Published on Sep 15, 2022 Updated 25 Days ago

ऊर्जा निर्धनता की समस्या का निपटारा ज़रूरी है. बहरहाल पश्चिमी देशों को अपनी मौजूदा नीतियों के मद्देनज़र निर्धन देशों में ऊर्जा सब्सिडियों को ख़त्म करने की अपनी मांग की समीक्षा करनी चाहिए.

महंगी ऊर्जा: सब्सिडी और आर्थिक सहायता देने में दुनिया के बाक़ी देशों के साथ क़दम मिलाता पश्चिमी जगत

ये लेख कॉम्प्रिहैंसिव एनर्जी मॉनिटर: इंडिया एंड द वर्ल्ड सीरीज़ का हिस्सा है.


साल 2021 के शुरुआती दौर से लेकर अब तक कच्चे तेल की क़ीमतें दोगुनी हो चुकी हैं. कोयले के दाम में चार गुणा और प्राकृतिक गैस की क़ीमतों में (यूरोप में) सात गुणा से भी ज़्यादा की बढ़ोतरी हो चुकी है. जनवरी 2020 और अप्रैल 2022 के बीच विश्व बैंक के ऊर्जा क़ीमत सूचकांक में 76 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हो चुका है. अंकित मूल्य के हिसाब से कच्चे तेल की क़ीमतें 350 प्रतिशत बढ़ चुकी हैं. 1970 के दशक से लेकर अब तक 2 वर्षों के किसी भी समान कालखंड में क़ीमतों में आई ये सबसे ऊंची छलांग है. वास्तविक दरों पर कोयले और यूरोपीय प्राकृतिक गैस के दाम अब तक के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच चुके हैं. 2008 में अपने पिछले शिखर के मुक़ाबले मौजूदा दरें काफ़ी ऊपर बनी हुई हैं. 

2022 में ऊर्जा क़ीमतों में कुल मिलाकर औसतन 50 प्रतिशत की बढ़ोतरी होने का अनुमान है. कोयले, प्राकृतिक गैस और कच्चे तेल के दाम में 2022 में क्रमश: 81 प्रतिशत, 74 प्रतिशत (यूरोप, जापान और अमेरिकी बेंचमार्क का औसत) और 42 प्रतिशत की बढ़ोतरी होने का अनुमान जताया गया है. ऊर्जा क़ीमतों के अभी लंबे वक़्त तक ऊंचे स्तर पर बरक़रार रहने के आसार हैं. जनवरी 2022 के अनुमानों की तुलना में 2023 में ऊर्जा वस्तुओं की क़ीमतों के औसतन 46 प्रतिशत ज़्यादा रहने की आशंका जताई गई है.   

चूंकि अल्पकाल में ऊर्जा की मांग बेलोचदार होती है, लिहाज़ा महंगी ऊर्जा दरों के चलते दुनिया भर में परिवारों की क्रय शक्ति में भारी गिरावट आ गई है. महंगी ऊर्जा क़ीमतों की मार तमाम परिवारों पर अलग-अलग तरह से पड़ रही है.

चूंकि अल्पकाल में ऊर्जा की मांग बेलोचदार होती है, लिहाज़ा महंगी ऊर्जा दरों के चलते दुनिया भर में परिवारों की क्रय शक्ति में भारी गिरावट आ गई है. महंगी ऊर्जा क़ीमतों की मार तमाम परिवारों पर अलग-अलग तरह से पड़ रही है. सबसे ज़्यादा चपत सबसे ग़रीब तबक़े को लग रही है. पश्चिम की कई सरकारें इससे निपटने के लिए करों में कटौतियों और क़ीमतों पर अंकुश लगाने की नीतियों का सहारा ले रही हैं. सबसे नाज़ुक हालात वाले परिवारों के लिए रियायतों का भी एलान हुआ है, ताकि गैस और बिजली की दरों में भारी उछाल की मार से उनका बचाव किया जा सके. बाक़ी दुनिया (ख़ासतौर से भारत) भी महंगी ऊर्जा से जुड़ी समस्याओं से जूझ रही है. भारत में नागरिकों की औसत पारिवारिक आय की तुलना में ऊर्जा की क़ीमतें हमेशा ही ऊंची रही हैं. 

पश्चिम की सब्सिडियां

पश्चिमी दुनिया में पारिवारिक सुख-सुविधा बरक़रार रखने में असमर्थता को ऊर्जा निर्धनता के तौर पर देखा जाता है. 1991 में यूनाइटेड किंगडम (UK) ने पर्याप्त स्तर पर गरमाहट बरक़रार रखने के लिए अपनी आमदनी का 10 प्रतिशत से ज़्यादा हिस्सा ख़र्च करने वाले परिवारों को ऊर्जा-निर्धन परिवार के तौर पर परिभाषित किया था. UK की परिभाषा पर अमल करते हुए यूरोपीय संघ (EU) ने साफ़ किया था कि उपभोक्ताओं की आमदनी की तुलना में ऊर्जा से जुड़े ख़र्चों का स्तर जब ऊंचा (प्रतिशत के तौर पर) हो जाता है तो उस अवस्था को निर्धनता कहते हैं. इससे दूसरे मदों में ख़र्च करने की उपभोक्ताओं की क्षमता प्रभावित होती है. 5-12.5 करोड़ लोग घर के भीतर ठीक ढंग से गरमाहट की सुविधा पाने से जुड़ा ख़र्च वहन करने में असमर्थ थे. लिहाज़ा EU ने ऊर्जा निर्धनता को एक व्यापक समस्या क़रार दिया है.   

ऊर्जा की क़ीमतों में बेतहाशा उछाल के चलते कई परिवारों के सामने ऊर्जा निर्धनता का ख़तरा पैदा हो गया है. सर्दियों में इस समस्या के और विकराल हो जाने की आशंका है. इसी ख़तरे को देखते हुए पश्चिम के ज़्यादातर देशों ने परिवारों के लिए आपात आय सहायता, कंपनियों के लिए सरकारी मदद और करदाताओं के लिए लक्षित कर कटौतियों का प्रस्ताव किया है. यूरोपीय आयोग (EC) ने ऊर्जा निर्धनता से निपटने के इरादे से EU के सदस्य देशों के लिए कई उपायों वाला दस्तावेज़ जारी किया है. इनमें आर्थिक सहायता और सब्सिडियों की सिफ़ारिश की गई है. बहरहाल, यूरोपीय परिवारों को होने वाला ये भुगतान निर्धन दुनिया के बाक़ी हिस्से के औसत परिवार की सालाना आमदनी से कहीं ज़्यादा है. 

यूरोपीय आयोग (EC) ने ऊर्जा निर्धनता से निपटने के इरादे से EU के सदस्य देशों के लिए कई उपायों वाला दस्तावेज़ जारी किया है. इनमें आर्थिक सहायता और सब्सिडियों की सिफ़ारिश की गई है.

अमेरिका की संघीय सरकार निम्न-आय घरेलू ऊर्जा सहायता कार्यक्रम (LIHEAP) के ज़रिए परिवारों और व्यक्तियों के लिए घरेलू ऊर्जा लागतों में मदद के तौर पर 8.3 अरब अमेरिकी डॉलर से भी ज़्यादा की रकम मुहैया करा रही है. ब्रिटेन की सरकार ने 15 अरब ब्रिटिश पाउंड के सहायता पैकेज का एलान किया है. इस तरह तक़रीबन 2.8 करोड़ परिवारों के लिए 550 ब्रिटिश पाउंड प्रति परिवार के हिसाब से रियायत दी गई है. ऊर्जा बिल सपोर्ट स्कीम के ज़रिए ब्रिटेन के सभी घरेलू ऊर्जा उपभोक्ताओं को 400 ब्रिटिश पाउंड की सहायता मिलनी है. इस तरह उन्हें ऊर्जा की लागत वहन करने में मदद दी जाएगी.   

फ्रांस ने परिवारों की आय और आकार के हिसाब से पात्र परिवारों को 48 यूरो से लेकर 277 यूरो तक के “ऊर्जा चेक” देने का प्रस्ताव किया है. इसके साथ ही फ़्रांस ने बिजली प्रदाता EDF को बिजली की थोक दरों में होने वाली बढ़ोतरी को सालाना 4 प्रतिशत तक सीमित रखने को मजबूर कर दिया है. फ्रांस में परिवारों के अंतिम ऊर्जा उपभोग पर आयद घरेलू करों को भी 22.50 यूरो/मेगावाट आवर (MWh) से घटाकर महज़ 1 यूरो/MWh कर दिया गया है. कारोबार जगत के लिए ये दर 0.50 यूरो/MWh कर दी गई है.   

इटली ने ऊर्जा की बढ़ती लागतों और आसमान छूती उपभोक्ता क़ीमतों से कारोबारी इकाइयों और परिवारों के बचाव के लिए तक़रीबन 17 अरब यूरो के नए सहायता पैकेज को मंज़ूरी दी है. स्पेन ने ऊर्जा बिलों पर मूल्य-वर्धित कर (VAT) को 21 प्रतिशत से घटाकर 10 प्रतिशत कर दिया है. साथ ही वहां बिजली पर मौजूदा टैक्स को 7 प्रतिशत से घटाकर 0.5 प्रतिशत कर दिया गया है. पुर्तगाल और स्पेन ने भी गैस की क़ीमतों पर एक साल तक के लिए सीमा आयद कर दी है. इससे औसत क़ीमतों के 50 यूरो/MWh से नीचे के स्तर पर रहना सुनिश्चित हो गया है. 

नीदरलैंड्स में परिवारों के औसत सालाना ऊर्जा बिल में 1,264 यूरो की बढ़ोतरी होने का अंदेशा था. वहां की सरकार ने सभी परिवारों के लिए सहायता उपायों का ऐलान किया है. इनमें ऊर्जा पर आयद टैक्स में कटौती के साथ-साथ ऊर्जा बिल पर लगने वाले करों में दी जाने वाली एकमुश्त रियायत में बढ़ोतरी जैसे उपाय शामिल हैं. निम्न आय वाले परिवारों के लिए स्थानीय निकायों के ज़रिए 800 यूरो की अतिरिक्त सहायता का भी एलान किया गया है. साथ ही सरकार ऊर्जा पर VAT 21 प्रतिशत से घटाकर 9 प्रतिशत कर चुकी है. पेट्रोल और डीज़ल पर शुल्क में 21 प्रतिशत की कटौती की गई है. ये उपाय साल के अंत तक लागू रहेंगे.  

नीदरलैंड्स में परिवारों के औसत सालाना ऊर्जा बिल में 1,264 यूरो की बढ़ोतरी होने का अंदेशा था. वहां की सरकार ने सभी परिवारों के लिए सहायता उपायों का ऐलान किया है.

डेनमार्क में बुज़ुर्गों के लिए नक़द आर्थिक सहायता समेत कई और उपाय लागू किए गए हैं. वहां बिजली की दरों पर वसूले जाने वाले शुल्क में कटौती की गई है. कुल 41.7 करोड़ यूरो की लागत वाले इन उपायों में “हीट चेक” का प्रावधान भी शामिल है. इसके तहत बढ़ती ऊर्जा क़ीमतों के बोझ तले दबे तक़रीबन 4 लाख परिवारों को 26.9 करोड़ यूरो का भुगतान किया जाएगा.  

जर्मनी ने प्राकृतिक गैस पर VAT को 19 फ़ीसदी से घटाकर 7 फ़ीसदी करने की घोषणा की है. ये कटौती मार्च 2024 के अंत तक प्रभावी रहेगी. इसके अलावा जर्मनी ने इस साल बढ़ती ऊर्जा क़ीमतों के बीच अपने नागरिकों की मदद के लिए कुल 30 अरब यूरो के 2 राहत पैकेजों को मंज़ूरी दी है. जर्मन सरकार सभी करदाताओं को ऊर्जा क़ीमतों से जुड़ी सहूलियत के तौर पर 300 यूरो की सहायता मुहैया कराएगी. ये मदद सिर्फ़ एक बार दी जाएगी. इस कड़ी में ग़रीब परिवारों को ज़्यादा मदद दी जाएगी. इसी तरह EU के सभी सदस्य देश अपने नागरिकों की मदद के लिए आर्थिक सहायता, करों में रियायत और सब्सिडियों जैसे क़दम उठा रहे हैं.    

बाक़ी दुनिया की सब्सिडियां

पश्चिम के ऊर्जा बाज़ारों में सरकारी दख़ल को जायज़ ठहराने के लिए दी जाने वाली दलीलों में ऊर्जा आपूर्ति में अचानक आने वाले खललों को रोक पाने में बाज़ार की नाकामी का हवाला दिया जा रहा है. ये कहा जा रहा है कि ऐसी नाकामियों से ऊर्जा क़ीमतों में बढ़ोतरी की आशंका को देखते हुए सरकारों ने ऐसे क़दम उठाए हैं. निश्चित रूप से ऊर्जा सभी वस्तुओं और सेवाओं के लिए एक आवश्यक घटक है. ये हरेक परिवार के बजट का हिस्सा है, लिहाज़ा ऊर्जा की क़ीमतों का अर्थव्यवस्था और समाज पर ग़ैर-आनुपातिक प्रभाव पड़ता है. ऊर्जा क़ीमतों में उछाल से उपभोक्ता मांग में गिरावट आ जाएगी. इससे कारोबार जगत नई भर्तियों और निवेश करने से परहेज़ करने लगेगा. इन तमाम कारकों का अर्थव्यवस्था पर घातक असर होगा. 

बाक़ी की विकासशील दुनिया के लिए ऊर्जा निर्धनता सीधे-सीधे आधुनिक ऊर्जा स्रोतों तक पहुंच के अभाव से जुड़ी है. यहां ऊर्जा सब्सिडियों को जायज़ ठहराती दलील ये है कि इससे ग़रीबों को ऊर्जा तक पहुंच मिलती है. ये बात कुछ हद तक सही भी है, पर ये व्यापक सामाजिक ख़र्च की क़ीमत पर हासिल होती है. भारत में ऊर्जा सब्सिडी और आर्थिक सहायता पिछले पांच दशकों से सामाजिक ख़र्च का हिस्सा रही हैं, लिहाज़ा भारतीय तजुर्बे का अध्ययन दिलचस्प साबित हो सकता है. भारत अतीत में ऊर्जा (ख़ासतौर से पेट्रोलियम उत्पादों) की क़ीमतों में बढ़ोतरी को सीमित करने के लिए मूल्यों में हस्तक्षेप करने की नीति का इस्तेमाल करता रहा है. इसके अलावा नागरिकों तक बिजली और लिक्विड पेट्रोलियम गैस (LPG) की पहुंच को सुगम बनाने के लिए भी बाज़ार में बिगाड़ लाने वाली मूल्य नीति अपनाई जाती रही. मूल्यों में रियायत देने की उत्पाद आधारित व्यवस्था अब काफ़ी हद तक ख़त्म हो चुकी है. फ़िलहाल पेट्रोलियम सेक्टर में शुद्ध सब्सिडी का भुगतान नहीं हो रहा है. दरअसल पेट्रोलियम उत्पादों पर करों से जुटाई जाने वाली रकम का आकार इसके मुक़ाबले बड़ा है. 

अब चूंकि पश्चिमी दुनिया ख़ुद ही सब्सिडियों का सहारा ले रही है तो उन्हें निर्धन देशों में इसे ख़त्म किए जाने से जुड़ी अपनी मांग की समीक्षा करनी चाहिए.

 

राजनीतिक दल अपने कार्यक्रमों के ज़रिए मुफ़्त या बहुत कम शुल्क पर बिजली देने या निशुल्क LPG कनेक्शन मुहैया करवाने की क़वायद जारी रखे हुए हैं. विधानसभा या लोकसभा चुनावों के ऐन पहले इस तरह के कार्यक्रमों (जैसे उज्ज्वला योजना) का ऐलान होता है. निम्न और मध्यम आय वाले 109 देशों में ऊर्जा सब्सिडियों को लेकर अनुभव आधारित अध्ययन से कई अहम नतीजे सामने आए. इस अध्ययन में संभ्रांत और मध्यम वर्गों, ग़रीब तबक़ों और राजनेताओं के बीच सियासी खेल में ऊर्जा पर भारी-भरकम सब्सिडी और निम्न सामाजिक व्यय एक संतुलनकारी परिणाम के तौर पर उभरकर सामने आया. ग़रीबों के लिए सहायताकारी आर्थिक उपाय (जैसे मुफ़्त बिजली और LPG कनेक्शन) छोटे ज़रूर हैं, लेकिन उपभोग पर इनका निश्चित और तात्कालिक लाभकारी प्रभाव पड़ता है. दूसरी ओर सार्वजनिक वस्तुओं (जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए सॉफ़्ट और हार्ड इंफ़्रास्ट्रक्चर) को मुहैया कराने की क़वायद बेहद अनिश्चित है. भारत के ग़रीब मतदाता (जिनकी तादाद अमीरों से कहीं ज़्यादा है) राजनेताओं को अनुकूल चुनावी नतीजों से नवाज़ देते हैं. दूसरी ओर संभ्रांत और मध्यम वर्ग ऊर्जा के क्षेत्र में दी जा रही आर्थिक सहायता और सब्सिडियों से ख़ुश होता है. दरअसल वो ग़रीबों के मुक़ाबले ज़्यादा ऊर्जा की खपत करता है, इस तरह मूल्य के रूप में दी जा रही ज़्यादातर सब्सिडियों का लाभ भी यही तबक़ा ले जाता है. इससे भी अहम बात ये है कि संभ्रांत और मध्यम वर्ग के लोग ग़रीब तबक़े के लिए कम से कम सामाजिक व्यय किए जाने के हक़ में होते हैं. उन्हें आशंका होती है कि इन ख़र्चों से अर्थव्यवस्था की वित्तीय सेहत कमज़ोर पड़ सकती है जिससे उनका निवेश प्रभावित हो सकता है. ऊपर बताए गए अध्ययन से एक और जानकारी हासिल हुई. दरअसल जिन देशों में ऊर्जा सब्सिडी के तौर पर GDP (सकल घरेलू उत्पाद) के एक प्रतिशत अंक से ज़्यादा की रकम ख़र्च होती है, वहां शिक्षा और स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय GDP के 0.6 प्रतिशत अंक से औसत रूप से नीचे होता है. अध्ययन के मुताबिक कमज़ोर घरेलू संस्थानों और तंग वित्तीय दायरों की मौजूदगी वाले देशों में सामाजिक व्यय में कटौती के मज़बूत रुझान देखे गए हैं. तेल का शुद्ध आयात करने वाले देशों में भी यही प्रवृति देखी गई. बदक़िस्मती से भारत में ये तमाम कारक मौजूद हैं. हालांकि आर्थिक सहायता और सब्सिडियों की व्यवस्था के ज़रिए भारत को विद्युतीकरण के ऊंचे दर हासिल करने में मदद मिली है. साथ ही जैव-ईंधनों की बजाए LPG के इस्तेमाल की क़वायद को भी तेज़ गति से आगे बढ़ाया जा सका है. इन दोनों मोर्चों पर भारत ने समान प्रति व्यक्ति आय वाले दूसरे देशों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा कामयाबी हासिल की है.  

पश्चिम के लिए कुछ सबक़

ऐसे में पश्चिम के लिए कुछ अहम सबक़ सामने हैं. दरअसल पश्चिमी देश लगातार ये मांग करते रहे हैं कि ग़रीब देशों में दी जा रही ऊर्जा सब्सिडियों को ख़त्म कर दिया जाए. अब चूंकि पश्चिमी दुनिया ख़ुद ही सब्सिडियों का सहारा ले रही है तो उन्हें निर्धन देशों में इसे ख़त्म किए जाने से जुड़ी अपनी मांग की समीक्षा करनी चाहिए. बाक़ी दुनिया के लिए सीख यही है कि सब्सिडी और आर्थिक सहायता से जुड़ी नीतियां विकास, आय निर्माण और कुल मिलाकर जीवन की गुणवत्ता में होने वाले सुधारों की जगह नहीं ले सकतीं.  

Source: Breugel
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Akhilesh Sati

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Akhilesh Sati is a Programme Manager working under ORFs Energy Initiative for more than fifteen years. With Statistics as academic background his core area of ...

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Lydia Powell

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Ms Powell has been with the ORF Centre for Resources Management for over eight years working on policy issues in Energy and Climate Change. Her ...

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Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change. Member of the Energy News Monitor production ...

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