एक ओर जहां कई लोग जलवायु परिवर्तन के आसन्न ख़तरों से निपटने के लिए तकनीक के भरोसे बैठे हैं, लेकिन वहीं अब दूसरी ओर ये स्पष्ट हो गया है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अब केवल यही एकमात्र साधन नहीं हो सकता और हमें दूसरी प्रक्रियाओं में भी निवेश करना होगा. उदाहरण के लिए, तकनीक के स्तर पर देखें तो अब तक सबसे महत्वाकांक्षी तकनीकी प्रयासों में से एक क्लाइमवर्क्स ओर्का प्लांट है, जिसे अभी पिछले महीने आइसलैंड में शुरू किया गया था. ये संयंत्र इस बात का साफ़ उदाहरण है कि ‘तकनीकी चमत्कार’ की क्या खामियां हैं. ये संयंत्र एक साल में करीब 4 हज़ार टन कार्बन डाई ऑक्साइड की वातावरण से सफ़ाई कर सकता है, जो महज़ आठ सौ कारों से साल भर में होने वाले उत्सर्जन के बराबर है. इस तरह के नवाचार के लिए सबसे बड़ी चुनौती उसकी क्षमता को बढ़ाना और अलग अलग भौगोलिक क्षेत्रों में इसकी उपलब्धता को सुनिश्चित करना है. वैश्विक तापमान के ख़तरों की तात्कालिकता को देखते हुए इन नवाचारों को तय समय पर साकार कर पाना संभव नहीं है.
वैश्विक उत्तर के देश अपने कदम पीछे खींच रहे हैं, यहां तक कि कुछ मामलों में वे इस सोच का प्रसार कर रहे हैं कि अर्थव्यवस्था में बिना किसी नाटकीय परिवर्तन या उपभोग स्तर में बदलाव लाए बिना ही जलवायु परिवर्तन से लड़ा जा सकता है.
अब समय है कि हम ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करें, जिसके बारे में हम दशकों पहले से जानते थे कि ऐसा करने की ज़रूरत है. इस कटौती से जुड़ी सबसे बड़ी जटिलता ये है कि दुनिया के अधिकांश हिस्सों में औद्योगीकरण अभी भी चल रहा है. वैश्विक दक्षिण के देश विकास की प्रक्रिया में पीछे नहीं छूटना चाहते, जो उनका अधिकार है. हालांकि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों द्वारा समर्थित विकास की जो रूपरेखा है, वो बहुत हद तक अत्यधिक उत्सर्जन आधारित आर्थिक गतिविधियों पर निर्भर है, वहीं साफ़ एवं हरित संसाधनों के दोहन के लिए उपलब्ध निवेश काफ़ी कम है. ठीक उसी समय वैश्विक उत्तर के देश अपने कदम पीछे खींच रहे हैं, यहां तक कि कुछ मामलों में वे इस सोच का प्रसार कर रहे हैं कि अर्थव्यवस्था में बिना किसी नाटकीय परिवर्तन या उपभोग स्तर में बदलाव लाए बिना ही जलवायु परिवर्तन से लड़ा जा सकता है. जलवायु परिवर्तन से निपटने की “सिर्फ बातें बनाने वाली” रणनीति, जैसा कि ग्रेटा थनबर्ग ने कहा, काम नहीं कर रही है. बल्कि, पूरी दुनिया, ख़ासकर उच्च आय वाले देशों को ये समझना होगा कि वे महज़ बातों के जरिए या किसी समझौते के जरिए जलवायु परिवर्तन की समस्या से नहीं निपट सकते जो कि उन्होंने खुद खड़ी की है. बल्कि ये वो समय है कि उन्हें अपनी राजनीतिक रणनीति को दुरस्त करते हुए एक समता आधारित रणनीति अपनानी चाहिए और इसके लिए उन्हें अभूतपूर्व तरीके से हरित ऊर्जा आधारित अर्थव्यवस्था में परिवर्तन हेतु भारी निवेश करना चाहिए. उसके अलावा एक और जटिलता ये है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के क्रम में उन्हें विकासशील देशों में भी निवेश करना होगा, जो क्रेडिट रिस्क (ये उस स्थिति को इंगित करता है जब कर्ज़दार देश अपना कर्ज़ चुकाने में असफल हो जाते हैं या फिर कर्ज़ की शर्तों को पूरा करने में विफल हो जाते हैं)
और पूंजीगत लागत (ये वो सिद्धांत है, जहां निवेशकर्ता किसी निवेश से जुड़े मुनाफे की संभावना को परखते हैं) के तर्क को चुनौती देता है. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की वैश्विक अर्थव्यवस्था वित्तीय प्रवाह के इन्हीं दो सिद्धांतों पर टिकी हुई है.
कोरोना महामारी ने ऐसे अवसर पैदा किए हैं, जिसने हमारे शहरों को स्वास्थ्यकर बनाने, हमारी सामाजिक सुरक्षा प्रणाली को और मजबूत करने, समता-आधारित समाज बनाने और जलवायु परिवर्तन का अर्थपूर्ण तरीके से सामना करने की मांग को बढ़ा दिया है. अब पहले से कहीं ज़्यादा संख्या में लोग “संस्थागत जोख़िम” के अर्थ को समझ पा रहे हैं और महामारी के कारण आई तबाही को देखते हुए सरकारों को इन खतरों से निपटने के प्रति और जागरूक होना चाहिए.
यूनाइटेड किंगडम (यूके) और भारत साझेदार के रूप में इन नए अवसरों का उपयोग करने, ग्लासगो समझौते और उससे आगे के लिए भी एक रोड मैप तैयार करने के लिए अच्छी तरह से तैयार हैं. इस साझेदारी के अपने महत्त्व हैं. भारत जैसे देश हरित परिवर्तन का नेतृत्व के रहे हैं (पेरिस समझौते के तहत तापमान परिवर्तन को ‘2 डिग्री’ तक सीमित रखने की अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने वाला एकमात्र जी -20 देश) जबकि पूंजी और प्रौद्योगिकी यूके जैसे विकसित देश पर नियंत्रण रखते हैं. अपनी विशिष्ट भूमिकाओं और शक्तियों का लाभ उठाते हुए, यूके और भारत विशेष रूप से तीन क्षेत्रों में साझेदार के रूप में मिलकर काम कर सकते हैं. इसमें शामिल हैं: मानव पूंजी विकास, जलवायु वित्त एवं स्वच्छ ऊर्जा और बुनियादी ढांचे का वित्त पोषण, और ग्रीन एंड स्मार्ट मैन्युफैक्चरिंग.
उच्च शिक्षा में साझेदारी
शिक्षा, ज्ञान, नवाचार और अनुसंधान में यूके दुनिया के अग्रणी देशों में से एक है, जबकि भारत दुनिया के कुछ उन देशों में से एक है जहां सबसे ज़्यादा मात्रा में लोग उच्च शिक्षा के लिए आगे आ रहे हैं, और जो अनुसंधान और नवाचार के दृष्टिकोण से एक बहुत बड़ा बाज़ार है. पिछले बीस सालों में उच्च शिक्षा हासिल करने वालों की संख्या तीन गुनी हो गई है लेकिन वो अभी भी 28% के स्तर पर सीमित है. इस अवसर को सरल तरीके से समझाएं तो भारत की जनसंख्या का क़रीब आधा हिस्सा 25 से कम आयु वर्ग का है, इसलिए बहुत संभावना है कि उच्च शिक्षा की मांग बढ़ने वाली है. इसलिए परिणामस्वरूप यूके में शिक्षा के अवसर तलाशने वालों की भारतीयों की संख्या में वृद्धि आई है. 2019 में, यूके में पढ़ने वाले 37500 से ज़्यादा भारतीय छात्रों को टियर-4 स्टूडेंट वीजा दिया गया. जबकि एक विस्तृत संदर्भ में देखें तो छात्रों की ये संख्या बहुत अधिक है लेकिन भारत में ऑक्सब्रिज (ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज यूनिवर्सिटी का सम्मिलित रूप) समुदाय बनाने से परे इस संख्या का महत्त्व बेहद सीमित है.
नई शिक्षा नीति के तहत भारत में उच्च गुणवत्ता वाली उच्च शिक्षा तक पहुंच को आसान बनाया जा सकता है, और यूके-भारत के बीच अकादमिक और वैज्ञानिक सहयोग को मजबूत करते हुए शोध और अर्थपूर्ण नवाचार के अवसरों को निर्मित किया जा सकता है.
भारत की नई शिक्षा नीति (2020) ने विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए भारत में अपनी शाखा का निर्माण करना आसान और आकर्षक बना दिया है. इस नई शिक्षा नीति के तहत भारत में उच्च गुणवत्ता वाली उच्च शिक्षा तक पहुंच को आसान बनाया जा सकता है, और यूके-भारत के बीच अकादमिक और वैज्ञानिक सहयोग को मजबूत करते हुए शोध और अर्थपूर्ण नवाचार के अवसरों को निर्मित किया जा सकता है. इन सभी गतिविधियों के जरिए व्यापक स्तर पर भारत में मानव पूंजी, कौशल और ज्ञान का निर्माण किया जा सकता है, जो एक समावेशी और ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था के लिए अहम हैं.
यूके के संस्थानों को विदेशी बाजारों में निवेश करके और महत्वपूर्ण भौगोलिक क्षेत्रों में भविष्य के वैश्विक शिक्षा परिसरों के निर्माण के लिए भागीदारी के जरिए अपनी वैश्विक भूमिका को फिर से जांचना चाहिए.
वित्तीय साझेदारी
भारत-यूके की भागीदारी का दूसरा संभावित क्षेत्र वित्त है. जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने के लिए बहुत बड़े स्तर पर वित्तीय निवेश की आवश्यकता होगी. यह एनेक्स-2 देशों (ऐसे देश जो विकासशील देशों को ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने के लिए वित्तीय सहयोग देंगे) की सौ बिलियन अमेरिकी डॉलर की वार्षिक प्रतिबद्धता से बहुत अधिक है. उदाहरण के लिए, 2030 तक केवल अपने नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्यों को पूरा करने के लिए, भारत को लगभग 2.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता होगी.
हरित परिवर्तन के लिए वित्तीय संसाधन जुटाने की समान लेकिन सकारात्मक विभेद आधारित ज़िम्मेदारियों के अनुपालन के लिए ये ज़रूरी है कि औद्योगिक देशों को (छोटे छोटे स्तरों पर) सहयोग करना चाहिए और नई दिल्ली के इस महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य को पूरा करने के लिए जरूरी वित्तीय प्रवाहों को बढ़ाने में अपनी भूमिका निभानी चाहिए. हालांकि, कई देश अपनी छोटी-छोटी प्रतिबद्धताओं के अनुपालन में भी पिछड़ रहे हैं. जब तक कि भारत एवं अन्य विकासशील देशों को हम जरूरी वित्तीय संसाधन उपलब्ध नहीं कराते, हम जलवायु परिवर्तन को रोकने की जंग को हार जायेंगे और उसका जो भी परिणाम सामने आयेगा, वो अप्रत्याशित और निर्णायक होगा.
अगर जलवायु जोख़िम को वर्तमान में एक स्पष्ट ख़तरे के रूप में देखा जाए, तो जलवायु परिवर्तन के ख़तरों से बचाव से जुड़ी सभी गतिविधियों के वित्त पोषण की लागत सभी महाद्वीपों के लिए समान होनी चाहिए.
व्यापक स्तर पर ‘हरित परिवर्तन’ में निवेश के लिए ये महत्त्वपूर्ण अवसर हैं, जिन्हें मूर्त रूप में साकार करना अभी बाकी है. दुर्भाग्य से, भारत में स्वच्छ ऊर्जा क्षेत्रों में वित्तीय संस्थानों की भूमिका बेहद सीमित है. बड़े स्तर पर परिवर्तन के लिए नई सोच, नवाचारी वित्तीय उत्पाद और ऋण की लचीली और सुगम शर्तों की आवश्यकता है. ये मानवता के विरुद्ध अपराध होगा अगर किसी ऐसे देश को हरित अर्थव्यवस्था के निर्माण के लिए विकसित देशों से उच्च दरों पर ऋण लेना पड़े जबकि वे भविष्य में उत्सर्जन को कम करने के दृष्टिकोण से बेहद महत्त्वपूर्ण देश हैं. अगर जलवायु जोख़िम को वर्तमान में एक स्पष्ट ख़तरे के रूप में देखा जाए, तो जलवायु परिवर्तन के ख़तरों से बचाव से जुड़ी सभी गतिविधियों के वित्त पोषण की लागत सभी महाद्वीपों के लिए समान होनी चाहिए.
भारतीय रेलवे वित्त निगम (आईआरफीसी: इंडियन रेलवे फाइनेंस कॉरपोरेशन) द्वारा 2017 में जारी किए गए क्लाइमेट बॉन्ड्स इस संभावना के बढ़िया उदाहरण हैं. इस बॉन्ड के जरिए विश्व भर में निवेशकों से करीब 500 मिलियन अमरीकी डॉलर की उगाही की गई. भारत की नगर निगम संस्थाएं, जिसमें इंदौर नगर निगम (आईएमसी: इंदौर म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन) भी शामिल है, भी ‘ग्रीन मसाला बॉन्ड्स’ के जरिए जलवायु उत्तरदायी परियोजनाओं के लिए धन जुटाने पर विचार कर रही है. हरित बॉन्ड्स भारत जैसे देशों को ऐसे अवसर प्रदान करते हैं, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वित्त उगाही के लिए उनकी विभिन्न चैनलों तक पहुंच को सुगम बनाता है, जिसके लिए यूके में काफ़ी ज़्यादा मांग दिखाई देती है. सितंबर में यूके ने अपना पहला संप्रभु हरित बॉन्ड (सॉवरेन ग्रीन बॉन्ड, एक प्रकार की ऋण प्रतिभूति होती है, जिसके जरिए एक देश कम कार्बन उत्सर्जन वाली अर्थव्यवस्था में निवेश की अपनी प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए जरूरी वित्त की उगाही करता है) जारी किया, जिसके जरिए उसने करीब 90 बिलियन ब्रिटिश पाउंड की मांग के साथ 10 बिलियन ब्रिटिश पाउंड जैसी बड़ी रकम की उगाही की, जिससे हमें इन निवेशों की मांग की संभावना का पता चलता है.
इसके अलावा, ऐसे क़ानूनों और नियमों, जो वर्तमान परिस्थितियों में अवरोधक बन चुके हैं, को हटाना या उन्हें लचीला करना होगा ताकि पेंशन और बीमा निधियों का निवेश उभरती अर्थव्यवस्थाओं में किया जा सके, जो जलवायु युद्ध के सबसे प्रमुख क्षेत्र हैं. ये निधियों में विश्व स्तर पर सर्वाधिक बचत का निवेश किया गया है, जो जीवाश्म ईंधन आधारित व्यवसायों से होने वाली आयों से की गई बचतें हैं, और इन्हें एक दीर्घकालीन पूंजीगत निवेश के रूप में उभरती और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में स्वच्छ और हरित अवसंरचना निर्माण के क्षेत्र में निवेशित करना एक प्रकार का न्याय है. खुदरा क्षेत्र को भी नवाचार की आवश्यकता है. किसी भी बाजार में छतों के लिए सौर उपकरण खरीदने के लिए उतनी छूट मिलनी चाहिए, जितना कि कार और एयर कंडीशनर ख़रीदने के लिए उपलब्ध ऋण पर छूट (वित्तीय लागत) दी जाती है. थोक और खुदरा क्षेत्र ने अभी तक पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं; क्या इसे बदलने के लिए लंदन और नई दिल्ली भागीदार हो सकते हैं?
खुदरा क्षेत्र को भी नवाचार की आवश्यकता है. किसी भी बाजार में छतों के लिए सौर उपकरण खरीदने के लिए उतनी छूट मिलनी चाहिए, जितना कि कार और एयर कंडीशनर ख़रीदने के लिए उपलब्ध ऋण पर छूट (वित्तीय लागत) दी जाती है.
ग्रीन मैन्युफैक्चरिंग और वैल्यू चेन में साझेदारी
तीसरे अवसर को हरित एवं कुशल विनिर्माण और हरित मूल्य श्रृंखला के सहयोग के रूप में देखा जा सकता है. यहां फिर से दोहराना होगा कि महामारी ने हमें ये दिखाया है कि महत्त्वपूर्ण उत्पादों की आपूर्ति के लिए किसी एक देश पर अत्यधिक निर्भर होने के क्या ख़तरे हो सकते हैं. उदाहरण के लिए चीन, दुनिया की सबसे बड़ी सौर और पवन निर्माण कंपनियों का स्वामित्व रखता है. भारत आपूर्ति श्रृंखलाओं में विविधता लाने और उन्हें अधिक लचीला बनाने के एक विकल्प रूप में उभर कर सामने आया है. हमारे पास ये एक मौका है कि हम भारत के हरित विनिर्माण क्षमताओं को बढ़ाने के लिए उसमें निवेश करें और नवीकृत एवं अन्य हरित प्रौद्योगिकियों के लिए मजबूत आपूर्ति श्रृंखला का निर्माण करें. यूके द्वारा अनुसंधान एवं विकास और नवाचार में किए गए बाहरी निवेश ने वर्तमान में केवल बीजिंग को लाभ पहुंचाया है. अब समय है कि हम इस एकतरफा मूल्य श्रृंखला (वैल्यू चेन) के बारे में पुनर्विचार करें. भारत और यूके के बीच नवाचार और कुशल विनिर्माण संबंधों की आवश्यकता है. इस तरह के सहयोगी संबंधों की संभावना का उदाहरण हम एस्ट्रेजनेका वैक्सीन के रूप में देख सकते हैं, जहां वैक्सीन से जुड़ा अनुसंधान यूके ने किया, वहीं उसका बड़े स्तर पर उत्पादन भारत के सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (जो विश्व की सबसे बड़ा वैक्सीन निर्माता कंपनी है) द्वारा किया गया. इसके अलावा भारत अपने हरित उत्पादों और विनिर्माण क्षमताओं का अन्य क्षेत्रों में भी विस्तार कर रहा है. उदाहरण के लिए हरित परिवर्तन के लिए जरूरी नई पीढ़ी की बैटरी तकनीकों का विकास और हाइड्रोजन उत्पादन. भारतीय कंपनियां साझेदारी के अवसर तलाश रही हैं और यह समय इस संभावना को राजनीतिक बल देने का है. बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड, क्वॉड, यूरोपीय संघ (ईयू) और भारतीय साझेदारी, ये सभी मंच इसका समर्थन करते हैं.
हमें लोगों की जान बचाने, उनके स्वास्थ्य को बेहतर करने, उनका रोजगार संरक्षित करने के लिए आगे आना होगा और वर्तमान और आगामी पीढ़ी के लिए संसाधनों का संरक्षण करना होगा.
हमें लोगों की जान बचाने, उनके स्वास्थ्य को बेहतर करने, उनका रोजगार संरक्षित करने के लिए आगे आना होगा और वर्तमान और आगामी पीढ़ी के लिए संसाधनों का संरक्षण करना होगा. लेकिन इसे पूरा कर दिखाने के लिए जो सबसे महत्त्वपूर्ण कारण होना चाहिए, वो ये है कि हमारे पास करोड़ों-अरबों लोगों के जीवन को और बेहतर बनाने की सामूहिक इच्छाशक्ति होनी चाहिए, जो आर्थिक मुख्यधारा से कटे हुए हैं और रोज़गार और गरिमापूर्ण जीवन से वंचित रहे हैं. ये दुनिया के सबसे बड़े समूह हैं, और समृद्ध दुनिया की खुशहाली की सीमित तस्वीर के मद्देनज़र इनके साथ हुई अनदेखी को नहीं छिपाया जाना चाहिए. भारत और यूके इस स्थिति में परिवर्तन लाने के लिए न सिर्फ सक्षम हैं बल्कि उन्हें एक साझीदार के तौर पर इसके लिए काम करना चाहिए.
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