Published on Nov 06, 2017 Updated 0 Hours ago

हिमाचल प्रदेश की स्वास्थ्य एवं पोषण चुनौतियां सार्वजनिक क्षेत्र में मानव संसाधन से जुड़ी गंभीर बाध्यताओं के कारण और भी बढ़ गई हैं। राज्य को पहले हासिल लाभ के अब खत्म हो जाने का खतरा मंडराने लगा है।

हिमाचल में मतदान से पहले स्वास्थ्य चुनौतियों पर बहस की जरुरत

हिमाचल प्रदेश की कहानी भारत की ग्रामीण स्वास्थ्य सफलता की बेहतरीन गाथा रही है। 90 प्रतिशत के औसत के साथ भारतीय राज्यों की ग्रामीण आबादी में यह सबसे अधिक अनुपात रहा है। इसके साथ साथ, जब समान ग्रामीण आबादी वाले राज्यों के साथ इसकी तुलना की जाती है तो हिमाचल प्रदेश को मानव विकास संकेतकों (एचडीआई) में औसतन बेहतर स्थान हासिल है। केरल एवं दिल्ली के साथ साथ एचडीआई के मामले में देश के सर्वश्रेष्ठ राज्यों में इसका नाम शुमार है और अपनी उच्च ग्रामीण जनसंख्या के बावजूद इसने बहुत पहले ही कुल प्रजनन दर के विस्थापन स्तर को अर्जित कर लिया था। भारत के बड़े राज्यों में केवल केरल, जम्मू एवं कश्मीर, दिल्ली तथा पंजाब की हिमाचल प्रदेश की तुलना में जन्म के समय उच्च जीवन प्रत्याशा दर है। यह अपेक्षाकृत समृद्ध राज्य है जिसकी प्रति व्यक्ति जीएसडीपी गुजरात, तमिलनाडु एवं केरल के समान है। राज्य स्वास्थ्य आयोग का गठन 2014 में किया गया जिसके सदस्य विख्यात विशेषज्ञ हैं। आयोग ने अंतः क्षेत्रवार कार्यनीतियों के विकास पर अपना ध्यान केन्द्रित किया जो राज्य के सर्वांगीण विकास के एक हिस्से के रूप में स्वास्थ्य से जुड़े पर्यावरणीय, पोषण एवं सामाजिक निर्धारकों पर ध्यान देने के लिए आवश्यक था।

सार्वजनिक क्षेत्र पर फोकस

हिमाचल प्रदेश केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री श्री जगत प्रकाश नड्डा का गृह राज्य भी है जो पहले राज्य स्वास्थ्य मंत्री थे। हिमाचल प्रदेश ऐसा राज्य है जहां सरकार देश भर में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर सबसे अधिक खर्च करती है और सार्वजनिक व्यय पर फोकस की वजह से राज्य अपनी जेब से स्वास्थ्य पर खर्च करने के मामले में देश में सबसे नीचे से दूसरे स्थान पर है। हिमाचल प्रदेश का सीधा मुकाबला केरल से है जो मानव विकास के मामले में देश में सर्वोच्च स्थान पर है। केरल हिमाचल की तुलना में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर केवल पचास फीसदी सार्वजनिक व्यय करता है और स्वास्थ्य पर निजी खर्च के लिहाज से उसका प्रतिशत देश में सर्वाधिक है।

राज्य में निजी क्षेत्र के अस्पताल में भर्ती मरीजों का प्रतिशत 22.9 है जो देश में सबसे कम है। दूसरी तरफ, केरल में निजी क्षेत्र के अस्पताल में भर्ती मरीजों का प्रतिशत 66.1 है। सार्वजनिक क्षेत्र पर फोकस करने की हिमाचल की यह विशिष्ट नीति हिमाचल को भारत के अपेक्षाकृत समृद्ध राज्यों के बीच अनूठी बनाती है जिनकी पहचान आम तौर पर प्रभावशाली निजी क्षेत्र की उपस्थिति द्वारा होती है।

जहां केरल में आपातपूर्ण स्वास्थ्य व्यय की रिपोर्ट कराने वाले परिवारों का प्रतिशत देश में सर्वाधिक 20.4 प्रतिशत है, हिमाचल प्रदेश में यह 13.1 प्रतिशत है जो अखिल भारतीय औसत के लगभग बराबर है।

हिमाचल उन चंद भारतीय राज्यों में एक है जहां प्रति व्यक्ति जनसंख्या मानकों के लिहाज से उप केन्द्रों, पीएचसी या सीएचसी की कोई कमी नहीं है। राज्य का गठन 1971 में पंजाब एवं पहले के संघ शासित क्षेत्र के हिस्सों को जोड़ने के द्वारा किया गया था। प्रारंभ से ही, राज्य में सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे का तेज गति से विस्तार हुआ, जैसाकि ग्राफ 1 में प्रदर्शित किया गया है। इसी अवधि के दौरान, हिमाचल प्रदेश उपकेंद्रों की संख्या 1299 से बढ़ा कर 2071 तक पहुंचा देने में कामयाब रहा। हिमाचल प्रदेश में भारत की केवल .57 प्रतिशत आबादी रहती है लेकिन वहां बिहार की तुलना में-जहां भारत की कुल आबादी के 8.58 प्रतिशत का निवास है, अधिक उपमंडलीय अस्पताल हैं।

स्वास्थ्य मानव संसाधनों में संकट

बहरहाल, भौतिक बुनियादी ढांचा मोर्चे पर ऐसे मजबूत प्रदर्शन के बावजूद, हिमाचल प्रदेश की स्वास्थ्य प्रणाली कर्मचारियों की भारी किल्लत से जूझ रही है। ग्राफ 2 हिमाचल प्रदेश में स्वास्थ्य कर्मचरियों की कमी की स्थिति को प्रदर्शित करता है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं/एएनएम लगभग शून्य पर हैं जबकि उप केंद्रों में 50 प्रतिशत से भी अधिक पुरुष स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की कमी है। राज्य में कार्यरत कुल 1951 उप केंद्रों में से 214 में एक भी महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता/एएनएम नहीं है जबकि 1,129 में एक भी पुरुष स्वास्थ्य कार्यकर्ता नहीं हैं और 121 उप केंद्रों में तो एक भी पुरुष या महिला कार्यकर्ता नहीं है।

जैसाकि ग्राफ 3 में प्रदर्शित किया गया है, राज्य में सार्वजनिक क्षेत्र के अस्पतालों में डॉक्टरों, खासकर, विशेषज्ञों की बेहद कमी है। हिमाचल के लगभग 20 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बिना किसी एलोपैथिक डॉक्टर के काम करते हैं। केवल 95 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में ही महिला चिकित्सक हैं। वैकल्पिक दवा से भी यह खाई नहीं भर पा रही है, -राज्य में कार्यरत कुल 518 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में से केवल 44 में ही आयुष सुविधा है। विशेषज्ञों (सर्जन, ओबी एवं जीवाई, फिजिसियन एवं बाल रोग विशेषज्ञ) की बेहद ज्यादा कमी है: राज्य में 316 विशेषज्ञ चिकित्सकों की जरुरत है जबकि राज्य में केवल सात विशेषज्ञ चिकित्सक ही कार्यरत हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के डॉक्टर तथा सीएचसी ( 234 की जरुरत के मुकाबले केवल 220 कार्यरत हैं) में जनरल ड्यूटी मेडिकल ऑफिसर (जीडीएमओ) ही राज्य की स्वास्थ्य प्रणाली के मुख्य आधार हैं जो ज्यादातर रोगों को बोझ वहन करते हैं।

राज्य में निजी स्वास्थ्य क्षेत्र की अपेक्षाकृत कम मौजूदगी को देखते हुए, राज्य सरकार द्वारा प्रति व्यक्ति उच्च सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय के बावजूद कर्मचारियों के इतने घोर अभाव का नागरिकों के स्वास्थ्य पर घातक असर हो सकता है। विशेषज्ञों के मामले में 98 प्रतिशत तक की कमी जैसे मामलों को देखते हुए यह हैरान कर देने वाला तथ्य है कि 2014-15 के दौरान राज्य में एनआरएचएम के कुल व्यय का मानव संसाधनों पर केवल 7 प्रतिशत ही खर्च किया गया-जोकि देश में निम्नतम है।

2014-15 के दौरान राज्य में एनआरएचएम के कुल व्यय का मानव संसाधनों पर केवल 7 प्रतिशत ही खर्च किया गया-जोकि देश में निम्नतम है।

पिछले दशक के दौरान स्वास्थ्य प्रदर्शन

हिमाचल प्रदेश के स्वास्थ्य एवं पोषण संकेतों पर नवीनतम जानकारी एनएफएचएस-4 के सर्वे में उपलब्ध है जिसके लिए फील्डवर्क 2016 में किया गया था। सर्वे में 9,225 घरों, 9,929 महिलाओं एवं 2,185 पुरुषों से सूचनाएं एकत्र की गईं। सर्वे के अनुसार, राज्य का लिंग अनुपात 2005-06 के 1070 से सुधर कर 2016 में 1078 हो गया। हिमाचल प्रदेश में सभी घरों को बिजली की सुविधाएं उपलब्ध हैं। बेहतर स्वच्छता सुविधा वाले घरों का अनुपात पिछले दशक के 37.2 फीसदी से बढ़ कर 70.7 फीसदी तक पहुंच गया। पिछले दशक के दौरान स्वास्थ्य बीमा कवरेज पांच गुना बढ़ गया-25.8 फीसदी परिवारों में कम से कम एक व्यक्ति स्वास्थ्य योजना या स्वास्थ्य बीमा द्वारा जरुर कवर किया गया है।

बहरहाल, पिछले दशक में नवजात मृत्यु दर या पांच वर्ष से कम की मृत्यु दर कमियों की गति सुस्त रही है। ग्राफ 5 एवं 6 प्रदर्शित करते हैं कि देश के औसत में सुधारों की तुलना में भी राज्य की सफलता सीमित ही रही है।

जहां मातृत्व स्वास्थ्य एवं प्रसूति देखभाल के संकेतकों में उल्लेखनीय सुधार देखने में आया है, 12 से 23 महीने के बीच के ऐसे शिशुओं, जिनका पूर्ण टीकाकरण हुआ है, के अनुपात में वास्तव में कमी आई है जो 2005-06 के 74.25 फीसदी से घटकर 2016 में 69.5 फीसदी तक आ गया है। यह एक बड़ी चिंता की बात है। अर्जित टीकाकरण के जिला स्तर अन्वेषण की कोशिश नक्शा 1 में की गई है, जो जिला स्तर की बड़ी विषमताओं की एक तस्वीर प्रस्तुत करती है। 45.9 प्रतिशत के साथ हमीरपुर में निम्नतम टीकाकरण कवरेज है जबकि 87.3 प्रतिशत के साथ शिमला सर्वोच्च स्तर पर है। बिलासपुर, लाहुल एवं स्पीति तथा ऊना जिलों में पूर्ण टीकाकरण के मामले में 60 प्रतिशत से भी कम कवरेज है।

एनएफएचएस संस्थानिक जन्मों का अनुपात पिछले दशक की तुलना में लगभग दोगुना-43.1 प्रतिशत से 76.4 प्रतिशत हो गया है। बहरहाल, समग्र उपलब्धि अभी भी भारतीय औसत से निम्न बनी हुई है और जिला स्तर पर उल्लेखनीय अंतर है जैसाकि नक्शा में प्रदर्शित किया गया है। हमीरपुर ने 90.9 प्रतिशत संस्थानिक जन्मों के साथ सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया है जबकि चम्बा ने 56.9 प्रतिशत संस्थानिक जन्मों के साथ निम्नतम प्रदर्शन किया है। कुशल स्वास्थ्य परिचारिकाओं द्वारा घर में कराए गए प्रसव-जिन्हें सुरक्षित माना जाता है-3.6 प्रतिशत के साथ बेहद निम्न स्तर पर है। चम्बा में सुरक्षित प्रसवों का कुल अनुपात 60.5 प्रतिशत है। कुशल स्वास्थ्य परिचारिकाओं द्वारा घर में कराए गए प्रसव 3.4 प्रतिशत के साथ बेहद निम्न स्तर पर बने हुए है जिसका सीधा संबंध स्वास्थ्य कर्मचारियों की कमी से है।

प्रतिरक्षण का निम्न अनुपात अपने आप में स्वास्थ्य प्रणाली की विफलता का एक लक्षण नहीं भी हो सकता है जैसाकि हमीरपुर एवं बिलासपुर जिलों के मामले में देखा गया है जिन्होंने संस्थानिक जन्मों के उच्च स्तर को हासिल करने में सफलता पाई। अगली सरकार की एक प्राथमिकता निश्चित रूप से कम प्रतिरक्षण वाले क्षेत्रों की पहचान करने तथा उसका निदान ढूंढने से संबंधित होनी चाहिए।

अगली सरकार की एक प्राथमिकता निश्चित रूप से कम प्रतिरक्षण वाले क्षेत्रों की पहचान करने तथा उसका निदान ढूंढने से संबंधित होनी चाहिए।

खून की कमी (रक्तहीनता) एक बड़ी चिंता

वृद्धि अवरुद्धता, अपक्षय एवं कम वजन जैसे कुपोषण के मानक संकेतकों में पिछले दशक के दौरान सुधार हुआ है। हैरानी की बात यह है कि हिमाचल प्रजनन उम्र की महिलाओं में रक्तहीनता के प्रबंधन के मामले में सबसे पिछड़े राज्यों के रूप में उभर कर सामने आया है। राज्य में पिछले दशक के दौरान रक्तहीनता में 10 प्रतिशत अंकों से अधिक की बढोतरी देखी गई। गर्भवती महिलाओं के बीच भी रक्तहीनता में 12 प्रतिशत से अधिक वृद्धि दर्ज की गई। परिवार नियोजन की आवश्यकता में पिछले दशक के दौरान दोगुनी से अधिक की बढोतरी हुई है। ऐसी महिलाओं, जो परिवार नियोजन की किसी आधुनिक प्रणाली का उपयोग कर रही हों, के अनुपात में तेज गिरावट हुई है और यह 2005-06 के 72.6 प्रतिशत की तुलना में घटकर 2016 में 52.1 प्रतिशत तक आ गई है।

ऐसे पुरुषों एवं महिलाओं, जिनका या तो वजन अधिक है या जो बहुत मोटे हैं, का अनुपात पिछले दशक की तुलना में दोगुने से भी अधिक हो गया है। कामकाजी उम्र के ऐसे पुरुषों के अनुपात में उल्लेखनीय बढोतरी हुई है जो अल्कोहल का सेवन करते हैं। 2005-06 के 29.5 प्रतिशत की तुलना में बढ़कर 2016 में यह चिंताजनक 39.7 फीसदी तक पहुंच गया है। गैर-संचारी रोगों के बोझ से संबंधित निहितार्थों को ध्यान में रखते हुए, इन पहलुओं पर अधिक नीतिगत ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।

हिमाचल प्रदेश की स्वास्थ्य एवं पोषण चुनौतियां सार्वजनिक क्षेत्र में मानव संसाधन से जुड़ी गंभीर बाध्यताओं के कारण और भी बढ़ गई हैं। राज्य को पहले हासिल लाभ के अब खत्म हो जाने का खतरा मंडराने लगा है जैसाकि प्रतिरक्षण के कम होने एवं रक्तहीनता की वापसी तथा शिशु मृत्यु दर में धीमे सुधार से प्रदर्शित होता है। ऐसे जिलों-अगर संभव हो तो तालुकों-की पहचान करने की आवश्यकता है जिन पर स्वास्थ्य एवं पोषण योजनाओं के लिहाज से अधिक ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। संक्षेप में, ग्रामीण स्वास्थ्य सफलता गाथा के रूप में हिमाचल की प्रतिष्ठा पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है।

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Authors

Oommen C. Kurian

Oommen C. Kurian

Oommen C. Kurian is Senior Fellow and Head of Health Initiative at ORF. He studies Indias health sector reforms within the broad context of the ...

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Rakesh Kumar Sinha

Rakesh Kumar Sinha

Rakesh Kumar is a Associate Fellow at ORF. He has done PGDCA (Post Graduation Diploma in Computer Application) from CMC, Delhi Centre and CIC(certificate in ...

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