’ कीटाणुओं पर बहुत सीमित ही असर होता है. अब ग्राम नेगेटिव बैक्टीरिया जैसे अहम कीटाणुओं से लड़ने के लिए नई दवाओं के विकास की सक़्त ज़रूरत है. क्योंकि इन कीटाणुओं ने मौजूदा दवाओं को बर्दाश्त करने की क्षमता विकसित कर ली है और इनसे न्यूमोनिया, सेप्सिस, ख़ून के संक्रमण जैसी बीमारियां होने का ख़तरा बढ़ गया है, जिनसे जान पर बन आती है.
नैफिथ्रोमाइसिन के विकास के पीछे का विज्ञान
क्लिनिकल ट्रायल और व्यवहारिक इस्तेमाल दोनों में नैफिथ्रोमाइसिन बेहद असरदार साबित हुई है. इसकी वजह से ये दवा मरीज़ों और डॉक्टरों दोनों के लिए ज़्यादा आकर्षक साबित होगी. ये दवा, अपनी क्षमता और नतीजों के मामले में एज़ीथ्रोमाइसिन की तुलना में दस गुना ज़्यादा असरदार है, वो भी केवल तीन दिनों की ख़ुराक में. इससे मरीज़ों के नियमित रूप से दवा खाने और उसको राहत मिलने के संभावना भी बढ़ जाती है. यही नहीं, नैफिथ्रोमाइसिन आम कीटाणुओं के साथ साथ बीमारियों वाले ख़ास तरह के कीटाणुओं पर असरदार साबित हुई है. इनमें कीटाणुओं की वो प्रजातियां भी शामिल हैं, जिन पर अब मौजूदा दवाएं असर नहीं करतीं. इससे कम्युनिटी एक्वायर्ड बैक्टीरियल न्यूमोनिया (CABP) के इलाज के पहले मोर्चे के तौर पर नैफिथ्रोमाइसिन की अहमियत और रेखांकित होती है.
सुरक्षा के मामले में भी इसकी ख़ूबी ज़ाहिर है. नैफिथ्रोमाइसिन लेने से पेट के बहुत सीमित साइड इफेक्ट होते हैं और दूसरी दवाओं के साथ लेने पर भी इसके नुक़सान बहुत मामूली है. इसकी वजह से ये दवा आबादी के एक बड़े वर्ग के लिए सुरक्षित बन जाती है. ख़ुराक के हर स्तर पर शरीर में नैफिथ्रोमाइसिन के असर को बर्दाश्त किया जा सकता है और इसका कोई गंभीर या विपरीत प्रभाव देखने को नहीं मिला है. इतनी असरदार और सुरक्षित होने की वजह से नैफिथ्रोमाइसिन के दुनिया की दूसरी दवाओं से मुक़ाबला करने की क्षमता बढ़ जाती है. ख़ास तौर से इसलिए भी क्योंकि ये पिछले तीन दशकों अपने वर्ग में विकसित की गई पहली नई एंटीबायोटिक है. इलाज में उम्मीदें जगाने के अलावा नैफिथ्रोमाइसिन वैश्विक स्तर की दवा विकसित करने में भारत के घरेलू दवा उद्योग की क्षमता का भी प्रदर्शन करती है. मौजूदा वर्गों की प्रतिरूप दवाएं बनाने के हमारे दवा उद्योग के निराशाजनक रिकॉर्ड के सामने नैफिथ्रोमाइसिन का विकास एक अपवाद है. इससे इस बात की तरफ़ तवज्जो जाती है कि जब निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाएं आपस में मिलकर जनहित के काम करती हैं, तो क्या हासिल करना मुमकिन है.
इलाज में उम्मीदें जगाने के अलावा नैफिथ्रोमाइसिन वैश्विक स्तर की दवा विकसित करने में भारत के घरेलू दवा उद्योग की क्षमता का भी प्रदर्शन करती है.
निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के सहयोग पर एक नज़र
दवा प्रतिरोधी कीटाणुओं (AMR) से मुक़ाबला करवने के लिए राजनीतिक अभियान एक अहम मोड़ पर पहुंच गया है. संयुक्त राष्ट्र महासभा में AMR पर एक उच्च स्तर की बैठक के दौरान कहा गया कि इससे निपटने के लिए ‘निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के बीच साझेदारी के लाभों को पहचानने की ज़रूरत है.’ कॉम्बैटिंग एंटीबायोटिक रेज़िस्टेंट बैक्टीरिया बायोफार्मास्यूटिकल एक्सेलरेटर (CARB-X) और ग्लोबल एंटीबायोटिक रिसर्च ऐंड डेवेलपमेंट पार्टनरशिप (GARDP) द्वारा हासिल की गई उपलब्धियों को ध्यान में रखते हुए बायोफार्मा उत्पादों के विकास और उनको फ़ायदे का सौदा बनाने में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की साझेदारी (PPP) एक अनूठी व्यवस्था का विकल्प पेश करती है. कॉम्बैटिंग एंटीबायोटिक रेज़िस्टेंट बैक्टीरिया बायोफार्मास्यूटिकल एक्सेलरेटर (CARB-X) और ग्लोबल एंटीबायोटिक रिसर्च ऐंड डेवेलपमेंट पार्टनरशिप (GARDP) दो वैश्विक अलाभकारी साझेदारियां हैं, जो एंटीबैक्टीरियल दवाओं के उत्पादन और आसानी से पहुंच के क्षेत्र में काम कर रही हैं. भारत के मोर्चे पर निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की साझेदारी, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के स्वास्थ्य के क्षेत्र में लचीलापन हासिल करने के लक्ष्य का एक मुख्य रास्ता बना हुआ है.
बायोटेक्नोलॉजी इंडस्ट्री रिसर्च असिस्टेंस काउंसिल (BIRAC), जैव प्रौद्योगिकी विभाग (DBT) के अंतर्गत आने वाली एक अलाभकारी सरकारी संस्था है. इसने नैफिथ्रोमाइसिन के तीसरे चरण के क्लिनिकल ट्रायल में मदद के लिए आठ करोड़ रुपए का निवेश किया था. BIRAC की कोशिश भारत की बायोइकॉनमी को बढ़ावा देने की है. इसके 2030 तक 300 अरब डॉलर का होने की उम्मीद है. इसलिए BIRAC उच्च गुणवत्ता वाले उत्पादों के आविष्कार और विकास के लिए रिसर्च को बढ़ावा देती है. भारत में स्टार्ट-अप का बेहद अच्छा माहौल है और 2023 में केवल जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में 8,000 से ज़्यादा स्टार्टअप काम कर रही थीं. BIRAC की ज़िम्मेदारियों में अकादेमिक रिसर्च और उद्योग के बीच पुल का काम करना है, जिसके लिए वो रिसर्च की नई नई तकनीकों को उद्योग के उचित साझादीरों से जोड़ती हैं, ताकि किसी उत्पाद के विकास के अलग अलग स्तरों को मदद पहुंचाई जा सके. जैसे कि परिकल्पना के सही होने के सबूतों वाले विचार को इस तरह परिष्कृत करना, जिससे इसके कारोबारी इस्तेमाल की संभावनाएं बढ़ें. स्टार्ट अप को विकास के दौरान मदद देने, मूल्यांकन और पुष्टि में सहायता देने और स्टार्टअप के लिए बुनियादी पूंजी जुटाने के अवसरों की पहचान करने में भी ये संस्था मदद करती है. इसकी अन्य उल्लेखनीय उपलब्धियों में CERVAVAC शामिल है, जो क्वाड्रिवैलेंट ह्यूमन पैपिलोवायरस (qHPV) का टीका है. इसे सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इडिया, जैव प्रौद्योगिकी विभाग, BIRAC के साथ साथ बिल ऐंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन ने मिलकर विकसित किया है; इसके अलावा ज़ाइडस कैडिला द्वारा जैव प्रौद्योगिकी विभाग व BIRAC के साथ मिलकर विकसित की गई ZyCoV-D नाम की वैक्सीन जो दुनिया का पहला डीएनए पर आधारित कोविड का टीका है.
भारत के लिए नैफिथ्रोमाइसिन के मायने: बाधाओं से पार पाना
दवा प्रतिरोधक कीटाणु, सार्वजनिक स्वास्थ्य का ऐसा संकट हैं, जिनसे पार पाने के लिए नई दवाएं विकसित करने की ज़रूरत है. एंटीबायोटिक दवाओं का विकास और उनको मुनाफे के स्तर तक ले जाने में 10 से 15 साल लग जाते हैं; भारत को नैफिथ्रोमाइसिन के विकास में लगभग 14 बरस लगे. यही नहीं, नई एंटीबायोटिक दवाओं के विकास पर काम करने में दुनिया की बड़ी दवा कंपनियां कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखा रही हैं, क्योंकि ये निवेश पर बहुत कम मुनाफ़े (ROI) का सौदा है. इस्तेमाल से पहले विकास के दूसरे स्तरों की चुनौतियां और इनको बाज़ार में उतारने से पहले का संघर्ष, भयंकर बीमारियों की तुलना में एंटीबायोटिक के इस्तेमाल का चक्र छोटा होने और एंटीबायोटिक का इस्तेमाल ‘आख़िरी विकल्प’ के तौर पर होने की वजह से नई एंटीबायोटिक के विकास में किसी की दिलचस्पी नहीं रह गई है. इस क्षेत्र में काफ़ी दिलचस्पी तो अब छोटे और मध्यम दर्जे की दवा कंपनियां दिखा रही हैं. जैव प्रौद्योगिकी के व्यापार में दुनिया के सबसे बड़े संगठन बायोटेक्नोलॉजी इनोवेशन ऑर्गेनाइज़ेशन की रिपोर्ट कहती हैं कि नई एंटीबायोटिक की 80 प्रतिशत खोज अब छोटी कंपनियां कर रही हैं, जबकि बड़ी कंपनियों का योगदान सिर्फ़ 12 प्रतिशत है. छोटे और मध्यम दर्जे की कंपनियों के सामने वही चुनौतियां होती हैं- यानी दवाओं को मुनाफ़े के स्तर पर ले जाना और उनका कारोबारीकरण. इस मामले में निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की साझेदारी से उन दवाओं के विकास को बढ़ावा मिल सकता है, जिनकी ज़रूरत है और इससे भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था के इकोसिस्टम को मज़बूत बनाया जा सकता है.
बार-बार बीमारियां फैलाने और मौजूदा दवाओं के बेअसर होने की वजह से ये कीटाणु पूरी दुनिया के लिए बहुत बड़ा ख़तरा हैं. इनसे निपटने के लिए निवेश को प्राथमिकता देने और निवेश व प्रोत्साहन को बढ़ावा देने की आवश्यकता है.
भारत की BioE3 (बायोटेक्नोलॉजी फॉर इकॉनमी, एनवायरमेंट, एंप्लॉयमेंट) Bio-RIDE (बायोटेक्नोलॉजी- रिसर्च, इनोवेशन ऐंड आंत्रेप्रेन्योरशिप डेवेलपमेंट) की नीतियों से 10 हज़ार करोड़ रुपए का निवेश होने की उम्मीद है. इनसे भारत के जैविक उत्पादों के निर्माण क्षेत्र को बढ़ावा मिलेगा. पिछले एक दशक के दौरान भारत की बायोइकॉनमी में काफ़ी वृद्धि हुई है और ये 10 अरब डॉलर से बढ़कर 2023 में 151 अरब डॉलर तक पहुंच गई थी. भारत का स्टार्ट-अप सेक्टर भी तेज़ी से बढ़ रहा है और अगले साल तक जैव प्रौद्योगिकी के स्टार्ट-अप की संख्या 10 हजार पहुंच जाने की संभावना है. भारत की आबादी काफ़ी युवा है. देश की 47 प्रतिशत जनसंख्या की उम्र 25 साल से कम है. इसमें ऐसे कुशल कामगार उपलब्ध हैं जो जैविक अर्थव्यवस्था में काफ़ी योगदान दे सकते हैं. स्वास्थ्य के बढ़ते आपातकाल और एंटीबायोटिक के विकास की योजनाओं की कमी को देखते हुए भारत अपने बायोफार्मा सेक्टर को निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की भागीदारी के ज़रिए बढ़ावा दे रहा है. ये सब मिलकर देश की स्वास्थ्य के संकट से जूझ रही आबादी को अनूठी तकनीकें मुहैया करा रहे हैं. भारत की प्राइऑरिटी पैथोजेन लिस्ट यानी उन कीटाणुओं की फेहरिस्त जिनसे सबसे ज़्यादा चुनौती है, वो बायोफार्मा उद्योग को ऐसा ख़ाका मुहैया करा सकती है, जिसके आधार पर वो फौरी ज़रूरत वाली एंटीबायोटिक विकसित कर सकते हैं. बार बार बीमारियां फैलाने और मौजूदा दवाओं के बेअसर होने की वजह से ये कीटाणु पूरी दुनिया के लिए बहुत बड़ा ख़तरा हैं. इनसे निपटने के लिए निवेश को प्राथमिकता देने और निवेश व प्रोत्साहन को बढ़ावा देने की आवश्यकता है.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.