Published on Sep 28, 2023 Updated 0 Hours ago

मानवाधिकारों और वैश्विक सुरक्षा की रक्षा के लिए तकनीक़ी प्रगति और नैतिक विचारों के बीच संतुलन बनाए रखना आवश्यक होगा. 

न्यूरो-टेक्नोलॉजी से जुड़े नैतिक प्रश्न? न्यूरो साइंस और मिलिट्री उपयोग के बीच ‘क्रॉसरोड’

तंत्रिका विज्ञान और प्रौद्योगिकी क्षेत्र में हुई तीव्र प्रगति ने न्यूरो-टेक्नोलॉजी क्षेत्र को जन्म दिया है. यह क्षेत्र मानव मस्तिष्क के अध्ययन पर आधारित है, जहां मस्तिष्क से संपर्क स्थापित करने और उसे प्रभावित करने के लिए कई तकनीक़ों का प्रयोग किया जाता है. इसमें न्यूरो-बायोलॉजिकल बीमारियों के इलाज़ में सहायता करने से लेकर न्यूरोलॉजिकल डेटा मैपिंग जैसे उपयोग शामिल हैं और भविष्य में इनके अनुप्रयोग देखने को मिल सकते हैं. जबकि वैश्विक स्तर पर चिकित्सा क्षेत्र को अच्छे से विनियमित किया गया है, लेकिन न्यूरो-टेक्नोलॉजी क्षेत्र में हो रही प्रगति अभूतपूर्व है और इसलिए इसे निगरानी की जरूरत है.

ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस (BCIs) न्यूरो-टेक्नोलॉजी से संबंधित महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकी है, जिसकी मदद से किसी बाहरी उपकरण के ज़रिए मस्तिष्क से सीधा संचार स्थापित किया जाता है.

इसे ध्यान में रखते हुए यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन) ने जुलाई 2023 में न्यूरो-टेक्नोलॉजी क्षेत्र से जुड़े नैतिक प्रश्नों पर बहस के लिए एक सम्मेलन का आयोजन किया.

ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस (BCIs) न्यूरो-टेक्नोलॉजी से संबंधित महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकी है, जिसकी मदद से किसी बाहरी उपकरण के ज़रिए मस्तिष्क से सीधा संचार स्थापित किया जाता है. इससे शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्ति को गतिशीलता हासिल करने या रोबोटिक सिस्टम को नियंत्रित करने में मदद की जा सकती है. इन्हें ब्रेन-मशीन इंटरफेस(BMIs) के रूप में और विकसित किया गया है जो मस्तिष्क के तंत्रिका संकेतों के साथ बाहरी उपकरणों को जोड़ते हैं. इसके कारण प्रोस्थेटिक्स और एक्सोस्केलेटन जैसे मस्तिष्क द्वारा नियंत्रित होने वाले उपकरणों का विकास संभव हो पाया है.

न्यूरोइमेजिंग भी न्यूरो-टेक्नोलॉजी पर आधारित प्रौद्योगिकी है जो न्यूरोलॉजिकल प्रतिक्रियाओं और डेटा तक पहुंच को संभव बनाता है. इसके अलावा, Neurostimulation न्यूरो-टेक्नोलॉजी का एक अनिवार्य पहलू है जो मानव व्यवहार परिवर्तन पर ध्यान केंद्रित करता है. इसके तहत मस्तिष्क के कुछ ख़ास हिस्सों में बिजली या चुंबकीय धारा के ज़रिए तंत्रिका गतिविधियों को नियंत्रित किया जाता है, जो अवसाद और मिर्गी जैसी स्वास्थ्य समस्याओं के चिकित्सकीय निदान की संभावनाएं पेश करता है.

न्यूरो-टेक्नोलॉजी क्षेत्र में नवाचार को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से जोड़कर देखा जाए, तो ये मानव की निजता, स्वायत्तता और उसकी गरिमा के लिए ख़तरा है, जहां इनके इस्तेमाल से इंसान के व्यवहार और उसकी हार्मोन प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित किया जा सकता है, साथ ही उसकी इच्छा के विरुद्ध उसके दिमाग को प्रभावित करने की संभावनाएं भी मज़बूत हो जाती हैं.

एलन मस्क की न्यूरोसाइंस कंपनी, न्यूरालिंक, ने हाल ही में ब्रेन इंप्लांट चिप के अपग्रेडेड वर्जन के मानव परीक्षण की घोषणा की है. कहा जा रहा है कि यह इंप्लांट यादों को बदल सकता है, और सुनने की बीमारी, अंधेपन, पक्षाघात और अवसाद का इलाज कर सकता है.

इस क्षेत्र को विनियमित किए जाने की ज़रूरत है, जिसके तहत केवल इसके अनुप्रयोग से जुड़े क्षेत्रों को ही नहीं बल्कि न्यूरोलॉजिकल डाटा को प्रशासनिक देखरेख के भीतर लाए जाने की आवश्यकता है. वर्तमान में, संवेदनशील डेटा से अलग, न्यूरोलॉजिकल डेटा के एकत्रीकरण, अध्ययन और उपयोग को विनियमित करने के लिए कोई दिशानिर्देश प्रणाली मौजूद नहीं है. एलन मस्क की न्यूरोसाइंस कंपनी, न्यूरालिंक, ने हाल ही में ब्रेन इंप्लांट चिप के अपग्रेडेड वर्जन के मानव परीक्षण की घोषणा की है. कहा जा रहा है कि यह इंप्लांट यादों को बदल सकता है, और सुनने की बीमारी, अंधेपन, पक्षाघात और अवसाद का इलाज कर सकता है. चूंकि निजी क्षेत्र में ऐसी प्रौद्योगिकियों की मौजूदगी कोई नई घटना नहीं है, इसलिए इन्हें विनियमित किया जाना ज़रूरी है.

जबकि न्यूरो-टेक्नोलॉजी आधारित नवाचार के कई लाभ है, लेकिन दुनिया भर में इस क्षेत्र में नैतिक दिशानिर्देशों की आवश्यकता को ज़रूरी बताया जाता रहा है. 2019 में, OECD (ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनोमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट) ने चिकित्सा और अनुसंधान क्षेत्रों में न्यूरो-टेक्नोलॉजी के नैतिक उपयोग पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्य दिशानिर्देश जारी किए. यूनेस्को के तहत इंटरनेशनल बायोइथिक्स कमिटी (IBC) ने भी एक रिपोर्ट का प्रकाशन किया है, जो न्यूरो-टेक्नोलॉजी से जुड़े नैतिक मुद्दों पर नज़र रखती है और नैतिक रूप से उचित नवाचारों के लिए सुझाव सामने रखती है. 

न्यूरोवॉरफेयर: जैविक युद्ध और साइबर युद्ध का मिश्रित स्वरूप

सिंथेटिक बायोलॉजी में हुई प्रगति ने संभावित रूप से आने वाले दशकों में मानव मस्तिष्क की गतिविधियों को युद्ध से जोड़ने का रास्ता ढूंढ़ निकाला है. इन विकासों में न्यूरो-टेक्नोलॉजिकल एजेंटों की एक श्रृंखला शामिल है जो न्यूरोलॉजिकल क्षमताओं को प्रभावित कर सकती है. इन न्यूरो-टेक्नोलॉजिकल एजेंटों में न्यूरोफार्माकोलॉजिकल एजेंट शामिल हैं, जैसे एम्फ़ैटेमिन (जो न्यूरोलॉजिकल गतिविधियों में बदलाव कर सकती हैं) और न्यूरो-टेक्नोलॉजिकल उपकरण.

 

इसी तरह, न्यूरोसाइंस और न्यूरो-टेक्नोलॉजी में हुई प्रगति ने इस बात पर चर्चा को आवश्यक बना दिया है कि कैसे इन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा, खुफिया और रक्षा संदर्भों में हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है.

कई अन्य तकनीक़ों की तरह, न्यूरो-टेक्नोलॉजी का दोहरा इस्तेमाल हो सकता है, जिसमें नागरिक और सैन्य दोनों अनुप्रयोग शामिल हैं. न्यूरो-वॉरफेयर का मतलब सैन्य अभियानों में न्यूरो-टेक्नोलॉजी के उपयोग से है. हालांकि अभी इनके अनुप्रयोगों को लेकर अटकलों का बाज़ार गर्म है, लेकिन यह बताया जा रहा है कि इन तकनीक़ों की मदद से सैनिकों की संज्ञानात्मक क्षमताओं (जैसे उनकी याददाश्त, एकाग्रता और निर्णयन क्षमता) को युद्ध के अनुसार अनुकूलित किया जा सकता है ताकि युद्धस्थल में उनके प्रदर्शन में सुधार लाया जा सके.

बिना पूर्ण सहमति लिए न्यूरो-टेक्नोलॉजी और न्यूरोफार्माकोलॉजी का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए. प्रतिद्वंदी को नुकसान पहुंचाने और उनकी संज्ञानात्मक क्षमताओं को अस्थाई या स्थाई रूप से नकारात्मक रूप से प्रभावित करने के मकसद से ऐसे नवाचारों के इस्तेमाल को एक निगरानी तंत्र के अंतर्गत लाया जाना चाहिए.

न्यूरो-वॉरफेयर के संदर्भ में हवाना सिंड्रोम एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है, जिसे अमेरिकी खुफिया अधिकारियों ने अनुभव किया है. इस सिंड्रोम के कारण व्यक्तियों की याददाश्त क्षमता और उसका संतुलन प्रभावित होता है, और चक्कर और भ्रम जैसे लक्षण पैदा होते हैं. 2016 में क्यूबा में घटित हुए इस वाकये के बारे में अमेरिकी विदेश विभाग (DOS) द्वारा वित्त पोषित न्यूरो वैज्ञानिकों की एक टीम का दावा है कि ये लक्षण एक जानबूझकर किए गए हमले का परिणाम थे, जबकि अन्य अध्ययनों में कहा गया कि यह एक निर्देशित ऊर्जा हथियार का परिणाम था.

ऐसे ही एक अन्य संदिग्ध मामला चीन के गुआंगज़ौ से भी सामने आया है, हालांकि निजता का हवाला देते हुए DOS ने इसकी गंभीरता को लेकर कोई पुख्ता जानकारी नहीं दी है.

न्यूरोसाइकोलॉजिकल युद्ध में लोगों की संज्ञानात्मक क्षमता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करने के लिए प्रौद्योगिकी और चिकित्सा हस्तक्षेपों का भी इस्तेमाल किया जा सकता है, जिसके तहत युद्ध के दौरान लोगों में भ्रम और डर पैदा करने के अलावा उनकी निर्णयन क्षमता को प्रभावित करना शामिल है. इसके अलावा, ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस सैनिकों को मानसिक तरंगों के जरिए हथियारों और उपकरणों को नियंत्रित करने की क्षमता प्रदान कर सकता है, जिससे सटीक हमले और बेहद कम समय में प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई की संभावना बढ़ सकती है.

नैतिक चिंताएं 

जिस तरह से चिकित्सा, अनुसंधान या आर्थिक जगत में न्यूरो-टेक्नोलॉजी के उपयोग को लेकर जो नैतिक चुनौतियां सामने आई हैं, ठीक उसी तरह इसके सैन्य अनुप्रयोगों को लेकर भी चिंताएं जताई गई हैं.

सबसे पहली चिंता तो पूर्ण सहमति (किसी चीज़ के बारे में पूरी तरह जान और समझ लेने के बाद दी जाने वाली सहमति) और निजता की है, जो सैनिकों और नागरिकों दोनों के लिए ज़रूरी है. बिना पूर्ण सहमति लिए न्यूरो-टेक्नोलॉजी और न्यूरोफार्माकोलॉजी का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए. प्रतिद्वंदी को नुकसान पहुंचाने और उनकी संज्ञानात्मक क्षमताओं को अस्थाई या स्थाई रूप से  नकारात्मक रूप से प्रभावित करने के मकसद से ऐसे नवाचारों के इस्तेमाल को एक निगरानी तंत्र के अंतर्गत लाया जाना चाहिए.

 

दूसरा, न्यूरो-टेक्नोलॉजी पर आधारित हथियारों के इस्तेमाल से मनोवैज्ञानिक हानि की संभावना है. ऐसी किसी तकनीक़ को युद्धस्थल में इस्तेमाल करने से पहले, ख़ासकर इसे एक सामान्य हथियार के तौर पर मान्यता देने से पहले, ये ज़रूरी है कि इसके इंसानों पर पड़ने वाले मनोवैज्ञानिक प्रभावों का अध्ययन किया जाए और इस संदर्भ में कुछ सीमाएं आरोपित की जाएं.

आखिर में, न्यूरो-टेक्नोलॉजी के अनुप्रयोग, ख़ासकर न्यूरोलॉजिकल डाटा के साथ छेड़छाड़, निजता की हानि और संभावित दुरुपयोग और सहमति के अभाव से असैन्य आबादी को बचाना होगा.

चूंकि न्यूरो-टेक्नोलॉजी के सैन्य अनुप्रयोगों से कई नैतिक दुविधाएं खड़ी हो सकती हैं, ऐसे में इन प्रश्नों को देखते हुए सेना में न्यूरो-टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल को विनियमित करने के लिए एक जवाबदेह प्रशासन का होना अनिवार्य है.

ऐसे उपायों के क्रियान्वयन में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग सबसे पहला क़दम होगा. जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, OECD पहले ही चिकित्सा और अनुसंधान संस्थानों में न्यूरो-टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल के लिए आवश्यक नैतिक शर्तों को तैयार कर चुका है, और यूनेस्को इस दिशा में सक्रिय रूप से काम कर रहा है.

हालांकि, न्यूरो-टेक्नोलॉजिकल और न्यूरोफार्माकोलॉजिकल युद्ध की संभावना को देखते हुए वैश्विक स्तर पर एक प्रशासनिक तंत्र की स्थापना की आवश्यकता है. युद्ध की संभावनाओं को देखते हुए, नैतिक दिशानिर्देशों में युद्ध से जुड़ी संभावनाओं को शामिल करना होगा. यानी कि अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को केवल अनुसंधान क्षेत्रों में ही प्रौद्यौगिकी पर नियंत्रण तक सीमित नहीं रहना चाहिए. इसके अलावा, निरस्त्रीकरण समझौतों में न्यूरो-वॉरफेयर को शामिल करने की भी आवश्यकता है. इसका मतलब है कि इस क्षेत्र में अनुसंधान और इसके उपयोग से जुड़ी जवाबदेहिता को केवल शिक्षा जगत तक सीमित नहीं होना चाहिए और पारदर्शिता और नैतिक दृष्टिकोणों के हवाले से इनमें सरकारी संस्थाओं को भी शामिल करना चाहिए.  

अंतर्राष्ट्रीय निरस्त्रीकरण समझौतों और सहयोग से परे राज्य अभिकर्ताओं को एक जवाबदेही तंत्र की स्थापना करनी होगी, जिसके लिए एक रिपोर्टिंग सिस्टम के निर्माण की ज़रूरत है.

इसके अलावा, निरस्त्रीकरण उपायों में उभरती तकनीक़ों को शामिल करना चाहिए, जहां इसके तहत न्यूरो-वॉरफेयर और उनके अनुप्रयोगों के साथ-साथ उन्हें सीमित करने वाले समाधानों को शामिल करने की दूरदर्शिता होनी चाहिए.

अंतर्राष्ट्रीय निरस्त्रीकरण समझौतों और सहयोग से परे राज्य अभिकर्ताओं को एक जवाबदेही तंत्र की स्थापना करनी होगी, जिसके लिए एक रिपोर्टिंग सिस्टम के निर्माण की ज़रूरत है.

न्यूरो-टेक्नोलॉजी में मानव जीवन से जुड़े विभिन्न क्षेत्रों जैसे, संचार, चिकित्सा और अन्य कई क्षेत्रों में क्रांतिकारी बदलाव लाने की क्षमता है. हालांकि, न्यूरोवॉरफेयर में इसके इस्तेमाल से कई बड़ी नैतिक चुनौतियां सामने आई हैं. और इसलिए इसके इस्तेमाल से जुड़े जोख़िमों में कमी लाने और इसके नैतिक अनुप्रयोग को सुनिश्चित करने के लिए एक बेहतर प्रशासन की आवश्यकता है. न्यूरो-टेक्नोलॉजी और न्यूरो-वॉरफेयर का भविष्य तकनीक़ी प्रगति और नैतिक विचारों के बीच संतुलन पर निर्भर है, जो कि मानवाधिकारों और वैश्विक सुरक्षा की रक्षा के लिए आवश्यक शर्त है.

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