Author : Vikrom Mathur

Expert Speak Young Voices
Published on Dec 06, 2024 Updated 0 Hours ago

बाकू में हाल ही में संपन्न हुए कॉप 29 यानी जलवायु शिखर सम्मेलन में विकसित और विकासशील देशों के बीच की खाई और गहरी होती दिखाई दी. इस सम्मेलन के दौरान अमीर देशों ने जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुक़सान की भरपाई के लिए वित्तीय ज़िम्मेदारी उठाने से साफ इनकार कर दिया.

COP29: जिम्मेदारी से फिर मुंह मोड़ा दुनिया ने

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पिछले दिनों बाकू में आयोजित जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र (UN) के 29वें सम्मेलन (COP29) में भारत ने नए जलवायु वित्त पैकेज को सिरे से ख़ारिज कर दिया. सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहीं चांदनी रैना ने सख़्त लहजे में कहा, "यह दस्तावेज़ [NCQG प्रस्ताव] सिर्फ़ नज़रों का धोखा है और इससे अधिक कुछ भी नहीं है. हमारी राय में, यह हम सभी के सामने आने वाली गंभीर चुनौतियों को समाधान नहीं करेगा. इसलिए, हम इस दस्तावेज़ को अपनाने का विरोध करते हैं." कॉप 29 में भाग लेने वाले नाइजीरियाई प्रतिनिधिमंडल ने भी इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए इसे "मज़ाक" करार दिया.

ख़ास बात यह है कि इस बार COP29 को जलवायु ‘वित्त COP' कहा गया था, क्योंकि इस सम्मेलन में मुख्य रूप से जलवायु वित्त पर ध्यान केंद्रित किया जाना था. कहने का मतलब है कि इस कॉप 29 में मुख्य रूप जलवायु कार्रवाई के लिए वित्तीय सहायता को मज़बूती देने और जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने एवं अनुकूलन के लिए के लिए न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल (NCQG) जलवायु कोष को तय किया जाना था. हरित या स्वच्छ ऊर्जा परिवर्तन के लक्ष्यों को हासिल करने और अनुकूलन आवश्यकताओं एवं मौज़ूदा जलवायु वित्त पोषण के बीच बढ़ते अंतर के मद्देनज़र विकासशील देशों ने मांग की थी कि इस अंतर को पाटने के लिए अमीर देशों से प्रति वर्ष 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर जुटाए जाएं. लेकिन कॉप 29 के दौरान जिस जलवायु वित्तपोषण पैकेज को मंज़ूरी दी गई है, उसके मुताबिक़ वर्ष 2035 तक विकसित देशों द्वारा सालाना सिर्फ़ 300 बिलियन अमेरिकी डॉलर की सहायता उपलब्ध कराई जाएगी.

न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल (NCQG) के प्रस्ताव यानी जलवायु वित्त कोष के प्रस्ताव को इसलिए लाया गया था, ताकि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों का सामना करने के लिए पर्याप्त, स्पष्ट रूप से निर्धारित धनराशि उपलब्ध हो. लेकिन अफसोस की बात यह है कि इस प्रस्ताव के अंतर्गत जितनी धनराशि पर सहमति जताई गई है, वो ज़रूरत के लिहाज़ से बेहद कम है. इससे भी ख़राब बात यह है कि कॉप 29 में पारित किए गए प्रस्ताव में जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाले दुष्प्रभावों की भरपाई एवं इससे होने वाले नुक़सान व क्षति को लेकर कुछ भी साफ तौर पर नहीं कहा गया है.

हरित या स्वच्छ ऊर्जा परिवर्तन के लक्ष्यों को हासिल करने और अनुकूलन आवश्यकताओं एवं मौज़ूदा जलवायु वित्त पोषण के बीच बढ़ते अंतर के मद्देनज़र विकासशील देशों ने मांग की थी कि इस अंतर को पाटने के लिए अमीर देशों से प्रति वर्ष 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर जुटाए जाएं.

कॉप 29 की बैठकों के दौरान विकसित देशों ने जिस प्रकार का रुख दिखाया, उससे यह साफ हो जाता है कि अमीर देश जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCC) द्वारा निर्धारित "साझा लेकिन विभेदित ज़िम्मेदारियों और संबंधित क्षमताओं" के सिद्धांत को मानने को कतई तैयार नहीं है. इस सिद्धांत के मुताबिक़ पर्यावरण से जुड़े मुद्दों से निपटने की सभी देशों की साझा ज़िम्मेदारी है, लेकिन विकसित देशों को इसमें ज़्यादा ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए. ज़ाहिर है कि विकसित देशों द्वारा ऐतिहासिक रूप से अधिक उत्सर्जन किया जा रहा है और पर्यावरण को प्रदूषित करने में उनकी हिस्सेदारी सबसे अधिक है, लेकिन उनके द्वारा इस नुक़सान की भरपाई में आनाकानी की जा रही है. जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों की मार झेल रहे विकासशील देशों की हालत ऐसी नहीं है कि वे विकसित देशों द्वारा की जा रही इस क्षति की पूर्ति में बराबरी का योगदान दे सकें. जिस प्रकार से कॉप 29 में एकतरफा NCQG प्रस्ताव को मंजूर किया गया है, वो दिखाता है कि जलवायु परिवर्तन वित्तपोषण के मामले में वैश्विक सहयोग की अपनी हदें हैं. ज़ाहिर है कि इतना कम जलवायु वित्त कोष होने से जलवायु परिवर्तन अनुकूलन पर असर पड़ेगा, साथ ही ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने में दिक़्क़तें आएंगी और जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से होने वाले नुक़सान एवं क्षति की भरपाई करने में भी परेशानी होगी. निश्चित तौर पर इसका ख़ामियाजा कम विकसित या विकासशील देशों को भुगतना पड़ेगा, यानी उन देशों को इसके नतीज़े भुगतने पड़ेंगे, जिनका पर्यावरण को हानि पहुंचाने में बहुत कम योगदान है.

किसके द्वारा कितना जलवायु वित्त पोषण

हालांकि, कॉप 29 में NCQG के प्रस्ताव को स्वीकृत मिल गई है, इसके बावज़ूद इस जलवायु वित्तपोषण प्रस्ताव के प्रावधानों पर चर्चाओं का दौर जारी है. सबसे पहली बहस तो इसी मुद्दे पर हो रही है कि आख़िर विकसित देशों को जलवायु वित्त के रूप में विकासशील देशों को कितनी धनराशि देनी है. तीन दशकों से इस मुद्दे पर वार्ताओं का दौर चल रहा है कि अंतर्राष्ट्रीय जलवायु वित्त किस प्रकार का हो और इसके लिए धनराशि कहां से जुटाई जाए. देखा जाए तो ये न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल क्लाइमेट फंड कहीं न कहीं इन्हीं चर्चाओं का नतीज़ा है. अगर जलवायु वित्त के पिछले लक्ष्यों पर नज़र डालें, तो सामने आता है कि उन्हें पूरा करने में जानबूझकर देरी की गई और इस दिशा में गंभीरता से कार्य नहीं किया गया. जैसे कि वर्ष 2009 में यह सुनिश्चित किया गया था कि साल 2020 तक हर साल 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर का जलवायु वित्त जुटाए जाएगा. लेकिन इस लक्ष्य को समय सीमा पूरी होने के दो साल बाद यानी 2022 में ही हासिल किया जा सका. यह जलवायु वित्त वर्ष 2025 में समाप्त हो रहा है. कुछ रिपोर्टों के मुताबिक़ हर साल 100 बिलियन अमेरिका डॉलर के जलवायु वित्त को हासिल करने का लक्ष्य मौज़ूदा विकास सहायता को जलवायु निधि के रूप में पुनः लेबल करने के बाद संभव हो पाया है.

देखा जाए तो बाकू में आयोजित कॉप 29 सम्मेलन की प्राथमिकता, विकासशील देशों की आज की आवश्यकताओं के मुताबिक़ उन्हें जलवायु वित्तपोषण उपलब्ध कराना था. ज़ाहिर है कि जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन की घटनाओं में वृद्धि हो रही है और इसके दुष्प्रभाव बढ़ते जा रहे हैं, वैसे-वैसे वैश्विक आपदा को रोकने के लिए ज़रूरी लक्ष्यों को निर्धारित करना और उन्हें तेज़ी के साथ हासिल करना भी अनिवार्य होता जा रहा है. विकासशील देशों को अपनी जलवायु कार्रवाई के लिए खरबों डॉलर की आवश्यकता है. बाकू सम्मेलन में विकासशील देशों ने प्रतिवर्ष 1.3 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर जलवायु वित्त सहयोग की मांग की थी. सच्चाई यह है कि इसकी आधी रकम भी पर्याप्त नहीं होगी, लेकिन बाकू में जो जलवायु वित्त कोष का प्रस्ताव पारित किया गया है, उसमें मांग की तुलना में सिर्फ चौथाई रकम का ही प्रावधान किया गया है. कहने का मतलब है कि विकसित देशों को लगता है कि इतनी कम धनराशि से ही विकासशील देशों की जलवायु कार्रवाई की ज़रूरतें पूरी हो जाएंगी.

सबसे पहली बहस तो इसी मुद्दे पर हो रही है कि आख़िर विकसित देशों को जलवायु वित्त के रूप में विकासशील देशों को कितनी धनराशि देनी है.

एक तरफ विकासशील देश हैं, जिन्हें जलवायु कार्रवाई के लिए पैसों की ज़रूरत है और दूसरी तरफ विकसित देश हैं, जिनसे यह अपेक्षा है कि वे विकासशील देशों के लिए जलवायु वित्त उपलब्ध कराएं. लेकिन सच्चाई यह है कि अमीर देश इसके लिए राजी नहीं है और सवाल पूछ रहे हैं कि यह जलवायु वित्तपोषण किसे, कितना और किस प्रकार करना चाहिए. विकासशील देशों का कहना है कि जलवायु कार्रवाई के लिए ज़रूरी धनराशि को पब्लिक फंड्स, अनुदानों और रियायती ऋणों के ज़रिए जुटाना चाहिए. ज़ाहिर है कि दूसरे स्रोतों से धनराशि जुटाने में सबसे बड़ी दिक़्क़त यह है कि वे वित्तपोषण के लिहाज़ से उपयुक्त नहीं है. गैर-रियायती कर्ज़ की ब्याज दरें बहुत ज़्यादा हैं, इसके अलावा दुनिया के ज़्यादातर विकासशील देश अपने वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय ऋणों का भुगतान करने में परेशानियों का सामना कर रहे हैं. इतना ही नहीं, गैर-रियायती ऋणों को हासिल करना भी बहुत मुश्किल है, क्योंकि इसकी शर्तें बहुत कड़ी होती हैं, साथ ही इनमें पारदर्शिता का आभाव होता है. निसंदेह तौर पर विकसित देशों का ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में योगदान सबसे अधिक है, इसलिए यह उनकी नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है कि वे विकासशील देशों को जलवायु कार्रवाइयों यानी इसके दुष्प्रभावों का सामना करने एवं जलवायु अनुकूलन के लिए वित्तपोषण उपलब्ध कराएं.

बाकू में आयोजित कॉप 29 में अमेरिका और यूरोपीय संघ (EU) ने इस बात पर ज़ोर दिया कि जलवायु वित्तपोषण में अब चीन जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं को भी अपना योगदान देना चाहिए. हालांकि, जलवायु वित्तपोषण में योगदान करने वाले मौज़ूदा विकसित देशों (Annexure-II में शामिल देश) के प्रति व्यक्ति उत्सर्जन और आय के आंकड़ों के साथ तुलना की जाए, तो चीन का नंबर इस सूची में किसी भी देश से बहुत नीचे आता है. वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (WRI) के मुताबिक़, "उत्सर्जन और आय के हर तरह के मापदंडों और तमाम आंकड़ों का विश्लेषण करने के बाद यह सामने आता है कि अमेरिका को जलवायु वित्त उपलब्ध कराने में अपनी तरफ से सबसे अधिक योगदान देना चाहिए." इसके बावज़ूद अमेरिका अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करने से बचता रहा है और वित्तपोषण के लक्ष्यों को पूरा करने में नाक़ाम रहा है. जिस प्रकार से डोनाल्ड ट्रंप ने चुनावों के दौरान जलवायु वित्तपोषण में कटौती का वादा किया है, उससे आने वाले दिनों में आशंका है कि अमेरिका अपनी ज़िम्मेदारी निभाने से और पीछे हट सकता है.

विकसित देशों का यह भी कहना है कि जलवायु कोष का लक्ष्य वास्तविक ज़रूरतों के आधार पर तय किया जाना चाहिए. अमीर देशों के मुताबिक़ इससे पहले जलवायु वित्त जुटाने का जो बहुत कम लक्ष्य निर्धारित किया गया था, उसे पूरा करने में भी उन्हें काफ़ी परेशानियों का सामना करना पड़ा. यही वजह है कि काफ़ी विचार-विमर्श और बहसों के बाद कॉप 29 में वर्ष 2035 तक प्रति वर्ष 300 बिलियन अमेरिका डॉलर की सहायता राशि उपलब्ध कराने पर सहमति बनी, जबकि विकासशील देशों द्वारा 1.3 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की मांग की गई थी. इस धनराशि को निजी निवेश और विकासशील देशों द्वारा स्वैच्छिक योगदान जैसे कई स्रोतों से जुटाने की बात कही गई थी, लेकिन सम्मेलन के दौरान इस पर सहमति नहीं बन पाई. कुल मिलाकर, कॉप 29 में जलवायु वित्तपोषण के लिए जिस प्रकार से बहुत कम सहायता धनराशि उपलब्ध कराने का प्रस्ताव पारित हुआ है और इस दौरान हुई चर्चाओं में जिस तरह से गर्मा-गर्मी का माहौल बना, उससे कहीं न कहीं विकसित और विकासशील देशों के बीच का फासला और बढ़ गया है.

विवादों से भरा रहा कॉप 29 

कॉप 29 पर देखा जाए तो शुरुआत से ही विवादों का साया मंडरा रहा था. सम्मेलन शुरू होने से पहले अज़रबैजान द्वारा सम्मेलन की अध्यक्षता करने की जमकर आलोचना की गई थी. ज़ाहिर है कि अज़रबैजान की अर्थव्यवस्था काफ़ी हद तक तेल उत्पादन पर निर्भर है. इस आलोचना ने तब और ज़ोर पकड़ा जब बाकू में हुए इस सम्मेलन में “जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करने” वाले विचार को दरकिनार कर दिया गया. ज़ाहिर है कि पिछले साल दुबई में आयोजित कॉप 28 में इस विषय को काफ़ी प्रमुखता से उठाया गया था और जलवायु संरक्षण की दिशा में इस अहम बताया गया था.

इसके अलावा, यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव बन की मून को खुला पत्र जारी कर कहना पड़ा कि सम्मेलन के दौरान कुछ भी तरीक़े से और उद्देश्य को हासिल करने की नीयत से नहीं किया जा रहा है. कॉप 29 सम्मेलन में शुक्रवार को चल रही चर्चा शनिवार तक जारी रही. इस दौरान विकासशील देशों को दो समूहों, यानी सबसे कम विकसित देशों (LDCs) के समूह और छोटे द्वीपीय राष्ट्रों के गठबंधन (AOSIS) ने NCQG मसौदे का विरोध करते हुए बैठक से वॉकआउट कर दिया. इन देशों का कहना था कि बातचीत के दौरान उनके तर्कों और मुद्दों को तवज्जो नहीं दी गई. भारत ने आरोप लगाया कि कॉप 29 के मेजबान अज़रबैजान के राष्ट्रपति और संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सचिवालय ने आपत्तियों को नज़रंदाज़ करते हुए अपने मन-मुताबिक़ NCQG मसौदा तैयार किया है. भारत के इन आरोपों के साथ कई और विकासशील देश भी खड़े नज़र आए, जिससे सम्मेलन के दौरान की गई पूरी क़वायद पर ही सवाल खड़े हो गए.

कॉप 29 सम्मेलन के दौरान देखा जाए तो अफरा-तफरी वाला माहौल बना रहा. सम्मेलन में हर दिन ऐसी ख़बरें सामने आईं , जिसमें कहा गया था कि महत्वपूर्ण मुद्दों पर गंभीरता से विचार-विमर्श नहीं किया जा रहा है और आनन-फानन में प्रस्तावों को लाया जा रहा है.

एक ओर जहां विकासशील देशों ने कॉप 29 की मंशा और पूरी प्रक्रिया का विरोध किया और इस प्रकार से दिखाया कि वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दे पर सहयोग की कमी है, वहीं दूसरी ओर विकसित देशों ने इसके उलट सम्मेलन को सफल बताते हुए, इसे उद्देश्यों की पूर्ति करने वाला करार दिया. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने जहां कॉप 29 को "ऐतिहासिक नतीज़ों" वाला सम्मेलन बताया, वहीं यूरोपीय संघ आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन ने कहा कि बाकू में हुए समझौते ने "जलवायु सहयोग और वित्त के लिए एक नए युग" का मार्ग प्रशस्त किया है. ज़ाहिर है कि अगर यह जलवायु वित्तपोषण का एक नया युग है, तो यह निश्चित है कि यह सहयोग का युग तो कतई नहीं है. अगला सम्मेलन यानी COP30 ब्राज़ील के बेलेम में होना है. ऐसे में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देशों के बीच बढ़ी तनातनी और खटास को दूर करने की ज़िम्मेदारी अब कॉप 30 पर आ गई है. लगता है कि कॉप 29 में अगले साल के लिए टाल दिए गए जलवायु सहयोग से जुड़े तमाम ज़रूरी मसलों पर सार्थक प्रस्ताव कॉप 30 में ही पारित किए जा सकेंगे.

सभी देशों को, ख़ास तौर पर विकसित राष्ट्रों को अपनी तरफ से मुकम्मल तैयारियां करने की ज़रूरत है, ताकि वे 2025 की शुरुआत में ही जलवायु वित्तपोषण के लिए राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित अपना योगदान पूरा कर सकें, यानी वित्तीय मदद का भुगतान कर सकें. कहने का मतलब है कि विकसित देशों को तत्काल प्रभाव से धनराशि जुटाने के लिए अपने प्रयासों को शुरू कर देना चाहिए और इसके लिए निजी, घरेलू या मल्टीलेटरल डेवलपमेंट बैंकों (MDBs) समेत हर संभव स्रोत को खंगालना चाहिए, ताकि विकासशील देशों को जलवायु अनुकूलन के लिए ज़रूरी वित्तीय मदद मुहैया कराई जा सके.

अंत में, COP29 के दौरान दुनिया के अमीर देशों को जलवायु वित्तपोषण के लिए अधिक से अधिक धनराशि जुटाने का संकल्प लेकर विकासशील देशों यानी ऐसे देशों को वित्तपोषण के लिए आगे आना चाहिए था, जिनका पर्यावरण और जलवायु को नुक़सान पहुंचाने में सबसे कम योगदान है. जलवायु परिवर्तन पर आयोजित इस सम्मेलन में दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका. यह निश्चित है कि जब तक विकसित देश अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभाते हैं और जलवायु वित्तपोषण में अपने हिस्से का योगदान नहीं करते हैं, तब तक इसका ख़ामियाजा विश्व के सभी देशों को भुगतना पड़ेगा.

 

विक्रम माथुर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.

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