- सिस्टम की एफिशिएंसी बढ़ाने की कोशिश, न कि बड़े रिफॉर्म पर जोर
- पीपीपी के रास्ते इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र के लिए बड़ी योजना
- 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था का रोडमैप
- पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाने से महंगाई बढ़ेगी
बड़े सपने देखने का मतलब यह नहीं है कि बड़े कदम भी उठाए जाएं. आप छोटे डग भरकर भी मंजिल तक पहुंच सकते हैं. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने पहले बजट भाषण में साल 2025 तक देश की अर्थव्यवस्था को 5 लाख करोड़ डॉलर तक पहुंचाने (पहले 2024 तक इस लक्ष्य को हासिल करने की बात कही जा रही थी) का वादा किया है. उन्होंने इसमें मंजिल तक पहुंचने का रास्ता भी दिखाया है. अगर आप बजट में ‘बिग बैंग रिफॉर्म’ यानी बड़े आर्थिक सुधार ढूंढ रहे हैं तो मायूसी हाथ लगेगी. हालांकि, इसमें कई छोटे कदमों का ज़िक्र है, जिनसे एफिशिएंसी बढ़ेगी यानी व्यवस्था में सुधार होगा. यह काम एनडीए सरकार पिछले पांच साल से कर रही है, जिसे जारी रखने का हौसला बीजेपी को लोकसभा चुनाव में 303 सीटों पर जीत से मिला है.
वित्त मंत्री के लिए आज सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक विकास दर यानी जीडीपी ग्रोथ को तेज़ करना है, जो फिसलकर 6.8% पर आ गई है. वैसे- यह भी सच है कि दुनिया के किसी भी बड़े देश की ग्रोथ इससे अधिक नहीं है. देश की ग्रोथ दो वजहों से कम हुई है. इनमें से पहली बैंकिंग सिस्टम में नकदी यानी कैश की कमी और कर्ज बांटने की धीमी रफ्तार है. निर्मला ने इस समस्या को ख़त्म करने के लिए पब्लिक सेक्टर के बैंकों (पीएसबी) को 70 हज़ार करोड़ रुपये देने का प्रस्ताव रखा है. उन्हें उम्मीद है कि इसके बाद सरकारी बैंक कर्ज बांटने की रफ्तार बढ़ाएंगे. वित्त मंत्री ने इन बैंकों के गवर्नेंस में सुधार का वादा भी किया है. इसके साथ गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) से एक लाख़ करोड़ तक का कर्ज़ खरीदने पर सरकारी बैंकों को होने वाले घाटे का 10% बोझ सरकार बर्दाश्त करेगी. निर्मला ने एक बार और छह महीने के लिए यह योजना पेश की है. साथ ही, उन्होंने एनबीएफसी के रेगुलेशन यानी निगरानी के लिए आरबीआई की ताकत बढ़ाने की भी बात कही है.
पहली नजर में ये अच्छे प्रस्ताव हैं, लेकिन क्या इनका असर होगा? इसका जवाब इतना आसान नहीं है. इकोनॉमिक सिस्टम पर आज भरोसे की कमी है. इसलिए उद्यमी नए प्रोजेक्ट्स शुरू नहीं कर रहे हैं. इससे भी बुरी बात यह है कि बैंक अधिकारी कर्ज़ देने में हिचक रहे हैं क्योंकि उसके डूबने पर उन्हें जेल में डाले जाने का डर है. इस मामले में वित्त मंत्री बहुत कुछ कर भी नहीं सकतीं. इसके लिए इकोनॉमिक सिस्टम को बदलना होगा. उसे समझना होगा कि सारे बिज़नेस फ्रॉड के कारण फेल नहीं होते और हर डूबे हुए कर्ज़ की वजह स्कैम नहीं होती. सिर्फ वित्त मंत्री नहीं बल्कि समूची सरकार को ‘उन्हें जेल में डालो’ वाली सोच से बाहर निकलना होगा. केंद्र को इस मुश्किल को खत्म करने के उपाय सोचने पड़ेंगे, नहीं तो बैंक अधिकारी जोख़िम उठाने के बजाय सरकारी बॉन्ड में पैसा लगाते रहेंगे.
इसके साथ यह भी स्पष्ट है कि सरकार अकेले निवेश का पूरा बोझ नहीं उठा सकती. मिसाल के लिए, इंफ्रास्ट्रक्चर में 100 लाख़ करोड़ रुपये का निवेश निजी क्षेत्र की भागीदारी के बिना नहीं किया जा सकता. वित्त मंत्री इस बात को समझती हैं, इसलिए उन्होंने मेट्रो-रेलवे प्रोजेक्ट्स के लिए पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) यानी सरकारी और निजी क्षेत्र के सहयोग की बात कही है. उन्होंने इसमें डेवलपमेंट फाइनेंस इंस्टीट्यूशंस से मदद लेने का भी ज़िक्र किया है, जिसके लिए एक समिति बनाने का प्रस्ताव है. लेकिन यह अच्छा आइडिया नहीं है. ऐसे संस्थानों की मदद लेने पर भले ही सस्ता कर्ज़ दिया जा सकता है, लेकिन इसमें सरकार को अपनी तरफ से अधिक पूंजी लगानी पड़ेगी. इतनी भारी-भरकम रकम लगाने का जोख़िम सरकार को नहीं लेना चाहिए क्योंकि उसके ख़तरनाक अंजाम हो सकते हैं.
वैसे भी देश में इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट का काम चुनौतीपूर्ण हो गया है. पिछले छह साल से पीपीपी प्रोजेक्ट्स की संख्या घट रही है. 2011-12 में 72,230 करोड़ के ऐसे प्रोजेक्ट्स चल रहे थे जबकि 2013-14 तक घटकर इनकी संख्या घटकर 66 रह गई थी. इन 66 प्रोजेक्ट्स में 2,460 करोड़ रुपये लगे हुए थे. वहीं, 2017-18 में इन प्रोजेक्ट्स की संख्या 7 और रकम 420 करोड़ रुपये रह गई थी. यह सिर्फ फंडिंग या कामकाजी दिक्कत नहीं है. इसकी वजह पिछले पांच साल में बिजनेस के तौर-तरीके में आया बदलाव है. बैंकरप्सी यानी दिवालिया संबंधी कानून, बेनामी लेनदेन पर सख्त़ी और गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) जैसी पहल से भ्रष्टाचारियों पर लगाम लगी है. कारोबार का पुराना ढर्रा दम तोड़ रहा है, लेकिन अभी तक इसके नए तौर-तरीके स्थापित नहीं हुए हैं. देश बदलाव के दौर से गुजर रहा है, जिसके पूरा होने में समय लगेगा.
लोकसभा चुनाव में मिली शानदार जीत से निर्मला को बजट में राजनीतिक रूप से दो संवेदनशील फैसले करने का हौसला मिला. पहले फैसले में उन्होंने बीमार एयर इंडिया को बेचने का प्रस्ताव रखा है और दूसरे में, पेट्रोल व डीजल के दाम में 2 रुपये प्रति लीटर की बढ़ोतरी की बात कही है. एयर इंडिया पर सरकार को ट्रेड यूनियनों की हड़ताल, सड़क पर प्रदर्शन और अदालती अड़ंगा डालकर सौदे को लटकाने जैसी कोशिशों का सामना करना पड़ेगा, लेकिन इस शोर-शराबे का सरकार के इरादे पर कोई असर नहीं होगा. दूसरी तरफ, पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाने से महंगाई बढ़ेगी. अभी खुदरा महंगाई दर 2.9 पर्सेंट के साथ काफी कम है, लेकिन इससे माल ढुलाई की लागत बढ़ेगी जिससे दूसरे सामान महंगे होंगे. पेट्रोल-डीजल के दाम में बढ़ोतरी से विपक्ष भी एकजुट हो सकता है, जिसके पास 2019 लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद कोई मुद्दा हाथ नहीं लगा है.
विपक्ष ‘सूट-बूट की सरकार’ का शोर मचा सकती है, लेकिन वित्त मंत्री ने पहले ही इसकी काट निकाल ली है. उन्होंने सालाना 2 करोड़ और 5 करोड़ कमाने वालों पर टैक्स बढ़ाने का भी ऐलान किया है. हालांकि, उनके इस कदम से पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दौर की याद ताज़ा हो गई है. उन्होंने 1970-71 के बजट में सालाना 2 लाख से अधिक की आमदनी पर मार्जिनल टैक्स रेट को बढ़ाकर 93.5 पर्सेंट कर दिया था. सुपर-रिच पर टैक्स बढ़ाने से सरकार की आमदनी में कितनी बढ़ोतरी होती है, इसका तो पता नहीं लेकिन इससे महंगाई दर और सरकारी कंपनियों को बेचने से भड़कने वाली आग बुझाने में ज़रूर मदद मिलेगी. अमीरों पर टैक्स बढ़ाने के कई अवांछित नतीजे भी सामने आ सकते हैं. इन सबके अलावा, निर्मला के पहले बजट में रेगुलेटरी सिस्टम को बेहतर बनाने की पहल की गई है. घर बनाने के लिए कर्ज़ देने वाली कंपनियों की निगरानी का काम नेशनल हाउसिंग बैंक (एनएचबी) से लेकर भारतीय रिजर्व बैंक को सौंप दिया गया है. इसी तरह से एनपीएस को रेगुलेट करने वाले पेंशन फंड रेगुलेटरी एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी से नेशनल पेंशन ट्रस्ट को अलग किया गया है. इन दोनों ही मामलों में वित्त मंत्री ने हितों का टकराव ख़त्म करने की कोशिश की है और यह आगे चलकर रेगुलेटरी व्यवस्था में बदलाव की नज़ीर बन सकता है.
कुल मिलाकर, बजट में सरकार के आर्थिक और गैर-आर्थिक लक्ष्य हासिल करने के लिए कई कदम उठाए गए हैं, लेकिन वित्त मंत्री का काम तो शुरू ही हुआ है. उनका इरादा साफ है और देश उस पर अमल होने का इंतज़ार कर रहा है.
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