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ब्रिक्स के विस्तार और इस संगठन के साथ जुड़ने को लेकर कुछ दक्षिण पूर्व एशियाई देशों ने जो रुचि दिखाई है, उसने काफ़ी ध्यान आकर्षित किया है. वैश्विक स्तर पर जो भू-राजनीतिक बदलाव हो रहे हैं, उन्हें भारत-प्रशांत क्षेत्र में संस्थागत प्रवाह के व्यापक संदर्भ में देखना होगा. इसके साथ ही इन्हें दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के हितों के भीतर स्थापित करना महत्वपूर्ण होगा क्योंकि वो भी इस बदलते भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक परिदृश्य से जुड़े हुए हैं.
हिंद-प्रशांत में संस्थागत तालमेल दुनिया में हो रहे बदलावों के लिहाज से अब भी बहुत दूर हैं. शीत युद्ध के दौरान, बदलते शक्ति संतुलन के बीच, अमेरिका ने इस क्षेत्र के देशों के साथ द्विपक्षीय गठबंधन स्थापित किए थे.
हिंद-प्रशांत में संस्थागत तालमेल दुनिया में हो रहे बदलावों के लिहाज से अब भी बहुत दूर हैं. शीत युद्ध के दौरान, बदलते शक्ति संतुलन के बीच, अमेरिका ने इस क्षेत्र के देशों के साथ द्विपक्षीय गठबंधन स्थापित किए थे. उसके संबंध दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) जैसे स्वदेशी बहुपक्षीय और दक्षिण पूर्व एशिया में फाइव पावर डिफेंस एग्रीमेंट्स (एफपीडीए) जैसे गैर-अमेरिकी मंत्रालयों के साथ सह-अस्तित्व में थे. शीत युद्ध के बाद की अवधि में, दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के संगठन (आसियान) ने भारत-प्रशांत क्षेत्र के संयोजक के रूप में अपनी भूमिका का विस्तार किया. उसे मजबूत किया, लेकिन इस क्षेत्र में विकास को बढ़ावा देने और नए उत्पन्न होने वाले संकटों को दूर करने के लिए नए संस्थानों का भी गठन किया गया. फिर चाहे वो एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग (APEC) फोरम हो या क्वाड. क्वाड का गठन 2004 में हिंद महासागर में आई सुनामी के बाद किया गया.
BRICS का प्रभाव
अगर इस परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो इस बात पर कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि 2010 और 2020 के दशक में संस्थागत प्रवाह का एक और दौर देखा गया. इसकी वजह ये रही कि इसी अवधि में ये क्षेत्र वैश्विक विकास केंद्र के रूप उभरा. एशिया महाद्वीप लगातार प्रगति कर रहा है. अमेरिका और चीन के बीच प्रतिस्पर्धा तेज़ हुई. ऐसे में नियम-आधारित व्यवस्था (आरबीओ) को लेकर बढ़ते असंतोष के बीच दक्षिण और दक्षिणपूर्व एशिया में संस्थागत प्रवाह का दौर आया. अमेरिका ने इस दौरान अपनी अगुवाई में जो तथाकथित संस्थाओं का नेटवर्क (लैटिसवर्क) बनाया था, उनके भीतर हुए बदलाव भी उल्लेखनीय हैं, चाहे वो ऑस्ट्रेलिया-ब्रिटेन-अमेरिका त्रिपक्षीय सुरक्षा समझौता (एयूकेयूएस) हो या फिर इंडो-पैसिफिक इकोनॉमिक फ्रेमवर्क (आईपीईएफ) हो. लेकिन इस बीच इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के देशों ने अपने संगठन बनाए. इन संस्थाओं में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) भी शामिल है, जो दुनिया का सबसे बड़ा मुक्त व्यापार समझौता है. इसके अलावा भारत-जापान-ऑस्ट्रेलिया त्रिपक्षीय समझौते जैसे गैर-अमेरिकी मंत्रालयों और चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) जैसे नए संस्थानों का उदय हुआ. एक जटिल विश्व में अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिए इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के देशों ने स्वदेशी कोशिशें शुरू की. इसे देखते हुए अब यहां अमेरिका की क्षेत्रीय प्रतिबद्धता के भविष्य को लेकर लंबे समय से जो सवाल उठ रहे थे, उन पर चर्चा तेज़ हो गई है. जैसा कि भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने बताया कि ग्लोबल साउथ के बारे में व्यापक धारणाएं ये हैं कि ये समूह "पश्चिम-विरोधी" के बजाय असंतोष के "गैर-पश्चिमी" स्रोतों के बारे में ज़्यादा बात करता है.
ब्रिक्स में रुचि रखने वाली दक्षिण पूर्व एशियाई सरकारों के साथ बातचीत से पता चलता है कि समूह के साथ जुड़ने के ज़ोखिमों को लेकर उनमें कुछ भ्रम हैं.
इस संदर्भ में देखें तो दक्षिण पूर्व एशिया के अलग-अलग देश अपने भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक हितों को साकार करने के लिए नई और बदलती संस्थाओं से जुड़ रहे हैं. दुनिया भी इस पर ध्यान दे रही है. उसे भी पता है कि इस क्षेत्र में करीब 700 मिलियन लोग रहते हैं. इस क्षेत्र के एक देश के बारे में 2040 तक दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का अनुमान लगा जा रहा है. उदाहरण कई हैं. इंडोनेशिया और थाईलैंड ने आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) में शामिल होने की अपनी कोशिशों में और ताकत लगानी शुरू कर दी. इन देशों के बारे में कुछ अधिकारियों का मानना है कि वो महामारी के बाद विकास की दौड़ में खुद को बेहतर स्थिति में ला सकते हैं. मेकांग उपक्षेत्र में बदलते विकास के बीच वियतनाम ने द्विपक्षीय साझेदारियों की एक श्रृंखला को अपग्रेड किया है. इन बदलते घटनाक्रमों में लंकांग-मेकांग सहयोग तंत्र के माध्यम से चीन की पैठ और एक प्रमुख त्रिपक्षीय आर्थिक समझौते से कंबोडिया का हटना भी शामिल है. सिंगापुर भी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) बातचीत में सक्रिय भागीदारी कर रहा है. डिजिटल आर्थिक साझेदारी समझौते जैसे क्षेत्रीय संधियां विकसित कर सिंगापुर डिजिटल क्षेत्र में मानकों को आकार देने की कोशिश कर रहा है. लाओस ने शंघाई सहयोग संगठन का भागीदार बनने के लिए आवेदन किया था. म्यांमार को पहले ही इसकी प्रदान की जा चुकी है क्योंकि वो तख़्तापलट के बाद अलगाव के बीच चीन और रूस दोनों के साथ घनिष्ठ संबंध रखता है.
दक्षिण पूर्व एशियाई देश, ब्रिक्स के साथ जुड़ने की इच्छा दिखा रहे हैं. इसे भारत-प्रशांत क्षेत्र और व्यापक दुनिया में उभरते संस्थागत प्रवाह के इस दौर में शामिल होने की उनकी कोशिशों की नवीनतम अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाना चाहिए. ब्रिक्स में रुचि रखने वाली दक्षिण पूर्व एशियाई सरकारों के साथ बातचीत से पता चलता है कि समूह के साथ जुड़ने के ज़ोखिमों को लेकर उनमें कुछ भ्रम हैं. कई देशों का मानना है कि ब्रिक्स ऐसा संगठन बन गया है, जहां रूस इस बात की कोशिश कर रहा है कि यूक्रेन युद्ध के बाद पैदा हुए वैश्विक अलगाव को कैसे कम किया जाए. कुछ सरकारें ब्रिक्स को ग्लोबल साउथ का दोहन करने के चीन-रूस के संयुक्त प्रयासों के हिस्से के रूप में देखती हैं. कुछ देशों में ब्रिक्स के अमेरिका विरोधी एजेंडे के प्रति असंतोष हैं. इन देशों को समझना होगा कि बीजिंग और मॉस्को के साथ संबंधों से परे भी उनके लिए अपने हितों और अवसरों की संभावना है. भू-आर्थिक रूप से देखें तो ब्रिक्स में इन देशों की रुचि वैश्विक शासन के मौजूदा स्वरूप के साथ लंबे समय से चली आ रही शिकायतों का संकेत देती है. मलेशिया के प्रधानमंत्री अनवर इब्राहिम ने भारत यात्रा के दौरान अपनी टिप्पणियों में स्पष्ट रूप से इसका उल्लेख किया है. उन्होंने नए देशों को अपना सदस्य बनाने की ब्रिक्स की समावेशिता पर भी बात की. अनवर इब्राहिम बहुपक्षीय समूह की अपनी केंद्रीयता चुनौतियों के बीच 2025 में आसियान की अध्यक्षता संभालेंगे. उन्होंने कहा कि नए सदस्यों के शामिल होने के बाद ब्रिक्स में वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का एक चौथाई से अधिक और दुनिया की लगभग आधी आबादी वाले देश शामिल हो जाएंगे. भू-राजनीतिक रूप से, ये प्रमुख शक्तियों के बीच प्रतिस्पर्धा के बीच संस्थागत संतुलन का भी हिस्सा हो सकता है. हाल की घरेलू चुनौतियों के बावजूद, थाईलैंड ने OECD और BRICS दोनों के साथ जुड़ने की इच्छा जताकर अपनी पारंपरिक राजनयिक सक्रियता से जुड़ाव के साथ इसे स्पष्ट कर दिया है.
हिंद-प्रशांत की भूमिका
हालांकि आने वाले दिनों में कुछ सवाल भी खड़े होंगे. सबसे बड़ा सवाल तो ये होगा कि दक्षिण पूर्व एशियाई देश ब्रिक्स के हितों के साथ-साथ अपनी व्यापक घरेलू और विदेश नीति प्राथमिकताओं के बीच ज़ोखिमों और अवसरों को कैसे पार करते हैं. इस मोर्चे पर स्थिति अभी भी अस्पष्ट है. इस अनिश्चितता के कुछ सबूत हाल ही में कज़ान में हुए ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में देखने को मिले. इस मीटिंग में पांच दक्षिण पूर्व एशियाई देशों- इंडोनेशिया, लाओस पीडीआर, मलेशिया, थाईलैंड और वियतनाम (म्यांमार ने भी पहले ब्रिक्स भागीदारी में रुचि व्यक्त की थी) शामिल हुए. मलेशिया और इंडोनेशिया ने ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के मौके पर न्यू डेवलपमेंट बैंक (एनडीबी) के प्रमुख से मुलाकात की, लेकिन एनडीबी निवेश का मूल्य अब तक मामूली रूप से 33 बिलियन डॉलर आंका गया है. अगर इसे बड़े पैमाने पर ठोस राष्ट्रीय विकास प्राथमिकताओं को वित्तपोषित करना है तो इसकी संरचना में सुधार करना होगा, साथ ही और ज़्यादा संसाधनों की ज़रूरत होगी. थाईलैंड और वियतनाम ने वैश्विक भू-आर्थिक परिस्थितियों में संतुलन की आवश्यकता, रणनीतिक बुनियादी ढांचे और आपूर्ति श्रृंखला जैसे क्षेत्रीय मसलों से जुड़ाव जैसे वैध मुद्दे उठाए. फिलहाल ये स्पष्ट नहीं है कि ब्रिक्स सिर्फ असंतोष व्यक्त करने वाली संस्था के रूप में काम करेगा या ठोस चुनौतियों का समाधान करने वाली संस्था के रूप में.
इन सब परिस्थितियों में बदलाव तब होगा जब ब्रिक्स खुद व्यापक संस्थागत परिदृश्य के साथ विकसित होगा. पिछले साल ब्रिक्स के सदस्यता विस्तार ने इस संगठन की अपील बढ़ा दी है. ग्लोबल नॉर्थ और ग्लोबल साउथ के बीच विभाजन को पाटने पर इस बैठक में उपस्थित संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने एक बड़ा बयान दिया. उनकी टिप्पणी वैश्विक शासन के आसपास बातचीत में ब्रिक्स की भूमिका का एक प्रमाण थी. लेकिन ब्रिक्स से जुड़े अधिकारी निजी तौर पर बातचीत में ये मानते हैं कि अतिरिक्त समावेशिता ने अन्य क्षेत्रों में भी चिंताओं को बढ़ा दिया है. ब्रिक्स को ये भी देखना होगा कि विस्तार के बाद जो नए सदस्य इससे जुड़े हैं, उन विविध सदस्यों के बीच हितों के संतुलन कैसे प्रभावित हो रहे हैं. इसके साथ ही ये भी देखना होगा कि दूसरे वैश्विक मंचों की तुलना में ब्रिक्स अपने सदस्यों के लिए क्या खास प्रस्ताव पेश कर रहा है. हाल के ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के नतीजे संस्थागत एजेंडे को डी-डॉलराइजेशन के प्रचार से परे ठोस क्षेत्रीय प्राथमिकताओं से जोड़ने की कोशिश करते हैं. इसे रेअर अर्थ, परमाणु चिकित्सा पर एक समूह और विशेष आर्थिक क्षेत्रों पर सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करने के लिए एक मंच के रूप में भी विकसित किया जा रहा है. हालांकि, इन सभी मुद्दों पर द्विपक्षीय, लघुपक्षीय और बहुपक्षीय मंचों पर भी चर्चा होती है. फिर चाहे वो दक्षिण पूर्व एशिया के भीतर हो या विश्व स्तर पर. इसे देखते हुए ब्रिक्स के सामने ये चुनौती है कि वो इन मुद्दों पर अपनी पैठ कैसे बनाता है और अपने प्रतिस्पर्धी मंचों की तुलना में ब्रिक्स के संस्थागत वातावरण में इनमें कितनी प्रगति हुई है.
इस समूह को समझना है तो सदस्यता के विस्तार और बढ़ती महान शक्ति के बीच वैश्विक शासन अंतराल के बारे में अलग-अलग दृष्टिकोणों को भी ध्यान में रखना होगा.
क्षेत्रीय और वैश्विक संस्थागत प्रवाह के व्यापक परिप्रेक्ष्य से ब्रिक्स में दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के हितों को नए सिरे से देखने की ज़रूरत है. जैसा कि एक दक्षिण पूर्व एशियाई अधिकारी ने कहा ब्रिक्स को बहुत ज़्यादा संकीर्ण चीन-रूस लेंस से नहीं देखना चाहिए. ऐसा करने से हम इस वास्तविकता को नजरअंदाज़ करते हैं कि ब्रिक्स (BRICS) का महत्व इसमें शामिल "संक्षिप्त रूप में अन्य अक्षरों" से परे जाता है. इस समूह को समझना है तो सदस्यता के विस्तार और बढ़ती महान शक्ति के बीच वैश्विक शासन अंतराल के बारे में अलग-अलग दृष्टिकोणों को भी ध्यान में रखना होगा. ये एक व्यापक और अभी तक अनसुलझे प्रश्न को भी झुठलाता है. सवाल ये है कि ब्रिक्स अपनी बढ़ती सदस्यता को किस हद तक बदल देगा, और सदस्यता का विस्तार ब्रिक्स को किस हद तक बदल देगा? इस सवाल का जवाब जो भी हो, शुरुआती संकेत बताते हैं कि दक्षिण-पूर्व एशियाई देश निश्चित रूप से भारत-प्रशांत क्षेत्र और उससे आगे संस्थागत प्रवाह की व्यापक प्रवृत्ति के भीतर इस बातचीत का हिस्सा होंगे.
प्रशांत परमेश्वरन विल्सन सेंटर में फेलो और आसियान वॉन्क न्यूज़लेटर के संस्थापक हैं.
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