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Published on Jun 27, 2025 Updated 0 Hours ago

ईरान को चीन का सशर्त समर्थन ईरान की क्षमताओं को लेकर बढ़ते शक, घरेलू संदेह में बढ़ोतरी और मिडिल ईस्ट के उथल-पुथल भरे सत्ता के संतुलन में शामिल होने को लेकर झिझक से पैदा होता है. 

ईरान-इज़राइल संघर्ष पर चीन की सतर्क कूटनीति

Image Source: Getty

मध्य पूर्व में तनाव बढ़ने के बाद अपने पहले सार्वजनिक बयान में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा कि ईरान के ख़िलाफ़ इज़रायल के सैन्य अभियान को लेकर चीन 'बहुत चिंतित' है. उन्होंने ये भी कहा कि "मिडिल ईस्ट में शांति और स्थिरता की बहाली में चीन सभी पक्षों के साथ रचनात्मक भूमिका निभाने के लिए तैयार है." इस बीच चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने ताज़ा लड़ाई को लेकर पहले ही ईरान के विदेश मंत्री सैयद अब्बास अराग़ची, इज़रायल के विदेश मंत्री गिदोन सार और ओमान के विदेश मंत्री सैयद बदर बिन हमाद बिन हमूद अलबुसैदी से बात कर ली थी. चीन ने ईरान पर हमले के लिए सार्वजनिक रूप से इज़रायल की आलोचना करते हुए दोनों पक्षों से बातचीत करने की कोशिश की ताकि चीन के हितों की रक्षा की जा सके और चीन के संस्थानों एवं कर्मियों की सुरक्षा बरकरार रखी जा सके. चीन मौजूदा संकट में इज़रायल और ईरान के बीच शांति लाने वाले देश के रूप में अपनी संभावित मध्यस्थ की भूमिका का भी पता लगाना चाहता है.

चीन मौजूदा संकट में इज़रायल और ईरान के बीच शांति लाने वाले देश के रूप में अपनी संभावित मध्यस्थ की भूमिका का भी पता लगाना चाहता है.

ईरान के लिए चीन के उम्मीद से कम समर्थन के पीछे एक कारण ये हो सकता है कि चीन के भीतर ईरान की प्रतिष्ठा अच्छी नहीं है, विशेष रूप से लोगों की राय के मामले में. इज़रायल और ईरान के बीच दुश्मनी के ताज़ा प्रकरण की शुरुआत के बाद से चीन में इस सोच का दबदबा है कि ईरान का भविष्य अंधकारमय लगता है. चीन के इंटरनेट पर नई मीडिया रिपोर्ट, टिप्पणी और ब्लॉग की श्रृंखला में उन कमियों की चर्चा की गई है जो ईरान के सामने मौजूद हैं: ईरान में बहुत अधिक गद्दार हैं, गंभीर आंतरिक विरोधाभास है, काफी लंबे समय से वो प्रतिबंध का सामना कर रहा है जिसकी वजह से उसकी अर्थव्यवस्था चरमरा गई है, उसकी तकनीक पुरानी पड़ चुकी है और सेना अयोग्य है. जिस समय इज़रायल के हमलों में ईरान के वरिष्ठ सैन्य अधिकारी मारे गए और उसके परमाणु केंद्रों को तबाह कर दिया गया, उस समय चीन में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों के बीच ईरान की आलोचना की बाढ़ आ गई. कुल मिलाकर चीन के लोगों की राय से ईरान के लिए बहुत कम सहानुभूति या समर्थन का पता चलता है- सिर्फ एक अस्पष्ट उम्मीद है कि ईरान दलदल में घसीटकर कुछ हद तक इज़रायल और उसके कारण अमेरिका की ताकत को कम कर सकता है और इसकी वजह से चीन पर दबाव कम हो सकता है. 

चीन की भूमिका

चीन में कुछ लोग ईरान की अविश्वसनीयता को उजागर करने के लिए निम्नलिखित दलील देते हैं- ईरान में चीन का सैन्य अड्डा बनाने की अनुमति देने से उसका इनकार, रेल परिवहन रोकने का ईरान का निर्णय, सीरिया में असद की सत्ता का साथ “छोड़ना” और भारत-पाकिस्तान के बीच दुश्मनी के ताज़ा प्रकरण के बीच भारत के साथ एक रणनीतिक सहयोग का समझौता करने का उसका फैसला. हालांकि ईरान को लेकर एक आम शिकायत ये है कि उसने पूरी तरह से चीन को गले नहीं लगाया है. चीन की समीक्षा के मुताबिक रूस और पाकिस्तान से हटकर ईरान ने “चीन को अपनाने” से परहेज किया है क्योंकि ईरान की हुकूमत में आत्मसम्मान और स्वायत्तता की भावना प्रबल है और वो किसी एक देश पर बहुत ज़्यादा भरोसा करने के लिए तैयार नहीं है. इसके अलावा चीन के कुछ विश्लेषकों का मानना है कि ईरान के समाज में हमेशा से मज़बूत यूरोप समर्थक और अमेरिका समर्थक भावना रही है, विशेष रूप से 2015 में ईरान के साथ अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, रूस और जर्मनी के द्वारा परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर के बाद. वो दलील देते हैं कि यूरोप और अमेरिका के द्वारा प्रतिबंध हटाने और ईरान के साथ सहयोग करने को लेकर ईरान में अवास्तविक कल्पना रही है. वैसे तो ट्रंप प्रशासन ने 2017 में ईरान परमाणु समझौते से ख़ुद को अलग कर लिया था लेकिन ईरान की मौजूदा हुकूमत न तो उत्तर कोरिया की तरह परमाणु हथियार विकसित करने के लिए पर्याप्त रूप से दृढ़ दिखती है, न ही उसे अमेरिका और पश्चिमी देशों के साथ पूरी तरह से संबंध तोड़ने वाले के रूप में देखा जाता है. मौजूदा हालात को देखते हुए चीन के नज़रिए से देखें तो ईरान के लिए चीन को पूरी तरह “गले लगाना” संभव नहीं है. चीन को लेकर ईरान के रवैये को अक्सर बयानबाज़ी के मामले में ज़्यादा और महत्व में कम के रूप में बताया जाता है. साथ ही चीन पर ईरान की बहुत अधिक निर्भरता को तिरस्कार की नज़र से देखा जाता है. 

चीन को लेकर ईरान के रवैये को अक्सर बयानबाज़ी के मामले में ज़्यादा और महत्व में कम के रूप में बताया जाता है. साथ ही चीन पर ईरान की बहुत अधिक निर्भरता को तिरस्कार की नज़र से देखा जाता है. 

आगे ये दलील दी जाती है कि चीन को लेकर न केवल ईरान का रवैया जटिल है बल्कि वो रूस जैसे देशों की तुलना में चीन को कोई ठोस प्रस्ताव भी नहीं दे सकता है. अगर ईरान ने पिछले कुछ वर्षों में सफलतापूर्वक शिया देशों की अगुवाई की होती तो उसे चीन के लोगों की नज़रों में ज़्यादा सम्मान मिला होता. साथ ही चीन की सरकार से उसे अधिक समर्थन और सहानुभूति मिली होती लेकिन ऐसा नहीं है. इसके बदले चीन के विश्लेषक ईरान को लेकर अपने अविश्वास और नापसंदगी को खुलकर जता रहे हैं. 

इस रुझान के बारे में विस्तार से बताते हुए guancha.com पर किसी पाठक के द्वारा लिखे गए लेख में बताया गया है कि शीत युद्ध के दौरान की उदारता का युग समाप्त हो गया है. आज महाशक्तियों की कूटनीति व्यावहारिकता से प्रेरित होती है. चीन और अमेरिका- दोनों ही देश आज भारी घरेलू दबाव का सामना कर रहे हैं और इसलिए दूसरे देशों के प्रति उदारता के लिए उनके पास बहुत कम गुंजाइश है. ये एक ऐसी प्रवृत्ति है जिससे महाशक्तियों का मुकाबला तेज़ होने के साथ और बढ़ेगी. 

चीन के मीडिया में जो चर्चा चल रही है, उससे पता चलता है कि ईरान के लिए कोई भी समर्थन कई शर्तों के तहत होगा: 

  1. अगर ईरान गुरिल्ला शैली की रणनीति अपना सकता है और इज़रायल एवं अमेरिका के साथ लंबे समय तक युद्ध कर सकता है. इसमें समय-समय पर इज़रायल पर बैलिस्टिक मिसाइल से हमला करना, हिज़्बुल्लाह एवं हूती को मज़बूत बनाना और “एक्सिस ऑफ रेजिस्टेंस” में अपने सहयोगियों को इज़रायल के भूमध्य सागर के बंदरगाहों की नाकाबंदी करने के लिए प्रोत्साहित करना शामिल है. ऐसा होने पर यूक्रेन और मिडिल ईस्ट- दोनों में अमेरिका के उलझने की वजह से चीन को रणनीतिक राहत मिल सकती है. हालांकि चीन के विश्लेषक इस बात को लेकर अनिश्चित हैं कि अपनी आंतरिक कमज़ोरियों की वजह से ईरान के पास इस तरह के लगातार और बड़े पैमाने के टकराव की क्षमता है या नहीं. 
  2. अल्पकाल में चीन की प्राथमिकता ये सुनिश्चित करना है कि ईरान-इज़रायल या ईरान-अमेरिका के बीच संघर्ष ईरान में चीन के निवेश, विशेष रूप से बुनियादी ढांचे और उससे जुड़ी सहायक परियोजना में, को प्रभावित न करे. 
  3. मध्य से दीर्घकाल के बीच गहरी रणनीतिक भागीदारी के लिए शर्त के रूप में चीन ये उम्मीद करेगा कि ईरान के सैन्य-औद्योगिक क्षेत्र और व्यापक आर्थिक अवसरों तक उसकी ज़्यादा पहुंच हो. 

निष्कर्ष

लोगों की प्रतिकूल राय के बावजूद चीन को ये एहसास है कि ईरान की तुलना लीबिया या सीरिया से नहीं की जा सकती है. ईरान शंघाई सहयोग संगठन (SCO) और ब्रिक्स दोनों का सदस्य है. ग्लोबल साउथ (विकासशील देश) के ज़्यादातर देशों के लिए अगर SCO और ब्रिक्स की सदस्यता ईरान को बाहरी दबाव से नहीं बचा सकती है तो इन संगठनों की विश्वसनीयता और आकर्षण- इसके साथ-साथ एक उभरती महाशक्ति के रूप में चीन की अपनी प्रतिष्ठा- पर सवाल खड़े होंगे. 

ये चीन को असमंजस में डालता है. वैसे तो वो ये नहीं चाहता है कि अमेरिका और इज़रायल के दबाव में ईरान की मौजूदा सरकार का पतन हो लेकिन उसे इस बात पर भी शक है कि ईरान का बचाव करना इस मौके पर सही होगा. 


अंतरा घोषाल सिंह ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रैटजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में फेलो हैं. 

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