श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह पर लंगर डालने वाले चीन के दोहरे उद्देश्य वाले नौसैनिक जहाज युआन वांग 5 को लेकर उठाए गए भारत के संदेह की बीजिंग द्वारा ‘बेमतलब’ आलोचना के पीछे जो कुछ दिखाई दे रहा है, सच्चाई उससे बहुत अलग है. यह देखते हुए कि अमेरिका की अगुवाई वाले पश्चिमी देश चीन से उतने ही घबराए हुए हैं, जितना कि वे यूक्रेन युद्ध के बाद रूस को लेकर डरे हुए हैं, इस मुद्दे को लेकर चिंताएं जितनी आर्थिक हैं, उतनी ही रणनीतिक भी हैं.
जुलाई के महीने में कोच्चि में हुई बैठक में साइबर सुरक्षा सहयोग की प्रतिबद्धता की बात जिस ज़ोरदार तरीके से दोहराई गई थी, वह चीनी जहाज युआन वांग 5 पर लागू होनी चाहिए.
शुरुआती दौर में श्रीलंका को कोलंबो सिक्योरिटी कॉन्क्लेव (सीएससी) के मेज़बान सदस्य के रूप में पड़ोस के हिंद महासागर में कॉपरेटिव समुद्री सुरक्षा के लिए अपनी प्रतिबद्धता को लेकर पहले की तुलना में और अधिक चौकन्ना रहना होगा. क्योंकि अब इस मुद्दे पर भारत जैसे बड़े पड़ोसी देश की ही नहीं, बल्कि सभी सदस्य देशों की चिंताएं भी शामिल हैं. ऐसा इसलिए, क्योंकि सीएससी के पास अभी तक पारंपरिक सुरक्षा मुद्दों को लेकर कोई ख़ास अधिकार नहीं है. हालांकि, जुलाई के महीने में कोच्चि में हुई बैठक में साइबर सुरक्षा सहयोग की प्रतिबद्धता की बात जिस ज़ोरदार तरीके से दोहराई गई थी, वह चीनी जहाज युआन वांग 5 पर लागू होनी चाहिए.
8 जुलाई, 2022 को कोच्चि में हुई बैठक में भारत ने भी दोहराया कि साइबर सुरक्षा, तस्करी, संगठित अपराध, आतंकवाद और समुद्री रक्षा एवं सुरक्षा पर क्षेत्रीय सहयोग के लिए सीएससी ‘प्रमुख केंद्र’ बना हुआ है. व्यापक तौर पर कहा जाए, तो ‘समुद्री रक्षा और सुरक्षा’ के विषय में भारत की वर्तमान चिंताओं और इसी प्रकार अन्य सदस्य देशों की भविष्य की अपेक्षाओं और मांगों को शामिल किया जाना चाहिए.
सीएससी, आपसी मसलों का समाधान खोजने के लिए भारत-मालदीव का प्रयास है, जिसकी हर दो वर्ष में बैठक होती है. श्रीलंका में दशकों से चल रहे आतंकवाद विरोधी लिट्टे युद्ध की समाप्ति के बाद, उसे वर्ष 2012 में इसमें शामिल किया गया था. सीएससी को वर्ष 2020 में फिर से नाम दिया गया और इसका विस्तार किया गया. आतंकवाद विरोधी सहयोग सीएससी के अधिकारों में से एक है. सीएससी में मॉरीशस अब चौथा सदस्य देश है, जबकि बांग्लादेश एवं सेशेल्स ‘पर्यवेक्षक’ के रूप में शामिल हैं.
हालांकि, ढाका या किसी और सीएससी सदस्य देश ने भारत की तरह युआन वांग 5 को लेकर चिंता नहीं जताई है. चीन निर्मित पाकिस्तानी युद्धपोत पीएनएस तैमूर के शंघाई से अपने घरेलू नौसैनिक अड्डे की पहली यात्रा के दौरान पोर्ट-ऑफ-कॉल सुविधा देने से बांग्लादेश ने मना कर दिया है. ढाका ने इसके लिए प्रधानमंत्री शेख हसीना के पिता बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान की पुण्यतिथि का हवाला दिया है, जिनकी 15 अगस्त, 1975 को पाकिस्तान समर्थकों द्वारा हत्या कर दी गई थी. इसके साथ ही बांग्लादेश ने यह भी कहा कि अगर वो ऐसे समय में पाकिस्तानी नौसैनिक युद्धपोत को ठहरने की अनुमति देता है, तो यह क़दम देशवासियों की भावनाओं को भड़का सकता है.
इसके अतिरिक्त, सितंबर में शेख हसीना की नई दिल्ली यात्रा से पहले बांग्लादेश के अधिकारियों द्वारा भारत की उचित चिंताओं के बारे में विमर्श किया जा सकता है. हालांकि इसके विपरीत, श्रीलंका ने पीएनएस तैमूर को कोलंबो पोर्ट पर लंगर डालने की अनुमति दे दी है. इसने भी भारतीय सामरिक समुदाय से जुड़े लोगों की नाराज़गी बढ़ा दी है.
रक्षा की ज़िम्मेदारी
वैसे भी ऐतिहासिक रूप से भारत-श्रीलंका रणनीतिक संबंध आपसी संदेह के साथ आगे बढ़े हैं, हालांकि दोनों में कोई दुश्मनी जैसी बात नहीं है. तमिलनाडु के चोल शासकों, जिन्होंने कथित तौर पर एक हज़ार साल पहले उनके महलों और बौद्ध विहारों को तोड़ दिया था, को श्रीलंका द्वारा मुख्य रूप से लुटेरों के रूप में वर्णित किया गया. इसके अलावा श्रीलंका को यह भी डर सताता है कि बांग्लादेश युद्ध के बाद, भारत एक ‘अलग तमिल देश’ बनाने की कोशिश करेगा. तमिल विरोधी ‘पोग्रोम -83’, जिसमें हज़ारों की संख्या में तमिल मारे गए और दसियों हज़ार तमिलों को तमिलनाडु में शरण लेने के लिए अपनी जान ज़ोख़िम में डालनी पड़ी थी, उसके बाद जिस तरह से नई दिल्ली द्वारा तमिल युवा समूहों को वित्तीय मदद, प्रशिक्षण और हथियार उपलब्ध कराए गए, उसने भी श्रीलंका के इस डर को बढ़ाने का काम किया.
बांग्लादेश के निर्माण के एक दशक पहले ही भारत को जो अनुभव हुआ, उसने यह स्पष्ट तौर पर दिखाया कि जातीय उत्पीड़िन से पीड़ित शरणार्थियों को उनके क्षेत्रों के निकट समायोजित करने के काफ़ी जनसांख्यिकीय परिणाम सामने आए. एक दशक पहले बाल्कान्स और रवांडा में अत्याचारों एवं उत्पीड़न से पीड़ित, वहां के नागरिकों को उनके देश में ही वापस भेजने के लिए मज़बूर करने के बजाए, ख़ुद को बचाने और अधिकार संपन्न बनाने के लिए भारत द्वारा ‘रिस्पॉन्सिबिलिटी टू प्रोटेक्ट’ (R2P) सिद्धांत का आह्वान किया गया था, जिसे संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2005 में अपनाने का इंतजार किया था.
तमिल विरोधी ‘पोग्रोम -83’, जिसमें हज़ारों की संख्या में तमिल मारे गए और दसियों हज़ार तमिलों को तमिलनाडु में शरण लेने के लिए अपनी जान ज़ोख़िम में डालनी पड़ी थी, उसके बाद जिस तरह से नई दिल्ली द्वारा तमिल युवा समूहों को वित्तीय मदद, प्रशिक्षण और हथियार उपलब्ध कराए गए, उसने भी श्रीलंका के इस डर को बढ़ाने का काम किया.
श्रीलंकाई लोगों की धुंधली यादें उस वक़्त साफ़ हो जाएंगी, जब वे तमिल इलाक़ों में शांति स्थापित करने के लिए वर्ष 1987 के भारत-श्रीलंका समझौते के तहत राष्ट्रपति जे आर जयवर्धने के आग्रह पर भारतीय शांति-रक्षक बल (आईपीकेएफ) को भेजने की घटना को याद करेंगे. हालांकि, इसके बजाए आईपीकेएफ ने लिट्टे से युद्ध ख़त्म कर दिया, जो ज़मीनी स्तर पर भारत की बदलती प्राथमिकताओं को प्रदर्शित करता है. एक तरह से आईपीकेएफ लिट्टे के विरुद्ध अपनी लड़ाई लड़ने वाले श्रीलंका की रक्षा कर रहा था. इस मामले में, आईपीकेएफ और भारत को सिंहलों (प्रवेश के लिए) और तमिलों (कथित ज्यादतियों के लिए) दोनों के ही विरोध और गुस्से का सामना करना पड़ा.
निर्णय किसने लिया?
पूर्व की इन घटनाओं को दरकिनार कर चीन के युआन वांग 5 को हंबनटोटा में लंगर डालने की अनुमति देने का श्रीलंका का निर्णय, कथित तौर पर गंभीर सवाल पैदा करता है. भारत चाहता है कि श्रीलंका जहाज़ की यात्रा के ‘वास्तविक उद्देश्य‘ का पता लगाए यानी कि इसके मकसद के साक्ष्य जुटाए और पेश करे. चीन ने भारत का नाम लिए बिना इसको लेकर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया ज़ाहिर की है.
चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि बीजिंग ने इन ख़बरों का संज्ञान लिया है और ज़ोर देकर कहा कि “चीन और श्रीलंका के बीच सहयोग, दोनों देशों द्वारा अपनी मर्ज़ी से चुना गया है और यह दोनों के समान हितों के अनुकूल है. यह संबंध किसी तीसरे देश को निशाना नहीं बनाता है.” भारत का नाम लिए बगैर उन्होंने कहा कि सुरक्षा चिंताओं का हवाला देकर “श्रीलंका पर दबाव बनाना अनुचित” है. उन्होंने आगे कहा, “श्रीलंका एक स्वायत्त राष्ट्र है. वह अपने स्वयं के विकास हितों के मद्देनज़र दूसरे देशों के साथ अपने संबंधों को आगे बढ़ा सकता है,” उन्होंने ये भी कहा, “चीन और श्रीलंका के बीच सहयोग दोनों देशों द्वारा स्वतंत्र रूप से चुना गया है और साझा हितों को पूरा करता है.”
श्रीलंका के साथ भारत और चीन के त्रिकोणीय संबंधों से इनकार नहीं किया जा सकता है. कहा जा सकता है कि हाल के दशकों में यह देखा गया है कि श्रीलंका ना चाहते हुए भी भारत और चीन के बीच विवाद का केंद्र बिंदु बन जाता है. पहले यह स्थिति भारत-पाकिस्तान को लेकर थी, जिसे कोलंबो को संभालना मुश्किल था. हालांकि, इस मामले में विक्रमसिंघे सरकार के लिए ख़ुद को तर्कसंगत ठहराने के पर्याप्त कारण हो सकते हैं कि वह चीन से जहाज की यात्रा को ‘रोकने’ के लिए कहें, फिर चाहे वो इसके लिए तैयार हो या ना हो. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़, श्रीलंका ने 12 जुलाई, 2022 को इसकी अनुमति दी थी, जब राष्ट्रपति पद खाली था. हालांकि, तकनीकी तौर पर गोटाबाया राजपक्षे 9 जुलाई को देश छोड़कर भाग जाने के बाद भी उस पद पर बने रहे, लेकिन उन्होंने तब तक पद नहीं छोड़ा था.
भारत चाहता है कि श्रीलंका जहाज़ की यात्रा के ‘वास्तविक उद्देश्य’ का पता लगाए यानी कि इसके मकसद के साक्ष्य जुटाए और पेश करे. चीन ने भारत का नाम लिए बिना इसको लेकर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया ज़ाहिर की है.
ऐसे में सवाल यह उठता है कि फिर किसने श्रीलंका के लिए निर्णय लिया ? क्या तत्कालीन प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे को इसके बारे में पता था? आख़िरकार, राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे के भाग जाने के बाद, उन्होंने कैबिनेट की मंज़ूरी के बगैर विशेष रूप से कानून और व्यवस्था के मोर्चे पर कुछ निर्णय लेने शुरू कर दिए थे.
रणनीतिक सहयोग
श्रीलंका के लोगों का मानना है कि ऐसी स्थितियों, जिसमें एक ऐसा तीसरा देश भी शामिल है और जो कि भारत के अनुकूल नहीं है, उसको लेकर नई दिल्ली द्वारा अक्सर तीखी प्रतिक्रिया जताई जाती रही है. श्रीलंकाई रणनीतिक समुदाय से जुड़े कई लोग यह भी मानते हैं कि हिंद महासागर में और ज़मीन पर जहां तक भारत की सीमाएं हैं, वहां तक वह चीन से सैन्य तौर पर मुक़ाबला कर सकता है. भारतीय सुरक्षा से जुड़े दिग्गज विशेषज्ञ भी इस विचार से पूरी तरह से सहमत हैं.
फिर भी, श्रीलंका के रणनीतिक चिंतक भी यह नहीं चाहते हैं कि कोई तीसरा राष्ट्र, वास्तविकता में या रणनीतिक तौर पर उनके जल क्षेत्र के आसपास लड़ रहा हो. इसलिए, वे सीएससी जैसे साधनों का समर्थन करते हैं, जिसका उद्देश्य पड़ोसी हिंद महासागर देशों को ‘अतिरिक्त-क्षेत्रीय’ शक्तियों से सुरक्षा की भावना प्रदान करना है. यह भारत की कथित ‘तीखी-प्रतिक्रिया’ के बारे में उनके अपने तर्क को काट सकता हैं. भारत ने वर्षों पूर्व पहली बार उस समय बीजिंग को अपने इन इरादों के बारे में बता दिया था, जब वर्ष 2014 में दो चीनी पनडुब्बियां एक के बाद एक कोलंबो बंदरगाह पर पहुंची थीं. हालांकि, 2017 में इसी प्रकार तीसरी चीनी पनडुब्बी को श्रीलंका में आने की अनुमति नहीं देने का श्रेय तत्कालीन प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे को भी दिया जाता है. उस समय इस इनकार से श्रीलंका के चीन के साथ संबंधों पर कोई असर नहीं पड़ा.
जहां तक सीएससी की बात है, तो परस्पर सुरक्षा की ऐसी प्रतिबद्धता और एक-दूसरे की सुरक्षा चिंताओं का सम्मान करना विश्वसनीयता के एक पासवर्ड की भांति है. इसलिए सीएससी लंबे समय तक व्यवस्था बनाए रखने और उसकी मज़बूती के लिए ज़रूरी है, लेकिन अभी यह बहुत धीमी गति से काम कर रहा है. हालांकि वर्तमान में विशेष रूप से इसका अधिक उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन भारत के साथ द्विपक्षीय रक्षा सहयोग समझौते के लिए श्रीलंका के सुझाव के साथ सीएससी अपने गठन की सार्थकता सिद्ध कर सकता है. सीएससी को मसौदा तैयार करने और उसके कार्यान्वयन में अब अलग-अलग राय-विचार और अभिव्यक्तियों के खोजने की अंतर्निहित भावना को जारी रखना होगा. इसके साथ ही सीएससी को एक बेहतर रक्षा सहयोग समझौते को ‘आपसी चिंताओं के लिए सम्मान’ प्रदान करना होगा ना कि कुछ विशेष सदस्य देशों की एकतरफा चिंताओं को.
श्रीलंका के रणनीतिक चिंतक भी यह नहीं चाहते हैं कि कोई तीसरा राष्ट्र, वास्तविकता में या रणनीतिक तौर पर उनके जल क्षेत्र के आसपास लड़ रहा हो. इसलिए, वे सीएससी जैसे साधनों का समर्थन करते हैं, जिसका उद्देश्य पड़ोसी हिंद महासागर देशों को ‘अतिरिक्त-क्षेत्रीय’ शक्तियों से सुरक्षा की भावना प्रदान करना है.
ऐसा होने पर ही सीएससी भारत पर एक समान या कम से कम न्यायसंगत दबाब डाल सकता है. यहां विस्तारित होने पर भी सीएससी की एक सामूहिक स्वीकृति हो सकती है. ज़ाहिर है कि अपने आकार के बावज़ूद भारत को अपनी सीमाओं के साथ दो अहम और ऐतिहासिक विरोधियों से निपटने के लिए एक विशिष्ट और अवांछनीय स्थिति में रखा गया है. इन विरोधियों के पास व्यापक समुद्री क्षमताएं भी हैं और उनमें से एक के पास एकमात्र महाशक्ति अमेरिका की वर्तमान और भविष्य की क्षमताओं से बराबरी करने वाली बड़ी समुद्री/नौसेना महत्वाकांक्षाएं हैं.
भारत अगर चीन को लेकर चिंतित है, तो उदाहरण के लिए उस स्थिति में क्या होगा अगर श्रीलंका को अमेरिका के साथ समस्या हो, जिसकी सेना दशकों से डिएगो गार्सिया में साझा हिंद महासागर के पड़ोस में मौजूद है? कुछ परिस्थितियों में कोलंबो भी यह चाहता है कि नई दिल्ली श्रीलंका और यहां तक कि सीएससी को भी किसी तीसरे राष्ट्र के साथ भारत के रक्षा और सैन्य सहयोग समझौतों में विश्वास में रखे.
भारत अगर चीन को लेकर चिंतित है, तो उदाहरण के लिए उस स्थिति में क्या होगा अगर श्रीलंका को अमेरिका के साथ समस्या हो, जिसकी सेना दशकों से डिएगो गार्सिया में साझा हिंद महासागर के पड़ोस में मौजूद है?
नहीं तो, कथित तौर पर सैकड़ों किलोमीटर तक उपग्रह ट्रैकिंग की सुविधा से लैस चीनी जासूसी जहाज युआन वांग 5 को भारत की सामरिक ठिकानों की जानकारी एकत्र करने के लिए हंबनटोटा बंदरगाह या कहीं और लंगर डालने की आवश्यकता नहीं हो सकती है. हालांकि, अगर यह चीनी नौसैनिक जहाजों के लिए हंबनटोटा पोर्ट तक पहुंच का दावा करना बीजिंग की एक युक्ति थी और आगे एक से अधिक चीनी नौसैनिक जहाज एक ही समय में या आगे-पीछे कुछ अंतराल पर वहां पहुंच सकते हैं, तो यह पूरी तरह से एक अलग कहानी होगी. यह भी संभावना जताई जा रही है कि चीन इसके माध्यम से श्रीलंका और पूरी दुनिया को यह याद दिलाना चाहता कि हंबनटोटा बंदरगाह पर उसका कब्ज़ा है और इस वजह से उसके नौसैनिक जहाजों की वहां बेरोकटोक पहुंच होनी चाहिए. इससे पहले कि चीन द्वारा यह बार-बार किया जाए और उसके गंभीर परिणाम सामने आएं, हो सकता है कि इसी वजह से भारत ने इसको लेकर अपनी तीखी प्रतिक्रिया और चिंता ज़ाहिर की है.
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