Author : Manoj Joshi

Published on Jan 20, 2017 Updated 0 Hours ago

चीन कुछ क्षेत्रों जैसे कि सॉफ्टवेयर और फार्मास्यूटिकल्स के क्षेत्र में भारत को एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखता है।

नए क्षेत्रों में वैश्विक नेता बनने को बेताब चीन

चीन की अर्थव्यवस्था अब 6.5- 6.7 प्रतिशत की विकास दर के नए सामान्य स्‍तर पर स्थिर होने का संकेत दे रही है। ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के अनुसार, सेवा उद्योग वर्ष के पहले नौ महीनों में विकास की तेज रफ्तार दर्शाते हुए 7.6 प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल करने में कामयाब रहा है। इससे ऐसी नीतियां बनाने का मार्ग प्रशस्‍त हो गया है, जिनका उद्देश्‍य संपत्ति बाजार में नजर आ रही तेज उछाल और कर्ज राशि में हो रही खासी वृद्धि को नियंत्रण में रखना होगा। जहां तक अर्थव्यवस्था का सवाल है, यह स्थिर गति से उपभोक्ता खर्च की ओर उन्‍मुख होती जा रही है। वहीं, औद्योगिक उत्पादन के मुकाबले अब कहीं ज्‍यादा वृद्धि तो खुदरा बिक्री में दर्ज की जा रही है। [1]

चीन ने वर्ष 2015 के दौरान सकल घरेलू उत्‍पाद (जीडीपी) में हुई कुल वृद्धि में एक तिहाई योगदान दिया। यही कारण है कि चीन चाहे तेज रफ्तार से विकास कर रहा हो अथवा सुस्‍ती के दौर से गुजर रहा हो, यह दुनिया की अर्थव्यवस्था पर जितना प्रभाव डालता है उतना कोई और अन्‍य नहीं डाल पाता है। चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था को निवेश एवं निर्यात पर ही आधारित रखने के बजाय खपत अथवा उपभोग पर निर्भर करने की अपनी मंशा की घोषणा की है।

इतना ही नहीं, चीन ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि वह आने वाले वर्षों में वैश्विक मूल्य श्रृंखला में अत्‍यंत ऊंचे पायदान पर काबिज होना चाहता है और अमेरिका, यूरोप या जापान की भांति ही काफी महंगे उपकरणों और उत्पादों का एक निर्माता बनना चाहता है। चीन इस दिशा में अग्रसर हो भी चुका है और इसके साथ ही पूरी दुनिया ने काफी रुचि के साथ इस पर अपनी करीबी नजरें जमा दी हैं, क्योंकि पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए इसके खास निहितार्थ हैं।

 हालांकि, चीन को कई बुनियादी चुनौतियों का सामना करना होगा। भारी-भरकम कर्ज बोझ के बावजूद अपेक्षाकृत उच्च विकास दर को बनाए रखने की आकांक्षा भी इन चुनौतियों में शामिल है। मालूम हो कि चीन पर जीडीपी के 255 प्रतिशत के बराबर कर्ज बोझ है, जो उसकी अर्थव्यवस्था पर बहुत भारी पड़ रहा है। एक और महत्‍वपूर्ण बात यह है कि चीन में खपत इतनी पर्याप्‍त तेजी से अवश्‍य ही बढ़नी चाहिए जिससे कि भारी उद्योग में दर्ज की जा रही गिरावट की भरपाई हो सके। संक्षेप में, जैसा कि फाइनेंशियल टाइम्स में छपी एक विशेष रिपोर्ट में यह जिक्र किया गया है कि चीन की अर्थव्यवस्था में सुधारों के जरिए फि‍र से सही संतुलन बैठाना चाहिए, नहीं तो उसे ठहराव अथवा इससे भी ज्‍यादा बुरा हुआ तो गंभीर संकट का सामना करना पड़ेगा। [2]

ढांचागत बदलाव के संकेत

हालांकि, वृहद तस्‍वीर से परे वास्‍तविक स्थिति यही है कि चीन की अर्थव्यवस्था में ढांचागत बदलावों और नई प्रवृत्तियों के छोटे-छोटे संकेत अब स्‍पष्‍ट रूप से मिलने लगे हैं। वाल स्ट्रीट जर्नल में छपे एक लेख में यह बताया गया है कि चीनी कारोबारी किस तरह से दुनिया की आपूर्ति श्रृंखला के एक बड़े हिस्‍से को काफी तेजी से अपने नियंत्रण में करते जा रहे हैं। अतीत में, चीन अक्सर उस आपूर्ति श्रृंखला में एक छोटा सा खिलाड़ी हुआ करता था जिसमें उच्च मूल्य और उच्च तकनीक वाले आइटम अन्य आपूर्तिकर्ताओं जैसे कि जर्मनी, ताइवान या जापान की ओर से अपना आगमन सुनिश्चित करते थे। हालांकि, अब इनमें से ज्‍यादातर वस्‍तुओं को चीन की कंपनियों से भी हासिल किया जा रहा है। [3]

इसके परिणामस्वरूप चीन अब अपेक्षाकृत कम आयात कर रहा है। हालांकि, आर्थिक सुस्‍ती के कारण वैश्विक व्यापार में आई गिरावट को दर्शाने वाले आंकड़ों के चलते चीन के आयात संबंधी वास्तविक आंकड़ों का सही ढंग से पता नहीं चल पा रहा है। वर्ष के पहले नौ महीनों में चीन को जैव तकनीक, एयरोस्पेस और उच्च तकनीक वाले अन्‍य उत्‍पादों का निर्यात पिछले वर्ष की इसी अवधि की तुलना में 5 फीसदी गिर गया। अन्य उत्पादों में इस्तेमाल किए जाने वाले उपकरणों एवं सामग्री का कुल मूल्‍य वर्ष 2015 में लगभग 15 फीसदी गिर गया। इतना ही नहीं, यह मूल्‍य इस वर्ष के पहले 9 महीनों में 14 प्रतिशत और गिर गया है। आईएमएफ के आंकड़ों का हवाला देते हुए इस रिपोर्ट में यह बताया गया है कि पिछले दस वर्षों से चीन के कुल निर्यात में विदेश निर्मित कच्‍चे माल का हिस्‍सा औसतन 1.6 प्रतिशत की दर से सालाना कम होता जा रहा है।

चीन की सरकार अत्‍यंत महंगे उपकरण बनाने की क्षमताएं हासिल करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम कर रही है और उसकी मंशा मुख्य कलपुर्जों एवं महत्वपूर्ण सामान में घरेलू सामग्री के हिस्‍से को वर्ष 2020 तक बढ़ाकर 40 प्रतिशत करने और वर्ष 2025 तक बढ़ाकर 70 फीसदी करने की है। यह वर्ष 2015 में अनुसंधान एवं विकास (आरएंडडी) पर किए गए लगभग 213 अरब डॉलर के भारी-भरकम व्‍यय से मेल खाता है, जो जीडीपी के 2.1 प्रतिशत के बराबर है। [4]

विकसित देशों में चिंता की लहर

जहां एक ओर ढेर सारे धन से परिपूर्ण चीन की कंपनियों ने पश्चिमी उद्यमों को पूंजी उपलब्ध कराई है, वहीं दूसरी ओर नए चलन के तहत ऐसा प्रतीत होता है कि अब उच्च तकनीक (हाई-टेक) वाली कंपनियों पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है।

वर्ष 2016 की शुरुआत में, चाइना नेशनल केमिकल कॉर्प (केमचाइना) ने स्विस कंपनी सिनजेंटा के लिए 43 अरब डॉलर की पेशकश की थी, जो दुनिया भर के कीटनाशकों के पांचवें हिस्‍से और बीजों के एक बड़े हिस्से की आपूर्ति करती है। अगस्‍त में इस अधिग्र‍हण को एक अमेरिकी कांग्रेस समिति ने अनुमोदित कर दिया था।

सरकार से सहायता प्राप्‍त करने वाले एक उद्यम झोंगवांग ने जुलाई 2016 में एक अमेरिकी कंपनी अलेरिस को खरीद लिया था, जिसे एयरोस्पेस और मोटर वाहन उद्योगों के लिए रोल्ड अल्युमीनियम उत्पादों को बनाने में विशेषज्ञता हासिल थी। चीन, नि:संदेह, दुनिया में अल्युमीनियम का सबसे बड़ा उत्पादक है। लेकिन अमेरिकी कंपनी के अधिग्रहण बल पर यह अल्युमीनियम उत्पाद बनाने के क्षेत्र में एक बिल्‍कुल अलग मुकाम पर पहुंच गया है।

इससे पहले वर्ष 2016 में, ऑटोमोबाइल संयंत्रों के लिए रोबोट बनाने में विशेषज्ञता हासिल कर चुकी जर्मन कंपनी कूका को चीन के मिडिया समूह ने बोली लगाकर खरीद लिया था, जो चीन का सबसे बड़ा घरेलू उपकरण निर्माता ग्रुप है। कूका को खरीदने का मामला जर्मनी के लिए एक विशेष सदमा था क्‍योंकि उसे देश के औद्योगिक कौशल का मूर्त रूप माना जाता था। कारखाना स्वचालन में एक वैश्विक लीडर के रूप में यह अमेरिका के एफ-35 लड़ाकू विमानों के लिए फ्यूजलेज (हवाई जहाज का ढांचा) के निर्माण में मदद करती है।

चीन द्वारा किए गए अधिग्रहणों की सूची और भी लंबी है। मसलन, चाइना नेशनल केमिकल कॉर्प ने 1 अरब डॉलर में क्राउसमैफी समूह का अधिग्रहण किया है, जो एक अग्रणी उपकरण निर्माता है और जो प्लास्टिक एवं रबर का प्रसंस्‍करण करता है। इसी तरह बीजिंग एंटरप्राइजेज होल्डिंग्स लिमिटेड ने 1.59 अरब डॉलर में ईईडब्‍ल्‍यू एनर्जी फ्रॉम वेस्‍ट का अधिग्रहण किया है, जो उच्च तकनीक वाले अपशिष्ट भस्मीकरण संयंत्रों की एक ऑपरेटर है और जिनमें औद्योगिक उपयोग के लिए बिजली एवं भाप का उत्पादन होता है।

 हालांकि, हाल ही में, पश्चिमी देशों ने चीन के इस तरह के कदमों का विरोध करना शुरू कर दिया है। इन देशों के मुताबिक, इसका मुख्‍य कारण यह है कि समान अवसर उपलब्ध कराने के मामले में चीन का खुद का ही आचरण संदिग्ध है। हाल ही में, एक ऐसी जर्मन कंपनी एक्‍सट्रॉन ने विवाद उत्पन्न कर दिया जिसके द्वारा ऐसे उन्नत उपकरण बनाने का लंबा इतिहास रहा है जो अत्‍यंत परिष्कृत सेमीकंडक्‍टरों के निर्माण के लिए आवश्यक माने जाते हैं। एक्‍सट्रॉन के मामले ने चीनी सरकार से संभावित मिलीभगत की ओर इशारा किया। वर्ष 2015 में इस जर्मन कंपनी के शेयर भाव में उस समय भारी गिरावट दर्ज की गई थी जब एक चीनी खरीदार सैनन ऑप्‍ट्रॉनिक्‍स ने अंतिम क्षण में एक बड़ा ऑर्डर रद्द कर दिया था। इस स्थिति की वजह से, इस कंपनी ने खुद को बेचने का मन बना डाला और एक चीनी निवेश समूह फुजि‍यान ग्रैंड चिप ने वर्ष 2016 के मई महीने में इसे खरीदने की पेशकश कर दी। इस मसले पर करीबी नजर रखने वाले मर्केटर इंस्टीट्यूट ऑफ चाइनीज स्‍टडीज ने यह पाया कि सैनन और फुजि‍यान दोनों का ही एक प्रमुख निवेशक लियू झेनडांग था। इसके अलावा, चीनी सरकार की ओर से दोनों ही कंपनियों के लिए वित्‍त पोषण का एक बड़ा सौदा किया गया। चीन में एक सेमीकंडक्टर उद्योग को प्रोत्साहित करने के लिए चीन सरकार ने भारी-भरकम धनराशि अलग रख दी है। इस धनराशि को अब सरकार के स्‍वामित्‍व वाले उद्यमों के बजाय स्थानीय और राष्ट्रीय निवेश कोषों के माध्यम से वितरित किया जा रहा है। आखिरकार, अमेरिका द्वारा वीटो लगाने के बाद एक्‍सट्रॉन सौदा विफल हो गया। [5]

जून 2016 में, जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल ने इस स्थिति पर भारी हताशा जताई थी कि चीन पश्चिम के खुले बाजार में उच्च तकनीक वाली विशेषज्ञता हासिल करता है और फि‍र चीन के संरक्षित बाजारों में अच्‍छा-खासा मुनाफा कमाने एवं दुनिया भर में जर्मन कंपनियों को कड़ी टक्‍कर देने के लिए सरकार के स्वामित्व वाले राष्ट्रीय चैंपियनों को विकसित करने हेतु इस तकनीकी जानकारी का उपयोग करता है। [6]

चीनी कंपनियां अमेरिका में भी काफी सक्रिय रही हैं। हालांकि, अमेरिका उन पर काफी अधिक चौकस नजर रखता है। चीन की तीन दिग्‍गज कंपनियों बैदू, अलीबाबा और टेनसेंट ने वर्ष 2014 से ही सिलिकॉन वैली स्थित स्‍टार्ट-अप्‍स में अपना निवेश काफी ज्‍यादा बढ़ा दिया है। तकरीबन 180 स्‍टार्ट-अप्‍स में कुल निवेश अब लगभग 6 अरब डॉलर के आंकड़े को छू चुका है। [7]

अमेरिका में विदेशी निवेश पर गठित समिति (सायफस) के भारी दबाव के चलते जनवरी 2016 में उस प्रस्‍ताव पर विराम लग गया था जिसके तहत फिलिप्स एनवी एक चीनी उद्यम पूंजी (वेंचर-कैपिटल) फर्म को अपना एलईडी कारोबार बेचकर 2.8 अरब डॉलर जुटाने की योजना बना रही थी। इसी तरह फरवरी 2016 में फेयरचाइल्ड सेमीकंडक्टर इंटरनेशनल ने चाइना रिसोर्सेज माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक्‍स लिमिटेड और हुआ कैपिटल मैनेजमेंट की एक बोली को ठुकरा दिया था, क्‍योंकि इसे सायफस की ओर से अनुमोदन नहीं मिला था। इसी महीने बीजिंग स्थित यूनीस्‍प्‍लेन्‍डर कॉर्प उस सौदे से पीछे हट गई थी जिसके तहत वह वेस्टर्न डिजिटल कॉर्प में 3.78 अरब डॉलर मूल्‍य की 15 फीसदी हिस्सेदारी खरीदने वाली थी। ऐसा इसलिए हुआ क्‍योंकि सायफस ने कहा कि वह इस सौदे की जांच करेगी। [8]

अमेरिकी राष्ट्रपति की विज्ञान और प्रौद्योगिकी संबंधी सलाहकार परिषद द्वारा जनवरी 2017 में जारी की गई एक रिपोर्ट में इस बात का उल्‍लेख किया गया है कि ‘सरकार संचालित फंडों में पड़ी 100 अरब डॉलर से भी अधिक धनराशि द्वारा समर्थित औद्योगिक नीतियों का उपयोग करके’ चीन सेमीकंडक्‍टर बाजार को अपने पक्ष में नया स्‍वरूप प्रदान करने के लिए ‘काफी जोर’ लगा रहा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन में कई सेमीकंडक्‍टर ढलाई कारखाने हैं, ‘लेकिन ये सभी अत्‍याधुनिक मात्रात्‍मक उत्पादन से कम-से-कम डेढ़ पीढि़यां पीछे हैं।’ यही नहीं, चीन में घरेलू स्तर पर स्वामित्व वाली ऐसी कोई भी मेमोरी कंपनी नहीं है जो वाणिज्यिक मात्रा में उत्पादन कर रही है। यही कारण है कि चीन ने जो मार्ग अपनाया है वह ‘संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप या जापान में वैश्विक खिलाड़ियों (या उनके किसी डिवीजन) के अधिग्रहण का है।’

चीन कई युक्तियों का उपयोग करता है। घरेलू ग्राहकों को केवल चीन के ही सेमीकंडक्टर आपूर्तिकर्ताओं से खरीदने के लिए विवश करने हेतु सब्सिडी देना, चीन के बाजार में पहुंच के बदले में प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण के लिए विवश करना और अंत में, बौद्धिक संपदा की चोरी इन युक्तियों में शामिल हैं। [9]

विश्लेषण

राष्ट्रीय विकास के लिए प्रौद्योगिकी हासिल करना अवश्‍य ही एक विशेष रूझान है, जो सभी विकासशील देशों के लिए आम है। हालांकि, चीन ने अपने अधिग्रहण को एक ललित कला में तब्‍दील कर दिया है। 1950 के दशक में सोवियत संघ से हासिल की गई प्रौद्योगिकी से ही उसका काम 1980 के दशक में उसके द्वारा अपना बाजार दुनिया के लिए खोले जाने तक अच्‍छी तरह से चलता रहा। इसके बाद इसने कई रणनीतिक अधिग्रहण के लिए प्रयास किए जैसे कि विफल एमडी-80 सौदे के जरिए एक यात्री एयरलाइनर को हासिल करने की कोशिश, जर्मन मैग-लेव रेलवे प्रौद्योगिकी, जर्मनी, फ्रांस और जापान से हाई स्पीड वाली रेल प्रौद्योगिकी। सोवियत संघ के पतन के बाद चीन ने रूस एवं यूक्रेन से भी सैन्य प्रौद्योगिकियों की एक श्रृंखला हासिल की और फि‍र उनके अभियांत्रीकरण (रिवर्स इंजीनियरिंग) का कार्य भी सफलतापूर्वक पूरा किया।

एक खुले बाजार के माहौल में कंपनियों को खरीदना और बेचना बाजार अर्थव्यवस्था का एक अनिवार्य हिस्सा है। कंपनियां निवेश से लाभान्वित होती हैं और इसके साथ ही विस्तार करने एवं नए बाजारों की तलाश करने में समर्थ हो जाती हैं। लेकिन चीन कई क्षेत्रों में विदेशी कंपनियों से काफी दूरी बनाए रखता है और अपारदर्शी नियमों के जरिए उनके खिलाफ प्रतिस्पर्धा को कमोबेश अपने पक्ष में कर लेता है। इतना ही नहीं, सरकार के स्वामित्व वाले उद्यमों को अक्सर सब्सिडी दी जाती है और वे अपने वैश्विक समकक्षों के साथ निष्‍पक्ष ढंग से प्रतिस्पर्धा नहीं करते हैं। वैसे भी, रिवर्स इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी की चोरी को लेकर चीनी कंपनियां बदनाम हैं।

लेकिन वर्तमान में विशेष जोर कुछ अलग सा है। इस समय चीन का विशेष जोर अक्षय ऊर्जा, कृत्रिम बुद्धि, बिजली से चलने वाले मोटर वाहन, फार्मास्यूटिकल्स, जैव प्रौद्योगिकी और उच्च गति वाली रेलवे जैसे क्षेत्रों में वैश्विक लीडर बनने का लक्ष्य हासिल करने पर है।

चीन की योजनाएं ऐसी हैं जिनके दूरगामी परिणाम होंगे। चीन ने विनिर्माण के अंकीकरण (डिजिटाइजिंग) और इंटरनेट के जरिए उपभोक्ताओं को कारखानों से जोड़ने के क्षेत्र में अग्रणी बनने का लक्ष्य तय किया है। चीन अपने 6 हाई-टेक जोन पर ध्यान केंद्रित कर रहा है जिनका विस्तार करने की मंशा है। प्रत्येक क्लस्टर एक पारिस्थितिकी तंत्र उपलब्ध कराता है जिनका प्रभावी ढंग से दोहन चीनी कंपनियों द्वारा किया जा सकता है। 6 हाई-टेक औद्योगिक क्लस्टरों के साथ शुरुआत करने के बाद चीन में अब इस तरह के लगभग 146 औद्योगिक क्लस्टर हैं जो इसके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 12 प्रतिशत का योगदान करते हैं। [10] प्रमुख जोनों में बीजिंग के हाईदियान, शंघाई के झैंगजियांग, शेन्जेन के नैनशैन, वुहान के ईस्‍ट लेक और शीआन के हाई-टेक औद्योगिक जोन शामिल हैं।

भारत के लिए निहितार्थ

बड़ी कंपनियों के अधिग्र‍हण का असर भारत पर भी पड़ता है क्‍योंकि इनमें से अनेक कंपनियों की सहायक इकाइयां (सब्सिडियरी) भारत में भी हैं और इनमें से अनेक कंपनियां तो ऐसी हैं जिनके साथ भारतीय कंपनियों को अवश्‍य ही बिजनेस करना चाहिए क्‍योंकि वे अपने-अपने क्षेत्रों में वैश्विक लीडर हैं।

चीन कुछ क्षेत्रों जैसे कि सॉफ्टवेयर और फार्मास्यूटिकल्स के क्षेत्र में भारत को एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखता है। यह बेंगलूरू पर जल्द ध्यान देने का एक अहम कारण है जहां हुआवेई ने कुछ साल पहले एक प्रमुख कार्यालय और अनुसंधान केंद्र की स्थापना की थी। फार्मा क्षेत्र में, चीन इस तथ्य से नाराज है कि भारत चीन से कच्चे माल का आयात करता है और पूरी दुनिया को तैयार उत्‍पादों का निर्यात करता है। चीन का उद्योग जगत कई अन्‍य क्षेत्रों के साथ-साथ इस क्षेत्र में भी अपना लोहा मनवाने पर फोकस कर रहा है। .

चूंकि चीन कम लागत वाले उत्पादन को विदेश में स्‍थानान्‍तरित कर रहा है, इसलिए भारत के पास भी इनमें से कुछ इकाइयों को हासिल करने के अच्‍छे अवसर हैं। यदि भारत ऐसा नहीं करता है, तो अन्य देश ऐसा अवश्‍य ही करेंगे। यही नहीं, चीन ने बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में जो अधिशेष या आवश्‍यकता से अधिक क्षमता हासिल कर रखी है उसका भी इस्‍तेमाल भारत में सड़कों एवं रेलवे, विद्युत संयंत्रों और बिजली ग्रिडों के निर्माण के लिए किया जा सकता है।

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