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Published on Oct 27, 2025 Updated 8 Hours ago

भारत की खेती में औरतों के हाथों में हल तो है, पर ज़मीन पर उनका नाम नहीं. खेतों की हर हरियाली में उनकी मेहनत छिपी है, मगर पहचान अब भी अधूरी है. सवाल यही है — जब अन्न की जड़ें उनके हाथों से सिंचती हैं, तो हक़ की फसल कब उगेगी?  

महिला किसान: छिपी मेहनत, अनसुनी दास्तान

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भारत में महिलाओं की नौकरी या कामकाज में भागीदारी दुनिया में सबसे कम है, सिर्फ़ 29 प्रतिशत. शोध बताते हैं कि इसके कई गहरे कारण हैं. सबसे बड़ा कारण है लैंगिक असमानता, यानी घर के ज़्यादातर कामों की ज़िम्मेदारी महिलाओं पर होती है. वे बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल करती हैं, खाना बनाती हैं, सफ़ाई करती हैं, लकड़ी या पानी लाती हैं, सिलाई-कढ़ाई या किचन गार्डन संभालती हैं. इन सब कामों में इतना समय चला जाता है कि घर के बाहर नौकरी करने के लिए वक्त ही नहीं बचता.

  • महिलाओं का ज़मीन पर बहुत कम या बिल्कुल भी हक़ नहीं होता जिसकी वजह से उन्हें सरकारी योजनाओं का भी पूरी तरह से लाभ नहीं उठा पातीं जो किसानों के लिए बनाई गई हैं.
  • अगर महिलाओं को प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल में सक्षम बनाया जाएगा, तो महिला किसानों के साथ संवाद की स्थिति बेहतर होने की संभावना होगी.

फिर आती हैं सामाजिक और सांस्कृतिक रुकावटें. बहुत-सी जगहों पर महिलाओं को पढ़ाई या नौकरी के लिए घर के बड़ों की अनुमति लेनी पड़ती है. कुछ काम महिलाओं के लिए ठीक नहीं माने जाते हैं और देर तक घर से बाहर रहने पर परिवार को आपत्ति होती है. ऊपर से, देश में वैसे भी रोज़गार के मौके कम बन रहे हैं तो जब नौकरियां ही कम होंगी. ऐसे में महिलाओं तक उनकी पहुंच और मुश्किल हो जाती है.

खेती-किसानी करने वाली ग्रामीण महिलाओं में केवल 13 प्रतिशत के पास ही अपने नाम से ज़मीन का मालिकाना हक़ है. यहां तक कि साझा रजिस्ट्री के मामलों में भी, घोष यह मानती हैं कि महिलाओं का ज़मीन पर बहुत कम या बिल्कुल भी हक़ नहीं होता. महिला किसान उन सरकारी योजनाओं का भी पूरी तरह से लाभ नहीं उठा पातीं जो किसानों के लिए बनाई गई हैं.

हालांकि, एक ऐसा क्षेत्र भी है, जहां महिलाओं का दबदबा है और वह है- कृषि. भारत में खेती-किसानी काफी हद तक महिला श्रम पर निर्भर है. 2023-24 में, खेतों में काम करने वाली महिला श्रमिकों की हिस्सेदारी करीब 64.4 प्रतिशत थी जो पुरुषों की भागीदारी (36.3 प्रतिशत) से काफ़ी ज्यादा थी. कृषि में महिलाओं की इस प्रधानता को अक्सर साहित्य की दुनिया में भारतीय कृषि का स्त्रीकरण कहा जाता है. चित्र-1 बताता है कि भारत में कृषि क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं का प्रतिशत घटा है और 1991 के 78 प्रतिशत के मुकाबले 2019 में इसे 54 प्रतिशत दर्ज किया गया. हालांकि, 2019 के बाद इसमें काफी बढ़ोतरी हुई. कई अध्ययन बताते हैं कि खेती-किसानी के कामों में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ने की एक वज़ह COVID- 19 महामारी के कारण पैदा हुए स्वास्थ्य और आर्थिक संकट रहे हैं. नंदा, एम. और घोष, एस. (2025) और लेडर, एस (2022) जैसे कई अध्ययनों में कृषि में महिलाओं की बढ़ती हिस्सेदारी को पुरुषों के पलायन से जोड़ा गया है और निष्कर्ष निकाला गया है कि पारंपरिक लैंगिक रूढ़ियां अब भी महिलाओं की स्थिति को कमज़ोर बनाती हैं. कृषि में पुरुष और महिलाओं के ज़िम्मे आमतौर पर अलग-अलग काम होते हैं. जैसे- महिलाएं मुख्य रूप से बीज़ बोने, रोपाई, निराई, खेत की सफ़ाई, कटाई, सिंचाई, उपज की सफ़ाई और भंडारण करने जैसे काम करती हैं. ये काम कठिन होते हैं और इनको करने में अच्छा-ख़ासा समय लगता है. ये खेती और फ़सल-कटाई के बाद की प्रक्रियाओं का महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं और आमतौर पर हाथों से किए जाते हैं.

ज़िम्मेदारी निभाने के बावजूद महिलाएं...

बड़ी ज़िम्मेदारी निभाने के बावजूद कृषि में महिलाओं को फ़ैसले लेने और आमदनी में बहुत आज़ादी नहीं मिलती. खेती-किसानी में भी महिला श्रमिकों को पुरुष कामगारों की तुलना में कम वेतन मिलता है. अर्थशास्त्री जयति घोष का कहना है कि कृषि में महिलाओं की प्रमुख भूमिका होने के बावजूद उन्हें शायद ही किसान माना जाता है. खेती-किसानी करने वाली ग्रामीण महिलाओं में केवल 13 प्रतिशत के पास ही अपने नाम से ज़मीन का मालिकाना हक़ है. यहां तक कि साझा रजिस्ट्री के मामलों में भी, घोष यह मानती हैं कि महिलाओं का ज़मीन पर बहुत कम या बिल्कुल भी हक़ नहीं होता. महिला किसान उन सरकारी योजनाओं का भी पूरी तरह से लाभ नहीं उठा पातीं जो किसानों के लिए बनाई गई हैं. जैसे- 2024 में रबी (सर्दी की फ़सल) के लिए प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना में महिलाओं की हिस्सेदारी सिर्फ़ 16 प्रतिशत थी. इसकी एक वज़ह इस योजना की पात्रता है जिसमें कहा गया है कि वैध व प्रमाणित भूमि स्वामित्व प्रमाणपत्र या वैध भूमि स्वामित्व अनुबंध का होना आवश्यक है, तभी इस योजना का लाभ मिल सकता है. यह नियम फ़सल बीमा में महिलाओं की हिस्सेदारी को कम करता है.

यह जानते हुए कि कृषि क्षेत्र में कामकाजी महिलाओं का सबसे बड़ा हिस्सा काम करता है (चित्र-1) और खेती-किसानी का काम महिला श्रमिकों पर काफ़ी हद तक निर्भर है, महिला किसानों को मज़बूत बनाना दो उद्देश्यों को पूरा कर सकता है. पहला, लैंगिक असमानता को कम करने वाले प्रयास एक बड़ी आबादी तक पहुंच सकते हैं, और दूसरा, यह कृषि क्षेत्र को मज़बूत बना सकता है, जिससे खाद्य सुरक्षा और भी बेहतर हो सकती है.

बीमा कवरेज बढ़ाने के लिए मानदंडों में बदलाव की ज़रूरत

साफ़ है, महिला किसानों के बीच बीमा कवरेज बढ़ाने के लिए पात्रता मानदंडों में बड़े बदलावों की ज़रूरत है, जैसे कि ज़मीन के मालिकाना हक़ की परवाह किए बिना सभी किसानों को बीमा उपलब्ध कराना. एक जमीनी सर्वेक्षण करके हम महिला किसानों के लिए बीमा कवरेज से जुड़ी चुनौतियों के बारे में गहरी जानकारी पा सकते हैं. हालांकि, एक उपाय यह भी है कि महिलाओं के लिए मालिकाना हक़ पाने के अधिक प्रयास किए जाएं. भारत चाहे, तो रवांडा के व्यवस्थित भूमि पंजीकरण कार्यक्रम (2009-2013) से सबक ले सकता है, जिसके तहत वहां की लगभग 19 प्रतिशत कृषि भूमि महिलाओं के अपने नाम से और 49 प्रतिशत साझा रूप में रजिस्ट्री की गई. इस कार्यक्रम ने ज़मीन के मालिकाना हक़ को नियमित करके महिलाओं के अधिकार सुरक्षित किए. खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) के एक मुफ़्त ऑनलाइन प्रोग्राम में बताया गया है कि इस कार्यक्रम का मूल्यांकन करते हुए जब साक्षात्कार व लक्षित समूहों से चर्चाएं की जा रही थीं, तो महिलाओं ने खुद को अधिक सशक्त महसूस करने, घरेलू फ़ैसले लेने में अधिक प्रभावशाली भूमिका निभाने और बैंक से अधिक आत्मविश्वास के साथ कर्ज़ मांगने की बात कही.

ऐसे समय में, जब भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में कृषि की हिस्सेदारी घट रही है, तब केंद्रीय बजट 2025-2026 इस क्षेत्र में सुधार की उम्मीद जगाता है. कृषि क्षेत्र के प्रमुख कार्यबल, यानी महिलाओं का सशक्तिकरण भी इसी का हिस्सा है. 

मालिकाना हक़ वाले परिवारों की निर्णय प्रक्रियाएं, श्रम विभाजन और बाज़ार में भागीदारी सांस्कृतिक मानदंडों और लंबे समय से चली आ रही सामाजिक ढांचों से खूब प्रभावित होती हैं. इनमें दख़ल देने के लिए एक गहरी, दूरदर्शी और अधिक व्यवस्थित नज़रिया अपनाने की ज़रूरत है. हालांकि, छोटे-छोटे कदम भी उतने ही महत्वपूर्ण होते हैं और कृषि में महिलाओं को सशक्त बनाने में योगदान दे सकते हैं. ऐसा ही एक छोटा कदम है वह व्यवस्था करना, जिसमें महिला किसान ज़रूरी सूचनाएं पा सकें. इसके लिए बहुआयामी नज़रिये की ज़रूरत है, जैसे कि- 

  1. डिजिटल माध्यमों से कृषि संबंधी जानकारी हासिल करने और समझने के लिए महिलाओं को शिक्षित करना; कृषि मौसम पूर्वानुमान जैसी सूचना सेवाएं, मोबाइल फ़ोन और वेबसाइट जैसे डिजिटल माध्यमों से उपलब्ध हो रही हैं. मगर महिला किसानों की पठन क्षमता और उनकी मोबाइल फ़ोन या कंप्यूटर सिस्टम तक पहुंच चिंता का विषय रही हैं. कृषि संबंधी जानकारी पाने और समझने का प्रशिक्षण महिला किसानों का यदि मिलता है, तो फ़ैसले लेने और कार्रवाई करने में वह अधिक सक्षम बनेंगी.
  2. कृषि प्रौद्योगिकी से जुड़ी सेवाओं के विस्तार में महिलाओं को शामिल करना; एक अध्ययन बताता है कि सरकारी कृषि सेवाओं में पुरुष कर्मचारियों का दबदबा है. प्रचलित लैंगिक मानदंडों के कारण, आमतौर पर महिला किसानों और प्रौद्योगिकी से जुड़े लोगों के बीच संपर्क कम होता है. अगर महिलाओं को प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल में सक्षम बनाया जाएगा, तो महिला किसानों के साथ संवाद की स्थिति बेहतर होने की संभावना होगी.
  3. महिला किसानों का संपर्क डेटाबेस तैयार करना; यदि खेती-किसानी से जुड़ी जानकारी सार्वजनिक बैठकों के माध्यम से बताई जाती है, तो महिला किसानों के लिए वहां न जाने से वे सूचनाएं उन तक नहीं पहुंच पातीं. ऐसे में, महिला किसानों का संपर्क डेटाबेस कृषि प्रौद्योगिकी से जुड़े लोगों को महिला किसानों के छोटे समूहों तक पहुंचने और उनसे बातचीत करने में मदद करेगा.
  4. लक्षित प्रशिक्षण कार्यक्रमः किसानों के लिए कौशल विकास से जुड़े कार्यक्रम पहले से चलाए जा रहे हैं, जिनका प्रबंधन आमतौर पर राज्य के कृषि विभाग, कृषि विज्ञान केंद्र (KVK) और राज्य के कृषि विश्वविद्यालय करते हैं. महिला किसानों की ज़रूरतों के अनुसार प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने या बैठकों के करने से उनकी भागीदारी कहीं अधिक सुनिश्चित हो सकती है. यह एक महत्वपूर्ण कदम है. हालांकि, लक्षित पहल के उदाहरण मौजूद हैं. जैसे कि- बेटर लाइफ फार्मिंग अलांयस (BLFA) छोटी जोत के प्रशिक्षित महिला किसानों द्वारा संचालित 12 सामुदायिक केंद्रों का प्रबंधन करता है. यह अन्य छोटे किसानों तक भी प्रौद्योगिकी से जुड़ी सेवाएं उपलब्ध कराता है.

ऐसे समय में, जब भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में कृषि की हिस्सेदारी घट रही है, तब केंद्रीय बजट 2025-2026 इस क्षेत्र में सुधार की उम्मीद जगाता है. कृषि क्षेत्र के प्रमुख कार्यबल, यानी महिलाओं का सशक्तिकरण भी इसी का हिस्सा है. अब आगे यह सुनिश्चित करना है कि खेती-किसानी से जुड़ी जानकारी सभी महिला किसानों तक पहुंचे और वे उसे अच्छी तरह से समझ सकें. जागरूक महिला किसान अपने फ़ैसले खुद लेने और कहीं बेहतर लेने में अधिक सक्षम होंगी. 


(मंजुश्री बनर्जी 2002 से ऊर्जा परिवर्तन, कृषि अर्थशास्त्र और स्थिरता के क्षेत्र में एक उद्यमी और शोधकर्ता रही हैं)

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