चीन के एक विश्व शक्ति के तौर पर उभरने के कारण जापान और अमेरिका के सामने कई चुनौतियां खड़ी हो गई हैं. रक्षा तकनीक के क्षेत्र में चीन अभी भी अमेरिका से पीछे है. लेकिन, हाल के वर्षों में चीन, अमेरिका के साथ इस तकनीकी खाई को तेज़ी से भर रहा है. यूनेस्को (UNESCO) के इंस्टीट्यूट फॉर स्टैटिस्टिक्स की जुलाई 2018 में प्रकाशित हुई हुई रिपोर्ट के आंकड़ों के अनुसार, रक्षा तकनीक के रिसर्च और विकास में अमेरिका 476 अरब डॉलर के निवेश के साथ प्रथम स्थान पर है. लेकिन, चीन अब इस क्षेत्र में 371[1] अरब डॉलर के निवेश के साथ द्वितीय स्थान पर है. विशेष तौर से आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, इंटरनेट ऑफ़ टेक्नोलॉजीस, 3डी प्रिंटिंग और अन्य नयी तकनीकों के विकास में चीन अपने निवेश में लगातार वृद्धि कर रहा है.
चीन के मुक़ाबले अपनी तकनीकी बढ़त बनाए रखने के लिए जापान और अमेरिका को इस क्षेत्र की एक और उभरती हुई शक्ति, भारत के साथ सामरिक साझेदारी बढ़ानी चाहिए. भारत में इस क्षेत्र में अमेरिका और जापान का सहयोगी बनने की काफ़ी संभावनाएं हैं. इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ये आवश्यक है कि भारत के रक्षा तकनीक क्षेत्र के इतिहास की जानकारी हो. मैं भारत के इस इतिहास को तीन भागों में बांट कर व्याख्या करूंगा. अतीत, वर्तमान एवं भविष्य. जब हम भारत के रक्षा क्षेत्र की टाइमलाइन की समीक्षा कर चुकेंगे, तो हमारे सामने यह स्पष्ट हो जाएगा कि जापान एवं अमेरिका मिल कर भारत के साथ किस तरह की तकनीकी साझेदारी कर सकते हैं.
गुज़रा हुआ कल: पिछड़ेपन को दूर करने का इतिहास:
भारत ने रक्षा तकनीक के क्षेत्र में अन्य बड़ी शक्तियों के साथ मुक़ाबला करने का प्रयास किया है.
अपने हथियार स्वयं विकसित करने और उनका स्वतंत्र रूप से निर्माण करने का भारत का लंबा इतिहास रहा है. 1960 के दशक में भारत ने ख़ुद का फ़ाइटर जेट विमान विकसित किया था. 1974 में भारत ने अपने पहले परमाणु बम का सफलतापूर्वक परीक्षण किया था. 1983 में भारत ने अपनी पहली स्वदेशी फ्रिगेट का जलावतरण किया था. 1990 के दशक में भारत ने बैलिस्टिक मिसाइलें विकसित की थीं. और 2004 में भारत ने स्वतंत्र रूप से बनाए गए युद्धक टैंकों को सैन्य मोर्चे पर तैनात किया था.
किसी सैन्य संघर्ष के दौरान, ज़रूरत पड़ने पर,भारत नई तकनीक के विकास और उनकी तैनाती के मोर्चे पर असफल रहा है. इस संदर्भ में भारत, कई अन्य देशों से अलग है. उदाहरण के तौर पर अर्जेंटीना के साथ फ़ाकलैंड युद्ध के दौरान, ब्रिटेन को एयरबॉर्न अर्ली वार्निंग (AEW) विमान की आवश्यकता महसूस हुई. ब्रिटेन, केवल 11 सप्ताह में अपने हेलीकॉप्टर की मदद से ऐसे विमान को विकसित करने में सफल रहा था. हालांकि, इस नई तकनीक का विकास इतनी शीघ्रता से भी नहीं हुआ कि इन विमानों को फ़ाकलैंड युद्ध के दौरान तैनात किया जा सके. परंतु, इस उदाहरण से स्पष्ट है कि ब्रिटेन के पास वो तकनीकी विशेषज्ञता है कि वो पहले से मौजूद तकनीकों के आधार पर अचानक युद्ध में आवश्यकता पड़ने पर नई तकनीक विकसित कर सके. दुर्भाग्य से भारत के सैन्य बलों के पास इस क्षमता का अभाव है. इसका नतीजा ये हुआ है कि भारत, युद्ध के दौरान अपनी रणनीति और व्यूह रचना में आवश्यकता पड़ने पर नई तकनीकों को शामिल करने में संघर्ष करता रहा है. और इस मामले में अक्सर पिछड़ गया है.
भारत के सैन्य बल युद्ध क्षेत्र में उन्नत तकनीक का लाभ उठाने से वंचित रहे हैं. इसलिए भारत की सरकार ने कभी रक्षा तकनीक को अपनी सुरक्षा नीति का महत्वपूर्ण अंग नहीं माना
वर्तमान: नई तकनीकों की महत्ता को पहचानना:
चूंकि, भारत के सैन्य बल युद्ध क्षेत्र में उन्नत तकनीक का लाभ उठाने से वंचित रहे हैं. इसलिए भारत की सरकार ने कभी रक्षा तकनीक को अपनी सुरक्षा नीति का महत्वपूर्ण अंग नहीं माना. 2017 से पूर्व की भारतीय रक्षा मंत्रालय की अधिकतर उपलब्ध वार्षिक रक्षा रिपोर्ट और उनके साथ अन्य सामरिक दस्तावेज़ों[2] ने कभी भी तकनीक को प्राथमिकता वाले क्षेत्र के रूप में रेखांकित नहीं किया.
हालांकि, 2017 के पश्चात प्रकाशित हुए आधिकारिक दस्तावेज़, भारत की सोच में परिवर्तन का संकेत देते हैं. उदाहरण के लिए, 2017 में प्रकाशित हुई, ‘ज्वाइंट डॉक्ट्रिन इंडियन आर्म्ड फ़ोर्सेज’[3] , साफ़ तौर से कहती है कि ‘रक्षा तकनीक एक सामरिक संसाधन है.’ यहां पर ये वक्तव्य बहुत महत्वपूर्ण है. क्योंकि इससे पहले ऐसे सरकारी दस्तावेज़ों में कभी भी ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं किया गया था.
2018 की ‘लैंड वॉरफेयर डॉक्ट्रिन’ ने इस संदेश को और भी स्पष्ट करके प्रस्तुत किया. 13 पन्नों के इस दस्तावेज़ के 4 पेज में केवल रक्षा तकनीक के बारे में वर्णन है.[4] रक्षा मंत्रालय के बाहर भी इस विषय पर परिचर्चाएं बढ़ी हैं. ख़ास तौर से जब से भारत ने मुंबई में 2018 में अपना पहला आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस पर केंद्रित रिसर्च इंस्टीट्यूट खोला.[5] साथ ही साथ भारत सरकार ने 2018 में ‘नेशनल स्ट्रैटेजी फ़ॉर आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस’ को प्रकाशित किया था. हालांकि ये सामरिक नीति विशेष तौर पर रक्षा तकनीक के लिए नहीं थी.[6]
भारत के थिंक टैंकों ने भी रक्षा तकनीक के बारे में परिचर्चाएं शुरू की हैं. ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के एक रिसर्चर तुनीर मुखर्जी ने अपने एक लेख में लिखा कि: किसी भी स्वायत्त सिस्टम का सबसे महत्वपूर्ण तत्व ये होगा कि उनके अंदर अलग-अलग जहाज़ों में विभेद कर पाने की क्षमता हो. और साथ ही साथ उनके पास जंगी और व्यापारिक जहाज़ों के बीच फ़र्क़ कर पाने की विशेष ध्वन्यात्मक पहचान हो.[7]
इसके अतिरिक्त, रक्षा मंत्रालय के थिंक टैंक द इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज़ ऐंड एनालाइसेज के संजीव तोमर ने लिखा कि, ‘सुरक्षा बलों की सप्लाई चेन और लॉजिस्टिक का मौजूदा तरीक़ा थ्री डी प्रिंटिंग से पूरी तरह से परिवर्तित हो जाने की संभावना है…कल्पना कीजिए कि युद्ध क्षेत्र में मौजूद कोई तकनीकी विशेषज्ञ, युद्ध क्षेत्र में मौजूद किसी बख़्तरबंद जंगी वाहन के एक कल-पुर्ज़े की मरम्मत नहीं कर पा रहा है. तो वो उसका एक डिजिटल स्कैन एक ई-मेल के साथ भेजता है. और उस कल-पुर्ज़े को सबसे नज़दीकी थ्री डी प्रिंटर की मदद से तैयार करा कर तुरंत ही अपने पास मंगा लेता है. इस सुविधा की मदद से युद्ध क्षेत्र में कल-पुर्ज़ों और जंगी सामान के विशाल ढेर को ढोने की ज़रूरत ख़त्म हो जाएगी.’[8]
भविष्य: क्या भारत इस क्षेत्र में बड़ी शक्ति बन सकेगा?
चेन्नई में अप्रैल 2018 में हुए डिफेंस एक्सपो में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि, ‘नई और उभरती तकनीकें जैसे कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स, संभवत: आने वाले समय में किसी भी देश के सुरक्षा बलों की रक्षात्मक और आक्रमण करने की क्षमताओं को निर्धारित करने का प्रमुख कारक बनेंगी. भारत, सूचना तकनीक के क्षेत्र में अपने नेतृत्व के माध्यम से इस तकनीक का अपनी शक्ति बढ़ाने में इस्तेमाल करेगा.’[9] हालांकि, भारत रक्षा तकनीक के मैदान में उतरने वाला नया खिलाड़ी है. लेकिन उसके पास रक्षा तकनीक के विकास में एक प्रभावशाली नेतृत्व देने की इच्छा शक्ति साफ़ दिखती है.
जापान और अमेरिका को चाहिए कि वो तीनों देशों में उच्च स्तर के भारतीय रिसर्चरों के नेटवर्क को विकसित करने में भारत के प्रयासों में सहयोग दें. क्योंकि ऐसे कार्यक्रम सहयोग को बढ़ावा देने में मूल्यवान संसाधन साबित होते हैं
जापान और अमेरिका, भारत के साथ कैसे सहयोग कर सकते हैं?
भारत ने रक्षा तकनीक के विकास की महत्ता को पहचानना आरंभ कर दिया है. वो इस क्षेत्र में अन्य देशों से होड़ लगाने का भी प्रयास कर रहा है. भारत की आकांक्षाओं और उपलब्धियों की रौशनी में देखें, तो संयुक्त तकनीकी विकास के प्रोजेक्ट के क्षेत्र में सहयोग, न केवल अमेरिका और जापान के हित में है, बल्कि स्वयं भारत को भी इससे लाभ होगा. अगर, अमेरिका एवं जापान ऐसी साझीदारी और सहयोग को बढ़ावा देते हैं, तो उन्हें भारत की अतीत की उपलब्धियों को अपनी उम्मीदों का आधार बनाना चाहिए. उदाहरण के तौर पर, उन्हें किसी तकनीक के विकास के लिए ज़्यादा समय देना होगा. क्योंकि अतीत में भारत ने हथियारों के विकास में काफ़ी अधिक समय (जैसे कि 10 से 40 वर्ष तक) लगाया है. इसके साथ-साथ जापान और अमेरिका को चाहिए कि वो भारत की शक्ति और क्षमताओं के क्षेत्र में विशेष तौर से साझा सहयोग पर ध्यान दें. भारत ने अंतरिक्ष तकनीक के क्षेत्र में कई उपलब्धियां हासिल की हैं (जैसे कि रॉकेट और मिसाइ तकनीक). और अब भारत आर्टिफ़िशियल इंटेलिंजस पर ध्यान केंद्रित कर रहा है. जो रोबोटिक्स समेत अन्य क्षेत्रों के विकास में योगदान दे सकता है. ये सभी तकनीकें बहुलता वाले उत्पादन के कारखानों पर निर्भर नहीं हैं. बल्कि इनके लिए उच्च स्तरीय हुनर वाले रिसर्चरों की आवश्यकता है. ये वो क्षेत्र हैं, जहां भारत को बढ़त हासिल है. जापान और अमेरिका को चाहिए कि वो तीनों देशों में उच्च स्तर के भारतीय रिसर्चरों के नेटवर्क को विकसित करने में भारत के प्रयासों में सहयोग दें. क्योंकि ऐसे कार्यक्रम सहयोग को बढ़ावा देने में मूल्यवान संसाधन साबित होते हैं.
भारत ने तकनीकी रिसर्च के मामले में जापान के साथ पहले ही सहयोग आरंभ कर दिया है. अक्टूबर 2018 में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने ‘भारत-जापान डिजिटल पार्टनरशिप में सहयोग’ के समझौते पर दस्तख़त किए थे. ये सहयोगात्मक समझौता कहता है: ‘दोनों देश नई पीढ़ी की तकनीकों जैसे कि आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस और इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स वग़ैरह..के क्षेत्र में आपसी सहयोग को बढ़ाएंगे.’[10] इसके अतिरिक्त, अगस्त 2018 में दोनों देशों के रक्षा मंत्रालयों ने रोबोटिक्स और अनमैन्ड ग्राउंड व्हीकल्स (UGVs)[11] के क्षेत्र में सहयोगात्मक रिसर्च के समझौते पर दस्तख़त किए थे. ऐसी उम्मीद की जा रही है कि भारत और जापान द्वारा मिल कर यूजीवी के विकास में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से संबंधित सहयोग भी शामिल है. चूंकि, भविष्य में भारत इन यूजीवी का प्रयोग, चीन से लगी सीमा पर गश्त के लिए कर सकता है. ऐसे में ये समझा जा सकता है कि इस विषय में चीन के साथ सहयोग भारत के हितों के विपरीत जाएगा. अब समय आ गया है कि जापान, अमेरिका और भारत (JAI) के बीच तकनीकी सहयोग को बढ़ावा दिया जाए. जय का मतलब हिंदी में विजय होता है. तो, ये तीनों ही देशों के हितों की विजय होगी.
[1] How much does your country invest in R&D?, UNESCO Institute for Statistics, July 16, 2018.
[2] Similar strategic documents published by other great powers generally include a section devoted to military technology, but India’s generally do not. Most of the documents I read in preparation for this article did not include such a section, but there were some exceptions, notably “Maritime Strategy,” published in 2007, and “Basic Doctrine of the Indian Air Force,” published in 2012. I consulted the following: Headquarters Army Training Command, “Indian Army Doctrine”, October 2004, “Doctrine for Sub Conventional Operations”; Headquarters Army Training Command, “Doctrine for Sub-Conventional Operations”, December 2006”; Integrated Headquarters, Ministry of Defence (Navy), “Freedom to use the Seas; India’s Maritime Military Strategy”, 2007; Integrated Headquarters, Ministry of Defence (Navy), “Indian Maritime Doctrine INBR8”, 2009; Integrated Headquarters, Ministry of Defence (Navy), “Ensuring Secure Seas: Indian Maritime Security Strategy”, 2015; Integrated Headquarters, Ministry of Defence (Navy), “Indian Maritime Doctrine Indian Navy Naval Strategic Publication 1.1”, 2015; Indian Air Force Air Headquarters, “Basic Doctrine of the Indian Air Force”, 2012.
[3] Headquarters Integrated Defence Staff Ministry of Defence, “Joint Doctrine Indian Armed Forces”, 2017, p. 51.
[4] Indian Army, “Land Warfare Doctrine-2018”, 2018
[5] Nilesh Christopher, “India’s first AI research institute opened in Mumbai”, The Economic Times, February 20 2018.
[6] NITI Aayog, “National Strategy for Artificial Intelligence”, June 2018.
[7] Tuneer Mukherjee, “Securing the maritime commons: The role of artificial intelligence in naval operations”, ORF Occasional Paper, July 16 2018.
[8] Sanjiv Tomar, “3D Printing and Defence: A Silent Revolution”, IDSA Comment, January 3 2014.
[9] Rajat Pandit, “India now wants artificial intelligence-based weapon system”, The Times of India, May 21 2018.
[10] Japan Ministry of Foreign Affairs, “India-Japan Development Cooperation in the Indo-Pacific, including Africa”, October 29, 2018.
[11] Embassy of Japan in India, “Japan & India initiate a cooperative research on Unmanned Ground Vehicles /Robotics”, August 1, 2018.
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