Expert Speak Raisina Debates
Published on Apr 25, 2023 Updated 30 Days ago

पश्चिमी और पूर्वी यूरोप के बीच दरार ने चीन से जुड़े विभिन्न मुद्दों के समाधान को लेकर यूरोपियन यूनियन के एक भरोसेमंद रणनीतिक अभिनेता के रूप में उभार को प्रभावित करने का काम किया है.

चीन के प्रति यूरोप को एक स्पष्ट एवं अधिक तर्कसंगत दृष्टिकोण की ज़रूरत!

पिछले कुछ महीनों से यूरोप के नेता एक के बाद एक बीजिंग का दौरा करने में व्यस्त हैं. पिछले नवंबर में जर्मनी के चांसलर ओलाफ़ शोल्ज़ ने एक बड़े व्यावसायिक प्रतिनिधिमंडल के साथ चीन का दौरा किया था, जिसका मकसद चीन के साथ आर्थिक संबंधों को सुधारना था. उसके बाद इसी वर्ष मार्च के अंत में स्पेन के प्रधानमंत्री पेड्रो सांचेज़ बीजिंग के दौरे पर गए थे, इस दौरान उन्होंने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लादिमीर ज़ेलेंस्की के साथ बातचीत करने का आग्रह किया. इसके बाद इस महीने फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन द्वारा चीन की साझा यात्रा की गई, जो कहीं न कहीं एक विवादास्पद यात्रा रही. इस यात्रा का उद्देश्य़ चीन के समक्ष एक संयुक्त यूरोपियन फ्रंट को पेश करना था, लेकिन इसके बजाए, इस यात्रा का विपरीत असर हुआ.

"बीजिंग से लौटते वक़्त मैक्रों ने विमान में मीडिया से बातचीत के दौरान यूरोप का आह्वान करते हुए यूरोपीय देशों से "अमेरिका का पिछलग्गू" नहीं बनने के लिए कहा. ताइवान के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा कि इस मुद्दे पर अमेरिका का साथ देना "बहुत बड़ा ज़ोख़िम" था और पूरा यूरोप " एक ऐसे संकट में फंस गया जो हमारा नहीं है."

यूरोप को अपनी "रणनीतिक स्वायत्तता" के बारे में सोचना चाहिए. बीजिंग से लौटते वक़्त मैक्रों ने विमान में मीडिया से बातचीत के दौरान यूरोप का आह्वान करते हुए यूरोपीय देशों से "अमेरिका का पिछलग्गू" नहीं बनने के लिए कहा. ताइवान के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा कि इस मुद्दे पर अमेरिका का साथ देना "बहुत बड़ा ज़ोख़िम" था और पूरा यूरोप " एक ऐसे संकट में फंस गया जो हमारा नहीं है." मैक्रों ने यह भी कहा कि ऐसा करने के बजाए यूरोप को अपनी "रणनीतिक स्वायत्तता" के बारे में सोचना चाहिए और उस दिशा में क़दम आगे बढ़ाने चाहिए. ज़ाहिर है कि मैक्रों की विदेश नीति के नज़रिए के हिसाब से रणनीतिक स्वायत्तता काफ़ी लंबे समय से उनकी प्रिय परियोजना रही है, लेकिन जिस समय उन्होंने यह बयानबाज़ी की है, उससे बुरा वक़्त शायद कोई और नहीं हो सकता था.

राष्ट्रपति मैक्रों के विमान के चीन से पेरिस के लिए उड़ान भरने के कुछ ही समय बाद, चीनी युद्धपोतों और लड़ाकू विमानों ने मॉक ड्रिल में ताइवान की घेराबंदी कर ली, जिसमें रेनेगेड द्वीप पर सटीक हमले का अभ्यास किया गया. मैक्रों ने कुछ इसी प्रकार का बयान चीन द्वारा यूक्रेन के लिए एक शांति योजना प्रस्तुत करने के बाद दिया था. राष्ट्रपति मैक्रों की टिप्पणियां कुछ इस प्रकार की थीं कि उनमें चीन के कथित शांति प्रस्ताव को मान्यता देने की कोशिश थी, साथ ही रूस-यूक्रेन युद्ध में शी जिनपिंग को प्रमुख किरदार के रूप में उभारने के लिए विशेष प्रयास किया गया था. और ऐसा तब किया गया था, जबकि मैक्रों को यह स्पष्ट तौर पर पता है कि यूक्रेन संकट के मामले में चीन का रूस को खुला समर्थन है और चिंताजनक बात यह भी है कि बीजिंग मास्को को हथियारों की आपूर्ति कर सकता है. ज़ाहिर है कि यह सभी को अच्छी तरह से मालूम है कि अमेरिका की तरफ से मिलने वाले सैन्य समर्थन के बगैर आने वाले वक़्त में पहले से ही नाज़ुक यूरोपीय सुरक्षा व्यवस्था को अधर में छोड़कर यह युद्ध रूस के पक्ष में समाप्त हो सकता है.

बीजिंग के साथ आर्थिक संबंधों का महत्त्व 

यूरोप के लिहाज़ से हालांकि देखा जाए तो समस्या मैक्रों की अजीबोग़रीब हरकतों और बयानबाज़ी से कहीं आगे निकल चुकी है. मैक्रों के साथ ही चीन की अपनी यात्रा के दौरान वॉन डेर लेयेन ने चीनी अर्थव्यवस्था से होने वाले "डी-रिस्किंग" यानी ज़ोख़िमों को कम करने की ज़रूरत के बारे में बात की. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो उन्होंने रणनीतिक और महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों को लेकर यूरोप की चीन पर परस्पर निर्भरता को सीमित करने पर ज़ोर दिया. यूरोपियन यूनियन के विदेश नीति प्रमुख जोसेप बोरेल द्वारा चीन के यूरोप के साथ भविष्य के सशर्त संबंधों और उसके व्यवहार के विषय पर लिखे गए नवीनतम ब्लॉग के कुछ ही घंटों बाद बीजिंग द्वारा ईयू दूतावास की तरफ जाते हुए दो मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को रास्ते से गिरफ़्तार कर लिया गया. इस सबसे बावज़ूद ब्रसेल्स चीन के प्रति अधिक व्यावहारिक और समझदारी भरा दृष्टिकोण अपनाता है, यानी पश्चिमी यूरोप में पुरानी स्थापित ताक़तें अभी भी बीजिंग के साथ आर्थिक संबंधों को महत्त्व देती हैं, यहां तक कि रणनीतिक क्षेत्रों में भी.

दूसरे शब्दों में कहा जाए तो उन्होंने रणनीतिक और महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों को लेकर यूरोप की चीन पर परस्पर निर्भरता को सीमित करने पर ज़ोर दिया.

पिछले साल, जर्मनी ने चीनी शिपिंग कंपनी COSCO को हैम्बर्ग में अपने सबसे बड़े बंदरगाह में निवेश करने की मंजूरी दी थी. मैक्रों की चीन यात्रा के दौरान उनके साथ 50 से अधिक सीईओ का एक प्रतिनिधिमंडल भी था, जिसमें ऊर्जा दिग्गज - EDF, रेल ट्रांसपोर्ट मैन्युफैक्चरर - एल्सटॉम और विमान निर्माता – एयरबस के सीईओ भी शामिल थे. मैक्रों से ठीक पहले स्पेन के प्रधानमंत्री सांचेज़ ने फार्मास्युटिकल्स और नवीकरणीय ऊर्जा सेक्टरों में चीनियों के साथ समझौतों पर हस्ताक्षर किए थे.

इस बीच, रूस की साम्राज्यवादी विजय को लेकर पूर्वी यूरोप ने एक अलग रुख अख़्तियार किया है. मैक्रों की चीन यात्रा के कुछ ही समय बाद पोलैंड के प्रधानमंत्री मैटयूज़ मोरवीकी संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) को दौरे पर गए, जहां उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से मैक्रों पर कटाक्ष करते हुए यूरोप की रणनीतिक स्वायत्तता के बजाए वाशिंगटन के साथ गहरे रणनीतिक संबंधों का आह्वान किया. ज़ाहिर है कि उनका यह बयान सेंट्रल और पूर्वी यूरोपियन रीजन के अन्य देशों द्वारा किए जा रहे उन प्रयासों की पृष्ठभूमि में आया है, जो चीन पर अधिक आक्रामक रुख अपनाने के लिए अमेरिका को अपनी सुरक्षा के लिहाज़ से बेहद अहम मानते हैं.

पेट्र पावेल के रूप में चेक रिपब्लिक को पिछले महीने नया राष्ट्रपति मिला है. जनवरी में अपनी चुनावी जीत के बाद पावेल की ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग-वेन के साथ फोन पर बातचीत हुई थी, जब साई इंग-वेन ने उन्हें जीत की बधाई दी. उन्होंने कहा कि "यह निश्चित रूप से हमारे हित में है कि ताइवान के साथ सक्रिय बिजनेस और वैज्ञानिक संबंध भी बनाए रखें." इसी प्रकार से लिथुआनिया लंबे समय से बीजिंग के साथ विवाद में उलझा हुआ है, क्योंकि उसने ताइवान को अपने कैपिटल सिटी में एक प्रतिनिधि कार्यालय खोलने की अनुमति दी थी. इतना ही नहीं उसने चीन द्वारा बदले में आर्थिक प्रतिबंध लगाए जाने के बावज़ूद अपने क़दम पीछे खींचने से इनकार कर दिया था.

रूस के विरुद्ध एकजुट प्रतिक्रिया की सफल क़वायद के बावज़ूद, पश्चिमी और पूर्वी यूरोप के बीच इस दरार ने कहीं न कहीं चीन से संबंधित मुद्दों पर यूरोपियन यूनियन ने एक भरोसेमंद रणनीतिक अभिनेता के रूप में उभार से समझौता किया है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के यूक्रेन युद्ध को लेकर दिए गए कथित शांति प्रस्ताव के बाद से जिस प्रकार से एक के बाद एक यूरोप के सबसे ताक़तवर नेताओं के बीच बीजिंग का दौरा करने की होड़ मची हुई है, वह भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं देती है. सांचेज़, मैक्रों और वॉन डेर लेयेन के बाद जर्मनी के विदेश मंत्री एनालेना बेयरबॉक ने चीन का दौरा किया और ताइवान स्ट्रेट में एक सैन्य संघर्ष को "डरावने परिदृश्य" के तौर पर बखान करते हुए कुछ डैमेज कंट्रोल का प्रयास किया. इस सबके बावज़ूद यह समस्या कहीं अधिक गहरी है.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के यूक्रेन युद्ध को लेकर दिए गए कथित शांति प्रस्ताव के बाद से जिस प्रकार से एक के बाद एक यूरोप के सबसे ताक़तवर नेताओं के बीच बीजिंग का दौरा करने की होड़ मची हुई है, वह भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं देती है.

देखा जाए तो यूरोप की चाइना पॉलिसी को लेकर अस्पष्टता बढ़ती जा रही है. यूरोप की चीनी नीति में यह स्पष्ट नहीं है कि बीजिंग एक प्रतिद्वंद्वी है, या भागीदार है या फिर एक प्रतिस्पर्धी है. यूरोप की चीनी नीति में स्पष्टता की यह कमी और एक हिसाब से एक मिलाजुला संदेश, उसके प्रमुख भागीदारों जैसे अमेरिका, जो कि यूरोपीय सुरक्षा की पहरेदारी कर रहा है और भारत, जो कि अपनी सीमाओं पर चीनी आक्रमण से संबंधित अपने खुद के तनाव से निपट रहा है, के बीच विश्वास को कम करने का काम कर रहा है. यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि इंडो-पैसिफिक रीजन में फ्रांस यूरोप की प्रमुख सैन्य ताक़त है. इंडो-पैसिफिक रीजन में यूरोप क्षेत्रीय स्थिरिता की दिशा में समान विचारधारा वाले देशों के साथ तेज़ी से साझेदारी कर रहा है. इन परिस्थितियों में फ्रांसीसी राष्ट्रपति मैक्रों की हालिया टिप्पणियां सिर्फ़ और सिर्फ़ इस क्षेत्र में यूरोपीय विश्वसनीयता को कम करने वाली हैं. जर्मनी की ट्रैफिक-लाइट गठबंधन सरकार के भीतर चीन के साथ संबंधों को लेकर व्यापक रूप से मतभिन्नता है. यहां बेयरबॉक की ग्रीन्स पार्टी शोल्ज़ के अधिक उदार नज़रिए की तुलना में ब्रसेल्स के अधिक कठोर रुख का समर्थन कर रही है. यूरोप के ढुलमुल रवैये को देखा जाए तो, यह भी ट्रांसअटलांटिक संबंधों के साथ-साथ यूरोपीय संघ के भीतर चीन और रूस के हाथों में खेलता नज़र आता है. उल्लेखनीय है कि ये दोनों ही बीजिंग और मास्को के लिए रणनीतिक तौर पर बेहद महत्त्वपूर्ण हैं.

यूक्रेन संकट और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन द्वारा ऊर्जा आपूर्ति को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के बाद, ऐसा समझा जाने लगा था कि यूरोप उन देशों पर बड़े स्तर पर निर्भर होने की वजह से सामने आने वाली मुसीबतों से सबक सीख रहा है, जो उसके मूल्यों का सम्मान नहीं करते हैं. लेकिन चीन के मामले में यूरोपीय देश जिस प्रकार से व्यवहार कर रहे हैं, उससे प्रतीत होता है कि रूस से सीखे गए सारे सबक बेकार साबित हो गए हैं. इस वजह से यूरोपीय संघ एक बार फिर से कमज़ोर हो गया है. अख़िरकार यूरोपियन यूनियन अपने सदस्य देशों का एक समूह है, इसका सीधा सा मतलब यह है कि जब पूर्वी और पश्चिमी यूरोप अलग-अलग दिशाओं में खींचातानी करते हैं, तो वे एक लिहाज़ से पूरे यूरोप को अराजकता और नाजुकता में धकेलने का काम करते हैं. ज़ाहिर है कि यह एक ऐसी समस्या बन गई है, जिसे यूरोप के नेताओं को ज़ल्द से ज़ल्द सुलझाने की ज़रूरत है.

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