15 नवंबर 2022 को यूएस-चीन आर्थिक और सुरक्षा समीक्षा आयोग की वार्षिक रिपोर्ट जारी की गई. रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्षों में से एक यह था कि ‘हिंद महासागर क्षेत्र में अपने हितों को सुरक्षित करने के चीन के प्रयासों में भारत के पास एक रणनीतिक रूप से स्थित द्वीप श्रीलंका में महत्वपूर्ण विकास वित्तपोषण शामिल है’. इसी रिपोर्ट में आगे यह आकलन किया गया है कि ‘श्रीलंका में 2022 के दौरान जो उथल-पुथल मची है, उसमें चीनी ऋण स्वीकार करने की वजह से बहुत ज्यादा वृद्धि हुई है’. इस रिपोर्ट ने श्रीलंका के संकट में चीन के अंनिर्हित कारक होने को लेकर सटीक और उपयुक्त विश्लेषण किया है. लेकिन यह रिपोर्ट उस रणनीतिक खतरे का कोई उल्लेख नहीं करती है जो श्रीलंका के सामने खड़ा है. रिपोर्ट में कहा गया है कि इन प्रयासों के बावजूद, ‘अभी तक चीन अपने आर्थिक संबंधों का राजनीतिक या सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण रूप से लाभ उठाने में सफल नहीं हुआ है’. श्रीलंका में अपने भू-राजनीतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए चीन पहले ही अपने भू-अर्थशास्त्र संबंधी टूलकिट का उपयोग कर चुका है. इस टूलकिट का उपयोग करते हुए चीन ने ऐसा रणनीतिक भूमि अधिग्रहण किया है, जो आसानी से एक नागरिक-सैन्य अभियान में बदल सकता है. इसके अलावा श्रीलंका के राजनीतिक दलों में भी चीन ने अपना अच्छा खासा घरेलू प्रभाव बनाने में सफलता हासिल कर ली है. श्रीलंका में चीन ने जो हंबनटोटा बंदरगाह 99 वर्षो की लीज पर ले रखा है, उस पर हाल ही में चीन के जासूसी जहाज की मौजूदगी को इस बात का पुख्ता सबूत समझा जा सकता है कि किस प्रकार चीन अपने आर्थिक दबदबे का उपयोग सुरक्षा संबंधी उद्देश्य को हासिल करने और स्थानीय राजनेताओं का समर्थन हासिल करने में करता है.
‘अभी तक चीन अपने आर्थिक संबंधों का राजनीतिक या सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण रूप से लाभ उठाने में सफल नहीं हुआ है’. श्रीलंका में अपने भू-राजनीतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए चीन पहले ही अपने भू-अर्थशास्त्र संबंधी टूलकिट का उपयोग कर चुका है.
इस साल जुलाई में लोगों के विद्रोह के बाद से ही श्रीलंका पावडर केग अर्थात बारूद का ढेर बना हुआ है. ऋण पुनर्गठन में चीन की ओर से देरी लगाए जाने की वजह से हालात और भी खराब हुए हैं. ऋण पुनर्गठन को लेकर भारत और जापान ने चीन के भी इसमें शामिल होने की प्रतीक्षा करते हुए पहले ही कोलंबो के साथ बातचीत शुरू कर दी है. श्रीलंका के राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे के अनुसार, उन्हें उम्मीद है कि दिसंबर तक चीन से कुछ समझौता हो जाएगा. लेकिन दिसंबर तक ऐसा संभव होने की उम्मीद समाप्त होती जा रही है. इसका कारण यह है कि नवंबर के मध्य तक श्रीलंका के द्विपक्षीय और वाणिज्यिक ऋण पुनर्गठन के उन तौर-तरीकों पर कोई निर्णय नहीं लिया गया था, जिन्हें दिसंबर तक अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के बोर्ड के समक्ष भेजा जाना था. इस संबंध में चीन की प्रतिबद्धता, केवल बयानबाजी ही रही है. चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता माओ निंग ने कहा था कि, ‘हम श्रीलंका के कर्ज के बोझ को कम करने और दीर्घकालीन विकास को साकार करने में रचनात्मक भूमिका निभाने के लिए संबंधित देशों और वित्तीय संस्थानों के साथ काम करने को तैयार हैं’. हालांकि, ऐसा करने में चीन की ओर से लगाई जा रही देरी के कारण श्रीलंका की बीमार अर्थव्यवस्था पर बोझ पड़ेगा और इस वजह से पैदा होने वाली आर्थिक कठिनाई के कारण एक और सार्वजनिक विद्रोह शुरू हो सकता है.
वैश्विक दक्षिण में चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) का स्वागत करने वाले अनेक देशों के लिए श्रीलंका का संकट आंख खोलने का काम कर सकता है. बीआरआई को दो मूलभूत झटके लगे हैं: इसने चीनी ऋण के प्रबंधन में वित्तीय चुनौतियों को जन्म दिया है; जबकि दूसरा यह कि यह एक महत्वपूर्ण पर्यावरणीय खतरा पैदा करता है. इसका कारण यह है कि इसमें अधिकांश पूर्व-पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन (ईआईए) प्रक्रियाओं को नजरअंदाज कर दिया गया था. इन दोहरी चुनौतियों ने चीन की प्रतिष्ठा को काफी क्षति पहुंचाई हैं.
घरेलू अर्थव्यवस्था में मंदी के कारण चीन की भू-आर्थिक महत्वाकांक्षाएं बदल सकती हैं. बीआरआई के आरंभिक वर्षों के बाद से अब भू-राजनीतिक हकीकत बदल गई हैं.
घरेलू अर्थव्यवस्था में मंदी के कारण चीन की भू-आर्थिक महत्वाकांक्षाएं बदल सकती हैं. बीआरआई के आरंभिक वर्षों के बाद से अब भू-राजनीतिक हकीकत बदल गई हैं. चीन के विदेश नीति तंत्र ने एक स्टेटक्राफ्ट अर्थात शासन कला के रूप में आर्थिक शासन के इस ब्रांड पर अमल किया था.इसमें दूसरे देशों पर एक आर्थिक जर्बदस्ती का हथियार मंडरा रहा था. और इस वजह से ही चीन को उसकी भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को प्राप्त करने में सहायता करने के लिए बीआरआई को स्वीकार करने वाले देशों को अपनी विदेश नीति बदलने पर मजबूर होना पड़ा था. बीजिंग की ओर आकर्षित होने वाले देशों के लिए बीआरआई को अपनाने का सबसे बड़ा कारण था इसके तहत दिया जाने वाला अपारदर्शी ऋण. लेकिन इसके तहत आने वाली अधिकांश परियोजनाओं से जो सामाजिक-आर्थिक लक्ष्य हासिल करने की उम्मीद थी, वह हासिल नहीं हो सका. चीन के राष्ट्रीय विकास और सुधार आयोग (एनडीआरसी) को बीआरआई कार्यान्वयन की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. लेकिन उसने इसकी डिजाइन के ढांचे में जानबूझकर इसके सामरिक इरादे को छुपाते हुए सहयोग करने के इरादे की आड़ में चीन के भू-अर्थशास्त्र को बढ़ावा दिया. सीआईपीएसएस के मैथ्यू ए. कैसल के अनुसार, ‘एनडीआरसी के आउटलाइन नोट्स अर्थात रूपरेखा दस्तावेज में यह समझाया गया है कि बीआरआई संयुक्त राष्ट्र चार्टर के उद्देश्य और सिद्धांतों के अनुरूप ही है. और यह ‘शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के पांच सिद्धांतों’ के साथ ही कन्फुशियन सिद्धांतों का ही आह्वान करता है जिसका मतलब होता है, ‘वह जो सफल होना चाहता है, उसे दूसरों को भी सफल होने देना चाहिए.’ बीआरआई पर काम आरंभ होने के वर्षो बाद ‘संयुक्त इरादे’ की ईमानदारी और इसके पीछे छुपा सॉफ्ट पावर एजेंडा कई देशों के लिए चिंता का विषय बन गया. क्योंकि चीन ने भू-अर्थशास्त्र का उपयोग अपनी भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को प्राप्त करने के लिए एक रणनीतिक दांव-पेंच के रूप में किया था.
बीआरआई से जीडीआई तक
बीआरआई पर काम शुरू करने के एक दशक पश्चात, सितंबर 2021 में हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा के अधिवेशन (यूएनजीए) के दौरान चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने एक और पहल, ग्लोबल डेवलपमेंट इनिशिएटिव (जीडीआई) पर से पर्दा उठाया था. इसके बाद मई, 2022 में जीडीआई के ग्रुप ऑफ फ्रेंड्स अर्थात मित्रों के समूह की यूएन में एक उच्च स्तरीय बैठक हुई थी, जिसमें 2030 के एजेंडा को गति प्रदान करने को लेकर बातचीत की गई. यूएन में श्रीलंका के स्थायी प्रतिनिधि मोहन पेइरिस ने जीडीआई का स्वागत करते हुए टिप्पणी की कि, ‘यदि हमें अभी ठोस तरीके से सहायता नहीं मिली तो हम बेहतर निर्माण नहीं कर सकते. हम अपने अर्थात श्रीलंका के सिर को पानी से ऊपर रखने का प्रबंध करने में जुटे हैं’. यह कहते हुए वे संकट के इस महत्वपूर्ण मोड़ पर चीन और अन्य देशों से सहायता मुहैया करवाने का अनुरोध कर रहे थे. सितंबर में चीनी विदेश मंत्री वांग यी की अध्यक्षता में जीडीआई की एक मंत्रिस्तरीय बैठक हुई, जिसमें 60 देशों ने हिस्सा लिया था. जीडीआई का समर्थन करने वाले इस मंच में श्रीलंकाई विदेश मंत्री अली साबरी ने संस्थापक सदस्य के रूप में हिस्सा लिया था. श्रीलंका को हालांकि जीडीआई के तहत आने वाली परियोजनाओं की पहली सूची से बाहर रखा गया था. लेकिन फिर चीन ने इसे धीमी गति से लागू करने का निर्णय लिया. इसका कारण यह था कि श्रीलंकाई संकट के कारण चीन की विफल योजनाओं की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित होने लगा था. ऐसे में चीन ने अपनी प्रतिष्ठा को बचाने के लिए ही श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को जिस सहायता की उम्मीद थी वह मुहैया नहीं करवाई थी. इतना ही नहीं श्रीलंका में विद्रोह के बाद जब राजपक्षे परिवार की सत्ता खत्म हुई तब भी चीन उनके बचाव में आगे नहीं आया था. अब चीन राजपक्षे समर्थित राष्ट्रपति विक्रमसिंघे के मामले में भी यही नीति अपना सकता है.
श्रीलंका में विद्रोह के बाद जब राजपक्षे परिवार की सत्ता खत्म हुई तब भी चीन उनके बचाव में आगे नहीं आया था. अब चीन राजपक्षे समर्थित राष्ट्रपति विक्रमसिंघे के मामले में भी यही नीति अपना सकता है.
चीन खुद को, उत्तरी दाताओं की ओर से तय नीतियों पर अमल करने के लिए दबाव झेलने वाले ग्लोबल साउथ के अग्रणी फाइनेंसर के रूप में चित्रित करना चाहता है. जीडीआई के साथ वैश्विक दक्षिण का नेतृत्व करके चीन इस शक्ति असंतुलन को समाप्त करना चाहता है. एडडेटा के सामंथा कस्टर के अनुसार, चीन जोखिम वाले निम्न-मध्य विकासशील देशों का सबसे बड़ा द्विपक्षीय ऋणदाता है. हालांकि, चीन राजनीतिक रूप से अपनी प्रतिष्ठा को लेकर भी चिंतित दिखाई देता है. हाल में हुए एक अध्ययन में पाया गया है कि 55 देशों में लगभग आधे अफ्रीकी नेता सोचते हैं कि चीन उनका सबसे पसंदीदा भागीदार है’. जब तक संकट में चीन को बड़े कारक के रूप में नहीं पहचाना गया, तब तक श्रीलंका के नेता भी इसी तरह की सोच रखा करते थे.
बीआरआई के साथ भागीदारी करने वाले प्रारंभिक दक्षिण एशियाई देशों में से एक श्रीलंका, चीन की बुनियादी ढांचा कूटनीति का केंद्र बिंदु था. इसे महिंदा राजपक्षे के शासनकाल में संचालित किया गया था और बाद की सरकारों ने भी इसे जारी रखा था. आज, अतीत के अस्थिर ऋण और आर्थिक नीति की गलतियों के कारण श्रीलंका अपने सबसे खराब आर्थिक संकट का सामना कर रहा है. इसमें चीन की भूमिका महत्वपूर्ण थी. बीआरआई परियोजनाएं श्रीलंका में जनता का अपेक्षित ध्यान आकर्षित करने में इसलिए विफल रहीं, क्योंकि उसे मट्टाला हवाई अड्डे और लोटस टॉवर जैसी परियोजनाओं के कारण वित्तीय घाटा झेलना पड़ा था. बीआरआई परियोजनाओं में गैर-पारदर्शिता, भ्रष्टाचार, पर्यावरण संबंधी चिंताओं और व्यापार मॉडल की विफलता सहित अनके समस्याएं थीं.
जीडीआई को ऐसे समय लागू किया गया, जब बीआरआई को श्रीलंका समेत अनेक देशों में आलोचना का सामना करना पड़ा था. क्योंकि वहां की जनता अपनी खस्ता आर्थिक हालत का अहम कारण चीन की इन परियोजनाओं को ही मान रही थी. अब बीआरआई दो तरीकों से जीडीआई की सहायता करेगा. सबसे पहले, यह बीआरआई को लेकर हो रही तीखी आलोचनाओं को रोकेगा. इसके अलावा हरित पहल एक समग्र परिवर्तन लाकर बीआरआई को नए दृष्टिकोण के साथ प्रस्तुत करेगा.
दूसरा जीडीआई, चीन की अधिक विश्वोन्मूख पहल पेश करने में बीआरआई की ख़ामियों को भरने में सहायक साबित होगा. बीआरआई को लेकर चिंता का एक हिस्सा यह था कि उसे एक कथित अंतरराष्ट्रीय परियोजना के रूप में नहीं माना गया था. उदाहरण के लिए, चीन ने कोलंबो बंदरगाह शहर विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) विदेशी निवेशकों के लिए विकसित किया था. लेकिन वहां चीन की मजबूत छवि के अलावा कुछ भी वैश्विक नहीं था. बीआरआई परियोजनाओं के लिए क्षमता निर्माण के साथ जीडीआई दीर्घकालीन विकास अनुदान लाएगा ताकि संयुक्त राष्ट्र के एसडीजी जैसे सर्वोत्तम अभ्यासों के साथ बीआरआई परियोजनाएं चल सके. जीडीआई, विकासशील देशों को कम कार्बन वाली अर्थव्यवस्थाओं में स्थानांतरित करने में मदद करेगा, और चीन अधिकांश बीआरआई मेज़बान देशों में इसमें शामिल होने के लिए अच्छी स्थिति में है. मौजूदा चीनी अवसंरचना कूटनीति में जीडीआई, जलवायु कूटनीति की एक परत और जोड़ देगा.
अब श्रीलंका में भी जीडीआई पर अमल किया जाएगा, ताकि संकट के कारण खराब हुई अपनी छवि को चीन पुन: हासिल कर सकें. लेकिन इसे लेकर स्थानीय नीति क्षेत्रों में चुनौतियां बनी हुई है.
अब श्रीलंका में भी जीडीआई पर अमल किया जाएगा, ताकि संकट के कारण खराब हुई अपनी छवि को चीन पुन: हासिल कर सकें. लेकिन इसे लेकर स्थानीय नीति क्षेत्रों में चुनौतियां बनी हुई है. क्या चीन, श्रीलंका के ऋण को पुनर्गठित करने के पक्ष में होगा? एक ओर चीन जब बीआरआई की छवि में जीडीआई के माध्यम से सुधार की कोशिश कर रहा है, वहीं ऋण पुनर्गठन में देरी से स्थानीय नागरिकों का उस पर भरोसा और कम ही होगा. माइकल कुगेलमैन ने जैसा कि ठीक ही आकलन किया है: श्रीलंका की अर्थव्यवस्था लगातार लड़खड़ा रही है. वहां की मुख्य सार्वजनिक शिकायतों का अब भी निवारण नहीं हुआ है. श्रीलंका अब भी ऐसे बारुद के ढेर पर बैठा है, जो कभी भी बड़े पैमाने पर विरोध के लिए अतिसंवेदनशील है. विशेषत: उस स्थिति में जब जनता को मितव्ययिता अथवा आत्मसंयम के नए उपायों का सामना करना पड़ रहा है. राष्ट्रपति विक्रमसिंघे संकेत दे ही चुके हैं कि एक और विद्रोह करने को जनता तैयार बैठी है. यदि ऐसा हुआ तो वे आपातकाल अधिकारों का उपयोग करते हुए इस विद्रोह का दमन करने के लिए सेना का उपयोग करेंगे. प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार करना और सेना को आगे बढ़ाना इस संकट का समाधान नहीं हो सकता, बल्कि यह देश को एक पूर्ण उग्र विद्रोह की ओर धकेलने जैसा ही होगा. लोकतांत्रिक चुनाव के माध्यम से लोगों को सत्ता हस्तांतरित करने की जरूरत है ना कि एक नियुक्त नेता के साथ शासन को जारी रखने की, जो केवल राजपक्षे शासन का प्रतिनिधि बनकर ही शासन की निरंतरता सुनिश्चित करता है. इसके अलावा, चीन द्वारा ऋण पुनर्गठन में देरी, श्रीलंका को मिलने वाली आईएमएफ की वित्तीय सहायता को प्रभावित कर रही है. इसके कारण ही वहां की मैक्रोइकॉनॉमिक अर्थात समष्टि अर्थशास्त्र स्थिरता प्रभावित होगी और यह आर्थिक स्थिति को भी खराब करेगी. यदि यह सिलसिला जारी रहता है, तो विद्रोह अब एक विकल्प नहीं, बल्कि अनिवार्यता बन जाएगा.
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