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दुनियाभर में ऑटोइम्यून रोग तेजी से बढ़ती स्वास्थ्य समस्या बनते जा रहे हैं जिससे हर दस में से एक व्यक्ति प्रभावित है. भारत में भी हाल के वर्षों में इन रोगों की प्रचलन दर में काफी वृद्धि देखी गई है, खासकर महिलाओं और शहरी आबादी के बीच. थायराइड विकारों और गठिया जैसे रोग अब आम होते जा रहे हैं, जिनका सीधा संबंध बदलती जीवनशैली और शहरीकरण से जोड़ा जा रहा है.
Image Source: Getty Images
दुनियाभर में ऑटोइम्यून रोग की स्थिति गंभीर होती जा रही है. वर्तमान में, वैश्विक स्तर पर हर दस में से एक व्यक्ति ऑटोइम्यून स्थितियों से प्रभावित है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के अनुसार, भारतीय महिलाओं में थायराइड विकारों की प्रचलित दर एनएफएचएस-IV (2015-2016) में 2.2 प्रतिशत थी जो एनएफएचएस-V (2020-2021) में बढ़कर 2.9 प्रतिशत हो गई. ये सिर्फ पांच साल में इसमें हुई वृद्धि को दर्शाता है. 2020 में त्रिवेंद्रम में किए गए अध्ययन में पता चला कि थायरोटोक्सिकोसिस, थायराइड बीमारी वाले रोगियों की 2.5 प्रतिशत आबादी को प्रभावित करता है. इस बीमारी के मुख्य कारणों के रूप में ग्रेव्स रोग की पहचान की गई जो एक ऑटोइम्यून स्थिति है. कई अध्ययनों से ये पता चलता है कि शहरीकरण में वृद्धि और ऑटोइम्यून स्थितियों में बढ़ोतरी के बीच मज़बूत संबंध है. शहरी क्षेत्रों में ऑटोइम्यून रोगों का बोझ ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में बहुत ज़्यादा होता है. उत्तर प्रदेश में 2024 के एक अध्ययन ने बताया कि शहरी क्षेत्रों में गठिया (रूमेटोइड आर्थराइटिस) की प्रचलन दर ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में तीन गुना अधिक है.
इसी तरह, हरियाणा में 2015 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि टाइप-1 डायबिटीज़ शहरी क्षेत्रों में प्रति 100,000 लोगों में 26 व्यक्तियों को प्रभावित करती है जबकि ग्रामीण आबादी में यह सिर्फ 4 व्यक्ति प्रति 100,000 है. हालांकि, इसकी एक वजह ये हो सकती है कि महानगरों के बाहर यानी ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाएं और निजी प्रयोगशालाएं कम है, ऐसे में अंडरडायग्नोसिस ग्रामीण आंकड़ों को कुछ हद तक कम आंकने की संभावना पैदा कर सकता है. फिर भी ये गौर करने की बात है कि टाइप-1 डायबिटीज़ की घटनाएं हर साल लगभग 6.7 प्रतिशत की दर से बढ़ रही हैं और वर्तमान में भारत में डायबिटीज़ के 8,00,000 से ज़्यादा मरीज रहते हैं. शहरी और ग्रामीण आबादी के बीच बढ़ती खाई 'शहरीकरण' की भूमिका को उजागर करती हैं, यानी उस हद तक कि क्षेत्र में शहरी विशेषताएं कितनी मौजूद हैं जो ऑटोइम्यून रोग के ज़ोखिम और स्वास्थ्य परिणामों को प्रभावित करती हैं. ये अंतर दिखाता है कि कोई स्थान यानी आपके रहने की जगह किस तरह ऑटोइम्यून रोग और उसके उपचार के प्रति संवेदनशीलता और लचीलापन का कारण बनते हैं. भारत का तेज़ी से शहरीकरण यह निर्धारित कर सकता है कि किसे उपचार मिलता है, रोग कितनी गंभीरता से सामने आता है और कौन स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं तक पहुंच सकता है.
भारत का तेज़ी से शहरीकरण यह निर्धारित कर सकता है कि किसे उपचार मिलता है, रोग कितनी गंभीरता से सामने आता है और कौन स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं तक पहुंच सकता है.
ऑटोइम्यून रोग तब उत्पन्न होते हैं, जब शरीर की प्रतिरक्षा (इम्यून) प्रणाली सही तरीके से काम नहीं करती. ऐसी स्थिति में वो कीटाणुओं या बाहरी तत्वों पर हमला करने की बजाए अपने ही स्वस्थ कोशिकाओं पर वार करती हैं. ये स्थितियां लंबे समय तक चलती है, जिनका कोई निश्चित इलाज नहीं होता, और अक्सर जिंदगीभर इसके उपचार की आवश्यकता होती है. इसके सामान्य उदाहरणों में रूमेटोइड अर्थराइटिस यानी गठिया शामिल है, जो जोड़ों में अकड़न की वजह से होता है. टाइप-1 डायबिटीज़, जो आमतौर पर जीवन की शुरुआती अवस्था में विकसित होती हैं; सोरायसिस, एक त्वचा विकार; और सूजनयुक्त आंत्र रोग, जो आंतों को प्रभावित करता है, भी इन रोगों के कुछ उदाहरण हैं. ऑटोइम्यून रोगों को पैदा करने वाली मुख्य चीज़ों में से एक सूजन और जलन है.
सूजन शरीर का उस चीज़ पर प्रतिक्रिया देने का तरीका है जो उसे परेशान करती है. ये आम तौर पर प्रभावित क्षेत्र में लाल त्वचा, गर्मी, सूजन और अधिक रक्त प्रवाह के रूप में दिखाई देती है. जबकि एलर्जी के मामले में शरीर बाहरी चीजों पर उसी तरह प्रतिक्रिया करता है, लेकिन ये लक्षण उस एलर्जी को हटाने के बाद ख़त्म हो जाते हैं. ऑटोइम्यून स्थितियों के मामले में, रोग के लक्षण लंबे समय तक बने रहते हैं और अक्सर बढ़ते समय के साथ स्थिति और खराब होने लगती है. अगर शरीर को बार-बार इस सूजन वाली अवस्था में डाला जाता है, तो ये दीर्घकालिक समस्याओं का कारण बन सकती है. हालांकि, जीन किसी में ऑटोइम्यून रोग विकसित करने की संभावना बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाते हैं, लेकिन लगातार सूजन अक्सर उस चिंगारी के रूप में काम करती है जो इन रोगों को उत्पन्न कर देती है.
हवा और पानी का प्रदूषण, बढ़ती संख्या में संसाधित (प्रोसेस्ड) खाने-पीने का सामान ही शहरी जीवन को ग्रामीण जीवन से अलग करने वाले मुख्य तत्व हैं. ये सभी सीधे हमारे शरीर में हानिकारक तत्वों का प्रवेश कराते हैं, जिनसे सूजन होती है. इसके अलावा, शहरी जीवन अक्सर अधिक तनाव के साथ एक स्थिर यानी शारीरिक श्रम रहित जीवनशैली को भी जन्म देता है, जो शरीर की सूजन को नियंत्रित करने की प्राकृतिक प्रक्रियाओं में बाधा डालता है. 2016 में कर्नाटक में किशोर लड़कियों पर किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि शहरी गरीब अक्सर संसाधित खाद्य पदार्थों पर निर्भर रहते हैं, क्योंकि यह सुविधाजनक है और खाना पकाने के लिए ईंधन, दूसरा सामान और जगह हासिल करने की तुलना में सस्ता है. इसके विपरीत, समान गरीबी की स्थिति वाली ग्रामीण महिलाएं हमेशा सरल, घर का बना भोजन तैयार करती और खाती थीं. 2025 में दिल्ली से किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि भारी ट्रैफिक वाले क्षेत्रों में रहने वाले बच्चों में ऑटोइम्यून असंतुलन बहुत अधिक होता है. शहरी वातावरण में सूक्ष्मजीव विविधता में कमी होती है, प्रदूषण के कारण सूर्य की रोशनी से अपर्याप्त विटामिन डी मिलता है. लोगों की दिनचर्या बहुत अस्त-व्यस्त होती है, जिससे नींद और शरीर की जैविक घड़ी (बायोलॉजिकल क्लॉक) में गड़बड़ी हो जाती है. ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में ये सब स्थितियां आंत सूक्ष्मजीव में मापनीय बदलाव से जुड़ी हैं, और ये सभी चीजें मिलकर ऑटोइम्यून ज़ोखिम बढ़ाने में योगदान करती हैं.
2025 में दिल्ली से किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि भारी ट्रैफिक वाले क्षेत्रों में रहने वाले बच्चों में ऑटोइम्यून असंतुलन बहुत अधिक होता है.
शहरों के संपन्न वयस्क अक्सर ऐसी शारीरिक गतिविधियों में शामिल होते हैं, जिनमें बहुत ज़्यादा मेहनत नहीं करनी होती. इतना ही नहीं, वो अधिक पोषक तत्व वाले ऑर्गेनिक खाद्य उत्पाद खरीदने का विकल्प भी चुन सकते हैं. 2018 में चंडीगढ़ के एक अध्ययन में पाया गया कि ये सामाजिक-आर्थिक अंतर छात्रों के रोज़ाना के जीवन में भी दिखता है. अमीर शहरी बच्चों को खेल या आरामदायक शारीरिक गतिविधियों में ज़्यादा संलग्न पाया गया. सूजन को कम कर सकने वाले स्वस्थ विकल्प उनके लिए आसानी से सुलभ हैं.
निम्न-आय वाले शहरी निवासी, बेघर व्यक्ति और अस्थायी सड़क किनारे आश्रयों में रहने वाले लोगों के पास ये सुविधा नहीं होती. प्रदूषण के संपर्क और प्रोसेस्ड खाने की वजह से उनमें ऑटोइम्यून रोग होने का ज़ोखिम ज़्यादा होता है. रोग का उपचार कराने में भी इनके सामने बहुत अड़चनें आती हैं. उपचार पाने में नाकामी की कई वजहें हैं, जैसे कि गरीबी, जागरूकता की कमी, रूमेटोलॉजी और एंडोक्रिनोलॉजी विशेषज्ञों तक सीमित पहुंच, हाई इमेजिंग और लैब परीक्षण की लागत और जैविक दवाओं का महंगा होना. कम आय वर्ग के लोग इलाज के खर्च में मदद के लिए अक्सर सरकारी योजनाओं और सब्सिडी पर निर्भर रहते हैं. ऑटोइम्यून रोगों के लिए लगातार दवा की ज़रूरत होती है, अक्सर पूरे जीवन भर मौजूदा दौर में चल रही राज्य और केंद्र सरकार की योजनाएं, जैसे कि प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना और महात्मा ज्योतिबा फुले जन आरोग्य योजना, में निशुल्क दवाओं का वितरण, साथ ही ज़रूरत पड़ने पर पैलिएटिव केयर की व्यवस्था करने से इन निम्न आयवर्ग के लोगों को काफ़ी मदद मिल सकती है.
अक्सर पूरे जीवन भर मौजूदा दौर में चल रही राज्य और केंद्र सरकार की योजनाएं, जैसे कि प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना और महात्मा ज्योतिबा फुले जन आरोग्य योजना, में निशुल्क दवाओं का वितरण, साथ ही ज़रूरत पड़ने पर पैलिएटिव केयर की व्यवस्था करने से इन निम्न आयवर्ग के लोगों को काफ़ी मदद मिल सकती है.
अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में बड़ी संख्या में ऑटोइम्यून रोगी देखे गए है, लेकिन इन देशों ने मज़बूत देखभाल प्रणालियों के साथ इनका सामना किया है. अमेरिका ने नेशनल इंस्टिट्यूट्स ऑफ़ हेल्थ के माध्यम से इसमें भारी निवेश किया है, जबकि ब्रिटेन की नेशनल हेल्थ सर्विस महंगे बायोलॉजिकल दवाओं तक व्यापक पहुंच सुनिश्चित करती है. बड़ी मात्रा में संसाधनों और तैयारी के लिए अधिक समय के साथ, इन देशों ने ऐसी आधारभूत स्वास्थ्य संरचना और क्लिनिकल सिस्टम तैयार किया है, जो कई विकासशील राष्ट्रों में अभी भी नहीं है. कुछ विकासशील देश अब ऑटोइम्यून देखभाल पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. ब्राज़ील की सिस्टेमा यूनिको डे सोद संस्था ऑटोइम्यून हेपेटाइटिस और लुपस के लिए मुफ्त दवाइयां प्रदान कर रही है. दक्षिण एशियाई देशों में, थाईलैंड में एक यूनिवर्सल कवरेज़ योजना है, जिसमें ऑटोइम्यून रोगों के लिए बायोलॉजिक उपचार के विकल्प भी शामिल हैं. दक्षिण अफ्रीका की एचआईवी प्रबंधन संरचना मज़बूत है, ठीक जैसी भारत की है. उन्होंने इसका इस्तेमाल ऑटोइम्यून और इम्युनोडेफिशिएंसी स्थितियों के सह-प्रबंधन के लिए किया है. भारत इन उदाहरणों से सीख लेकर मौजूदा स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों का लाभ उठाकर ऑटोइम्यून रोगों के इलाज तक इनका विस्तार कर सकता है. विशेषज्ञों तक बेहतर पहुंच, किफायती उपचार और डायग्नोसिस में मदद देने के ज़रिए ऐसा किया जा सकता है.
अगर एक समर्पित अनुसंधान निधि बनाई जाए, तो भारत ऑटोइम्यून रोगों की देखभाल की व्यवस्था को मज़बूत कर सकता है. इसके लिए ज़रूरी है कि बड़े पैमाने पर जीन–पर्यावरण समूह, माइक्रोबायोम अध्ययन, और बायोसिमिलर का वास्तविक-विश्व मूल्यांकन समर्थन किया जाए. इससे निपटने के लिए बनाई जाने वाली नीतियों में जैविक उपचार शुरू करने से पहले अनिवार्य लेटेंट क्षय रोग और हेपेटाइटिस स्क्रीनिंग प्रोटोकॉल शामिल करने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए. भारत के फार्माकोविजिलेंस प्रोग्राम (PvPI) को मज़बूत करना भी ज़रूरी है. ये कदम संयुक्त रूप से साक्ष्य निर्माण को तेज करेंगे, निदान में देरी को कम करेंगे, और उन्नत उपचार के प्रासंगिक विकास की दिशा में योगदान देंगे.
फ्रंट-ऑफ-पैकेज फूड लेबलिंग को अनिवार्य करना उपभोक्ताओं को स्वस्थ विकल्प चुनने में सक्षम बनाएगा. फ्रंट-ऑफ-पैकेज फूड लेबलिंग का अर्थ पैकेट में ही उसमें शामिल सभी तत्वों की जानकारी देने से है. सड़कों के किनारे और बीच में हरियाली वायु और ध्वनि प्रदूषण को कम करने में मदद कर सकती है. इसे इन चुनौतियों को प्रभावी ढंग से हल करने के लिए व्यवस्थित शहरी डिजाइन उपायों के साथ लागू करना चाहिए. उच्च-यातायात गलियारों और आवासीय या व्यावसायिक क्षेत्रों के बीच लागू होने योग्य हरित आवरण क्षेत्र बनाना चाहिए. इसके साथ ही, स्कूलों और अस्पतालों के पास कम उत्सर्जन वाले क्षेत्र, प्रदूषक के संपर्क को काफ़ी हद तक कम कर सकते हैं और ऑटोइम्यून ज़ोखिम को घटा सकते हैं. स्वच्छ बसों (इलेक्ट्रिक) के बेड़े का विस्तार करना, फुटपाथों पर छायादार हरित गलियारे बनाना, और यातायात-शांत करने वाले उपाय लागू करना शहरों में पैदल चलने की प्रवृति को बढ़ाकर लोगों को स्वस्थ बना सकता है.
चूंकि बच्चों में टाइम-I डायबिटीज बढ़ रहा है, इसलिए उच्च-ज़ोखिम वाले परिवारों के बच्चों की सामान्य जांच के अंतर्गत स्क्रीनिंग की जा सकती है. टेलीमेडिसिन के माध्यम से विशेषज्ञों तक पहुंच बढ़ाई जा सकती है. ये उन ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष रूप से सहायक हो सकता है, जहां जागरूकता और संबंधित उपचार की सुविधाएं कम हैं. वर्तमान में, ऑटोइम्यून उपचार के लिए चिकित्सीय प्रोटोकॉल मुख्य रूप से इम्यूनो संप्रेषण पर केंद्रित है. इससे आम तौर पर दीर्घकालिक उपचार नहीं होता. हाल के विकास सुझाव देते हैं कि प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को और प्रभावी बनाने के लिए CAR-T सेल थेरेपी को शामिल किया जाए.
हाल के विकास सुझाव देते हैं कि प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को और प्रभावी बनाने के लिए CAR-T सेल थेरेपी को शामिल किया जाए.
जैसे-जैसे भारत शहरीकरण की तरफ बढ़ रहा है, वैसे-वैसे ऑटोइम्यून रोग भी बढ़ रहे हैं. इसलिए इस पर काबू पाने की नीति को सिर्फ उपचार तक सीमित ना रहकर रोकथाम, समय पर पहचान और साक्ष्य-आधारित देखभाल की ओर बढ़ना चाहिए. जीन–पर्यावरण समूहों, माइक्रोबायोम अनुसंधान और बायोसिमिलर मूल्यांकन के लिए समर्पित फंड बनाने से इनमें मदद मिलेगी. अनिवार्य स्क्रीनिंग प्रोटोकॉल और मज़बूत दवा-निगरानी भी ज़रूरी है. शहरों में रहने वालों के स्वास्थ्य को फ्रंट-ऑफ-पैकेज फूड लेबलिंग, हरित क्षेत्र, स्वच्छ परिवहन और पैदल चलने योग्य फुटपाथ डिज़ाइन करने सुरक्षित किया जा सकता है. उच्च-ज़ोखिम वाले बच्चों की शुरुआती स्क्रीनिंग, टेलीमेडिसिन की पहुंच का विस्तार, और बायोमार्कर-आधारित उपचार प्रोटोकॉल देरी को कम कर सकते हैं. इन सभी उपायों को एक साथ करने से भारत भी समान और सतत ऑटोइम्यून देखभाल के लिए एक व्यापक उदाहरण पेश कर सकता है.
निहार कुलकर्णी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन की स्वास्थ्य पहल में इंटर्न हैं.
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Nihar Kulkarni is an Intern with the Health Initiative at the Observer Research Foundation. ...
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