Author : William N. Kring

Published on Feb 14, 2017 Updated 0 Hours ago
चुनावी राज्यों में मातृत्व मृत्यु की स्थिति

हमारे राजनीतिक परिदृश्य में गर्भवती महिलाओं का स्वास्थ्य और कुशलक्षेम बेहद उपेक्षित विषय रहा है।

एक मां और उसके बच्चे के बीच के रिश्ते की व्याख्या आसानी से नहीं की जा सकती। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हर मां को अपने नवजात के साथ जीने का अवसर नहीं मिल पाता और हर बच्चे को अपनी मां का प्यार नसीब नहीं हो पाता। मातृत्व मृत्यु कई मायने में हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था और हमारे विकास की दशा को दिखाती है।

इसकी अहमियत को देखते हुए ही संयुक्त राष्ट्र ने अपने सहस्त्राब्दि घोषणापत्र में मातृत्व मृत्यु की दर को 1990 के मुकाबले 2015 तक 75 फीसदी तक कम कर लेने का लक्ष्य रखा था, लेकिन कई देश, जिनमें भारत (68.7% कमी) भी शामिल है अब भी अपने लक्ष्य से पीछे हैं। इस सीमित सफलता की ही वजह से टिकाउ विकास लक्ष्य — सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल (एसडीजी) — में भी मातृत्व मृत्यु दर में कमी को एक अहम लक्ष्य के तौर पर शामिल करना पड़ा। इस बात पर व्यापक सहमति है कि मातृत्व मृत्यु लगभग पूरी तरह से समाप्त की जा सकती हैं। लेकिन जिस तरह हम इसे कर पाने में नाकाम हो रहे हैं, वह एक समाज और राष्ट्र के तौर पर हमारे बुरे प्रदर्शन की निशानी है ।

भारत में मातृत्व मृत्यु

प्रत्येक एक लाख जीवित बच्चों के जन्म के दौरान होने वाली जच्चे की मौत के औसत को सामान्य तौर पर मातृत्व मृ्त्यु दर (एमएमआर) कहा जाता है। संयुक्त राष्ट्र विशेषज्ञ समूह का आकलन है कि भारत में 2015 के दौरान एमएमआर 174 था। यानी प्रत्येक साल 45 हजार महिलाएं प्रसव या उसके प्रबंधन में हुई समस्याओं की वजह से मारी जाती हैं। दुनिया भर में मातृत्व मृत्यु के बोझ में नाइजीरिया के बाद भारत का ही हिस्सा सबसे ज्यादा है। दुनिया भर की 3,03,000 मातृत्व मौतों का 15 फीसदी सिर्फ यहीं होता है। भारत का एमएमआर चीन के (एमएमआर 27) से छह गुना ज्यादा है।

चुनावी राज्यों में एमएमआर

चुनावी राज्यों में मातृत्व मृत्यु की स्थिति कैसी है? ताजा वार्षिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक वर्ष 2012-13 के दौरान उत्तर प्रदेश (यूपी) और उत्तराखंड में एमएमआर क्रमशः 258 और 165 था, जबकि पंजाब में यह 141 था। 14,500 मातृत्व मृत्यु के साथ भारत की कुल मातृत्व मृत्यु का एक तिहाई हिस्सा अकेले उत्तर प्रदेश में ही है। पंजाब और उत्तराखंड में क्रमशः 600 और 300 से ज्यादा मातृत्व मृत्यु दर्ज होती हैं। गोवा और मणिपुर के लिए आधिकारिक आंकड़े नहीं हैं। हालांकि गोवा मेडिकल कालेज के एक अध्ययन के मुताबिक गोवा में एमएमआर दर 90 के करीब है, जिसका मतलब है यहां प्रत्येक वर्ष 21 मातृत्व मृत्यु होती हैं।

Figure 1: प्रमुख राज्यों में एमएमआर और मातृत्व मृत्यु का वार्षिक बोझ

Fig-01

Figure 2: उत्तर प्रदेश के विभिन्न मंडल में एमएमआर

Fig-02

क्या उत्तर प्रदेश में इस पर निवास स्थान का भी प्रभाव है?

यह निर्विवाद सत्य है कि अगर भारत को एसडीजी के मुताबिक अपने मातृत्व मृत्यु दर को कम करने का लक्ष्य पूरा करना है तो इसकी असली चुनौती उत्तर प्रदेश ही है। लेकिन यहां कई तरह की चुनौतियां हैं, जिनमें विभिन्न मंडलों की विषमताएं भी हैं। यूपी के अंदर ही एमएमआर मेरठ मंडल में जहां 151 है वहीं देवी पाटन मंडल में यह 366 है। लखनऊ मंडल सहित मध्य और पूर्वी यीपी के पांच से ज्यादा मंडलों में एमएमआर 300 से ज्यादा है, जबकि पश्चिमी क्षेत्र के मंडलों में यह कम है। यह विषमता सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक खाई की वजह से भी है जहां वंचित तबकों की महिलाओं में मातृत्व मृत्यु का खतरा ज्यादा होता है।

एसडीजी की ओर प्रगति

पंजाब को एमएमआर कम करने में एक दशक का समय लगा और 2001-03 के 178 को इसने 2011-13 तक 141 तक पहुंचा दिया। जबकि इसी अवधि के दौरान यूपी और उत्तराखंड एमएमआर को 517 से 285 करने में कामयाब हुए। यह तुलना दिखाती है कि एमएमआर का स्तर अगर पहले से कम हो तो उसे और घटाना ज्यादा अहम उपलब्धि होती है। यह प्रभाव 2010-11 और 2012-13 के आंकड़ों में भी दिखता है जब यूपी का एमएमआर 345 से घट कर 258 हुआ जबकि उसी दौरान उत्तराखंड में काफी कम कमी आई (188 से 165)। उच्च आधार स्तर की वजह से यूपी अब भी तेजी से इसमें कमी ला सकता है जबकि उत्तराखंड और पंजाब एमएमआर को सौ से नीचे ले जाने के लिए संघर्ष करते नजर आ रहे हैं। ऐसी असमान रफ्तार की वजह से इन राज्यों के लिए और खास तौर पर यूपी के लिए यह बहुत मुश्किल हो जाएगा कि वे 2030 तक एमएमआर को 70 तक पहुंचाने का लक्ष्य हासिल कर लें। खास बात है कि केरल और महाराष्ट्र ने राष्ट्रीय एसडीजी लक्ष्य को पहले ही हासिल कर लिया है और तमिलनाडु भी जल्दी ही इस लक्ष्य को हासिल करने जा रहा है।

मातृत्व मृत्यु घटाने का पहला चरण

कौशलयुक्त स्वास्थ्य कार्यकर्ता की मौजूदगी में सांस्थानिक देख-भाल मातृत्व मृत्यु को तेजी से कम करने में सबसे पहली जरूरत है। यूपी, उत्तराखंड और मणिपुर में कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां बड़ी तादाद में घर पर ही प्रसव हो रहे हैं। रिपोर्ट दिखाती हैं कि यूपी और उत्तराखंड में क्रमशः 42% और 41% प्रसव घर पर होते हैं। चमौली, बागेश्वर, रुद्रप्रयाग और टिहरी गढ़वाल जैसे पहाड़ी जिलों में यह औसत 50 फीसदी तक पहुंच जाता है। इस लिहाज से मणिपुर का हाल उत्तराखंड जैसा ही है लेकिन पंजाब और गोवा बेहतर स्थिति में हैं तो इसका कारण यहां के सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य व्यवस्था से जुड़े कारक हैं।

सांस्थानिक प्रसव से जुड़े मुद्दे

वैज्ञानिक जानकारी और क्लीनिकल इलाज में तरक्की के बाद अब अधिकांश मातृत्व मृत्यु को टाला जाना मुमकिन हो गया है। लेकिन हमें कई तरह की देरियों को दूर करना होगा:

1. घर के स्तर पर फैसले लेने और सहायता ढूंढ़ने में,

2. परिवहन की व्यवस्था करने और स्वास्थ्य सुविधा तक पहुंचने में, और

3. स्वास्थ्य केंद्रों में जरूरी सुविधाएं मुहैया करवाने में।

लगभघ 50% मातृत्व मृत्यु घर पर होती हैं, 14% रास्ते में और 36% स्वास्थ्य केंद्रों में। इन देरी को दूर करने और लोगों में जानकारी बढ़ाने, परिवहन संबंधी ढांचागत सुविधाएं बढ़ाने और एमरजेंसी सुविधा को बेहतर करने के लिए नीतिगत प्रयासों की जरूरत है।

एनीमिया और कुपोषण की बड़ी संख्या को देखते हुए यह बेहद जरूरी है कि एमरजेंसी ओब्सटेट्रिक केयर की व्यवस्था हो जिसमें ब्लड ट्रांसफ्यूजन और सी-सेक्शन की व्यवस्था हो। लेकिन ये सुविधाएं अधिकांश तौर पर शहरी इलाकों में ही सीमित हैं और यूपी और उत्तराखंड के कई जिले समय से आपातकालीन (ईएमओसी) सेवा मुहैया करवाने में नाकाम रहते हैं। ये जिले अक्सर इस आपातकालीन सेवा में पूरा स्टाफ (गायनाकोलॉजिस्ट, एनस्थीसियोलॉजिस्ट और सर्जन) उपलब्ध करवाने में संघर्ष करते दिखाई देते हैं तो अधिकांश जगह जरूरी सुविधाओं का भी अभाव होता है। स्पष्ट है कि प्रशिक्षित डॉक्टरों के अभाव में भौतिक ढांचे की कोई अहमियत नहीं।

आर्थिक प्रगति, लोक स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च में बढ़ोतरी और महिला साक्षरता में तरक्की ऐसी स्थिति को बेहतर करने में काफी मददगार साबित हो सकती हैं। गरीबी और कुपोषण जिसे पूर्व प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय शर्म बताया था, अक्सर मातृत्व मृत्यु के आधारभूत कारण बनते हैं। ये सभी आपस में जुड़े हुए हैं और एक तरह से हमारी आर्थिक क्षमता को दर्शाते हैं और साथ ही लैंगिक समानता और सशक्तीकरण को ले कर सामाजिक नजरिए को भी दिखाते हैं।

आदिवासी आबादी और दूसरे वंचित तबके खास तौर पर इस लिहाज से पिछड़े हैं। उत्तर प्रदेश में की गई फिल्ड स्टडीज में पाया गया है कि कर्मचारियों का भ्रष्टाचार और इलाज में भेदभाव की वजह से गरीब औऱ वंचित तबके के लोगों को गुणवत्तापूर्ण इलाज नहीं मिल पाता। इसलिए, बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था के साथ ही मरीजों को ले कर बेहतर रवैया भी बेहद जरूरी है।

नीतियां और अच्छे उदाहरण

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) के तहत उठाए गए दो अहम कदम- जननी सुरक्षा योजना और जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम प्रत्यक्ष तौर पर स्वास्थ्य केंद्रों पर प्रसव सेवा का लाभ उठाने वालों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से शुरू किए गए हैं। चुनावी राज्यों और खास तौर पर यूपी, उत्तराखंड और मणिपुर में उन तरीकों को भी अपनाया जा सकता है, जिन्हें कुछ दूसरे राज्यों में पहले से ही अपनाया जा चुका है। उदाहरण के तौर पर गुजरात ने सांस्थानिक प्रसव को बढ़ावा देने के लिए प्राइवेट क्षेत्र को चिरंजीवी योजना के तहत शामिल किया है। इसी तरह राजस्थान सभी को मुफ्त दवा और जांच की सुविधा उपलब्ध करवा रहा है।

तमिलनाडु में इस लिहाज से कई बेहतरीन काम किए गए हैं, जैसे कि प्रभावशाली लोक स्वास्थ्य कैडर युक्त सुव्यवस्थित स्वास्थ्य प्रशासन, मातृत्व मृत्यु निगरानी के लिए ठोस व्यवस्था, आपातकालीन परिवहन के लिए बेहतर व्यवस्था, दवा की बेहतर सार्वजनिक खरीद और वितरण। तमिलनाडु में डॉ. मुत्तूलक्ष्मी रेड्डी मातृत्व सहायता योजना के तहत प्रत्येक लाभार्थी महिला को सांस्थानिक प्रसव और बच्चों के टीकाकरण के लिए 12 हजार रुपये का कंडिशनल कैश बेनेफिट मुहैया करवाया जाता है। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री की ओर से देश भर में प्रत्येक गर्भवती महिला को छह हजार रुपये की आर्थिक सहायता की घोषणा मातृत्व मृत्यु दर को कम करने में काफी मददगार साबित होगी। स्पष्ट तौर पर इसका बजट पर प्रभाव पड़ेगा, लेकिन कारगर रूप से इसे अमल में ला कर ये चुनावी राज्य अच्छी स्वास्थ्य सुविधा मुहैया करवाने के लिहाज से आदर्श राज्य साबित हो सकते हैं।

चुनावी राज्यों के लिए संदेश

नोटबंदी ने साबित किया है कि हम अपने पास बड़ी तादाद में पैसे रखते हैं, लेकिन लगता है कि मातृत्व मृत्यु (जिसमें से अधिकांश को दूर किया जा सकता है) का आकलन करने के लिए हमारे पास ना तो विशेषज्ञ सुविधा है और ना ही इसके लिए प्रेरणा। मातृत्व मृत्यु पर नियमित और व्यापक आंकड़े जिनमें जगह, आवास, जाति, वर्ग, धर्म आदि के आधार पर पूरे ब्योरे हों, उपलब्ध हों तो इस समस्या के विभिन्न आयामों को आसानी से समझा जा सकता है। यह जरूरी है कि लोक प्रशासन मातृत्व मृत्यु की लोक स्वास्थ्य प्रबंधन और सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (सीआरएस) के जरिए होने वाली रिपोर्टिंग में बेहतरी की जरूरत है। हालांकि सीआरएस गोवा और पंजाब में पर्याप्त बेहतर है, लेकिन यूपी, उत्तराखंड और मणिपुर में यह बेहद बुरी स्थिति में है।

स्थिति जितनी भयावह है, उसे देखते हुए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगठनों की तेज रफ्तार से मातृत्व मृत्यु दर घटाने को ले कर चिंता जायज ही है। इस लिहाज से प्रधानमंत्री का गर्भावती महिलाओं को वित्तीय मदद का ताजा वादा सुरक्षित मातृत्व को एक नीतिगत लक्ष्य के तौर पर स्थापित करने के लिहाज से और मजबूती प्रदान करता है। हालांकि हमारे राज्यों की स्वास्थ्य व्यवस्था इस समय मातृत्व और बाल स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए एक समान ऑपरेशनल रणनीति अपनाती है जो मूल रूप से एनएचएम व्यवस्था का ही विस्तार होता है। केंद्र सरकार के लिहाज से यह तो ठीक है कि वे व्यापक फ्रेमवर्क उपलब्ध करवाएं, लेकिन केंद्र के ‘एक ही साइज सब के लिए उपयुक्त है’ वाले रवैये को अपनाने की बजाय राज्यों को इनोवेशन की भावना अपनानी चाहिए ताकि वे स्वास्थ्य के क्षेत्र में एसडीजी को हासिल करने के लिए अपने विशेष तरीके तैयार कर सकें। नीति निर्माताओं को स्वास्थ्य के क्षेत्र में ज्यादा निवेश करने के लिए प्रेरित करने के लिहाज से हमारी भी जिम्मेवारी है। खास तौर पर पिछड़े इलाकों में भर्ती करने और आपातकालीन व्यवस्था को मजबूत करने के लिहाज से।

निष्कर्ष के तौर पर प्रधानमंत्री मोदी की ओर से नव वर्ष के मौके पर कहे गए को दुहराना उचित होगा, जिसमें उन्होंने कहा था, “जब नीतियां और कार्यक्रम स्पष्ट उद्देश्य को ध्यान में रख कर बनाए जाते हैं तो ना सिर्फ लाभार्थी को फायदा होता है, बल्कि अल्पकालिक और दीर्घकालिक दोनों लाभ होते हैं।” स्वस्थ्य माताओं की अहमियत को समझना एक बात है लेकिन यह भी जरूरी है कि हम वोटर और नागरिक के तौर पर भी इस तथ्य को समझें और बदलाव की पहल करें यह भी उतना ही जरूरी है।

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.