लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में राजनीतिक फंडिंग हमेशा से ही एक काला धंधा रहा है. फिर चाहे वो छोटे लोकतांत्रिक देशों को लेकर हों या फिर बड़े. लोकतांत्रिक व्यवस्था का लंबा तजुर्बा रखने वाले मुल्क हों या फिर नई लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं. कम-ओ-बेश हर लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक चंदा देने वाले अवैध तरीक़े अपनाते हैं. सियासी दलों को छुपा कर पैसे देते हैं. इन सियासी चंदों का मक़सद ज़्यादातर मौक़ों पर सरकार से अपने फ़ायदे की नीतियां बनवाना होता है. या फिर अपनी ज़रूरत के हिसाब से नियमों में बदलाव के लिए सियासी चंदे दिए जाते हैं. भारत भी लोकतांत्रिक देशों की इस बीमारी का अपवाद नहीं है. मौजूदा एनडीए सरकार ने 2017 में राजनीतिक फंडिंग के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को शुरू किया था. इस बॉन्ड स्कीम को लेकर इन दिनों पूरे देश भर में लोगों के बीच काफ़ी दिलचस्पी देखी जा रही है.
मौजूदा सरकार ने रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया और चुनाव आयोग जैसे तजुर्बेकार संगठनों के ऐतराज़ को दरकिनार करते हुए चुनावी बॉन्ड की योजना के क़ानून को अमली जामा पहना दिया था. इसके लिए सरकार ने नियम क़ायदों को भी ताक पर रख दिया था.
इसकी वजह ये है कि जिस चुनावी बॉन्ड को राजनीतिक फंडिंग को पारदर्शी बनाने का दावा करके लॉन्च किया गया था. आज उसे ही लेकर ये आरोप लग रहे हैं कि इसके माध्यम से काले धन को सफ़ेद बनाने का बड़ा धंधा किया गया है. और चुनावी फंडिंग पारदर्शी होने के बजाय और भी अस्पष्ट हो गई है. हाल ही में सूचना के अधिकार के कार्यकर्ता लोकेश बत्रा ने एक के बाद एक कई राज़ पर से पर्दा उठाया. बत्रा की कोशिशों से जो बातें सार्वजनिक हुई हैं, उन के मुताबिक़, मौजूदा सरकार ने रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया और चुनाव आयोग जैसे तजुर्बेकार संगठनों के ऐतराज़ को दरकिनार करते हुए चुनावी बॉन्ड की योजना के क़ानून को अमली जामा पहना दिया था. इसके लिए सरकार ने नियम क़ायदों को भी ताक पर रख दिया था. ताकि राजनीतिक दलों को चंदे का प्रवाह अबाध गति से जारी रहे. क़ानून बनने के बाद से हुक़ूमत ने हर मुमकिन कोशिश की है, ताकि चुनावी बॉन्ड की ये योजना पारदर्शी न हो और जनता की पहुंच से दूर ही रहे.
आख़िर चुनावी बॉन्ड ही क्यों?
हालांकि, चुनावी बॉन्ड योजना को लेकर विवाद तो आगे भी जारी रहेंगे. फिर भी आज इस बात को जानना उपयोगी होगा कि राजनीतिक चंदे की ये योजना आख़िर है क्या? इसे लागू करवाने के पीछे वजह क्या रही? और किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था और निज़ाम पर ऐसी योजनाओं का क्या असर होता है? चुनावी बॉन्ड योजना को 2017 के बजट के दौरान पेश किया गया था, ताकि राजनीतिक दलों को चंदा देने का एक नया और पारदर्शी विकल्प उपलब्ध हो. वित्त मंत्रालय ने इस योजना की अधिसूचना 2 जनवरी 2018 को जारी की थी. 2017 के केंद्रीय बजट में चुनाव सुधारों पर एक पूरा सेक्शन था और इसमें ख़ास तौर से राजनीतिक फंडिंग के सुधार के बारे में विस्तार से चर्चा की गई थी. इस योजना को लागू करने का मक़सद ये बताया गया था कि इसके माध्यम से गुप चुप तरीक़े से राजनीतिक दलों को जो नक़द रक़म दी जाती है. उस काले धंधे की धांधली पर लगाम लगेगी. उस समय के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सरकार के चुनावी बॉन्ड योजना लाने की वजह बताते हुए कहा था कि इस योजना से देश के राजनीतिक सिस्टम में काले धन की आमदनी रुकेगी और सफ़ेद धन यानी वाजिब आमदनी से मिले चंदे की हैसियत बढ़ेगी. नवंबर 2016 में नोटबंदी के बाद आई इस योजना को बड़े ज़ोर-शोर से ये कह कर प्रचारित किया गया था कि इस से सियासत में काले धन के गोरखधंधे पर लगाम लगाने में मदद मिलेगी.
इलेक्टोरल बॉन्ड है क्या?
इलेक्टोरल बॉन्ड एक चेक की तरह है, जो बैंक या कोई अन्य वित्तीय संस्थान इसके मालिक को जारी करता है और बॉन्ड में दर्ज़ रक़म देने का वादा करता है. ये ब्याज़ मुक्त वित्तीय व्यवस्था है, जिसे कोई भी भारतीय नागरिक या कंपनी ख़रीद सकती है. इसके लिए वो चाहे तो डिजिटल भुगतान करे या फिर चेक से. बॉन्ड को भारतीय स्टेट बैंक की कुछ तयशुदा शाखाओं से जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर महीने के पहले दस दिनों के दौरान ख़रीदा जा सकता है. सरकार ने 2018 में इसके लिए जो नियम जारी किए थे, उनके मुताबिक़, चुनावी बॉन्ड को हर वो व्यक्ति ख़रीद सकता है, जो भारत का नागरिक हो. या फिर, वो कंपनी ख़रीद सकती है, जो भारत में स्थापित हो या रजिस्टर्ड हो. इसके अलावा कोई व्यक्ति या तो अकेले ही चुनावी बॉन्ड ले सकता है, या फिर किसी अन्य व्यक्ति या कंपनी के साथ मिलकर भी ख़रीद सकता है. फिर इन्हें वो व्यक्ति या कंपनी राजनीतिक दलों को चंदे के रूप में दे सकते हैं. इन चुनावी बॉन्ड को केवल वही राजनीतिक दल लेने के हक़दार हैं, जो भारत में जन प्रतिनिधित्व क़ानून 1951 की धारा 29A के तहत रजिस्टर्ड हों. और जिन्होंने पिछले आम चुनाव में यानी लोकसभा चुनाव में या फिर संबंधित राज्य के विधानसभा चुनाव में कम से कम एक फ़ीसद वोट हासिल किए हों.
चुनावी बॉन्ड से जुड़ी जो अन्य अहम बातें हैं, उनके मुताबिक़ ये बॉन्ड ख़रीदे जाने के बाद केवल 15 दिन तक वैध रहते हैं. इन में दानदाता का नाम दर्ज नहीं होता. हालांकि, ये बॉन्ड ख़रीदने वाले को बैंक की शाखा में केवाईसी यानी नो योर कस्टमर के नियमों से जुड़े फ़ॉर्म भरने होंगे. यहां सबसे अहम बात ये है कि इन बॉन्ड के माध्यम से जिन्हें चंदा दिया जाता है, उन्हें इसके बारे में कोई भी जानकारी देने की बाध्यता नहीं है. दूसरे शब्दों में कहें, तो न तो चुनावी बॉन्ड ख़रीदने वाले को, और न ही इसके माध्यम से चंदा पाने वाले सियासी दलों को क़ानूनी तौर पर इसकी जानकारी देने की अनिवार्यता है. इसीलिए, राजनीतिक चंदे के इस नए माध्यम में पारदर्शिता की कमी बुनियादी तौर पर ही जुड़ी हुई है.
चुनावी बॉन्ड के साथ गड़बड़ क्या है?
सच्चाई तो ये है कि दानदाता उद्योगपति हों या फिर चुनावी बॉन्ड लेने वाले राजनीतिक दल, इसमें अनाम रहने और चंदे की जानकारी न देने की छूट की वजह से राजनीतिक सिस्टम को पारदर्शी बनाने का ये प्रयास अधूरा ही रह गया है
हालांकि, इस तर्क में कुछ हद तक तो दम ज़रूर है कि चुनावी बॉन्ड के माध्यम से हमारे राजनीतिक सिस्टम में साफ़-सुथरे चंदे की आमदनी होगी. क्योंकि इन बॉन्ड के ख़रीदारों को बैंक को KYC की जानकारी देनी ही होगी. उन्हें चुनावी बॉन्ड ख़रीदने के लिए ज़रूरी रक़म या तो चेक या फिर डिजिटल माध्यम से ही चुकानी होगी. लेकिन, चुनावी बॉन्ड के दानदाता के अनाम रहने और राजनीतिक दलों के ऐसे चंदे की जानकारी देने की बाध्यता न होने की वजह से, राजनीतिक सिस्टम को पारदर्शी बनाने का ये प्रयास अधूरा ही है. सच्चाई तो ये है कि दानदाता उद्योगपति हों या फिर चुनावी बॉन्ड लेने वाले राजनीतिक दल, इसमें अनाम रहने और चंदे की जानकारी न देने की छूट की वजह से राजनीतिक सिस्टम को पारदर्शी बनाने का ये प्रयास अधूरा ही रह गया है. इस व्यवस्था की वजह से चुनावी बॉन्ड जारी किए जाने का बुनियादी उसूल ही अधूरा रह गया है कि इससे काले धन पर चलने वाली राजनीतिक व्यवस्था को साफ़-सुथरा किया जाएगा. और ये बात तो विश्व स्तर पर स्थापित सत्य है कि राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता की कमी का नतीजा हमेशा ये होता है कि सियासी सिस्टम में काले धन की आवक काफ़ी बढ़ जाती है. इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए ये कहा जा सकता है कि चुनावी बॉन्ड असल में कारोबारियों के लिए अवैध धन को वैध बनाने का आसान ज़रिया है. इसके माध्यम से वो विदेशों में टैक्स चोरी के अड्डों में जमा काले धन को राजनीतिक दलों को चंदे के रूप में दे सकते हैं और उस के बदले में अपना फ़ायदा निकाल सकते हैं. फिर भी, चुनावी बॉन्ड योजना को और विवादास्पद बनाने की एक और बड़ी वजह ये है कि कॉरपोरेट चंदे पर लगी 7.5 फ़ीसद की पाबंदी भी हटा ली गई है. ये व्यवस्था, 2013 के कंपनीज़ बिल में बदलाव के ज़रिए की गई है. इसका ये नतीजा हुआ है कि अब तमाम कंपनियां बेहिसाब मात्रा में राजनीतिक दलों को चंदा दे सकती हैं. भले ही वो घाटे में ही क्यों न चल रही हों.
इसी तरह, एक हक़ीक़त ये भी है कि केवल सरकारी बैंकों के पास ही चुनावी बॉन्ड के ख़रीदारों की जानकारी होगी. तो, इसका ये मतलब हुआ कि इन सरकारी बैंकों पर वित्त मंत्रालय का नियंत्रण होने की वजह से उस दौर की सरकार के पास ही चुनावी चंदे के इस नए तरीक़े का इस्तेमाल करने वाले इन दानदाताओं की जानकारी होगी. यानी सरकार चलाने वाली पार्टी को ही चुनावी बॉन्ड के माध्यम से ज़्यादा चंदा मिलेगा. ये बात, चुनावी बॉन्ड के माध्यम से दिए गए चुनावी चंदे के शुरुआती रुझानों से साफ़ झलकती है. मसलन, मार्च 2018 में चुनावी बॉन्ड के जो सात भाग जारी किए गए थे, उन में से सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को 94.5 फ़ीसद राजनीतिक चंदा इन चुनावी बॉन्ड के माध्यम से मिला था (चार्ट 1 देखें)
सारणी-1
लेकिन, इन नई योजना से जो सब से बड़ी चुनौती उठ खड़ी हुई है, वो ये है कि चुनावी बॉन्ड के माध्यम से हमारे राजनीतिक सिस्टम में कॉरपोरेट जगत की दख़लंदाज़ी में बेरोक-टोक इज़ाफ़ा होगा. चंदे की बड़ी रक़म के माध्यम से बड़े उद्योगपति सत्ताधारी राजनीतिक दल की रीति-नीति को प्रभावित करने की ताक़त हासिल कर लेंगे. चुनावी बॉन्ड में जो अनाम रहने का रास्ता है, इसका फ़ायदा बड़े कॉरपोरेट घराने, अमीर लोग और उद्योगपति उठा सकते हैं. क्योंकि इससे उनकी पहचान छुपी रहेगी. अगर, चुनावी बॉन्ड के माध्यम से दिए गए राजनीतिक चंद के शुरुआती ट्रेंड को देखें, तो साफ़ है कि ज़्यादातर (क़रीब 90 फ़ीसद) दानदाताओं ने एक करोड़ रुपए से ऊपर की रक़म राजनीतिक चंदे के तौर पर दी. ज़ाहिर है चंदे की मोटी रक़म का मतलब है बड़े औद्योगिक घराने बड़े-बड़े चंदे के माध्यम से हमारी राजनीतिक व्यवस्था और प्रशासन में अपनी दख़लंदाज़ी किस क़दर बढ़ा लेंगे. कुल मिलाकर, सरकार ने चुनावी बॉन्ड के माध्यम से भ्रष्ट पूंजीवादियों को देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था का अटूट हिस्सा बनने का मौक़ा मुहैया करा दिया है. हम सब को पता है कि राजनीति और कारोबारियों के इस गठजोड़ के कितने बुरे नतीजे होते हैं.
कुल मिलाकर, आरटीआई से मिली जानकारी और चुनावी बॉन्ड के माध्यम से दिए गए शुरुआती चुनावी चंदों के चलन को देखें, तो साफ़ ज़ाहिर है कि इस तरीक़े से राजनीतिक व्यवस्था में धन की जो आवक हो रही है (केवल 18 महीनों में 6128 करोड़ रुपए का चंदा चुनावी बॉन्ड के माध्यम से दिया गया), वो हमारे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए कितनी बड़ी चुनौती बनते जा रही है. संक्षेप में कहें तो, चुनावी बॉन्ड और सरकार ने 2017 के बजट के माध्यम से नियमों में जो बदलाव किए, ख़ास तौर से कॉरपोरेट डोनेशन पर लगी 7.5 फ़ीसद की पाबंदी हटाने का क़दम, वो राजनीतिक चंदे की व्यवस्था में सुधार करने और पारदर्शिता लाने के प्रयासों के उलट नतीजों वाला रहा है. हम बस यही उम्मीद कर सकते हैं कि जब भी सुप्रीम कोर्ट इस बारे में दायर याचिका की सुनवाई करता है, तो वो चुनावी बॉन्ड का पूरी तरह से ऑडिट कराएगा, ताकि राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता आए और सभी राजनीतिक दलों को चंदा एक सही अनुपात में हासिल हो. इससे हमारे देश के बेहद नाज़ुक चुनाव प्रचार व्यवस्था में मज़बूती आएगी.
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