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Published on Feb 25, 2023 Updated 8 Days ago

बिजली वितरण का निजीकरण सन्निकट प्रतीत होता है, क्योंकि सरकार का उद्देश्य इस क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भूमिका का विस्तार करना है.

डिस्कॉम सुधार: ‘पेंडुलम चला पीछे की ओर’

भारत में तमाम बिजली पहुंच पहलों का उद्देश्य गांव (या घर) और ग्रिड के बीच एक भौतिक संबंध प्रदान करना, गरीब परिवारों से बिजली की कम मांग (कम सामर्थ्य से उत्पन्न होने वाली आर्थिक कमी) की लगातार चुनौती को दूर करना है.

यह लेख 'व्यापक ऊर्जा निगरानी : भारत और विश्व' श्रृंखला का एक हिस्सा है.


पृष्ठभूमि 

भारत की स्वतंत्रता (1947) के समय बिजली उत्पादन और वितरण मुख्यत: निजी क्षेत्र के हाथों में था. निजी कंपनियों और उनके फ्रेंचाइजी ने शहरी और औद्योगिक मांग पर ध्यान केंद्रित किया, जिसने उन्हें उनके निवेश पर पर्याप्त लाभ दिया. इस दौरान ग्रामीण और कृषि क्षेत्रों की उपेक्षा की गई, क्योंकि उन्हें लाभहीन क्षेत्रों के रूप में देखा गया. प्रत्येक 200 गांवों में से केवल एक का ही विद्युतीकरण हुआ और छह बड़े शहरों में सिर्फ 3 प्रतिशत आबादी ने 56 प्रतिशत उपयोगिता बिजली की ख़पत की. 10,000 से अधिक आबादी वाले 856 शहरों में से 506 से अधिक शहर विद्युतीकृत नहीं थे. प्रति व्यक्ति बिजली की ख़पत 14 किलोवॉट आवर प्रति वर्ष थी और कई राज्यों में तो प्रति व्यक्ति ख़पत 1 किलोवॉट आवर प्रति वर्ष जितनी कम थी. स्वतंत्र भारत की पहली सरकार ने इसे बिजली की समान पहुंच प्रदान करने में 'बाज़ार की विफ़लता' के रूप में देखा और इसका कार्यभार संभालने का फ़ैसला किया. 

स्वतंत्र भारत की पहली सरकार ने इसे बिजली की समान पहुंच प्रदान करने में 'बाज़ार की विफ़लता' के रूप में देखा और इसका कार्यभार संभालने का फ़ैसला किया.

संविधान के अनुसार बिजली एक समवर्ती विषय है, जिसका अर्थ यह है कि राज्य और केंद्र दोनों सरकारें बिजली क्षेत्र की नीतियों को आकार दे सकती हैं. लेकिन, विद्युत अधिनियम 1948 के तहत सीधे एकीकृत एकाधिकार के रूप में राज्य विद्युत बोर्ड (एसईबी) की स्थापना ने राज्य सरकारों को बिजली उत्पादन, पारेषण और वितरण पर अधिक नियंत्रण प्रदान कर दिया. एसईबी शासन के तहत अधिकांश गांवों को समाविष्ट करने के लिए बिजली की पहुंच में तेजी से वृद्धि हुई, लेकिन एसईबी की आय में गिरावट आई. 1990 के दशक में विश्व बैंक जैसी विकास निधि एजेंसियों द्वारा शुरू किए गए सुधारों के साथ राज्य सरकारों को डिस्कॉम पर अपना नियंत्रण बाज़ार की ताकतों को सौंपने के लिए मजबूर होना पड़ा. इस दौरान बिजली क्षेत्र को उत्पादन, पारेषण और वितरण की अलग-अलग गतिविधियों में विभाजित करने पर जोर दिया गया, जो वाणिज्यिक शर्तों पर संचालित हो. विद्युत अधिनियम 2003 (ईए 2003) के अधिनियमन ने डिस्कॉम पर राज्य सरकारों की शक्ति को और कम कर दिया, क्योंकि इसने डिस्कॉम को वाणिज्यिक और बाज़ार अनुशासन की ओर धकेल दिया. 

 

अब बिजली वितरण का यह पेंडुलम यानी दोलक वापस निजी क्षेत्र के नियंत्रण में आ रहा है. पिछले दशक में सरकार का जोर (उदाहरण के लिए बिजली संशोधन अधिनियम 2014 मसौदा और इसके कई संशोधित और अद्यतन संस्करण) बिजली वितरण में निजी क्षेत्र को अधिक भूमिका देने के लिए डिस्कॉम को लाइसेंस मुक्त करने पर केंद्रित रहा है. इसके पीछे तर्क यह दिया गया कि किसी निर्धारित क्षेत्र में बिजली वितरण में कई प्रतिद्वंद्वी होने से वे प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देंगे, संचालन की दक्षता में काफी सुधार करेंगे और उपभोक्ताओं को आपूर्तिकतार्ओं के संदर्भ में और ईंधन (जीवाश्म और गैर-जीवाश्म ईंधन-आधारित बिजली) के मामले में भी विकल्प प्रदान करेंंगे. फ्रेंचाइजी जैसे निजीकरण के प्रतिरूपों, जिन्हें सात दशक से अधिक समय से त्याग दिया गया था, उनका मुद्दा अब नीति निर्धारकों की चर्चा में लौट रहा है. इस सवाल पर बहस हो रही है कि क्या निजी क्षेत्र आकर्षक औद्योगिक और समृद्ध उपभोक्ताओं को चुनेंगे और बाकी की उपेक्षा करेंगे. कुछ तिमाहियों में उम्मीद है कि निजी क्षेत्र हरित बिजली की आपूर्ति और मांग को बढ़ावा देगा. हालांकि, इस बात की संभावना है कि निजी क्षेत्र की भागीदारी से आर्थिक दक्षता और सेवा वितरण में सुधार हो सकता है, लेकिन यह भारत के ग्रिड को गैर-कार्बनीकृत (डी-कार्बनाइज) करने के पर्यावरणीय लक्ष्य और बिजली की पहुंच में सुधार के सामाजिक लक्ष्य में महत्वपूर्ण अंतर नहीं ला सकता. 

 

ग्रिड को गैर-कार्बनीकृत करना

 

भारत के अद्यतन राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) में दो ऊर्जा संबंधी मात्रात्मक प्रतिबद्धताएं शामिल हैं. पहला- अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की उत्सर्जन तीव्रता को 2005 के अपने स्तर से वर्ष 2030 तक 45 प्रतिशत तक कम करना और दूसरा 2030 तक गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा संसाधनों से लगभग 50 प्रतिशत संचयी विद्युत ऊर्जा स्थापित क्षमता हासिल करना, इस दौरान ग्रीन क्लाइमेट फंड (जीसीएफ) सहित प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और कम लागत वाले अंतर्राष्ट्रीय वित्त पोषण की मदद लेनी होगी. इन प्रतिबद्धताओं को साकार करने के प्रयास वर्ष 2030 तक अक्षय ऊर्जा (आरई) क्षमता को 500 गीगावॉट करने के घरेलू लक्ष्य को पूरा करेंगे. 

आज अनियमित आरई बिजली को समायोजित करने की प्रणाली की लागत समाजीकृत हो गई है. मौजूदा ग्रिड, जो ज़्यादातर थर्मल (कोयला और प्राकृतिक गैस) बिजली उत्पादन द्वारा संचालित होती है, आरई अनिरंतरता से निपटने के लिए बैकअप प्रदान करती है.

इन शासनादेशों ने सरकारी प्रोत्साहन के साथ (जिनमें पूंजी तक सीमित नहीं, सस्ता ऋण, ट्रांसमिशन तक प्राथमिकता पहुंच, हर हाल में कार्य करना,फीड-इन-टैरिफ और अंतरराज्यीय पारेषण शुल्क की छूट शामिल हैं) निजी खिलाड़ियों के लिए एक लाभदायक व्यवसाय मॉडल बनाया है, जो कई दशकों से स्थिर शुल्क के माध्यम से आरई बिजली के प्रेषण और लागत वसूली की गारंटी देता है. इसमें आश्चर्य की बात नहीं है कि स्थापित आरई बिजली उत्पादन क्षमता में निजी क्षेत्र का 95 प्रतिशत हिस्सा है. हालांकि, निजी क्षेत्र आरई बिजली की आपूर्ति में वर्चस्व रखता है, लेकिन वह डिस्कॉम फ्रेंचाइजी या लाइसेंसधारियों के रूप में आरई बिजली के उपभोक्ताओं को आवश्यक रूप से सुविधा नहीं दे सकते. 

 

आज अनियमित आरई बिजली को समायोजित करने की प्रणाली की लागत समाजीकृत हो गई है. मौजूदा ग्रिड, जो ज़्यादातर थर्मल (कोयला और प्राकृतिक गैस) बिजली उत्पादन द्वारा संचालित होती है, आरई अनिरंतरता से निपटने के लिए बैकअप प्रदान करती है. बैकअप को बनाए रखने की लागत और संबंधित लागत जैसे कि आरई इंटरमिटेंसी से निपटने के लिए बार-बार रैंपिंग अप और डाउन की वज़ह से थर्मल पावर उत्पादन एसेट्स के तेजी से मूल्यह्रास की लागत बिजली उपभोक्ताओं और करदाताओं के पाले में डाल दी जाती है. निजी डिस्कॉम संचालक इस व्यवस्था से अलग नहीं जा सकते. कम क्रय शक्ति वाले बड़ी संख्या में मतदाताओं द्वारा आकार लेने वाली भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के जीवाश्म-ईंधन आधारित बिजली, विशेष रूप से घरेलू कोयला आधारित बिजली का ही पक्ष लेने की संभावना है. वर्ष 2017 में जारी राष्ट्रीय ऊर्जा नीति के मसौदे में पाया गया कि डिस्कॉम पर आरई बिजली को समायोजित करने की सामाजिक और प्रणालीगत लागत का बोझ नहीं डाला जा सकता है. इसमें अतिरिक्त लागतों को पूरा करने के लिए वैकल्पिक तंत्र ख़ोजने की सिफारिश की गई है. यह इस बात पर विचार किए बिना सच है कि डिस्कॉम सार्वजनिक उपक्रम है या निजी स्वामित्व वाला है. 

बिजली की पहुंच

 वर्ष 2014 में जब वर्तमान सरकार सत्ता में आई थी, तब 94 प्रतिशत गांव 'विद्युतीकृत' थे और प्रति व्यक्ति बिजली की ख़पत 1000 किलोवॉट आवर से थोड़ी ही अधिक थी. इसने घरों में बिजली की पहुंच प्रदान करने में पर्याप्त सुधार का संकेत दिया, लेकिन संख्या अधिक होने की वज़ह से व्यापक अपर्याप्तता छुप गई. ग्रिड से जुड़े ग्रामीण परिवारों को बिजली की आपूर्ति का औसत दिन में केवल कुछ घंटे ही होता है. बिजली की ख़पत के लिए प्रति व्यक्ति आंकड़े एक सांख्यिकीय ढांचा है, जिसके तहत समूची उपलब्ध बिजली 1.3 अरब से अधिक लोगों को समान रूप से वितरित की जाती है. यह औसत विभिन्न राज्यों के बीच, शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच और समृद्ध एवं गरीब परिवारों के बीच भारी असमानताओं को छुपा देता है. यदि अकेले घरेलू क्षेत्र की कुल बिजली ख़पत को आबादी के बीच समान रूप से वितरित किया जाए, तो प्रति व्यक्ति बिजली की उपलब्धता 220 किलोवॉट आवर से कुछ ही अधिक होती है, जो कि 'ऊर्जा गरीबी' की तय रेखा है. वर्ष 2014 में 90 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों ने प्रतिमाह 100 किलोवॉट आवर से कम बिजली की ख़पत की, जबकि 50 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों ने प्रति माह 50 किलोवॉट आवर से कम बिजली ख़पत की. 

 

वर्ष 2019 में सरकार ने दावा किया था कि 99 प्रतिशत घरों का विद्युतीकरण किया जा चुका है, लेकिन इस दावे के साथ विश्वसनीय आंकड़े नहीं दिए गए थे. 2020 में नीति आयोग ने यह कहते हुए इस दावे में संशोधन किया कि 99 प्रतिशत ‘’इच्छुक' घरों’’ का विद्युतीकरण किया गया है. 'इच्छुक' शब्द की सबसे संभावित व्याख्या बाज़ार उन्मुख है, जहां इसे बिजली तक पहुंच के लिए ‘’भुगतान करने की इच्छा’’ के रूप में लिया जाता है. यदि यह सच है, तो यह इस बात का संकेत हो सकता है कि बिजली वितरण का निजीकरण होने पर आने वाली चीजें कैसी होंगी. जो लोग भुगतान करने में 'असमर्थ' हैं, उन पर भुगतान करने के लिए 'अनिच्छुक' का लेबल चिपका देना दरअसल बिजली की पहुंच प्रदान करने के सामाजिक लक्ष्य को दरकिनार करने का एक चतुर तरीका है. 

2020 में नीति आयोग ने यह कहते हुए इस दावे में संशोधन किया कि 99 प्रतिशत ‘’इच्छुक' घरों’’ का विद्युतीकरण किया गया है. 'इच्छुक' शब्द की सबसे संभावित व्याख्या बाज़ार उन्मुख है.

भारत में तमाम बिजली पहुंच पहलों का उद्देश्य गांव (या घर) और ग्रिड के बीच एक भौतिक संबंध प्रदान करना, गरीब परिवारों से बिजली की कम मांग (कम सामर्थ्य से उत्पन्न होने वाली आर्थिक कमी) की लगातार चुनौती को दूर करना है. ग्रामीण परिवारों में बिजली की कम मांग आर्थिक कमी (या गरीबी) का नतीजा है. घरों का कम घनत्व और कम ख़पत स्तर असल में बिजली की पहुंच प्रदान करने की लागत को बढ़ाते हैं और यह डिस्कॉम की आमदनी के लिए नकारात्मक हैं. बिजली की बढ़ती ख़पत की क्रांतिकारी गति के बजाय विकासवादी गति के पीछे यह एक महत्वपूर्ण कारक है. निजी क्षेत्र द्वारा इस यथास्थिति में आमूलचूल परिवर्तन लाए जाने की संभावना नहीं है. सार्वभौमिक सेवा दायित्व को अक्सर निजी ऑपरेटरों द्वारा उपभोक्ताओं के चुनिंदा चयन के रूप में उद्धृत किया जाता है, लेकिन जैसा कि दूरसंचार क्षेत्र स्पष्ट रूप से दिखाता है, निजी क्षेत्र इसके निकट काम करने का तरीका ख़ोज ही लेंगे. जैसा कि फ्रांसीसी अर्थशास्त्री जोएल रुएट ने बड़ी शालीनता से कहा है, ''बिजली कटौती का निजीकरण किया जाएगा.'' 

स्त्रोत: पॉवर फाइनेंस कॉर्पोरेशन

 

 

 

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Akhilesh Sati

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Akhilesh Sati is a Programme Manager working under ORFs Energy Initiative for more than fifteen years. With Statistics as academic background his core area of ...

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Lydia Powell

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Ms Powell has been with the ORF Centre for Resources Management for over eight years working on policy issues in Energy and Climate Change. Her ...

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Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar Tomar

Vinod Kumar, Assistant Manager, Energy and Climate Change Content Development of the Energy News Monitor Energy and Climate Change. Member of the Energy News Monitor production ...

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