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Published on May 17, 2025 Updated 2 Hours ago

आज जब तमाम देश अपने डिजिटल भविष्य की परिकल्पनाएं तैयार कर रहे हैं, तो उन्हें महिलाओं को न केवल डिजिटल व्यवस्थाओं के उपभोक्ता के तौर पर बल्कि इन व्यवस्थाओं को गढ़ने वाले नियमों, मानकों और आंकड़ों के सह-निर्माताओं के तौर भी भागीदार बनाना चाहिए.

डिजिटल इंसाफ़ के लिए डेटा का उपयोग: सूचना के दौर में लैंगिक समानता

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ये लेख राष्ट्र, नेटवर्क और नैरेटिव: विश्व दूरसंचार और सूचना समाज दिवस 2025 श्रृंखला का हिस्सा है.


17 मई 2025 को विश्व दूरसंचार और सूचना समाज दिवस (WTISD) ने प्रगति के 20 साल पूरे कर लिए हैं. इस साल इस आयोजन का ज़ोर ‘डिजिटल परिवर्तन में लैंगिक समानता’ पर है. इस तरह ये दिवस दो वैश्विक लक्ष्यों को सुर्ख़ियों में ला रहा है. डिजिटल क्रांति को समानता लाने वाला महान इंक़लाब कहा जाता है. लेकिन, ये क्रांति भी अगर हमारे समाज में मौजूद कुछ संरचनात्मक लैंगिक असमानताओं को मज़बूत नहीं करती, तो उनकी नक़ल ज़रूर करती है. इसके साथ ही साथ, लैंगिक समानता का संघर्ष अब इस बात पर अधिक निर्भर होने लगा है कि महिलाओं के अपने तजुर्बों को कैसे पेश किया जाता है. या फिर, हमारे डिजिटल और डेटा पर आधारित व्यवस्थाओं में उनसे कैसे निपटा जाता है. इस चौराहे पर एक विरोधाभास खड़ा है: हम पहले से कहीं अधिक डेटा का निर्माण कर रहे हैं. लेकिन अभी भी हमें महिलाओं के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है.

वैश्विक स्तर पर जो डिजिटल फ़ासले हैं उनकी सबसे बड़ी शिकार महिलाएं ही हैं. आज दुनिया भर में 2.6 अरब लोग ऐसे हैं, जो इंटरनेट से नहीं जुड़े हैं और इनमें से ज़्यादातर महिलाएं और लड़कियां हैं.

डिजिटल खाई यानी लैंगिकता में फ़ासला 

वैश्विक स्तर पर जो डिजिटल फ़ासले हैं उनकी सबसे बड़ी शिकार महिलाएं ही हैं. आज दुनिया भर में 2.6 अरब लोग ऐसे हैं, जो इंटरनेट से नहीं जुड़े हैं और इनमें से ज़्यादातर महिलाएं और लड़कियां हैं. 2023 तक निम्न और मध्यम आमदनी वाले देशों में महिलाओं के पास पुरुषों की तुलना में मोबाइल फोन होने की संभावना 7 प्रतिशत कम है, तो मोबाइल इंटरनेट सुविधा होने की संभावना 19 प्रतिशत कम होती है. दक्षिण ओशिया में ये फ़ासला क्रमश: 15 और 42 प्रतिशत हो जाता है. ऐसे में सवाल केवल मोबाइल तक पहुंच या नेट की स्पीड का नहीं रह जाता है. असल में तो ये गहरी जड़ें जमाकर बैठी संरचनात्मक असमानता का उदाहरण है. जब महिलाएं डिजिटल तौर पर अलग थलग रहती हैं, तो उनकी आर्थिक हैसियत का गला घोंटा जाता है. सार्वजनिक डिजिटल क्षेत्र में उनकी भागीदारी सीमित हो जाती है और समावेशी तकनीकों के विकास को प्रभावित करने की उनकी क्षमता को बुनियादी तौर पर चोट पहुंचती है. यही नहीं, महिलाओं के लिए अवसरों के अभाव, सामाजिक पूर्वाग्रहों और संरचनात्मक बाधाओं की वजह से, विकास के तमाम मानकों को लेकर महिलाओं के बारे में व्यापक और समग्र आंकड़े की उपलब्धता एक चुनौती बन जाती है.

एक मिसाल देखें: आज जब आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की व्यवस्थाएं जनसेवाओं- शिक्षा से लेकर वित्त तक- में लगातार शामिल की जा रही हैं, तो इन AI मॉडलों को प्रशिक्षित करने के लिए किस तरह के आंकड़े इस्तेमाल किए जाते हैं और उनको कौन प्रशिक्षित करता है? जब आंकड़ों के समूह से महिलाएं नदारद हैं, तो उनकी ज़रूरतें उनकी आकांक्षाएं और अनुभवों को संस्थागत रूप से उन्हीं व्यवस्थाओं से अलग किया जा रहा होता है, जो इन महिलाओं का भविष्य गढ़ रही होती हैं.

महिलाओं को अलग रखने का एक मुख्य कारण ये है कि ऐतिहासिक रूप से महिलाएं आंकड़ों से नदारद रहती आई हैं. पितृसत्तात्मक संरचाएं ही लंबे समय से ये तय करती आई हैं कि किसकी अहमियत है, कौन गिनती करता है और नतीजों की व्याख्या किस तरह से होती है. आज की तारीख़ में ये बात लगातार स्पष्ट होती जा रही है कि लैंगिक समानता के भविष्य को डेटा इकोसिस्टम के राजनीतिक अर्थशास्त्र से अलग नहीं किया जा सकता है. ऐसी रिपोर्ट आई हैं, जो ये बताती हैं कि लैंगिकता से जुड़े डेटा न केवल अपर्याप्त हैं बल्कि कई मामलों में तो इन्हें अपडेट भी नहीं किया जा रहा है. हालांकि, स्थायी विकास के लक्ष्यों (SDGs) और ख़ास तौर से लैंगिक समानता से जुड़े पांचवें लक्ष्य ने लैंगिकता पर आधारित डेटा को रफ़्तार देने का स्वागतयोग्य काम किया है और SDG जेंडर इंडेक्स बाय इक्वल मेज़र 2030 ने काफ़ी प्रगति की है. ये सूचकांक स्थायी विकास के 17 लक्ष्यों में से 14 के मामले में तमाम लैंगिकताओं की व्यापक प्रगति का एक ख़ाका पेश करते हैं, जो जवाबदेही के एक ताक़तवर औज़ार का काम करते हैं.

लेकिन, डेटा की उपलब्धता का अपने आप ही ये मतलब नहीं हो जाता कि उनका इस्तेमाल किया जा सकता है. लैंगिक रूप से बंटे हुए डेटासेट के विस्तार के बावजूद हमारे सामने आपस में जुड़ी ऐसी तीन संस्थागत और आर्थिक चुनौतियां हैं, जो डिजिटल परिवर्तन के लिए लैंगिक डेटा के इस्तेमाल को मुश्किल बना देती हैं.

 

  1. खांचे में बंटे डेटा के इकोसिस्टम और सूचना के बाज़ार की नाकामी: लैंगिकता से जुड़े आंकड़े अक्सर विकास के दूसरे आंकड़ों- श्रम, स्वास्थ्य, जलवायु और शिक्षा से अलग थलग मौजूद होते हैं. खांचों में बंटे होने की वजह से संस्थागत असमानताओं की पहचान करने के लिए जो तुलना ज़रूरी होती है, वो हो नहीं पाती. एकीकृत डेटासेट न होने की वजह से लैंगिकता से जुड़े आंकड़े का विश्लेषणात्मक मूल्य सीमित रहता है जो सूचना के बाज़ार की नाकामी का आदर्श उदाहरण है, जहां मूल्यवान संसाधन उपलब्ध तो होते हैं. लेकिन, ग़लत प्रोत्साहनों और मूलभूत ढांचे की वजह से उनका ठीक से उपयोग नहीं हो पाता है.
  2. वर्गों के बीच बारीक़ अध्ययन की कमी से असमानताएं छुप जाती हैं: लैंगिक रूप से अलग किए गए आंकड़ों में भी जाति, उम्र, नस्लीयता या शारीरिक अक्षमता के बारीक़ फ़र्क़ बताने वाले आंकड़े नहीं होते हैं. इसकी वजह से औसत के आधार पर एक निष्कर्ष निकाल लिया जाता है, जो सबसे कमज़ोर तबक़े की अनूठी चुनौतियों को छुपा देते हैं. नीतियां बनाने के नज़रिए से ये पूरी तरह से अपर्याप्त और बेअसर है.
  3. ज्ञान से नीति के मार्ग में विषय संबंधी पूर्वाग्रह: रिसर्च के एजेंडा और नीतिगत प्राथमिकताएं अक्सर दबदबे वाले और सामान्य सोच के नज़रिए हावी होते हैं. लैंगिकता के डेटा को अक्सर विकास के आयामों में भी ‘विशेष’ कहकर ख़ारिज कर दिया जाता है. विषय संबंधी इस पूर्वाग्रह की वजह से लैंगिकता पर आधारित डेटा को एक डिजिटल जनहित का दर्जा नहीं मिल पाता है. जबकि ये आंकड़े किसी के प्रतिस्पर्धी नहीं होते और इनका इस्तेमाल अलग थलग करके नहीं किया जा सकता और इनका असर सभी क्षेत्रों पर पड़ता है. 

 

लैंगिकता पर आधारित आंकड़ों के कम उपयोग से काफी कुछ दांव पर 

महिलाओं को डिजिटल अर्थव्यवस्था से अलग रखने की आर्थिक क़ीमत बहुत अधिक है. मैकिन्सी ग्लोबल इंस्टीट्यूट के एक अध्ययन में पाया गया है कि श्रमिक भागीदारी, वेतन और नेतृत्व के मामले में लैंगिकता की खाई पाटने से दुनिया की GDP में 2025 तक 28 ट्रिलियन डॉलर की रक़म जोड़ी जा सकती थी. लेकिन, महिलाओं को डिजिटल रूप से अलग थलग करने की समस्या बनी रहने से ये खाई भी बढ़ जाने का डर है. महिलाओं के पास डेटा और डिजिटल औज़ारों तक पहुंच नहीं है. इसके अलावा उन्हें डिजिटलीकरण से होने वाले उत्पादकता और कुशलता के लाभों से भी वंचित रखा जाता है. यही नहीं, आविष्कार पर भी इसका बुरा असर होता है. विविधता भरी टीमें अक्सर समावेशी उत्पादों, सेवाओं और समाधानों का विकास करती हैं. मिसाल के तौर पर STEM क्षेत्र और डेटा साइंस में महिलाओं की कम भागीदारी न केवल प्रतिभा के नुक़सान को दिखाती है, बल्कि डिज़ाइन के पूर्वाग्रह को भी आगे बनाए रखती है. फिर चाहे वो फेशियल रिकॉन्गिशन के एल्गोरिद्म हों जो गहरी रंगत वाली महिलाओं की ग़लत पहचान करते हैं या फिर वॉयस असिस्टेंट हों, जो मर्दों पर केंद्रित डेटा पर प्रशिक्षित किए गए होते हैं.

महिलाओं के पास डेटा और डिजिटल औज़ारों तक पहुंच नहीं है. इसके अलावा उन्हें डिजिटलीकरण से होने वाले उत्पादकता और कुशलता के लाभों से भी वंचित रखा जाता है. यही नहीं, आविष्कार पर भी इसका बुरा असर होता है. 

लैंगिक समानता के लिए डिजिटल परिवर्तन का अधिकतम उपयोग करने के लिए हमें डेटा और नीतिगत निर्माण के अंतर को ख़त्म करना होगा. इसके लिए लैंगिकता पर आधारित आंकड़ों को क्रिटिकल इन्फ्रास्ट्रक्चर का दर्जा देना होगा. लैंगिकता के डेटा को पूरक के बजाय डिजिटल मूलभूत ढांचे की बुनियादी परत- जैसे कि सड़कें या पावर ग्रिड- के तौर पर देखना होगा जिनके बग़ैर समतामूलक विकास असंभव है.

इसको हासिल करने के लिए लैंगिक रूप से बांटे गए आंकड़ों को जमा करना और उनका दूसरे आंकड़ों के साथ तुलनात्मक विश्लेषण करने को व्यापक आर्थिक मॉडलिंग, डिजिटल पब्लिक इन्फ्रास्ट्रक्चर और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस नीति का हिस्सा बनाना होगा. इससे अधिक लक्ष्य आधारित सब्सिडी, क़र्ज़ देने की योजनाओं, डिजिटल साक्षरता के कार्यक्रमों और श्रमिक बाज़ारों संबंधी नीतियों का निर्माण हो सकेगा. नीति निर्माताओं और नीतिओं पर असर डालने वालों के बीच लैंगिकता पर आधारित डेटा की साक्षरता का निर्माण करने की ज़रूरत है और उन्हें लैंगिकता पर आधारित डेटा की व्याख्या करने लायक़ कौशल से भी लैस करना होगा.

डेटा के खुले मानक को बढ़ावा देने और डिजिटल पब्लिक गुड के ज़रिए डेटा इकट्ठा करने से लैंगिकता पर आधारित डेटा दूसरे क्षेत्रों में भी उपयोग किए जा सकेंगे, मुक्त स्रोत से उपलब्ध रहेंगे और डिजिटल जनहित प्लेटफॉर्म से भी जुड़े रहेंगे. इसके बाद ही वो स्थानीय स्तर पर आविष्कारों, स्टार्ट अप के इकोसिस्टम और सामुदायिक स्तर पर समाधान तलाशने को बढ़ावा दे सकेंगे.

एक समावेशी डिजिटल अर्थव्यवस्था का मार्ग सूचना के ज़रिए ही प्रशस्त किया जा सकता है. लेकिन ऐसा तभी हो सकता है जब सूचना समतामूलक, एक दूसरे से जुड़ी और क़दम उठाने योग्य हो.

डिजिटल परिवर्तन में लैंगिक समावेश से सबके लिए सब जगह अवसर मुहैया कराए जा सकते हैं. जैसा कि विश्व दूरसंचार और सूचना समाज दिवस 2025 की आकांक्षा है, लैंगिकता के आंकड़ों को सिर्फ़ एक तकनीकी मसले की तरह नहीं देखा जाना चाहिए. बल्कि, इसे डिजिटल न्याय का प्रश्न माना जाना चाहिए. एक समावेशी डिजिटल अर्थव्यवस्था का मार्ग सूचना के ज़रिए ही प्रशस्त किया जा सकता है. लेकिन ऐसा तभी हो सकता है जब सूचना समतामूलक, एक दूसरे से जुड़ी और क़दम उठाने योग्य हो. ऐसे में आज जब देश अपने डिजिटल भविष्य का मार्ग तय कर रहे हैं, तो उन्हें महिलाओं को डिजिटल व्यवस्थाओं के यूज़र के तौर पर ही नहीं, बल्कि इन्हें चलाने वाले नियमों, मानकों और डेटा-सेट के सह निर्माताओं के तौर पर भी शामिल किया जाना चाहिए. इससे न केवल सूचना प्रौद्योगिकी का ढांचा मज़बूत होगा, बल्कि, लैंगिक समानता का लक्ष्य हासिल करने और सोची समझी नीतियां बनाने में भी सहायता मिलेगी.

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Authors

Debosmita Sarkar

Debosmita Sarkar

Debosmita Sarkar is an Associate Fellow with the SDGs and Inclusive Growth programme at the Centre for New Economic Diplomacy at Observer Research Foundation, India. Her ...

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Ambar Kumar Ghosh

Ambar Kumar Ghosh

Ambar Kumar Ghosh is an Associate Fellow under the Political Reforms and Governance Initiative at ORF Kolkata. His primary areas of research interest include studying ...

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