Author : Vinitha Revi

Expert Speak Raisina Debates
Published on Oct 14, 2024 Updated 0 Hours ago

चागोस द्वीप समूह पर दशकों पुराने ब्रिटिश-मॉरीशस विवाद का समाधान हो गया है. इस ऐतिहासिक समझौते में डिएगो गार्सिया पर ब्रिटेन-अमेरिका की उपस्थिति को भी संरक्षित रखा गया है.

चागोस द्वीप: ब्रिटेन और मॉरीशस के बीच हुए ऐतिहासिक समझौते का महत्व!

एक ऐतिहासिक कदम में, यूनाइटेड किंगडम (यूके) और मॉरीशस ने इस बात की घोषणा की है कि चागोस द्वीपसमूह पर लंबे समय से चले आ रहे संप्रभुता विवाद को लेकर वो एक समझौते पर पहुंच गए हैं. ये द्वीप समूह हिंद महासागर के बीच में स्थित है. सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि इसी प्रायद्वीप में डिएगो गार्सिया नाम का वो द्वीप भी है, जहां पर ब्रिटेन और अमेरिका का संयुक्त सैनिक अड्डा है. डिएगो गार्सिया इस प्रायद्वीप समूह के बड़े द्वीपों में से एक है. हालांकि इसे लेकर दोनों सरकारों के बीच कई दशकों से विचार-विमर्श चल रहा है. कभी-कभी कानूनी लड़ाई और दोनों पक्षों के सख़्त रुख़ की वजह ऐसा लगता था कि इस विवाद का समाधान निकलना मुश्किल है. चागोस प्रायद्वीप पर दोनों देशों के बीच हालिया बातचीत नवंबर 2022 में उम्मीद और सतर्क आशावाद के साथ शुरू हुई. तब से 13 दौर की बातचीत हो चुकी है. इनमें से 11 दौर की बातचीत ब्रिटेन की पिछली सरकार से और दो दौर की बातीचत मौजूदा सरकार के साथ हुई. आखिरकार दोनों पक्ष एक समझौते पर पहुंच ही गए. हालांकि "इस संधि को अंतिम रूप देने और कानूनी उपकरणों द्वारा इसका समर्थन करने की प्रक्रिया जारी है".

चागोस प्रायद्वीप पर दोनों देशों के बीच हालिया बातचीत नवंबर 2022 में उम्मीद और सतर्क आशावाद के साथ शुरू हुई. तब से 13 दौर की बातचीत हो चुकी है. इनमें से 11 दौर की बातचीत ब्रिटेन की पिछली सरकार से और दो दौर की बातीचत मौजूदा सरकार के साथ हुई.

ब्रिटेन-मॉरीशस संप्रभुता विवाद के मूल में तीन मुख्य मुद्दे रहे हैं. पहला सवाल संप्रभुता का है, यानी इन द्वीपों का मालिक कौन है? दूसरा सवाल चागोसियन समुदाय से संबंधित है, यानी इन द्वीपों के मूल निवासी, जिन्हें जबरन निर्वासित किया गया था. अब वो मॉरीशस, सेशेल्स और ब्रिटेन में बिखरे हुए हैं. चागोसियों के लिए आज मुख्य मुद्दा अपने मूल निवास-द्वीपों पर लौटने का उनका अधिकार है जिससे उन्हें अब तक वंचित रखा गया है. ब्रिटिश अधिकारियों की देखरेख में कुछ 'विरासत यात्राओं' के अलावा, चागोसियनों को ब्रिटेन सरकार द्वारा द्वीपों पर लौटने की अनुमति नहीं दी गई है.

अंत में, और शायद सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा जो इस विवाद के केंद्र में है, वो डिएगो गार्सिया द्वीप पर ब्रिटेन और अमेरिका के संयुक्त सैन्य सुविधा का संचालन है. ब्रिटिश संसद की विदेशी मामलों की चयन समिति द्वारा पूछा गया प्रश्न इस चिंता को अच्छी तरह से दर्शाता है: ये सवाल है कि "एक लीजिंग (पट्टा) समझौते बनाम एक संप्रभु आधार क्षेत्र समझौते की कमियां क्या हैं?"

असल संदर्भों में देखें तो इस प्रश्न का अर्थ ये है कि अगर चागोस द्वीपसमूह मॉरीशस को सौंप दिया जाता है, तो क्या उसकी सरकार सैन्य सुविधा के सुचारू और कुशल संचालन की गारंटी दे सकती है? फिलहाल तो ऐसा लग रहा है कि तीनों मुद्दे सुलझ गये हैं. हालांकि, जमीनी हक़ीकत कितनी बदलेगी ये तो वक्त ही बताएगा. यहां समझौते के प्रमुख पहलुओं और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के संदर्भ में उनके अहमियत पर विचार करना महत्वपूर्ण है.

 आखिर किन मुद्दों पर सहमति बनी है?

संप्रभुता


संप्रभुता का मुद्दा स्पष्ट रूप से हल हो गया है. दोनों देश इस बात पर सहमत हुए हैं कि "इस संधि की शर्तों के तहत ब्रिटेन इस बात पर सहमत होगा कि मॉरीशस, डिएगो गार्सिया सहित चागोस द्वीपसमूह पर संप्रभु हैं." हालांकि, इस बात पर भी सहमति हुई है कि 99 वर्षों की प्रारंभिक अवधि के लिए, ब्रिटेन "डिएगो गार्सिया के संबंध में मॉरीशस के संप्रभु अधिकारों और अधिकारियों का प्रयोग करने के लिए अधिकृत होगा, जो अगली शताब्दी तक सैनिक अड्डे के निरंतर संचालन को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक हैं".

संप्रभुता का मुद्दा स्पष्ट रूप से हल हो गया है. दोनों देश इस बात पर सहमत हुए हैं कि "इस संधि की शर्तों के तहत ब्रिटेन इस बात पर सहमत होगा कि मॉरीशस, डिएगो गार्सिया सहित चागोस द्वीपसमूह पर संप्रभु हैं."

चागोस द्वीपसमूह पर संप्रभुता के मॉरीशस के दावों पर ब्रिटेन का सहमत होना एक ऐतिहासिक निर्णय है. हालांकि ये मुद्दा लंबे समय से लंबित था और इस पर सहमति बनने में कई साल लग गए. बड़ी और ताकतवार शक्तियां छोटे देशों को शायद ही कभी क्षेत्र सौंपती हैं, विशेष रूप से डिएगो गार्सिया जैसी संपत्तिया, जो रणनीतिक रूप से बहुत महत्व की है. यही वजह है कि साल से अंतरराष्ट्रीय दबाव और कई अदालती मामलों का सामना करने के बावजूद, ब्रिटेन ने अब तक चागोस द्वीपसमूह पर अपना दावा बरकरार रखा है. मॉरीशस 1980 के दशक से इस द्वीपसमूह पर ब्रिटेन की संप्रभुता का विरोध कर रहा है. इस लिहाज़ से देखें तो ये मॉरीशस के लिए एक महत्वपूर्ण समझौता है. जैसा कि मॉरीशस के प्रधानमंत्री प्रविंद जुगनौथ ने कहा, "हम अपने गणतंत्र को उपनिवेशवाद की छाया से पूरी तरह मुक्त करने के लिए दृढ़ संकल्पित थे". भारत सरकार (जीओआई) ने सार्वजनिक रूप से और पर्दे के पीछे से मॉरीशस के समर्थन में अभियान चलाते हुए कहा है, "ये महत्वपूर्ण समझौता मॉरीशस को उपनिवेशवाद से मुक्त करता है".




समझौते के केंद्र में क्या रहा?  

डिएगो गार्सिया द्वीप हमेशा से वार्ता के केंद्र में रहा है. हालांकि अमेरिका ने ब्रिटेन और मॉरीशस के बीच चागोस द्वीप समूह के संबंध में विभिन्न असहमतियों पर लगातार चुप्पी बनाए रखी. यहां पर ये बात गौर करने वाली है कि ब्रिटेन और मॉरीशस की सरकारों के बीच नए समझौते में अमेरिका एक प्रमुख हितधारक है, वास्तव में एक लाभार्थी है. अमेरिकी सैन्य अभियानों के लिए डिएगो गार्सिया के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता.

सभी पक्षों, यानी कि ब्रिटेन, मॉरीशस और यहां तक कि बड़े पैमाने पर चागोसियन समुदाय ने भी इस डिएगो गार्सिया के महत्व को बात को स्वीकार किया है. इनका कहना है कि इस सैनिक अड्डे के निरंतर अमेरिकी और ब्रिटिश परिचालन नियंत्रण को सुनिश्चित करना चागोस द्वीपसमूह पर होने वाली किसी भी बातचीत के परिणाम की आधारशिला होगी. यही कारण है कि मॉरीशस सरकार ने पिछले कुछ समय से सार्वजनिक रूप से और आधिकारिक तौर पर संयुक्त यूके-यूएस सैन्य अभियानों के लिए डिएगो गार्सिया बेस को 99 साल के पट्टे पर देने की अपनी पेशकश स्पष्ट रूप से की है.

हालांकि समझौते में कहा गया है कि ब्रिटेन इस बात से सहमत होगा कि 'मॉरीशस डिएगो गार्सिया सहित चागोस द्वीपसमूह पर संप्रभु है'. समझौते में ये बात भी स्पष्ट रूप से जोड़ी गई है कि "इसके साथ ही,  दोनों देश इस बात के लिए प्रतिबद्ध हैं कि डिएगो गार्सिया पर मौजूद सैनिक अड्डा क्षेत्रीय और वैश्विक सुरक्षा में दीर्घकालिक, सुरक्षित और प्रभावी संचालन को सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. इस बात को चागोस प्रायद्वीप पर बनी संधि में शामिल किया गया है. इस समझौते का एक प्रमुख लक्ष्य अगली शताब्दी तक सैन्य अड्डे के निरंतर संचालन को भविष्य में सुरक्षित बनाना है.

वापसी के अधिकार का समर्थन

ये समझौता चागोसी समुदाय के लोगों के "डिएगो गार्सिया के अलावा चागोस द्वीपसमूह के द्वीपों पर पुनर्वास" का समर्थन करता है. समझौते में कहा गया है कि "मॉरीशस पुनर्वास के कार्यक्रम को लागू करने के लिए स्वतंत्र है". मॉरीशस में पूर्व ब्रिटिश उच्चायुक्त रहे डेविड स्नोक्सेल ने तर्क दिया है कि “हमें डिएगो गार्सिया और बाहरी द्वीपों के बीच अंतर करना चाहिए. जो 56 बाहरी द्वीप डिएगो गार्सिया सैन्य अड्डे से 130 मील दूर हैं, वहां काफ़ी अलग से व्यवहार किया जा सकता है. यहां चागोस समुदाय का पुनर्वास करवाया जा सकते है.

हालांकि, पुनर्वास हमेशा एक जटिल और विवादित मुद्दा रहा है. 2002 की शुरुआत में और इसके बाद भी 2010 और 2015 में किए गए व्यवहार्यता अध्ययनों पर काफ़ी बहस हुई है. ये कहा गया कि इन द्वीपों पर पुनर्वास कराना व्यावहारिक नहीं है. इसके पीछे ये तर्क दिया गया कि इस पर बहुत ज़्यादा लागत लगेगी. इन द्वीपों पर बुनियादी ढांचा भी अपर्याप्त है. हालांकि कई विशेषज्ञों ने ये भी कहा कि इन तर्कों की वजह से बाहरी द्वीपों पर पुनर्वास को नहीं रोका जाना चाहिए था. शुरूआत में प्रयोग के तौर पर यहां पुनर्वास किया जा सकता था. 

डिएगो गार्सिया अमेरिकी सैन्य अभियानों के लिए एक महत्वपूर्ण रणनीतिक संपत्ति है. कुछ ही महीने पहले, सुरक्षा चिंताओं के कारण अमेरिका ने ब्रिटेन की एक न्यायाधीश और उनकी टीम को डिएगो गार्सिया में प्रवेश करने से रोक दिया था, जबकि ब्रिटेन इसे अपना क्षेत्र मानता था.

जैसा कि इस बात को स्वीकार किया गया है कि डिएगो गार्सिया अमेरिकी सैन्य अभियानों के लिए एक महत्वपूर्ण रणनीतिक संपत्ति है. कुछ ही महीने पहले, सुरक्षा चिंताओं के कारण अमेरिका ने ब्रिटेन की एक न्यायाधीश और उनकी टीम को डिएगो गार्सिया में प्रवेश करने से रोक दिया था, जबकि ब्रिटेन इसे अपना क्षेत्र मानता था. ये पूरी तरह से अभूतपूर्व घटना थी, लेकिन इसने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि सुरक्षा संबंधी चिंताएं कभी-कभी अन्य सभी प्रोटोकॉल पर भारी पड़ती हैं. इसलिए ये समझौता भले ही स्पष्ट रूप से पुनर्वास का समर्थन करता है, लेकिन ये देखना अभी बाकी है कि ऐसा पुनर्वास कार्यक्रम ज़मीनी स्तर पर कैसे लागू होगा?  इसके अलावा ये बात भी महत्वपूर्ण है कि चंगोस लोगों को एक मोनोलिथ (एक ही तरह का समुदाय) नहीं माना जाना चाहिए. जब पुनर्वास की बात आती है तो अलग-अलग लोगों के विभिन्न प्रकार के विचार होते हैं और सभी चागोसियन इन द्वीपों पर वापस नहीं लौटना चाहते हैं.

कूटनीति की ताकत

पिछले कुछ समय से ये स्पष्ट हो गया था कि चागोस द्वीप समूह पर ब्रिटेन को समझौता करना पड़ेगा. काफ़ी वक्त से ब्रिटेन इस मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय में खुद को अलग-थलग पा रहा है. पूरी दुनिया को ये पता चल रहा है कि सत्ता पर बने रहने के लिए ब्रिटिश साम्राज्य ने कितनी भयानक रणनीतियों और दबाव की राजनीति का सहारा लिया. ब्रिटिश साम्राज्य के इतिहास के बारे में और इस दौरान की गई हिंसक घटनाओं को नए सिरे से दुनिया के सामने लाया जा रहा है. इससे यूनाइटेड किंगडम के कई पूर्व उपनिवेशों में ब्रिटेन विरोधी भावना बन रही है. इन सबके बीच मॉरीशस के साथ चल रहा संप्रभुता विवाद नियम-आधारित व्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय कानून के एक ज़िम्मेदार धारक के रूप में ब्रिटेन की वैश्विक छवि और प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा रहा है. खुद ब्रिटेन, अमेरिका और पश्चिम के बाकी देश चीन को ये बात कह रहे हैं कि वो दूसरे देशों की संप्रभुता का ध्यान रखे. ऐसे में ब्रिटेन अगर मॉरीशस को उसके अधिकार नहीं देता तो उस पर सवाल खड़े होते.

खुद ब्रिटेन, अमेरिका और पश्चिम के बाकी देश चीन को ये बात कह रहे हैं कि वो दूसरे देशों की संप्रभुता का ध्यान रखे. ऐसे में ब्रिटेन अगर मॉरीशस को उसके अधिकार नहीं देता तो उस पर सवाल खड़े होते.

इसी नैरेटिव के सुधार के रूप में सामने आया ब्रिटेन और मॉरीशस के बीच का ये समझौता आज की स्थिति में कूटनीति, सहयोग और पारस्परिक सम्मान की शक्ति का जश्न मनाता है. हालांकि, अंतरराष्ट्रीय संबंधों में, बड़ी शक्तियाँ कई बार अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आईसेजे) और संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों की अनदेखी भी कर देती हैं लेकिन ब्रिटेन और मॉरीशस के बहीच हुआ द्विपक्षीय समझौता ये दिखाता है कि कई बार छोटी शक्तियां अंतरराष्ट्रीय कानूनों का सफलतापूर्वक उपयोग करती हैं. अपने सहयोगियों के साथ मिलकर विदेश नीति के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए इन मंचों का इस्तेमाल करती हैं. 


विनीता रेवी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में एक स्वतंत्र विचारक हैं.

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