17 जुलाई को होने वाला राष्ट्रपति चुनाव भारतीय राजनीति और इसकी सामाजिक मान्यताओं के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण मौका बन गया है। इस चुनाव में दो दलित नेताओं के बीच मुकाबला होने वाला है। भाजपा नेतृत्व वाले राजग गठबंधन की ओर से रामनाथ कोविंद को उम्मीदवार बनाया गया है, जो कुछ समय पहले तक बिहार के राज्यपाल थे। दूसरी तरफ कांग्रेस नेतृत्व वाले संप्रग गठबंधन की ओर से मीरा कुमार को उम्मीदवार बनाया गया है जो दलित नेता रहे बाबू जगजीवन राम की बेटी हैं।
सामान्य परिस्थितियों में इसका बहुत अधिक राजनीतिक महत्व नहीं होता। लेकिन 2014 के चुनाव में केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के आने, 22 राज्यों में भाजपा की सरकार बनने और कई हिंसक घटनाओं के बाद से दलित राजनीति बेहद महत्वपूर्ण हो गई है।
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इस मुद्दे पर जोरदार चर्चा चल रही हैं। दलित आबादी में अपनी पैठ बढ़ाने के लिए ना सिर्फ सत्तारुढ़ गठबंधन ने दलित उम्मीदवार खड़ा किया है, बल्कि विपक्ष ने भी ऐसा ही उम्मीदवार चुना है। यह तथ्य अपने आप में देश की मौजूदा राजनीति के बारे में बहुत कुछ संकेत देता है। 2011 की जनगणना के मुताबिक दलितों की आबादी 20.14 करोड़ है।
2014 के लोकसभा चुनाव में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में भाजपा ने 80 में से 71 सीटें हासिल की। यहां की अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सभी 17 सीटें इसी के खाते में गईं। इसका स्पष्ट संकेत है कि दलित आबादी के एक बड़े हिस्से ने भाजपा को वोट दिया और दलित वोट बंटा।
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) जो दलित राजनीति में सबसे आगे रही है और जो दलितों की सबसे बड़ी प्रतिनिधि होने का दावा करती रही है, 19.60 प्रतिशत वोट पाने के बावजूद एक भी सीट जीत पाने में नाकाम रही है।
विश्लेषकों का मानना है कि गैर-जाटव वोट भाजपा को मिले।
2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद के विधानसभा चुनावों के नतीजे साफ दिखाते हैं कि दलित राजनीति में बदलाव आ रहा है। हालांकि एक दलित व्यक्ति को देश के सबसे बड़े संवैधानिक पद पर बिठाने के प्रतीक के जरिए भाजपा को दलित समुदाय में अपनी पैठ बढ़ाने में कितनी मदद मिलती है, इसका आकलन बहुत सावधानी से करना होगा। खास कर तब जबकि दलित और अगड़ी जातियों (खास कर राजपूत और ठाकुर) के बीच संघर्ष बढ़ रहा है। दलितों के खिलाफ बढ़ती हिंसा और भाजपा शासित विभिन्न राज्यों और केंद्र की ओर से दलितों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं होना अपने आप में काफी महत्वपूर्ण है।
राम मंदिर और अयोध्या के इर्द-गिर्द घूमती हिंदुत्व की राजनीति, गौमांस पर प्रतिबंध और गौरक्षा जैसे मुद्दे ऊंची जातियों और दलितों के बीच मौजूदा खाई को और गहरा कर रही है।
ऐसी घटनाओं के सिलसिले में ताजा कड़ी है लखनऊ में तीन जुलाई को होने वाले सम्मेलन पर रोक। यह कार्यक्रम उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार की स्थिति पर चर्चा करने के लिए होने जा रहा था। 31 कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया जबकि गुजरात से आ रहे लगभग 50 दलितों को राज्य की पुलिस ने वापस भेज दिया। राज्य प्रशासन ने इन लोगों को लखनऊ की ओर जाने नहीं दिया, जहां वे सांकेतिक विरोध दर्ज करने वाले थे।
इस साल मई में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में जातीय हिंसा को काबू करने के इरादे से इंटरनेट को बंद कर दिया गया ताकि सोशल मीडिया का उपयोग नहीं किया जा सके। इससे राज्य की स्थिति का काफी हद तक संकेत मिल जाता है। पांच मई को जब दलितों ने ठाकुरों की ओर से मध्यकालीन राजपूत शासक महराणा प्रताप की जन्म शताब्दी के मौके पर शोभा यात्रा निकालने का विरोध किया तो सहारनपुर में हिंसक झड़प शुरू हुई थीं। शोभा यात्रा जब दलितों के इलाके में पहुंची तो उन्होंने इसे रोकने की कोशिश की और फिर दोनों तरफ से पत्थरबाजी शुरू हो गई। ठाकुरों को दलितों का विरोध बेहद नगवार गुजरा और उन्होंने जम कर तोड़-फोड़ शुरू कर दी। इस दौरान दलितों के 40 घर और दुकानें जला दी गईं। ठाकुर समुदाय के एक समूह ने दलितों की ओर से पूजी जाने वाली मूर्तियों और उनके पूजास्थलों के साथ भी छेड़छाड़ की। एक ठाकुर युवक की मौत हुई, जबकि दोनों तरफ के बहुत से लोग जख्मी हुए। और हिंसा की आशंका में दलित गांव छोड़ कर भाग खड़े हुए।
19 मार्च को राज्य में भाजपा सरकार बनने और ठाकुर परिवार में जन्मे योगी आदित्य नाथ के उत्तर प्रदेश के 21वें मुख्यमंत्री के तौर पर सत्ता संभालने के साथ ही दोनों समुदायों में तनाव बढ़ने लगा था।
पहली घटना शब्बीरपुर में 20 अप्रैल को हुई। तब लखनऊ में नई सरकार को आए महज 45 दिन हुए थे।. गांव के जाटव दलित अंबेडकर जयंती के मौके पर भीम राव अंबेडकर की मूर्ति लगाने वाले थे और ठाकुरों ने यह कहते हुए इस पर एतराज किया कि इसकी प्रशासनिक इजाजत नहीं थी।
सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील सहारनपुर में दो समुदायों के बीच महीने भर तक चला तनाव सिर्फ कानून-व्यवस्था का मुद्दा नहीं हो सकता। यह असली कारण को समझ पाने में राज्य प्रशासन की पूर्ण नाकामी जान पड़ती है। सरकार ने इसे रोजमर्रा का मामला समझ कर उसे सामान्य तरीके से ही निपटाने की कोशिश की।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ वर्षों से राजनीतिक दलों ने लव जिहाद, गौ रक्षा और मुस्लिम तुष्टीकरण जैसे मुद्दों को उठा कर जो राजनीति की है सहारनपुर की हिंसा उसी का नतीजा है।
2013 में जाटों और मुसलमानों के बीच संघर्ष के बाद सांप्रदायिक दंगे शुरू हो गए थे। हाल के विधानसभा चुनावों ने इस स्थिति को और बढ़ाया है।
जाटों और मुसलमानों के बीच के बीच के सौहार्द का टूटना 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की इस क्षेत्र की सभी सीटें जीतने के लिहाज से काफी मददगार साबित हुआ और राज्य के विधानसभा चुनाव में भी यही प्रभाव दिखा।
राज्य विधानसभा में भाजपा का अपार बहुमत पाना और योगी आदित्यनाथ का मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालना हिंदू समर्थकों को काफी उत्साहित करने वाला है, जो पिछले दो दशक के मुलायम सिंह यादव, मायावती और अखिलेश यादव के निजाम में काफी उपेक्षित महसूस कर रहा था।
पिछली शताब्दि के 1990 के दशक के दौरान मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किए जाने के बाद पिछड़ी जाति के लोगों और दलितों को लगने लगा कि अब वे कमजोर नहीं रह गए हैं। अगड़ी जाति और खास कर ठाकुरों का अब वैसा वर्चस्व नहीं रहा जिसमें उनकी बात निर्णायक होती थी।
क्षेत्र के दलित और खास तौर पर जाटव जो बसपा व इसकी नेता मायावती के कट्टर समर्थक रहे हैं, वे राजनीतिक रूप से सजग हो गए और अब वे ऊंची जाति के दबाव को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे।
सहारानपुर में हुए संघर्ष के दौरान युवा वकील चंद्रशेखर आजाद की ओर से शुरू की गई भीम आर्मी भारत एकता मिशन की भूमिका काफी अहम रही। इसने जाति आधारित हिंसा और राज्य प्रशासन की इस ओर उपेक्षा से लोगों को बचाया।
21 मई को राष्ट्रीय राजधानी के जंतर-मंतर पर सहरानपुर हिंसा के खिलाफ एक बड़ी रैली आयोजित कर यह काफी चर्चा में आ गया। इस तथ्य को उपेक्षित नहीं किया जा सकता।
भीम आर्मी को ताकत इसलिए मिलती है क्योंकि आज भी दलितों के साथ अन्याय किया जा रहा है। हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमूला को जिस तरह जनवरी, 2016 में आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ा वह इसका उदाहरण है।
गौमांस पर प्रतिबंध और गौरक्षा की संघ-भाजपा की राजनीति का मुसलमानों के साथ ही दलित भी शिकार रहे हैं।
पारंपरिक कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में जहां दुधारू जानवरों की अहमियत थी, वहां दलित समुदाय की भूमिका भी काफी अहम थी। गौहत्या पर सख्त पाबंदी से दलितों की आजीविका प्रभावित होती है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान और अन्य राज्यों में हिंसक घटनाओं के दौरान दलित गौरक्षकों के निशाने पर आए हैं।
भीम आर्मी के संस्थापक कहते हैं, “चुनाव के दौरान हम हिंदू होते हैं और उसके बाद हम दलित हो जाते हैं।” भाजपा-संघ की राजनीति के लिए यह बेहद जरूरी हो गया है कि वह समय के मुताबिक बदलाव लाए। अगर वह ऐसा नहीं कर पाती है तो हालात बदतर हो जाएंगे। हिंसक घटनाओं के बाद चंद्रशेखर आजाद की राज्य पुलिस की ओर से की गई गिरफ्तारी और उसके साथ किए गए व्यवहार से हम वही गलतियां दुहरा रहे हैं जो जातीय वरीयता स्थापित करने वाली पारंपरिक व्यवस्था ने की थी।
दलितों की चेतना लगातार जाग रही है। उनके अंदर यह भावना भी आ रही है कि उनके खिलाफ होने वाले अपराधों को गंभीरता से नहीं लिया जाता और जाति-आधारित प्रशासन इनकी ठीक से जांच नहीं करवाता। यह मान्यता बढ़ रही है कि उनके गुनाहगार या तो पूरी तरह छूट जाते हैं या फिर उन्हें पर्याप्त सजा नहीं मिलती।
जहां राजनीतिक पार्टियां समाज को जाति, उप-जाति और धर्म के आधार पर बांट कर अल्पकालिक फायदा हासिल करने में लगी हैं, वहीं दलितों की चेतना उभर रही है और वे अब चुप बैठने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में आने वाले समय में यह टकराव बढ़ सकता है।
विवेकशील राजनीतिक चिंतकों और नेताओं को अब इस नई परिस्थिति से निपटने के लिए कदम उठाने होंगे ताकि इसका सही समाधान मिल सके और टकराव की स्थिति और ना बढ़े।
वास्तव में ऐसा जान पड़ता है कि दलित राजनिति एक दोराहे पर खड़ी है।
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