Published on Oct 14, 2021 Updated 0 Hours ago

अगर चीन में बिजली संकट बना रहा तो उसकी ग्रीन पॉलिसी खतरे में पड़ सकती है

चीन का बिजली संकटः क्या शी का ‘ग्रीन प्लान’ ठंडे बस्ते में जाएगा?

चीन में इधर बिजली की खपत पर कई पाबंदियां लगाई गईं, जिससे मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का कामकाज बाधित हो गया और टेक्नोलॉजी सप्लाई चेन के प्रभावित होने की आशंका बन आई. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) के रीयल एस्टेट सेक्टर पर लगाम लगाने की कोशिशों के साथ बिजली संकट का देश की आर्थिक विकास दर पर बुरा असर पड़ सकता है. इससे वैश्विक स्तर पर क्लाइमेट गवर्नेंस को लेकर चीन अपने लिए जो महत्वाकांक्षी भूमिका देख रहा है, उसके पूरा होने पर भी सवालिया निशान लग सकता है. 

आमतौर पर सर्दियों में बीजिंग में तापमान माइनस 6 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है. तब घरों को गर्म रखने के लिए बिजली की मांग बढ़ती है. अभी जो स्थिति है, उसे देखकर सर्दियों तक बिजली संकट चलने की अटकलें लगाई जा रही हैं. 

चीन के 20 प्रांतों के अलावा बीजिंग और शंघाई (इनमें क्रमशः 2.2 करोड़ और 2.6 करोड़ लोग रहते हैं) को भी बिजली कटौती का सामना करना पड़ा है. आमतौर पर सर्दियों में बीजिंग में तापमान माइनस 6 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है. तब घरों को गर्म रखने के लिए बिजली की मांग बढ़ती है. अभी जो स्थिति है, उसे देखकर सर्दियों तक बिजली संकट चलने की अटकलें लगाई जा रही हैं.  चीन की यह समस्या कोयले की कीमत में लगातार बढ़ोतरी के कारण भी बढ़ी है. 20 सितंबर के करीब कोयले की कीमत 50 डॉलर प्रति टन चल रही थी, लेकिन पिछले महीने यह उछलकर $177.5 तक जा पहुंची, जो पिछले 10 साल में कोयले की सर्वाधिक कीमत है.

भू-राजनीतिक टकराव का भी कोयले के आयात पर असर हुआ है. चीन हर साल 3 अरब टन के थर्मल कोयले का इस्तेमाल करता है. इसमें से करीब 2 प्रतिशत कोयला उसे ऑस्ट्रेलिया से मिलता है. ऑस्ट्रेलिया एक तो चीन को वाजिब कीमत पर इसकी सप्लाई करता था, दूसरे वहां से आने वाले कोयले की गुणवत्ता भी अच्छी थी. हालांकि, जब ऑस्ट्रेलिया ने कोरोना वायरस की उत्पति की अंतरराष्ट्रीय जांच की मांग की तो चीन की सरकार ने वहां से कोयले के आयात पर रोक लगा दी. 

ट्रंप सरकार के दौरान अमेरिका जब पेरिस समझौते से बाहर निकल गया था, तो उसके असर से चीन भी अनजान नहीं था. वह इसकी अहमियत बखूबी समझता था. ट्रंप सरकार के पीछे हटने के बाद चीन ने खुद को जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण कम करने की जंग में एक ज़िम्मेदार देश के रूप में पेश किया. 

आमतौर पर बिजली का उत्पादन करने वाली कंपनियां सर्दियों का सीजन शुरू होने से पहले सितंबर में कोयले का स्टॉक जमा कर लेती हैं. हालांकि, सिनोलिंक सिक्योरिटीज़ के मुताबिक, इस साल सितंबर में 6 बड़े बिजली उत्पादक समूहों के पास इतना ही कोयला था, जिससे 15 दिनों की जरूरत पूरी हो पाती. इधर जब कोयले की कीमत बढ़ी है तो कंपनियां बिजली की मांग पूरी करने के लिए पर्याप्त उत्पादन करने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहीं. उसकी वजह यह है कि उन्हें तय कीमत पर बिजली बेचनी पड़ती है. इसलिए महंगा कोयला खरीदकर बिजली बेचने से उनकी लागत नहीं निकलेगी. चीन में आधी से अधिक बिजली कोयले से बनती है और कोयला ही जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण है. 

सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाला देश

दुनिया में हर साल जितना कार्बन डायॉक्साइड निकलता है, उसमें कोयले का योगदान 46 प्रतिशत होता है. इसके साथ, यह जानना भी जरूरी है कि कुल ग्रीन हाउस गैसों के इमिशन में बिजली क्षेत्र का योगदान 70 प्रतिशत है. दुनिया में जो देश सबसे अधिक प्रदूषण फैलाते हैं, उनमें चीन 27 प्रतिशत के साथ शीर्ष पर है. 2015 में ग्रीन हाउस गैसों का इमिशन घटाने के लिए 2015 में पेरिस समझौता हुआ. यह इस लिहाज से एक ऐतिहासिक अंतरराष्ट्रीय करार था. इसके मुताबिक, चीन ने वादा किया था कि 2030 के करीब वह कार्बन उत्सर्जन के मामले में अपना शिखर छू चुका होगा. उसने यह भी कहा था कि तब तक वह ऊर्जा की प्राथमिक खपत में ऐसे स्रोतों का इस्तेमाल 20 प्रतिशत तक ले जाएगा, जो प्रदूषण नहीं फैलाते हैं.

प्रदूषण के मामले में देशों की स्थिति

रैंक देश ग्लोबल इमिशंस (% in ’17)
1 चीन 27.2 %
2 अमेरिका 14.6%
3 भारत 6.8%
4 रूस 4.7%
5 जापान 3.3%

स्रोत: वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम


जलवायु परिवर्तन पर सिर्फ़ बढ़ते इमिशन का ही असर नहीं पड़ रहा है, इसे दुनिया की बंटी हुई राजनीति भी प्रभावित कर रही है. पेरिस समझौते को अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की उपलब्धि के तौर पर देखा जाता है, लेकिन उनके उत्तराधिकारी का रुख़ इसे लेकर सकारात्मक नहीं रहा. अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के कुछ ही समय बाद डॉनल्ड ट्रंप ने 2017 में अपने यहां कोयला खनन पर लगी रोक हटा ली. इसके बाद उन्होंने ऐलान किया कि अमेरिका पेरिस समझौते से पीछे हट रहा है. ट्रंप ने कहा कि इस समझौते के तहत चीन और भारत को कार्बन उत्सर्जन जारी रखने की इजाजत दी जा रही है, जबकि अमेरिका को इससे रोका जा रहा है. ट्रंप के मुताबिक, यह न्यायसंगत नहीं था. यह संयोग ही है कि अमेरिका ने इस समझौते से पीछे हटने का ऐलान उस वक्त किया, जब वहां विवादास्पद 2020 राष्ट्रपति चुनावों के दौरान वोटों की गिनती चल रही थी. इस चुनाव में ट्रंप हार गए. ट्रंप के बाद जो बाइडेन अमेरिका के राष्ट्रपति बने, जिनकी शीर्ष प्राथमिकताओं में क्लाइमेट गवर्नेंस भी शामिल है. फरवरी में 
अमेरिका फिर से पेरिस समझौते से जुड़ा. उसने पूर्व विदेश सचिव जॉन केरी को जलवायु परिवर्तन पर अपना विशेष प्रतिनिधि नियुक्त किया. इससे पता चलता है कि नई अमेरिकी सरकार इस मुद्दे को लेकर कितना गंभीर है. असल में, अमेरिका फिर से जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वॉर्मिंग से जंग में वैश्विक स्तर पर अगुआ की भूमिका निभाना चाहता है. स्रोत: वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम

ट्रंप सरकार के दौरान अमेरिका जब पेरिस समझौते से बाहर निकल गया था, तो उसके असर से चीन भी अनजान नहीं था. वह इसकी अहमियत बखूबी समझता था. ट्रंप सरकार के पीछे हटने के बाद चीन ने खुद को जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण कम करने की जंग में एक ज़िम्मेदार देश के रूप में पेश किया. इसीलिए सितंबर 2020 बायोडायवर्सिटी पर संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन के दौरान शी चिनफिंग ने चीन के ‘ग्रीन’ प्लान का ऐलान किया, जिसमें यह कहा गया था कि उनका देश 2060 तक कार्बन न्यूट्रल बन जाएगा. 

पेरिस समझौते से फिर से जुड़ने के बाद बाइडेन ने अप्रैल में उन देशों की वर्चुअल मीटिंग बुलाई, जिनकी वैश्विक उत्सर्जन में 80 प्रतिशत भागीदारी थी. उन्होंने उन देशों से कार्बन इमिशन में कमी लाने का वादा करने की अपील की. तब चीन की सरकारी मीडिया ने बाइडेन के इस कदम को जलवायु परिवर्तन पर चुनिंदा देशों की पहल बताया. उसने लिखा कि यह कोशिश अमेरिका को केंद्र में रखकर हो रही है, जिससे अंतरराष्ट्रीय मामलों को लेकर उसके नेतृत्व को बढ़ावा मिले. खैर, इसी बीच चीन ने केरी को पर्यावरण मुद्दों पर चर्चा के लिए भी बुलाया. उसी वक्त उसने क्षतिग्रस्त फुकुशिमा न्यूक्लियर प्लांट से रेडियोएक्टिव वॉटर प्रशांत महासागर में छोड़ने की जापान की योजना का विरोध किया. उसने इस मामले में जापान का साथ देने के लिए अमेरिका की भी आलोचना की. यह भी कहा कि अमेरिका पर्यावरण संरक्षण को लेकर दोहरे मानदंड अपना रहा है. इस मुद्दे के जरिये चीन ने यह दिखाया कि इंटरनेशनल क्लाइमेट गवर्नेंस की पहल का वह नेतृत्व करने की मंशा रखता है. उसका इरादा इस मामले में अमेरिका का पिछलग्गू बनने का नहीं है. 

चीन के राष्ट्रपति भले यह सब दिखावे के लिए कर रहे हों, लेकिन इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि उनके देश के सामने कड़ी चुनौतियां हैं. 

चीन की सामने कड़ी चुनौती

अमेरिका के जलवायु परिवर्तन को लेकर फिर से सक्रिय होने के साथ चीन ने भी इसे लेकर ज़ोर लगाना शुरू कर दिया. इस पर चीन के राष्ट्रपति शी का फोकस था, इसलिए नेशनल एनर्जी एडमिनिस्ट्रेशन (एनईए) ने 2021 में कुल ऊर्जा खपत में कोयले का योगदान घटाकर 56 प्रतिशत तक लाने की बात कही. यह 2030 तक कार्बन डायॉक्साइड इमिशन के पीक के चीन के लक्ष्य के भी मुताबिक था. चीन में इसके लिए अप्रैल में जो दिशानिर्देश जारी किए गए, उसमें देश के कुल बिजली उत्पादन में पवन और सौर ऊर्जा की भागीदारी बढ़ाकर करीब 11 प्रतिशत करने की बात कही गई थी. शी इसके लिए ई-व्हीकल्स यानी इलेक्ट्रिक गाड़ियों पर जोर लगा रहे थे, लेकिन बिजली की कमी के कारण चीन के कुछ इलाकों में ऐसी नई गाड़ियों के लिए चार्जिंग स्टेशंस का काम बाधित हुआ है. इन वजहों से कुछ लोग शायद नई इलेक्ट्रिक गाड़ियां खरीदने में दिलचस्पी ना दिखाएं. 

बिजली कटौती और कच्चे माल की लागत बढ़ने से सितंबर में चीन में फैक्ट्री आउटपुट पर बुरा असर पड़ा है. बिजनेस गतिविधियों का हाल बताने वाला मैन्युफैक्चरिंग परचेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स सितंबर में गिरकर 49.6 पर आ गया, जबकि अगस्त में यह 50.1 पर था. देश में जब ये घटनाक्रम चल रहे थे, तब शी ने शान्ची में एक ‘ग्रीन’ इंडस्ट्रियल यूनिट का दौरा किया, जो मेथनॉल से लेकर पॉलिओल्फिन्स बनाने में कोयले का इस्तेमाल करती है, वह भी बिना बहुत वेस्ट वॉटर डिस्चार्ज किए हुए. यहां दिए गए संबोधन में शी ने पर्यावरण संरक्षण पर ज़ोर दिया. चीन के राष्ट्रपति भले यह सब दिखावे के लिए कर रहे हों, लेकिन इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि उनके देश के सामने कड़ी चुनौतियां हैं. पहली बात तो यह है कि अगर वह बिजली की दरों में बढ़ोतरी की इजाजत देते हैं तो इससे वहां की इकाइयों की लागत बढ़ सकती है. इसका असर चीन से माल खरीदने वालों पर भी पड़ेगा. इससे दूसरे देशों में बने सामान से अंतरराष्ट्रीय बाजार में चीन की कंपनियों को मुकाबला करने में मुश्किल पेश आ सकती है. दूसरी, अगर चीन ऑस्ट्रेलिया कोयले से आयात की पाबंदी हटाता है तो 2022 में होने वाली नेशनल कांग्रेस से पहले शी के लिए यह शर्मिंदगी की बात होगी. क्लीन एनर्जी की राह पर आगे बढ़ना चीन के लिए आसान नहीं है. ऐसे में हो सकता है कि शी अपनी ग्रीन पॉलिसी को ठंडे बस्ते में डाल दें. 

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